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________________ ६) [ शाल वा० समुरुषय स. २-इको०-५१ स्वव्याप्यस्य रागद्वे पाद्यध्ययसाथलक्षणस्य भावकर्मणः परिणामित्वलझणस्वातन्त्र्येा कत स्वस्, व्यवहारण तु योगविशेष म्यव्यावद्धक योगध्यापारस्वति-यण कत त्यमिति विवेकः ।।५०|| ननु पद्यात्मैव कर्ता, तदा हितमेवाऽयं कुपति, नाहितम् , इत्यत्राहमृलम्-अनाविकर्मयुक्मत्वात् तन्मोहासंपवर्तते । अहिलऽप्यात्मनः प्रायो च्याधिपोडिसचित्तवत् ||५१|| स आत्मा, आत्मनः स्वरूप, अहितेऽपि हिंसाधनुष्ठानेऽपि, अनाविकर्मयुक्तावाद हेतोः, सम्मोहात-फर्मनितमोत्या , संग्रवतेते माया बाहूल्यन, किंवत् ? इत्याइव्याधिपीडितचित्तवत्-रोगाकुलहृदययत् । यथा व्याधितोपथ्यं जानन अजानन या बहुकालस्थितिकन्याविमहिम्नाऽपथ्य एवं प्रवर्तते, तथा संसार्यपि जानन अजानन वाऽहित एव प्रायः कर्मदीपान प्रवर्तत इति भावः । अाहितप्रवनी क्लिष्टं फर्म हेतुः नत्र बाहित __..----.. अनुमित होता है, यह उस कर्म के अन्य कारणों से अप्रयोश्य सपा मम्य सभी कारणों का प्रयोजक होमे से उस कमको उत्पन्न करने में स्वतन्त्रहोने के कारण उसका कर्ता होता। पहनातव्य है किकर्मको प्रकारकोतेभावक और नया आदि MARRRRRH को भाषकर्म कहा जाता है।बह निश्चयमय की दृष्टि से जीवसे पथकम होते जीवका व्याप्य हाता है। चा भावकम रूप में परिणत होने में जीव स्वस्तात्र होता है अतः वह उनका परिणामी कार्या होता है। 'मावकों द्वारा काम ग पराणा के पुद्गलों का आत्मा के साप सालेष होने से बाह्य कम पंधन होते हैं तथा कर्म कहे जाते हैं. जैसे उन माम से प्रेरित जीववध आदि से आत्मा पर चिपकने वाले शानाधरण आदि कर्म पृदगल । ध्यपहारनय को दृष्टि से ये कर्म विशेष प्रकार के संयोग से जोष के व्याप्य होते हैं, उन कर्मी के प्रति कोष में योगण्यापाररूप स्वातम्य होता है। अतः बीच उन कर्मों का भी कर्ता होता है । भाषकर्म और द्रापकर्म के विषय में जीव स्वातय कर उक्त अन्तर विशेषकर से मोदय है ।।५०|| (कमजनित मूढता से प्रहित में प्रवृत्ति) अपमे सभी कर्मों का जीव यदि स्वतन्त्र का है तो उसे अपने हित कमो का ही अनुष्ठान करना चाहिये किन्तु वह हित कयों का भी अनुष्ठान करता है, ऐसा क्यों | ५१ वो कारिका में इस प्रपन का उसर दिया गया है। कारिका का अर्ष इस प्रकार है जीव कम की अनादि परम्परा से युक्त है, अतः कर्म मनिल मोह से ग्रस्त होकर वह अधिकतरमपमे अहित कमों में ही बीचि से प्रवृत्त होता है। यह बात गम्भीर रोगी के दृष्टान्त से समझी जा सकती है। जैसे एक गंभीर रोगी. मिसका विस रोगजन्य पीडा सं विक्षिप्त रहता है। बोकाल से बसे प्रोड्ये रोग के प्रभाव से वह जाने-अनजाने अपड्य सेवा में ही प्रवृत्त होता है।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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