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________________ स्या०० टीका-हिन्दी विवेचन ] पिये पाधकमाह मलम् - अन्यथा वस्तुतचस्प परीक्षेव न युज्यते । आशङ्का सर्वगा ग्रस्माच्छ्रप्रस्थस्योपजायते ॥६॥ अन्यथा-उक्तरीत्या वंशपाऽविच्छेदे, वस्तुतस्यस्य परीक्षेव = सद्विचार एव न युज्यते यस्माद् हेतोः, छद्मस्थस्य = अक्षीणखानावरणीयस्य सर्वगा - सर्वार्थनियिणी, आशङ्का जायते ॥ ६॥ - [ x fus वश् तो अप्रमाणभूत परस्त्रों में भी मिलता है जहां एकागमश्य नहीं है। मगर का से एकागम का निर्णय करेंगे असे हृष्टसवाय आगम में अनन्तार्थता हैं इसे अनुवाद आगम में भो हैं तब भी वह अनसार है। अतः इस मे आग का अनुमान उचित न होने से दोनों में एकारामश्वय है" यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त हेतुओं से अनुमान सम्भव न होने पर भो जस्त विवि आगमों में एकत्व का शिव ज्ञान-वारित्र्य से सम्पन्न गुरुओं की परम्परा से हो सकता है । [ पापक्षय भी आगमकत्व का निश्चायक है ] fe यह शंका की जाय कि "गुरुओं को सुद्धता, मान-चारियता विवादग्रस्त है. उसके वयार्थ अन्य हेतु का पञ्चा पढने पर उसी से उक्त विविध आगमों में एकागमा नियम सभ में होने से गुरुपरम्परा को उसका निश्चायक मानना बिलगत नहीं है। अभिप्राय यह है कि गुरुपरम्परा मानसंपन्ना का निश्चायक कोई समोवीन हेतु सुलभ न होने से उस द्विधि अगमों में ऍrner का oar कर है तो आप का विषयक अभ्य हेतु म है कि पक्ष से अर्थात् समय के प्रसिध्धक कर्मों के योपाम से उक्त द्विविध ग्रामों में एकागमस्य का या जिन आगमों में प्रमाणाश्र का संवाद हट नहीं है उन में सम्यक्त्व का अर्थात् प्रामाण्य का दृढ निश्चय होने में कोई बाधा नहीं है। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष दुष्कर्मों से आकान्स होते है उन्हीं को जनस प्रकार के आगम वभ्रमों में प्रामाण का मिय नहीं होता किन्तु जिसके कर्मो का गुरुपरंपरा के प्रति श्रद्धा गुरुपदेश इत्यादि से योषम हो जाता है उन्हें उक्त प्रकार के आगम बचन में अनायास हो प्रामाप्य का विजय हो जाता है। वस्तुतस्ववादी विद्वानों का कहना है कि सके प्रति कमों का क्षयोपशम ही सर्वत्र वस्तु के यथावस्थितरण (सत्य स्वरूप) वास्तविकता के शान का मुख्य हेतु होता है. अन्य हेतु का उपयोग उक्त क्षयोपशम जिसको भी कहते है-को अभि के पावनार्थ ही होता है। कारिका में तथा शब्द से भोजन हेस्वन्तर का हो समुचय इसो घाशय से किया था है || २ || कारिका में पूर्व कारिका में उक्त अर्थ के विपरीत पक्ष में बाधक का प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है समय के प्रतिक कर्मों के क्षयोपशम से पवि अष्ट प्रमाणावर संचानाले आगमों में अमामायके कोमल न सामी जायेगी तो वस्तुतस्य की परीक्षा- यह वस्तु सत् और यह असत् है'इस प्रकार के चिन्तन को अब ही न हो सकेगा क्योंकि जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय नहीं हुआ है उसको सभी वस्तुओं को बास्तविकता में वांकर स्वभावतः होती ही रहती है ॥६॥
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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