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________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ] [७ तदिनभेदकारचे च--तभिन्न भेदक पम्यास्तम्या भावस्तमिनि समामः, नियतिभिन्नभेदकशालिन्थे नियनेरी क्रियमाण इत्यर्थः तन-भेदकत्वेनाऽभिमते, तस्याः-नियतेः न कता=न हेतमा । तथाच सत्यमिद्धान्तभ्याकोपः । सरकत स्खे च-नियत दफत्त्वाभिमतहेतुल्ने प, पिास ई-मेकन्त्रम् , विनित, विजया मतस्यापि अमंगनम् , कारणमरूपत्वान कार्यस्येति भावः । एतेन तायक्तिनिरूपितनियतित्त्वेन नवघविसजनकन्यम् ' हत्यप्यपासम् , ननियतिजन्यत्वेन नाक्तत्व सिद्धिः, तत्सिद्धौ च तहस्तिनिरूपितत्वेन नियतिजन्यतामिद्धिः' इत्यन्योन्याश्रयात् कार्यस्य कारणतानवच्छेदफत्याच, अन्यथा नियनित्यनिवेशवयथ्यादिति दिग ||७२॥ ('नियति से भिन्न भेदक' पक्ष में सहतुता विलोपन) ७२ वी पारिका में मियात की अन्य माता का पाम किया गया। सारिका का अर्थ मवि निति मे मिन्न वस्तु को निर्यात का भेदमा प्रतिनियति में बेसिका सम्पावक मामा भायगा तो चस श्रेषक को यदि नियतिजम्मन माना जाएगा तो नियति में सतुत्व का निवारत अणित होगा, और यदि उस मेवाको मिति से अन्य माना जायगा तो एक निति से उत्पन्न हाने के कारण उस मेवक में विन होगा क्योंकि 'कारण समानजातीय ही कार्य की उत्पत्ति' का नियम है और जब मेदक स्वयं विचित्र महोगा तो चम से नियति में विश्य कैसे हो सकेगा? (विशिष्टरूप से कार्य-कारणभाव में प्रसंगति) व्यक्ति के प्रति नतव्यक्ति-निरूपित-नियति कारण होती है.' स कल्पना से भी नियतिवन्य कार्यों में वैविश का उपपावन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस प्रकार का कार्यकारणभाव ही नहीं जान सकता। इस का कारण यह है कि सव्यक्तिमिपितनियतिमभ्यस्व से ही तव्यक्तिम्बको सिद्धि हो सकती है और पक्तित्व की सिद्धि होने पर ही तब्यक्तिनिरूपितसम्म को सिजि हो सकती है अतः उक्त कार्यकारणभाव अन्योम्पाश्रयस्त है । दूसरी बात यह है कि तस्यक्ति के प्रति मियति को साक्सिमिपितनियतिसारूप से काम मानने पर तदृष्यक्तिरूपका तिव्यक्ति के कारणतापलेवक कोटि में प्रविष्ट हो जाता है, जो अनुचित है, क्योंकि कार्य को कारणतावरवड नहीं माना जा सकता । इसका कारण यह है कि कार्य पदि कारगताबाछेवक होगा तो उत्पति के पूर्व कारगारवकविशिष्ट कारण को सत्ता न हो मकने से कार्य को उत्पति असम्भव हो पाएगी, और यदि कारणतावच्छेयक से उपलक्षित कारण से मी कायं की उत्पत्ति मानी जायगी तो मभिधात का कारणीभूत वेगवद्भ्य नब मिषगहो जायगा तब भी गोपलामताभ्यरूप कारण के रहने से अभिपात की उत्पत्ति को आपत्ति भोगी। अतः कापोत्पत्ति के लिये उससे पूर्व कारणामबहविशिष्ट कारण की मता आवश्यक होने से कार्य को कारणतावण्यक मानने पर कार्याप्ति से पूर्व कार्यविशिष्ट कारण को ससा सम्मान होने के कारण कार्य की उत्पत्ति भसम्भव हो आयो ।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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