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। रा. पा. समुरुषाय स्ना -इलो ३
प्रत्ययताप्रमापा, 'षेदजन्यप्रमा चक्लपधार्थवाक्यार्थज्ञानजन्या, शाब्दप्रमावाद, आधुनिकवाक्यजशादप्रमायत् ।
श्रुतरांप । येदोऽपारिपुरुपप्रणीतः, वेदत्वान , इनि व्यनिरिणः । न च परमते साध्याऽप्रसिद्धिः, 'आत्मस्वमसंसारिकृति, जातियात्' इत्यनुमानेन पूर्व साध्यसाधनात् । संभव नहीं है क्य... नाक कुताय को ... मरने ना उस के निर्माण की विधि दूसरे से शीखनी होती है । अतः सष्टि के प्रारंभ में घट माविका प्रथम निर्माण करनेवाला बही पुरुष हो सकता है जिस को उस का निर्माण करने के लिये किसी दूसरे से शिक्षा लेने की पावस्यकता न हो। ऐसा पुरुष ईश्वर ही हो सकता है । इसलिये ईश्वर ही घट आदि का प्रथम निर्माता होने से घट प्रावि व्यवहार का मूल प्रवर्तक हो सकता है ।
विच के प्रमात्मक ज्ञान से वश्ता इंश्यर की सिद्धि] प्रत्ययतः-प्रत्यय से भी ईश्वर का अनुमान हो सकता है। प्रत्यय का अर्थ है प्रमा अर्थात प्रथार्थ ताम-इस ले होनेवाले अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होना है जैसे-वेद से उत्पन्न होनेवाली प्रमा वक्ता के यथार्थ वाफ्याचंझान से उत्पन्न होती है। क्योंकि यह पाद से उत्पन्न होनेवाली प्रमा है। जो प्रमा पाद से उत्पन्न होती है यह बक्ता के यथार्थ वा माझान से ही उत्पन्न होती है। जैसे आधुनिकबाश्य से उत्पन्न होनेवाली प्रमा। प्राशय यह है कि मनुष्य को जब कोई जान उत्पन्न होता है तब उस ज्ञान का सक्रमण करने के लिए अर्थात् उस माः को दूसरे मनुष्य तक पहुंचाने के लिये यह दापय का प्रयोग करता है और उस वायय से दूसरे .. उसी प्रकार का मान उत्पन्न होता है जिस प्रकार के मान का सक्रमण करने के लिये यवता मे वाक्य प्रयोग किया हो । यदि वक्ता का मान अयथार्थ होता है तो उस ज्ञान का संक्रमण करने के लिये प्रयुक्त होनेवाले यात्रय से उत्पन्न होनेवाला माम मी ममथार्थ होता है। और यति वक्ता का नान यथार्थ होता है तो उस के वाश्य से श्रोताको जत्पन होनेवालाजान पयार्य होता है इस प्रकार वाक्य से यथार्थजाम काजन्म यवता के यथार्थ घावयार्थज्ञानपर निर्भर है। वेव भी वाक्यस्वरूप है। अतः एव उस से उत्पन्न होनेवाला जान यथार्थ तभी हो सकता है जब वेश्यक्ता को वेदार्थ का यथार्थ ज्ञान हो । यत: वेद से होनेवाला जान यथार्य ज्ञान माना जाता है मत: यह मानना पावश्यक है कि वेद वक्ता को घेवार्य का यथार्थ मान है। घश यथार्षमान प्रामिक क्षमता को नहीं हो सकता। क्योंकि मानिक वयता को जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष अनुमान प्रावि प्रमारणों से ही होता है और स्वर्गफामो यजेत' इत्यादि वेदवाक्यों के अयं ज्ञान को प्रत्यक्ष अनुमान प्रावि से नहीं उत्पन्न किया जा सकता । मत: यह मानना प्रावश्यक है कि बेक का बरसा कोई असा पुरष है जिसे प्रत्यक्ष मनुमान मावि साघमों के बिना ही वेवाय का पथार्थशान हो जाता है। इस प्रकार जिस पुठष के वार्य विषमक यथार्थनान वारा वेव से होने पालो यथार्थ बुद्धि का उदय हो सकता है वह पुरुष ईबर से अन्य नहीं हो सकता।
[वेद किसो प्रसंसारी पुरुष से जम्प है] पुति-वेद से भी ईश्वर का मनुमान होता है । और वा अनुमान श्यतिरेकी होता है। उसका प्रयोग इस प्रकार होता है-जैसे 'बेव प्रसंसारी पुरुष नारा रचित है क्योंकि वह पेव है। जो प्रसंसारी पुरुष से रचित नहीं होता वह बेच नहीं होता-जैसे प्राधुनिक कामयादि । -इस अनुमान में यह का हो सकती है कि-'संसारी पुरुष की सत्ता में कोई प्रमाण न होने से 'प्रसंसारो पुरुष से रचित होना