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साचादपि तु समर्थ यति
मूलम् - परमेश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मेय वेश्वरः । स च कर्मेति निर्दोषः कर्तृचादो व्यवस्थिमः ॥१४॥ परमैश्वर्ययुक्तत्वात् = निश्वयतो घनावृतस्यापि रवेः प्रकाशस्वभाव कर्मावृतस्याऽप्यात्मनः शुद्ध-बुद्वैकस्यापत्ये नोत्कृष्ट केवलज्ञानाद्यतिश्च यशालित्वात्, आरमेय-जीव एव बा. ईश्वरो मतः ईश्वरपदेन संकेतितः । स च जीव कर्ता-साक्षात्कर्ता इति हेती, निर्दोष:- उपचारेणाऽप्यकलङ्कितः, कथाव:- ईश्वरकत्वोपदेशः, व्यवस्थितः प्रमाणसिद्धः । अत एव "चिश्वतश्वशुरु विश्वतोमृग्यः" इत्यादिका श्रुतिरप्युपपद्यते जीवस्य निश्यतः सर्वक्षत्वात्, अन्यथा रागाचावरणविलये तदाविर्भावानुपपत्तेः ।
[शा पा० समुच्चय-१० ३.१० १४
"उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य विभत्र्त्यव्यय ईश्वरः ।। [गीता अ. १५ली. १७ ] इत्यादिकमप्युपपद्यवे, आवृतस्वरूपा नानृतम्यरूपस्य भिश्रन्वात् चैतन्यात्मक महासामान्येन लोकत्रयायेशाद् ग्राप्राकारकोडी कृत्येन तद्भरणाच्य, इत्यादिरीत्या यथागमं पराभिप्राय उपपादनीयः ॥ १४॥
होता है। और यह कार्य जब कल्पित उदाहरण से भी सम्पन करना शास्त्रसम्मत है तब इस कार्य को उपचार द्वारा सम्पन्न करना युक्त हो से इस में श्या संवे ? ।।१३॥
[आत्मा हो परमात्मा होने से निर्वाध कर्तृत्व ]
पूर्व कारिका तक ईश्वर में कर्तृस्व का समर्थन उपचार द्वारा किया गया है किन्तु प्रस्तुत १४ व कारिका में ईश्वर के वास्तव कर्तृत्व का समर्थन किया जाता है | कारिका का अर्थ इस प्रकार हैजिस प्रकार सूर्य मेघमल से होने पर भी नियष्टि से स्वभावतः अश्शामक रहता है उसी प्रकार विविधकर्मों से आवृत भो मारमा स्वभावतः शुद्ध स्वरूप ही रहता है । अत एवं उस समय भी उस में केवलज्ञानवि के अतिशय अक्षुण्ण रहते हैं। और आत्मा की यह शुद्धबुद्धला एवं ज्ञानवि के अतिशयों की संता ही जीव का परमेश्वर्य से सम्पक्ष होना है और इसम चम्म सार्वदिश परमंश्वयं के कारण जीब को ही ईश्वर माना जाता है एवं जीव निर्मिताय रूप से वास्तविक कर्मा है और जम जीव ही ईश्वर है तो ईश्वर का वास्तव कर्तृश्व भी निविद हैं। अतः ईश्वरवाद निर्दोष अर्थात् अनौपचारिक रूप में प्रमाणचि है । जीव के
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सोने के कारण 'विश्वतश्चक्षुः उत विश्वतोमुखः इत्यादि श्रुति द्वारा उसे सर्ववर्शी और सर्वोपवेष्टा आदि बनाना भी उपरस हो जाता है। जीव को सायंकालिक सर्वज्ञता स्वीकार करना परमावश्यक है क्योंकि यदि उस में सहज सर्वज्ञता न होगी तो रामावि अधरणों का विलय होने पर उसका आदि न हो सकेगा। गीता में परमात्मा को अन्य आत्माओं से भिन्न उत्तम पुरुष कहा गया है और तीनों लोक में आविष्ट होकर उन का शाश्वत धारक का है। गोला का यह कथन भी जीवेश्वरश्व पक्ष में निर्वाधरूप से उपपन्न हो सकता है, क्योंकि रागावि से आवृत आत्मस्वरूप से रागाधि