________________
स्या ३० टीका-बिपीविवेचना ]
मूलम्-ईश्वरः परमात्मंघ तक्तसतसेषनात् ।
पतो मुफ्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद गुणभाषतः ॥११॥ श्वरः परमात्मैव-कायादेहिरात्मनो ध्यानभिमत्वेन ज्ञेयादन्तरात्मनय तइधितापफस्य ध्यातुध्वं यकस्वभावत्येन भिन्नोऽनन्तनान-दर्शनसंपदुपेतो वीतराग एष। अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिमाघपरिणतो बाह्मात्मा, सम्यदर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, फेवलज्ञानादिपरिजनस्तु परमात्मा | तत्र व्यवत्या पाशात्मा, शक्त्या परमात्मा अन्तरात्मा च, व्यक्त्याऽन्तरात्मा तु शक्त्या परमात्मा. भूतपूर्वनयेन व पाशात्मा, व्यक्त्या परमात्मा तु भूतपूर्वन येनैव पापात्मा अन्तरात्मा व त्याहुः । तदुक्तनतसेवनात्-परमाप्तप्रणीतागमविहितसंयमपालनात , यती मुक्तिः कर्मस्यरूपा, भपति. ततस्तस्या गुणभावत: जादिषदप्रसादाभावेऽप्यचिन्त्यचिन्तामणिय यस्तुस्वभाववलात फलदोपासनाकन्वेनोपचाराव , कर्ता स्यात् ।
आज्ञापालन द्वारा ईश्वर कर्तृत्व) ११ वो कारिका में जन ऋषियों के उस वचन काही अनुपाय है जिन का संकेत पूर्वकारिका में किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
परमात्मा हो बिर है । परमात्मा का मन है वह पीतराग पुरुष जो अनन्तज्ञान और प्रनन्त बर्शन से सम्पन्न होता है, और जो कापादि के पधिष्ठायक ध्याता अन्तरात्मा के लिये स्वामन रूप से अयस्वरूप बहिरात्मा से मित्र होता है और ध्याता मन्लरास्मा के लिये एकमात्र ध्येयस्वरूप होने से मित्र होता है। पाशम यह है कि मारमा केही तीन स्वरूप समझा आ सकता है माहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । गहिरश्मा का अर्थ है कायावि में हो पात्मवृद्धि रखनेवाली व्यक्ति । अतरास्मा उसे कहा जाता है जो अपने को कावि से मिन प्रौर कायाविका अधिष्ठाता समझता है, किन्तु वह रागादि से ग्रस्त होता है। परमात्मा उन दोनों से मिन्न मोर वीतराग होता है। यह वीतराग परमात्मा ही ईश्वर है । कुछ अन्य प्राचार्यों ने इन तीनों प्रात्मानों का परिचय वेसेए यह कहा है कि महिात्मा मह है जो मिम्यावर्शनारि भावों में पारणत हो। और अन्तरात्मा उसे कहा जाता है जो सम्यग्दर्शनादि भावों में परिणत हो। भौर परमारमा उसे कहा जाता है भो केवजानाति से सम्पन्न हो ।
इन तीनों में एफान्तिक भेव महा है। जो व्यक्तिरूप में बाह्मात्मा होता है वह भी इवित रहन रूप में अन्तरात्मा और परमात्मा भी होता है । और जो व्यक्ति रूप में अन्तरालमा होता है पर शक्तिरूप में परमारमा और अपयंति से वाह्यात्मा होलाहै। एवं जो व्यषित रूप में परमात्मा होता है वह भूतपूर्वष्टि से बायास्मा पौर प्रसरात्मा भी होता है।
__ परमात्मा द्वारा उपविष्ट मामलों में जिस संयमधर्म का वर्णन है उस के पालन में मुक्ति होती है। मुक्ति का प्रार्थ है समग्न कर्मों का भय । इस मुक्ति का प्रादिमूल परमात्मा का उपदेश हो होता है इसलिए ही परमात्ना को उपवार से उन का पार्ता कहा जाता है। प्राशय यह है कि रामा मादि का