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[शा.पा. समुच्चय स्त०-३-2
किञ्च कोऽयमात्रेशः तदवभिप्रयत्न एवेति चेत् न तदजन्यस्य प्रयत्नस्य तदनवच्छिनत्वात् । अथैवंशानुपपत्तिः, तत्र हि भूतात्मन्येव चैत्राद्यन्येन प्रवृत्तिग्गीक्रियते, अन्यथा मृतशरीरे तदावेज्ञानापतेरिति चेत् १ इयमपि तत्रैवानुपसः,
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पवि यह कहा जाय कि शरीरण का मयं है शरीर के साथ भोग प्रयोजक सम्बन्ध को प्राप्ति । किन्तु इस प्रकार का शरीरमा ईश्वर में नहीं होता। अति ऊंसे प्राणियों के से घटपटावि की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार प्राणियों के से हो सृष्टि के आरम्भ में तत् सम्प्र चाय के प्रवर्तनार्थ विभिन्न वाशेरों की भी उत्पत्ति होती है जिनके साथ ईश्वर का भोग प्रयोजक सम्बन्ध नहीं होता अपितु उन में ईश्वर का प्रावेश होता है और उस प्रवेश से ही उन शरीरों में चेष्टा होकर उनके द्वारा तत्तत् सम्प्रदाय का प्रवर्तन होता है अतः सष्टि के आरम्भ में उत्पन्न होने वाले शरीरों का ईश्वर द्वारा इस प्रकार का ग्रहण संभव होने से उक्तदोष की प्रसयत नहीं हो सकतीतो यह कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि घटादि पार्थी और शरीरों में वैषम्य होता है । विपदार्थ किसी भी व्यक्ति के भोग के प्रायतन नहीं होते किन्तु भोग के रस्य साधन होते है । अतः उन की उत्पत्ति प्राणियों के से हो सकती है, उस की उत्पत्ति में किसी प्राणीविशेष के हो प्रष्ट को कपेक्षा नहीं होती जब कि शरीर भोग का प्रायतन होता है इसीलिये भिन्न भिन्न प्राणी को पृथक पृथ शरीर की घावश्यकता होती है। जो शरीर जिस प्राणि विशेष के अहट से उत्पन्न होता है उस शरीर से उसी प्राणी को भोग होता है। इसीलिये कोई भी शरीर किसी प्राणि विशेष के भोग का यतन होने के लिये हरे उत्पन्न होता है और इसीलिये तत्पुरुषीय शरीर में तत्पुरुषीय दृष्टको कारण माना जाता है। ऐसा न मानने पर शरीर सभी प्राणियों के भोग का आयलन हो सकने के कारण अव्यवस्था हो सकती है। अतः यह कल्पना उचित नहीं हैं कि सृष्टि के पारम्भ में ससद् सम्प्रदाय का प्रवर्तन करने के लिये प्राणियों के प्रष्ट से कुछ शरीरों की उत्पति होती है जो भोग का प्रायतन नहीं होते किन्तु सम्प्रदाय के प्रवर्तन में ईश्वर के सहायकमात्र होते है। और ईश्वर उन शरीरों में आविष्ट होकर उनके द्वारा त सम्प्रदाय का प्रवर्तन करता है।'
['प्रवेश' पदार्थ की समीक्षा)
इस सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि सृष्टि के आरम्भ में प्राणियों में प्रदृष्ट से उत्पन्न होनेवाले कतिपय बारों में ईश्वर का जो भावेश होता है उस का क्या अर्थ है। यदि कहा जाये कि तलवारीर में श्राविष्ट होने का अर्थ है तत शरीरावयवेन प्रयत्नशील होना' तो इस प्रकार का प्रवेश ईश्वर में नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर का प्रयत्न उम शरीरों से जन्य न होने के कारण जन मारीरों से भय नहीं हो सकता। क्योंकि यह नियम है कि जो प्रयत्न जिस शरीर से उत्पन होता है पशु प्रयत्न उसी से अच्छे होता है । और कोई भी प्रयत्न उसी शरीर मे उत्पन्न होता है जो शरीर उस प्रयत्न के आश्रयभूतं मात्मा के अदृष्ट से उत्पन्न होता है। इसीलिये शरीरा मंत्र- प्रयत्न को उत्पत्ति नहीं होती।
यदि यह शङ्का की जाय कि इस प्रकार ईश्वरावेश की अनुत्पत्ति बताने पर प्राणियों के fafe शरीरों में मूतावेश (पिशाचावेश) को भी उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि ये शरीर भूतात्मा के प्रहष्ट से नहीं उत्पन्न होते किन्तु मंत्रादि अन्य प्राणियों के प्रष्ट से ही उत्पन्न होते है। अतः उपल