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________________ २५] [शाः समुन्वय-२००३ इ० ३ ज्ञान के मश्व में वे के अनुसार कर्मो का अनुष्ठान प्रावि का प्रचलन न होता । श्रतः वेदार्थ का मनुष्ठान, वेदार्थ का ज्ञान श्रीर येवों का अध्ययन महाजनों द्वारा होता है अतः किसी नेवार्थज्ञ के द्वारा उसकी व्याख्या मानना आवश्यक है। यह व्याख्या किसी जीव द्वारा संपन्न नहीं हो सकती है क्योंकि यह अत्पन्न होता है और येवार्थ प्रत्यन्त विस्तृत और व्यापक है । अतः एव अनेक अर्थों से गभिनय की अन्जानेों को विश्वास नहीं पडता । इसलिये बेवों का व्याख्याता ऐसे ही पुरुष को मानना होगा जो संपूर्ण वेदार्थ को बिना किसी साधन के सहारे जानता हो। ऐसा पुरुष परमेश्वर से अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता (वेवविषयक विशिष्टज्ञानरूप धृति से अनुमान ) पुति का अर्थ है-धारा धारण का श्रर्म है विशेष प्रकार का ज्ञान। जिसे मेधा शम्भ से व्यषहुत किया जाता है। और कृयादि में आदि शब्द का अर्थ है अनुष्ठान | इस विशिष्ट ज्ञानात्मक भूि और अनुष्ठान से भी ईश्वर का अनुमान होता है, जैसे धृतिमूलक प्रमान का प्रयोग इस रूप में किया जा सकता है वेद वेविषयक जन्मधुति से अन्य भूति का विषय है क्योंकि पति का विषय भूत वाक्य है। जो भी पूर्ति का विषयभूत वाक्य होता है यह सब वेदविषयक जन्यवृत्ति से मन्यधृतिविषयक होता है जैसे लौकिकवाक्य महाभारत रामायण प्रभृति । भाशय यह है कि लौकिक वाक्य को प्रति वेदविभूति से प्रश्य है, क्योंकि वह जन्य धृति होते हुए भी वेदविषयक नहीं है। उसी प्रकार देव जिस वृति का विषय है उसे भी वेदविषयकभूति से ग्रन्य होना चाहिये और यह भूमि वेदविषयक होती है पति से अन्य धृति उसी दशा में हो सकती है अब उसे नित्य माना जाय । इस प्रकार यह भी सिद्ध होता है कि वेवविषयक नित्यज्ञान जो खेद को विषय करता है यह नित्यज्ञान जोव को हो नहीं सकता क्योंकि जीव में ज्ञान का सम्बन्ध साधनों द्वारा हो संपन्न होता है अतः उस तान के रूप में ईश्वर को स्वीकार करना आवश्यक है। ( यागानुष्ठान से अनुमान ) अनुष्ठान से तीसरा अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है जैसे यगयागकर्म यागविकर्म जन्यज्ञान से अन्य मानवाले पुरुषों से अनुष्ठित हुआ है। क्योंकि वह अनुष्ठित होता है । को अनुष्ठित होता है यह सब यागादि जन्यविषयक ज्ञान से अन्य जानवाले पुरुषों से अनुष्ठित होता है जैसे गमन भोजनादि प्राशय यह है गमनभोजनादि 'प्रस्माभिः गन्तव्यं, अस्माभिः मोमध्ये acurfare से युक्त पुरुषों द्वारा प्रतुति होता है और यह ज्ञान जन्यज्ञानरूप होने पर भी यागाfarrus न होने से यागाविविषयक जन्य ज्ञान से मन्य ज्ञान कहलाता है। उसी प्रकार योगादि जिस ज्ञान से होता है उसे भी यागाविविषयक जन्यज्ञान से श्रन्य होना चाहिये । और वह जान यतः यागादिविषयक है अतः उसे निश्य मानने पर हो वह यागादिविषयक अन्यान से अन्य ज्ञान हो सकता है। और शाम जीव में शाश्रित नहीं होता इसलिये उस के श्राश्रयरूप में ईश्वर की सिद्धि आवश्यक है। ( ॐॐ - श्रहं - ईश्वर श्रावि पव से अनुमान ] पत्र का अर्थ है 'प्रणव' नामक पद जिसे 'ॐ' कहा जाता है, और 'ईश्वर' मावि पद इस सेमी ईश्वरानुमान होता है जैसे-'' यह प्रणब पर और ईश्वरावि पर सार्थक है क्योंकि वह साध्य
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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