SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 01 [पास्वानसमुकवाय एस० ३-२०१० "संतुष्प नैयायिकमुख्य ! तस्मादस्माकमेवाऽऽश्रय पक्षमण्यम् । तबोचरीश्वरकताया मनोरथ प्रति पूरयामः ॥ नयैः परान प्यनुकूलमती प्रवर्तयत्येष जिनो विनोदे । उक्तानुमादेन पिता हिंसात् किं मालस्य नाऽऽलस्यमपाकरोति ? ॥२॥" तदिदमाह ततश्चेश्वरक स्यनावोऽयं युज्यने परम् ।। सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाः शुषसुरुयः ॥१०॥ ततष पातञ्जल-नैयायिकमनिरामाच्च, अयं तथापिघलोकप्रमिकः - ईश्वक त्वबादः, परम-उमविपरीतरीत्या. सम्यग्न्यायाऽविगेधेनप्रतिनकाप्रतिहततकानुसारेण पुज्यते, यथा शुद्धबुद्धपः सिद्धान्ताच हितमतयः परमय अनुः ||१०|| साचनमेवाऽनुषदति-- मगत के उपाबान कारणों का ही ज्ञान सिर हो सकता है, उपाचामसे भिन्न पदार्थों का मान नहीं सिद्ध हो सकता है। क्योंकि म वृस के लिये कोई कारण है, न उस के लिये कोई प्रमाग ही है।।।। पाएयाकार श्री यशोविजयजी महाराज ने न्यायवर्शम की पद्धति से विर के कस्व का पूर्णतया निराकरण कर देने के बाद नमायिक सर्वथा हतामा न हो इस लिए मई सुन्दर ढंग से मंपापिक को यह कहते हुए पाश्वासन दिया है कि नैयायिक को उक्त रीति से ईश्वर के कर्तृत्वका खणन कर बेने पर भी दुःसी होने को पास्यकता नहीं है । क्योंकि उस की संतुष्टि का प्रौषध प्रब भी बनाया है। उसे केवल इतना ही करने की पाहायता है कि वह बिर के कर्तृत्व को सिद्ध करने को अपनो पद्धति का मोह छोडकर हम आहंतों को श्रेष्ठ पति को स्वीकार कर ले । क्योंकि अपनी माहत पद्धति से हम ईश्वर को का सिद्ध करके उस के महान मनोरथ की पूति कर सकते हैं। आहतों का यह मत है कि भगवान जिनेश्वर देव नयों के माध्यम से अन्य मतों को भी अनुकूल-संगत पर्थ में प्रवाहित करके प्रतिषावी को संतुष्ट करते हैं । और यह उन के लिये उपो प्रकार स्वाभाविक है जैसे रिसा नालक का हित करने की बुद्धि से उक्त का अनुभव पर्थात पुन: पुन: प्रेरक वचन का प्रयोग कर के उसके प्रभाव को दूर करता है। ( ईश्वरकर्तृत्ववाद का कचित् प्रौचित्य ) ४ से मष कारिका में प्रतिवादी की शैलीका निराकरण करके अच बसी कारिका में अन वर्शन को शैली से ईश्वर कस्व का समर्थन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है पाताल मौर मेषायिक को अभिप्रेत रोति से ईश्वर को कटुता का अंडन हो जाने पर मगर पालिकाविलोकों में प्रसिद्ध पर कलुस्व का समर्थन करता है तम पालणाल-नैयायिक ने जो प्रणाली अपनायी थी उससे विपरोस जन प्रणाली के अनुसार विपरीत तकं से मषित न होवे ऐसी मुक्तियों से उसको संगति कर सकते है-जैसा कि शुद्ध पानी सिधारत से परिमित डि वाले परम ऋषियों में कहा है
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy