________________
स्वा०क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ ११४
1
नन्वेवं छिभावानुप्रविष्टस्य पृथगारमत्वप्रसक्तिः स्यादिति चेत् न, तपा दनुप्रवेशात् । छिन्ने हस्तादों कम्पादितल्लिङ्गादर्शनादित्थं कन्पनाद । न चैकत्वादात्मनो विभागाभावाच्छेदाभाव इति बाध्यम्, शरीरद्वारेण तस्यापि सविभागरसात्, अन्यथा सावयवशरीरख्यापिता तस्य न स्यात् । तथा च तच्छेदनान्तरीयकरच्छेदो न स्यात् । 'छाऽच्छिमयोः कथं पश्चात् संघटन ? इनि, एकान्तेनान्छित्वात् पचनालतन्तुवपिगमात् संघटनमपि तथाभृताऽवशादविरुद्धमेष इन्त । एवं शरीरदाsssयात्मदाहः स्यादि ति स न क्षीरनीरयोरिया भित्येऽपि विलक्षणत्वेन तद्दोषाभाषामिति, अन्यत्र विस्तरः ।
,
सस्माद्देहादात्मन एकान्तपृथक्त्ये हिंसाद्यभावः, तदभावे - हिंसाग्रभावे, अनिमिसश्वात् =निमित्तमनिधानाभावात् कथं शुभाशुभ बन्धः १ अत्र शुभाशुभश्चेति विग्रहे विश्वापतिः कर्मधारये च बाध हति शुमेन सहितोऽशुभ होते व्याख्येयम् ||३२||
1
का सम्बन्ध हो अतः येह और प्रारमा में प्रमेव मानकर वेहावयव का होने पर प्रारम अवयव का छेद मानना और प्राम- अवध के सम्पर्क से हो दिल देहावयव में कम्प को उपपत्ति करना आवश्यक है ।
[शिव में पृथक् श्रात्म प्रसंग का निवारण ]
'बे और आश्मा का अमेध होने से देहावयव के छेव से आम अवयव का छेत्र होता है ऐसा माने पर के किन अवयव में आत्मा का जो भाग अनुप्रविष्ट रहेगा वह एक पृथक अक्षम हो हो जायगा यह शंा नहीं की जा सकती क्योंकि आत्मा का जो भाग निहाय के साथ बाहर आता है यह घोड़े समय बाब पूर्व शरीर में ही प्रविष्ट हो जाता है। यह कहना इसलिए की जाती है, कि वह के छत्र अवयव में कुछ समय तक कम्प होता है और बाद में रूप नहीं होता है, अतः बाद में भी छिन अवयव में अश्मभाग का सम्बन्ध बना रहता है यह मानने में कोई युक्ति नहीं है 'भारमा एक होता है अतः इस में विभाग संभव न हो सकने से उस का छेद नहीं हो सकता - यह शंका भी उचित नहीं है क्योंकि बेह और अपना में ऐक्य मानने पर देह में विभाग संभव होने के कारण बेह के द्वारा आत्मा में भी विभाग मानना विसंगत हो सकता है। यदि आश्मा को सावयवनमाना जायगा तो सावयव शरीर में व्यापक नहीं हो सकेगा और क्षेत्र के साथ अहम द्वेष की अंजिवाता भी न हो सकेगी।
“छि देहावयव का तो शरीर के साथ बाव में असे संघट्टन नहीं हो पाता उसी प्रकार छि आप अवयवों का भी शरीरस्थ शेष असम के साथ संघट्टन नहीं हो सकता यह शंका भी अि नहीं होतो. क्योंकि आश्मा का जो माग रहके विषय के साथ छिन्न होता है वह पूर्ण रूप से शरीरस्य आरमा से पृथग नहीं होता । मत उम्र का संघट्टन हो सकता है किन्तु देहका जो हस्तादि अव देह से पृथग होता है वह बेह से पूर्णतया हो जाता है स ह के साथ उसका घट्ट नहीं होता। हि अंश कर अपने भी के साथ संघट्टित होना कोई अमृत बात नहीं है।