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स्था का टीका-हिन्दी विवेचन ]
ततश्च अन्यागमानां दृष्टेष्टविरुद्धत्वेनाऽप्रनिपशवारच, इति=पूरोक्तम् , अदः= वर प्रत्यक्षं हिमादिभ्योऽशुभादि इत्यादि, स्थितम् अप्रामाण्यशङ्काविरहितेनाऽऽगमप्रमाणेन सिद्धम् ॥४९॥
तता सिद्ध प्रतिनियत फर्म, तच्च करिमाक्षिपति, इति तथा स्वात्मन एव, इति निषमयति
मूलम्-क्लिष्टं हिसाउनुष्ठानं न यत्तस्यान्यतो मातम् ।
सतः कर्ता स च स्पान् सस्पैष हि कर्मणः ॥५०॥ क्लिष्ट - रौद्राध्ययसायपूर्वकम् , प्राणिघाप्ताद्याचरणम् . इदम्पलनणमविलाचरणस्य, यन्-यस्माद्धेनोः तस्य आत्मनः, अन्यत: स्वातिरिक्तव्यापारवता, न मतनाऽभीष्टम् , देवदनयोगेन यज्ञदनानुष्ठानाभावात् । ततः तस्माद्धेतोः, स पवअधिकृतात्मैव दि निचिनं सर्वस्यैव-स्वीहिताऽहितकरणः, कर्ता म्यान , स्वव्यारवस्य कर्मणः कारणान्तराप्रयोज्यत्वे मनि कारणान्तरप्रयोजकत्वलक्षणस्वातन्त्र्येण हेतुवात् । अत्र निश्चयतोऽपृथग्भाषेन
भागम से भिन्न तभो भागमों को हिमा आदि से दूषित मार्ग का उपदेश करने, सर्वज द्वारा प्रतिसन होने, तथा कुर एवं युवंठि मनुष्यों से परिग्रहीत होने के कारण भप्रमाण घोषित करते हैं।
उक्त रीति से अन्य आगमों में रष्ट और कट का विरोष होने से थे नामम के विरोध में नहीं खडे हो सकते । इसलिये हिसा प्रावि में अशुभ-पाप होता है और अहिंसा प्रादि से शुभ पुण्य होता है. यह पूर्वोक्त विषय नागयरूप प्रमाण से मिप्रतिबन्ध सिद्ध होता है क्योंकि नागम में अत्रामाग्म की शाम का होने को कोई सम्भावना नहीं है ||४||
[प्रास्मा हो सभी कर्म का फर्सा है] प्रशस्त कर्म से पुण्य और अप्रशस्त कर्म से पाप का जन्म होता है नपा अमुक कर्म प्रशस्त और अमुक कर्म क्षप्रशस होता है. यह तथ्य जनागम से मिळू है। साथ ही यह सथ्य भी उसो से सिद्ध किम जब होता है. उसे चेतना की अपेक्षा होती है. और भो कर्ता उसे अपेक्षित होता है वह जीव से अतिरित नहीं होता है,५.वी कारिका में इसी तय का वर्णन है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
क्लिट कर्म का प्रर्थ है अध्यवसाय से होने वाला क्रम-जसे प्राणीवर आदि । यहाँ क्लिष्ट पर मक्लिष्ट आचरण का भी सबक है, किलर और अफ्लिन्द सभी असरण बोपद्वारा हो सम्पादित होते है जो मिन्न उनका ऐसा कोई कर्ता मान्य नहीं है जिसके व्यापार से जन आचरणों का सम्पादन होता हो, क्योंकि वेवास के व्यापार में यज्ञवस के कर्मों का अमुहानमहीं होता। इसलिये तत्सत् कर्मों के फल के लिये अधिकृत मारमा हो मिश्चितमप में भपमे सभी हिAIfस कमौका होती है। जो कम जिस जीव का व्याप्य होता है अर्थात् जिस कम से उसके जपावनाको कारण