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________________ [मारनपातममुनग एल० २-श्लो०५ अत्र समाधानमाइ आगमैकन्चातस्तच्च वायादेस्तुल्यतादिना । सुवृद्धसम्मवान नया पापक्षण का ॥५॥ आगमकन्यतः=ष्टाऽदृष्टसंवाद्यागमारकत्यात , 'सम्य तथान्यं समवसीयते' इति योजना, स्यादित्वात् संवादिजातीयत्वस्यापि प्रामाण्यन्यायशात् । अत एव जलादिक्षाने हएसंवादजातीयत्वेन प्रागेच प्रामाण्यनिश्चयाद निष्कम्पा प्रवृत्तिर्घटस इति भावः । भागपैकत्यमेव कश्यम् ? इत्याह -तकनगमैऋत्वं च वाक्पा माश्यपदगाम्भीर्यादेः, तुम्यतादिना ममत्रसीयने । नन्विदमयुक्तम् आगमानुकारेशा पठयमानेऽन्यत्रादि मत्तन्यतासचान , अनन्तार्थम्वादेश्च दुग्रहन्षाद , इत्थन आह-सुवसम्प्रदायेनसान चरणसम्पमगुरुपरम्परया । नन्वियमपि मियोविवादाक्रान्ता, सुशुद्धलप्रमापकहेन्वन्तरानुसरणे च तदेवागमकत्यग्राहकमस्तु, इत्यत आहतथा पापक्षयेण च सम्यक्त्वप्रतिवन्धककर्मक्षयोपशमेन च । 'अयं हि सर्वत्र यथावस्थितत्वआहे मुख्यो हेतुः, लब्धीन्द्रियरूरतदभिव्यक्तयवान्योपयोगात् , तदमिष्यक्ति व्यापारफतयेव तथा मृत्यमेन हेत्वन्तरसमुच्चयात' इति वदन्ति ||५|| है, किन्नु पाप आदि जिन वस्तुओं में उसका प्रमाणातर से सवाद का बॉम सम्भव नहीं है, उन वस्तुओं में उसका प्रमाणान्तर से संवाद मानना अथवा उन वस्तुप्रों में उस को प्रमाण मानना ठीक नहीं है। पापाय यह है कि प्रमाणान्तर से संवारितामयित होना प्रामाण्य का व्याप्प है, और आगम में चप्सका ग्रहण सम्भव नहीं है, अतः पापादियोधक आगम में प्रामाण्य का प्राहक संवाब न होने से उस में प्रामाण्य का निस्मय भय हैं | [प्रागमक्यावि से प्रामाण्य का समर्थन ] पाम कारिका में पूर्वकारिका में उठायी गयो शङ्का का समाधान किया गया है, जो इस प्रकार है लिम आगमों में प्रमाणातर का संबाब हरुट हैं और बिन मामों में प्रमाणान्तर का सबष्ट मही हैं, ये दोनों एक हो आगमई । प्राप्त. यह उचित नहीं है कि एक ही आगम का एक भाग प्रमाण हो और दूसरा भाग अन्नमाण हो। आशय यह है कि प्रमाणान्तरसंवा विस्व प्रामाम का ग्याथ्य है, से ही प्रमाणामारसंवाविजातीयस्क भी प्रामाण्य का व्याप अतः सिम आगमवचनों में प्रमाणान्तर का संघाव हण्ट नहीं है उन में प्रमागास्तरसंवादी आगमके सजातीयत्व से प्रामाण्य का अनुमान हो जायगा । इस प्रकार का अनुमाम अमित्र कृष्ट भो है, जैसे पहले पीए जल में पिपासाणामकस्म का निप्रय होने से तरक्षासोयत्व हेतु से बीम जल में पिपासाणामकाब का अनुमान हो कर उसके कान में पिपासको निर्वाध प्रतिमोतीहै। उक्त दोनों प्रागमो में एकत्वका निश्चय उम दोनों के बायो, पलों की गम्भीरता रखमाशेली आदिहीसमानता से सम्पन्न होता।शकाको जाप "आगम का अनुकरण करके रखेगमे नबीन बाययों में उक्त समानता हेतु तो एकागमस्व का पमिधारी है क्यों
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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