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________________ स्या• • टीका-हिन्दी विवेचन] [६७ प्रवृत्यन्तरम् इत्यन्योन्याश्रयोऽनादिपदैन न दोषायेनि सूच्यते, मीमाऽस्कुरस्थलीयस्याऽन्योन्याश्रयस्योत्पत्ति-अस्यप्रतिबन्धकत्वेनाऽदोषत्वादिन्याशयः ||५१॥ अत्र प्रसङ्गाद् वातान्तरमाइ__ मृलम्-कालादीनां च का वं मन्यन्ऽन्ये प्रषाविनः | केवलानां तवन्ये तु मिथः सामाप्रपेक्षया ॥५२॥ अन्ये मयाविन: एकान्तबादिनः, कालादीनाम् , आदिना स्वभावादिग्रह, केवलाना परवलमहेतुरहितानाम् , कनु त्वम् असाधारणत्वेन हेतुत्नम् , मन्यन्ते । तदन्ये तुअनेकान्तवादिनः सामनयपेक्षया-सामग्रीप्रविष्ठत्वेन, मिश्रः-परम्परम , सहकाग्लिक्ष कत्वं 'मन्यन्ते' इति प्राश्ननानुषगः । इदमेवाभिहितं सम्मतिकारेण-[सम्मतिसूत्र 1"कालो सहाव-णिया पुण्यकर पुरिम कारोगता । मिमग्र ते चैत्र उ समासोति सम्मत्तं ॥१५०|| इति ||५२॥ नत्र पूर्व कालवादिमनोपपतिमाह-- उसी प्रकार संसार में आसक्त नीव भी कमेपोपवश जानवृत्त अथवा अनमान में वाहमा अपने अहित कमों में ही प्रवास होता है । कारिका के आरम्भ में कमे को अमावि कह कर यह मूचित किया गया है कि शिलष्टकर्म से बहितको में प्रवृत्ति का और अहितकर्मों में प्रवृत्ति से क्लिष्टकर्मों का जन्म होने से सायोग्याषम घोष को यात्राका महीं करनी चाहिये, क्योंकि इन दोनों की परम्परापेक्षा बीज और प्रकार की परस्परापेक्षा के समान प्रवाह से अनादि है अत इसमें अन्योन्याभयदोष नहीं हो सकता, क्योंकि यह परस्परापेक्षा एक दूसरे को उत्पत्ति प्रषवा शक्ति में प्रतिबन्धक नहीं होती ॥१॥ (कालादि को हेतुता का प्रासङ्गिक विवेचन) प्रस्तुत विचार के सन्दर्भ में प्रत्लङ्गवा अम्प मसों को भी चर्चा ५२ वी कारिका से प्रारंभ की गयी है। कारिका का अर्ष इस प्रकार है कुछ एकातिवादी विचारक एकमात्र काल या स्वभाव आदि को हो कार्य का हेतु मानते हैं। उमसे मिन्न अनेकारतवादी विचारक काल आदि को कारण मामते है पर सामग्री-कारणसमूह के पटकक्ष्य में प्रात् काल आदि भी कार्य के अन्य कारणों के सहकारी होकर कार्य के कारण होते हैं। यही पात सम्मतिकार ने अपनी कालो सहाय' गापा में कही है। गामा का अर्थ इस प्रकार है "काल, स्वभाव, नियति, पुरुषकार और पूर्वकर्म को अकेले कार्य का कारण मानमा मिव्यास है और अन्य कारणों के साथ सामग्रीधरक के रूप में उन्हें सहकारी कारण मानना सम्यगृष्टिपन है।" १-कामः स्वभाव-नियती पुर्वकृतं पुरुषःकारणकान्ताः । मिथ्यात्वं ते एव तु समासतो मयमित सम्यक्स ॥ - - ---
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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