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{शावा. समुरुपय स्त० ३-लोक-१२
अत एव भगवन्तमूहिश्याऽऽरोग्यादिप्रार्थना | सार्थका-ऽनर्थकचिन्तायां तु भाज्यमेतत् , चतुर्थभावारूपस्यात् , इति ग्रन्धकष ललितविस्तरापासबमम् । अप्रार्थनीये कर्तरि प्रार्थनापर विधिपालनपलेन शुभाध्यवसायमाप्रफलत्वादिति निगः ॥११॥ अस्त्येव मुक्तिक त्वम्, भयकर्तृत्व तु रूप १. अत आह
मूलम्-तवनासेवनावेष यससारोऽपि तावता ।
तेन तस्यापि कार स्वं कल्प्यमान न कुष्यति ॥१॥ तदनासेपनातन्तदृक्तताऽपालनादेव। यत यस्मात्र, तत्त्वतः परमार्थतः, संसारोऽपि नीवस्य भवति, अपिरतिमूलत्वात् तस्येति भायः, सेन हेतुना, तस्यापि क त्वं कल्ल्यमानम-स्वहेतक्रियाविरुद्धविधियोधितोपासनाकापरेण फत् खपदेन बोध्यमानम् जैसे प्रसाव होता है तो प्रसाव से नियमबद्ध रोष-अप्रासाद मी होता है जिस से वह अन्मों के प्रनुग्रह मौर निग्रह का कर्ता होता है, ऐसा रोष अप्रासाप परमात्मा में महीं होता। तथापि जसे चिन्तामरिण में रोष प्रौर प्रसाद न होने पर भी स्वभाव से ही उससे मनुष्य के वोधित को सिद्धि होती है ससी प्रकार परमेश्वर की उपाप्तमा परमेश्वर वस्तु के सहज स्वभाववश मनुष्य के लिये फलप्रय होत है। इसलिए जैसे चिन्तामणी के सम्पर्क से वांछित को प्राप्ति होने से चिरतामणी पोलिस का राता कहा जाता है उसीप्रकार परमात्मा को उपासना से विभिन फलों की प्राप्ति से वह विभिन्न फलों का वाता या कर्मा कहा जाता है। और इसलिये भगवान से प्रारोग्यावि की प्रार्थना भी की जाती है। वह प्रार्थना सार्थक होती है या मिरर्थक होती है इस प्रश्न का उत्सर भजना-अपेक्षामेव मे विया जा सकता है जो चतुर्थ माषा के रूप में प्रस्तुत होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि यदि यह समझा जाय कि प्रार्थना से परमात्मा प्रसन्न झाकर मारोग्यादि को प्रदान करते हैं तो इस दृष्टि से प्रार्थना निरर्थक है। क्योंकि प्रार्थना से बीतराग परमात्मा के प्रसन्न होने की कल्पना प्रसङ्गत है। पर यदि इस रष्टि से विचार किया जाय कि परमात्मा को प्रार्थना में ऐसो स्वामाविक शाक्ति है जिस से प्रारोग्यावि की प्राप्ति होती है तो इस दृष्टि से प्रार्थना सार्थक है। इसलिये भगवान से मारोग्यादि की प्रार्थना सार्थक है या निरर्थक है इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि प्रार्थना 'स्यात् सापिका, स्यात् मनपिका' इस विषय को मूल पन्थकार हरिमारिजीने 'ललित विस्तरा' में स्पन्द्ध किया है। निस्कर्ष यह है कि कर्ता प्रापनीय न होने पर भी उसकी प्रार्थना का शास्त्र में विधान होने से उस का पालन पावश्यक होता है और उस पालम से शुम पश्यबसायको उपस्धि होती है । इस रीति से गुमाध्यवसाय को उत्पारिका प्रार्थना का विषय होने के कारण परमात्मा को कर्ता कहा माता है ।।११॥
माषा ४ प्रकार की दोषी है- सस्पभाषा , भसवमाषा, सत्यासत्य मिभमा ४ सस्प। सत्य (सबहार)मााइन में से पीतराग के प्रति प्रार्थना, यह व्यवहार नाम की चतुर्थ माया स्वरूप है- सत्य न असत्प, किन्तु नाममद प्रशस्ति पदायपहार ।