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[ श० प्रा० ममुमचय न० २-इस्लोक ४०-७१-७२
प्रागुकतरीन्या कार्य बैंचियनिर्वाहमतन्त्र नियन्यभ्युपगमार द्वितीये इष्टापतिमाशाहमूलम्- न सन्मानभावायु पनेऽस्या विभिन्नता ।
सदस्यभेदक मुकवा सम्यग्न्यायाधिशेषतः ॥७॥ नबनव, तन्मात्रभाचादेः 'तन्मात्रभावो' नियतिमात्रत्वम, आदिना परिणामग्रहः, तनोऽस्याः अनिनियनकार्यजनकनियने:, तवस्यभेद नियत्यन्यभेदक मुक्या -अनभ्यपगम्य. सम्यग्न्यायाऽविरा बत: मसकाशतिकूल्यन, विषिषता स्यात् ।।90/
मनदेव प्रस्टयमाहभूल न जालस्यैवरूपस्य विधाता विविधता | उपराविधराभेदमनारेणोपजायते ॥७१।।
___ जलम्य, एकरूपस्य जन्नत्वेन ममानम्य पयापाताम् अभ्रपानादनन्तरम् ,उपरादि. धराभवम् ऊपरंतरपथिवीसंबन्धादिजन्यषण गन्ध-रम-स्पशांदिवलक्षण्यमन्तरण, विचित्रता न दृश्यते, सकलज्ञाकसिद्ध खन्वतन् । तथा नियनेर यम्य भेद विना न भेद इति भावः ॥७॥
अस्तु तहि नदन्यभेदकम् , अप्राइमूलम्- नदिनका अस्थः न करना।
ताकत स्वेच चित्राचं तवसस्यागसंगतम् ॥७॥ वैषम्य नहीं हो सकता. समया समान कारणों से उत्पन्न होने वाल वो पर्टी में भी शाम हो जायगा । एवं दूसरे तक का अभिप्राय यह है कि घट का जो कारण पटके उत्पावन में भमपेक्षित होगा बझपट के अमक भिन्न होगा . इस प्रकार उपसतको घट पट आहिमाघों मे विभित्र कारणजन्यस्वसिम होता है, अतः एकरूप नियति में उम की उत्पत्ति मानना अगुरू है ॥६॥
नियतिगत वेचिश्य नियति से संपन्न नहीं हो सकता] पूर्वोक्त रीति से कार्यों में बचिम्म को जम्पत्ति के लिये नियति का नाब माना गया है, अत: मियांत के सम्बाध में प्रस्तत किये गये पूसरे पक्ष में इष्टापति की पाद्ध। हो सकती है। ७.वी कारिका में इसका निराकरण कर मयं कहा गया है कि
नियति से अन्य वि उस का कोई भेवक न माना जामगा तो नियति के सामान्य स्वरूप अपना उसके परिणाम से उस में विविधता नहीं सिद्ध हो सकती. क्योंकि विचित्रता की सिधि सततर्क के विशेष से हो तिज हो सकती है ||
५१ वो कारिका में इस बात को इस प्रकार पर किया गया है किभाकाया से जो जल वासना वहस समान होता है, उस में जो विध्य भरता है ना ऊपर और उपजाड अवि विभिन्न भूमिकों के सम्पर्क से ही होता है । जिम भूमि में को बल गिरता है उस में उस भूमि के सप, रस, गाय और स्पर्श का सम्बन्ध होने से प्रस्थ मल तथा अन्यत्र गिरने वाले मल वलक्ष जाता है इस सम्पर्क के बिना जल में घनमण्य नहीं होता यह तथ्य लोकमान्य । अतः अप मेषक के विमा नियति में भी मिहीं हो सकता ||