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[ शा.बा.समुकचय ४० ३.० ३१
अथ यदि संसारिणां प्रतिविम्योदयस्वभावः, तदाहमूलम्-न च पूर्वस्वभावत्वास मुक्तानामसंगतः ।
स्वभावान्तरभाष च परिणामोनिवारितः ॥३१॥ न च जना सः = प्रतिबिम्बोदयस्व मात्रः, पूर्वम्षमावस्यान मसार्यवस्थैकस्वभावन्यात , मुकसानामसंगतः किन्तु संगत एन, अन्यथा नित्यत्यक्षतेः, तवपि कदाचन न मोगः किन्तु सबैदेष स्पात , इति योजना | स्वभाधानतरभावे च-अमुक्तम्बभारपरित्यागेन मुनम्बमायोपादे च मुक्तानामिन्य माणे. अनिवारितः परिमाणः, स्वभावापथात्यस्यैत्र तल्लतणन्त्रान् । मोक्ष फी उपसि म हो सकेगी। यवि कहा जाय कि-मोमवषाा में अडि मधिकारहीन हो जाती है। प्रत एष उस का बन्धन सामर्थ्य समाप्त हो जाने से उस के रहने पर भी मोक्ष की प्रमुपपास नहीं हो समासी-तीन महमा भो ठीक नहीं है। जोकि ऐसा मानों पर अधिकारमुक्त प्रसुप्त स्वभावान) बुद्धि को हो प्रकृति माना मापकता है। और इस प्रकार प्रकृति-ग्रहहकार-मन ये सभी प्रमों के अर्थ मेव की कल्पना अनावश्यक और अप्रामाणिक हो जायगी, क्योंकि पुद्धि प्रकृति, अहंकार और मन के व्यापारों के समय में प्रकृति आदि शवों से उसी प्रकार व्यपविष्ट हो सकेगी जैसे शरीरस्य कशी वायु ग्यापार मेव से प्राण-अपान आदि विभिन्न शब्दों से स्पष्ट होता है। इस प्रकार कति अहमपि विभिन्न वादों है तस्य का निरूपण करनेवाले मात्र का विरोध नहीं होगा मोर यदि किसी प्रकार आत्मा में अताविकमोग मान भी लिया जाय तो सका बोषों का मत निराकरण हो सकने पर भी संसारवक्षा में मोक्ष का अतिप्रसङ्ग होगा क्योंकि अमूतंतव्य का प्रतिविम्म म मानने पर संसारी आस्मा मी सुक्तकल्प ही होगा । और आत्मा का प्रतिबिम्ब न मानने पर आत्मा में कभी भी प्रोग न हो सकेगा ॥३१॥
(अपरिणामो प्रात्मा प्रतिबिम्बोवय स्वभाव नहीं हो सकता) सभी कारिका में संभारी आश्या में प्रतिविम्बजनन स्वभाव होता है इस.मा की समीक्षा की गई है कारिका अथ इस प्रकार है
समारी आत्मा को प्रतियिम्सजनन के स्वभाव से सम्पन्न मानका भी गंमारावस्था में आरमा में पलता को प्राप्ति का परमार हो मकता है। किन्तु संगार्ग प्रात्मा शिबिम्बम समाज प्राममे पर मुश्तास्मा को उस स्वभाव से विधुर कहना सहन नहीं हो सकता। क्योंकि ससारावस्था मेमामा मे जो प्रतिबिम्बमानस्वभाव रहता है-मोक्षाव में उसको नित्ति मानने पर आत्मा की नियता का मन हो जायना और यदि FAस्या में भी उस भान का अनुयतन माना जायगा तो धारमा में भोग केएस संसार दशा में ही न होकर सब काल में होने लगेगा। जिसका परिणाम यह होगा कि आमाको मुरत न हो सकेगा इसका परियार करने के लिये यदि यह मामा माप कि प्रोक्षा में प्रारमा के मारकालीम अमूवनस्वभाव भी नित्ति हो जाती है और मुक्त स्वभावको जरपप्ति हो जाती है तो आस्मा में परिणागित्व की आपत्ति होगी। क्योंकि एक स्वभाव को छोकर स्वभावान्तर को ग्रहण करना ही परिणामी का लक्षण होता है।