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________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचन ] [६३ मरणग्यापाविशेषणवाव । न चंवं याशिकानामपि कत्राहिमाया शुभगंकल्पाद्न दोष इनि घाच्यम , विधिजन्यमोशेच्छाया एवं शुभसंकल्पपदेन ग्रहणात । अत एक राज्यादिनिदानार्थमनशनमप्यात्महिमा चदन्ति तान्त्रिकाः । थ्यमाचोभयहिंसालक्षणं चैतन , कपंन्धजनकमा तु प्रकृतिप्रदेशावाश्रित्य प्रमत्नयोगन्येन, स्थिति मी पाश्रित्य क्लिष्टाश्यवसायत्वेन, इत्यन्यत्र विस्तरः । सम्माद् हिमायामहिंसात्वं समान्यता पापी वेदायलम्पनमपि महतेऽनर्थाय । करता और उस समय उमसे कोई मर जाता है तो उस समय मनुष्य जीव का हिंसक हो जाता है और उसे जीव हिंसा का पाप लगता है। इसीलिये जीवमरणानक मरणयापार आदि अमिष्तजनक व्यापारों से बचने के लिये मैनशासम में धुग याने शकट के अग्रभाग से परिमित भूमि तक के भाग को सावधानीपूर्वक प्रेक्षकर चलने का आदेश दिया गया है और उसे ईयोसमिति आदि शवों से व्यवहत किया गया है। प्रश्न होता हैं कि-"मरणानुकल व्यापार से होने वाला प्राणहरण हिसा हैं-इतना हो लक्षण पणेनों किया जाता 'लीवमरणानकलण्यावार का विघटन करनेवाले व्यापारसना के अभाव में होने वाला प्राणहरण हिंसा है इसने यो लक्षण को क्या आवश्यकता है इस प्रश्न का उत्सर या कि प्रभाव होने पर भी जो हिसा हो जाती है उसे पापजनक हिंसा नहीं माना जाता किन्तु मरणानुकलण्यापार से होने वाले प्राणहरणको पापजनक हिमा का लक्षण मानने परम हिमा में भी लक्षण को अतिव्याप्ति हो जायगी । उक्त गृह सक्षण स्वीकार करने पर पर शका हो सकती है कि-"अप्रमादशा में पलना के लिये सतर्क रहने पर भी जीव को विद्यमानता का अशाम जो मुगातया नित्य जीवके वर्तमान शरीर से मोक्तव्य कर्मों के उपयवश होता है. उसका विषहम न हो सकने के कारण भी जीव का माण होता है, अतः इस अप्रमश हिसा में इस लक्षण की मो पतिव्याप्ति होगी-" किन्तु यह शल्का उचित नहीं है, क्योंकि लक्षगघटक जीवमरणानुकुल व्यापार में शक्य विघटनस्व का निवेश कर देने से इस दोष का परिहार हो सकता है, क्योंकि अनामोग का विघटन शक्य नहीं होता। अतः अप्रमावस्थल में जीवमरणामुकुल विघटनयोग्य व्यापार के विघटक व्यापाररूप यसमा का अभाव न होने से अप्रम साहिता में अतिध्यारित ही हो सकती। यह प्रश्न हो कि-"मोक्ष के लिये किये जाने वाले समान आषितप में भी इस क्षण को अति. पालि होगी । और इसका वारण करने के लिए यदि अन्य जोष के प्राणम्यपरोपण का समग में निवेश किया जायगा तो आत्महिंसा में अव्याप्ति होगी," इसका उत्तर यह है कि लक्षण के हारीर में प्राण अपरोपण में शुभसंकल्पापूर्वकरणका निवेश करने से यह घोष नहीं हो सकता, क्योंकि मोशा किया जाने वाला अनशन भावि तप शुभसंकल्पपूर्वक होता है अत उसमें शुभतंकल्पापूर्वकस्व मही रह सकता । ऐसा करने पर यात्रिकों की चाके अङ्गभूत हिसा भो शुभसंकल्प पूर्वक होने से हिसा के प्रस्तुत क्षमसे संगृहीत न होग' यह पाकका नहीं की जा सकती, क्योंकि शुभ-सकल्प-1 से मोल की विधि से जन्म इसका ही अभिमत है। इसीलिये दूसरे भव में राज्य प्राप्त करने की इच्छा से वो अभ. शन किया जाता है नसे भी आइतसिद्धान्त के शाता आत्माहिसा कहते हैं। आहंत रषि द्वारा प्रस्तुत यह हिसाला वापहिला और भावहिसा इन दोनों प्रकार की हिसाओं का समाण है, किन्तु प्रकृति
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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