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________________ म्याक टीका-हिम्पीविवेचना ] '[३ न दुष्यसि, "अमुल्यने करिशतम्" इत्यादिवत् यथाकश्चिदुपचारेण व्यवहारनिर्वाहादिति भावः ॥१२॥ नन्त्रीशकल्पनाया को गुणः १ इत्यवाह मूलम्-कायमिति ताक्ये यता फेषाभिषापरः । ___अतस्तवानुगुण्येन तस्य फत् स्ववेशना ||१|| 'अयम्=परः कर्ता' इति हेतोः तद्वाफ्ये-नरवाक्ये सिद्धान्ते । 'अयं कर्ता' इति तदाक्ये प्रसिद्धवाक्ये वा, यतः केचित्-तथाविधभद्रविनेयानाम् , पावर:-स्यरसवाहिश्रद्धा. नात्मा भवति, अतस्तादानुगुण्येन-तथाविधविनेयपद्धाभियद्धये, सस्प-परमात्मना कायदेसना=कर खोपदेशः । श्रेवमायाभिवृद्धधर्थो हि गुरोरुपदेशा, सा च कल्पितीदाहरणेनापि निर्वायते, किं पुनरुचारेण ? इति भावः ॥१३॥ [माजाविलोपन द्वारा भवता] पूर्व कारिका में विर को मुक्ति कर्ता बताया गया है। पौर प्रस्तुत १२ वी कारिका में बह जगत का कर्ता कैसे होता है इस बात का प्रतिपादन किया गया है । कारिका का प्रर्ष प्रसप्रकार है परमेश्वर द्वारा उपविष्ट प्रतों का सेवन न करने से हो जीव को पाहतवरूप में संसार की प्राप्ति होती है. क्योंकि संसार का मूल प्रविति है । और उत्त का प्रतियोगीविषया प्रथाजक है विरति प्र.वि। मत: उत्तरोत्या संसार के प्रयोजक का उपदेष्टा होने से पवि ईश्वर में संसार के कर्तृत्वको कल्पना कोजाय तो कोई दोषहीं हो सकता, क्योंकि संसार का यह कर्तृत्व संसारजनककुतिरूप पास्तविक मतृप महीं है, अपितु प्रौपचारिक कर्तृत्व है। प्रत: 'ईश्वर संसार का कई है। इसका अर्थ है कि वर से वनों का उपवेष्टा है जिस का सेवन न करने से संसारममताईवर में संसारकतत्व का यह पौपचारिक व्यवहार उसी प्रकार उपपत्र किया जा सकता है जिसप्रकार 'प्रगुल्यने कारशतमम्प्रहगुल के अप्रमाग में सौ हाथो खडे है। यह व्यवहार प्रगुली के प्रभाग से सो हामी को गिनती होने के प्राचार पर उपपत्र किया जाता है ॥१२॥ (ईश्वर भक्ति में वृद्धि के लिये कर्तृत्व का उपदेश) १३वी कारिका में इस जिज्ञासा का समाधान किया गया है कि ईश्वर में ससार के प्रोपपारिक कर्तृत्व को कल्पना का या प्रयोजन है ? कारिका का मर्च इस प्रकार है कतिपय महशील मिच्यों को ईवर के वचन में इसलिये प्रावर होता है कि घर का है इस विश्वास से पढ़ होते है अथवा विर का है इस प्रसिद्ध लोकोक्ति में उन को श्रद्धा होती है। अत: ऐसे शिष्यों को विर के प्रतिमा की अभिवृद्धि के अभिप्राय से परमात्मा से मसूत्वका प्रतिपावन मायक होता है। मायाम यह है कि बीता के भाव का संवर्ष हो गुरु के उपदेशका फा
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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