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________________ [ शा. वा. समुच्चय स्त २-३०४९ ६४ ] उ-ये चकुः क्रूरकर्माण: शास्त्र हिंसोपदेशकम् । पव वे यास्यन्ति नरके नास्तिकेभ्योऽपि नास्तिकाः १ ||३७|| दरं वराश्चार्वाको योऽसी प्रकटनास्तिकः I घेदोक्ततापसच्छच्छन्नं रक्षो न जैमिनिः ||३८|" [योगशास्त्र-द्वि०प्र० • इति । वेदाप्रामाण्यं पापकर्मेण प्रवर्तकस्यात् परपरिगृहीतत्वाच्च विभावनीयम् इति फिमतिहिंस्रेण सह बहुविधारणाया १ ||४८ || याज्ञिकागमेष्टाभ्यां विरुद्धतामुपदर्श्य, अन्यत्राऽप्यतिदिशमाह - मूलम् अन्येषामपि बुडचैवं शुष्टाभ्यां विरुता 1 दर्शनीया कुशाम्त्राणां तत स्थितमित्यवः ॥१४२॥ अभ्येषामपि = आजीवका श्विन्धिनाम् एवम् उपदर्शितप्रकारेण या = विचारणया कुशास्त्राणां शास्त्रामा सानाम् दृष्टेष्टाभ्यां विरुद्धता दर्शनीया, उपदर्शितजातीयत्वेन सर्वेपामपि तेषां दुष्टत्वात् तदुक्तं स्तुनिकता 1 “हिंसादिसंसक्तपथोपदेशादसर्वविन्मूलतया प्रवृत्तेः । नृशंमदुषु द्विपरि मस्त्वदन्यागममप्रमाणम् ॥ १॥ [ अ. व्य द्वात्रिंशिका का० १०] इति । बन्ध और प्रदेश बन्ध को आप करके कर्मबन्ध का जनक प्रयोग रूप हिंसा होती है और इसी प्रकार स्थिति बध और रसबन्ध की जनक शिक्षा क्लिटव्यवसायात्मक होती है अर्थात् मादयोग और लिपटाध्यवसाय में दोनों जनमत में हिसारूप है और उन दोनों से प्रकृत्यादि बहुविध क होता है। इस विषय का विशेष विचार अन्य यह सब कहने का निष्कर्ष यह है कि हिंसा में अहिंसा का समर्थन करने के लिये बंद का [अवलम्वनमान अनर्थ का मूल है। जैसा कि योगशास्त्र में कहा है कि जिन क्रूरकर्मी पुरुयोंने हिसा कापवेश करने वाले शास्त्रको रचना की है व प्रसिद्ध नास्तिकों से भी बडे नास्तिक हैं, वे किस मरक में जायेंगे, यह नहीं कहा जा सकता प्रकट नास्तिक मेवारा धाक कहीं अच्छा है उस ववश मिसे, जो तपस्वी के रूप वेब से हका हुआ परोक्ष राक्षस है। यह निविभाव सक्ष्य है कि पाचक्र में प्रवर्तक और चोल वंश भगवान अर्जुन के पवित्र प से विमुख समाज द्वारा परिगृहीत होने से वेब अप्रमाण है। अतः ऐसे बेदवादो लोगों के साथ, जिनको वृति अत्यन्त हिय है. अधिक विचार करना अनुचित है ॥४८० उक्त रोति से पाक्षिकों के वेदात्मक मागम में रष्ट और इष्ट का विशेष बताकर ४५ वी कारिका में अन्यत्र भी उसका प्रतिवेश बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है जिस प्रकार बेव आदि में भ्रष्ट और इष्ट का विशेष है उसी प्रकार अन्य आशीवामिमानुयायी शास्त्र भासों में भी हृष्ट और हृष्ट का विरोध समझना चाहिये क्योंकि वे सब शास्त्रास भो और इष्ट का विरोध प्रार्थी द्वारा प्रतिपारित हो चुका है। जैस कि स्तुतिकर्ता आचार्य हेमचन्द्र ने भगवान हो सबोषित करके कहा है कि हे भगवान् केही सजातीय हैं. जिन में
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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