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________________ स्या का टीका और हिन्धी विवेचना ] [१५३ 'घटनाशे घटायच्छिमस्याकाशस्य घटानच्छिनत्वेऽपि स्वभावाऽपरित्यागवत् सवासनयुद्धिनाशे विषयावच्छिन्नस्य चतन्यस्य विपयान नछमन्वेऽपि स्वभाषाऽपरित्याग एवेति चेत् ? अहो! अपिद्धसिद्धेन सापयत्ति भवान् पटनाशेऽप्यामाग्य पदादानिमामासाहारियो वन काशच्यवहारप्रसनन् । किन्च 'सा पुद्धिस्तमेवात्मानं विषयेणावच्छिनत्ति' इत्यत्र न किमपि नियामकं पश्यामः । तस्मात् बुद्धिरेव रागादिपरिणताऽऽत्मस्थानेमिषिच्यताम् । तस्या लयश्च रागादिलय एव, इति सव मुक्तिरिति युक्तम् ।।३१|| देवान पृथगत्म आत्मनो दोपान्तरमाह वीहा पृथकाल एषास्य न च हिंसादयः क्वचित् । तदभावेऽनिमिसम्याक बन्ध, शुभाशुभ: । ||३२|| देवात पृथक्त्व एवएकान्तती देहपृथक्त्वे, अस्य-आत्मनः स्वीक्रियमाणे, न च हिं. सादयः मित् भवेयुः । न हि नाह्मणशरीरहत्यैव चमहत्या, मृतत्रामणशरीरदाहेऽपि तत्प्रसङ्गात् । न च मरणोद्देशाभावादयमदोपः, नदुईशेनापि तस्प्रसङ्गात् । बामणात्मनस्तु नाश एव न, इति प्रामणं नतोऽपि सा न स्यात् । 'बाहाणशरीरावच्छिन्नज्ञानसनफमनासंयोग पति कहा जाप कि-'जस घट का नाश होने पर बावच्छिन्न आकाश घट से अनन्छिन तो हो जाता है किन्तु वह अपने स्वभाष का परित्याग नहीं करता। उसी प्रकार वासामायुक्त बुद्धि का माश होने पर विषयावच्छिन्न चतन्य में विषयानविद्यषर हो जाने पर भी उसके प्रभाव का परित्याग नहीं हो सकता । अतः विषयानवछिन्नस्थ हो जाने से आत्मा की मुक्तता और स्वभाव का परित्याग नशीने से उस को मुक्तता और अपरिणामिता बोनों की रक्षा हो सकता है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह कथन तो अति से असिख को सिद्ध करने का प्रयास है। आवाय यह है कि 'घताश होने पर घटाणन आकाश के स्वभाष का परित्याग नहीं होता' यह बात असिस है, क्योंकि घटनाश होने पर भी यदि आकाश का पटावठिनाव स्वभाव बना रहेगा लो घटना हो जाने पर भी 'घदाकाशः' इस व्यवहार को नापत्ति होगी। इसके आंतरिक्ष यह भो विचारणीय है कि कोई एक निश्रित बुद्धि किसी एक निश्चित आत्मा कोहा विषयोपरत कर सकती है, दूसरे को नहीं' इस बात का कोई नियामक ही नहीं है, क्योंकि सारमा परिफिन न होने से तमी नि में सभी आरमा का सामोप्य मुलभ होता है । मस: चित या होगा कि शमादिकार में परिणतद्धि को ही आत्मा के स्थान में अभिषिका किया जाय और मामा के अस्तित्व का अस्वीकार कर दिया जाय । ऐसा मानने पर यह निष्कर्ष होगा कि रागाधात्मक परिणाम हो बद्धि स्वरूप भारमा का बम्मन, और रागादिलयरूप सरागत कालय ही वरूप प्रास्मा की मुक्ति है। अत: बुद्धि से मिन्न आरमा का अस्तित्व सम प्रक्रिया के अनुसार नहीं सिद्ध किया जा सकता ||4|| बिह-प्रात्म भेव पक्ष में ब्रह्महत्या को अनुपपत्ति] ३२वी कारिका में प्रारमा को वेह से मिल मानने पर एक और अतिरिक्त पोष बसाया गया है ओकारका को प्राण्या करने से म्फुट होता है, कारिका को व्याममा इस प्रकार है
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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