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[ शाप वा समुच्चय न. २-लोक ०३
मनु निर्यातम्भभायभेदादच कार्यभेदोऽस्तु, इत्याशङ्कमारमलम् -अस्या एष सथाभूतः स्वभावो यदि ष्यते ।
स्यक्ती नियतिवादः स्थापभायाश्रयणानन ॥७॥ यदि चतस्था एव-नियनरेन, तथाभून:-कार्यधैचित्र्यप्रयोजफा, स्वभावभेद इत्यने. सक्षा-'मनु' इन्याक्षणे-स्वमायाश्रपणा नियतिवादग्न्यकाः स्यात् । अथ तत्म्बमावस्तत्परिपाक एति नान्यहेतुस्वाभ्युपगम इनि पत्न , परिपाकेऽप्यन्यत्वाश्रयणावश्यकत्वात् । 'अन्यत्र
(कार्य कभी कारस्तावच्छेचक नहीं हो सकता) यदि इस शहका के परिहायस्वका यह कहा बाय कि-"कारण के साथ कार्य का को सम्बन्ध कार्यास्पति के पूर्व सम्भव नहीं हो सकता-जैसे मंयोग कालिक आधि. उस सम्बश्व संकी कार्य को कारणाचवक मानने पर यह दोष हो सकता है, किन्तु कार्य का सो सम्बन्ध कार्योत्पति के वं भी कारण में सम्भव है खस सम्बन्ध से का कोमामासाधन मानने पर मर रोष नहो सकता, मतः वसे सम्बग्न से कार्य को भी कारणतावच्छेवक माता का सकता है। प्रकृति में तद व्यक्ति के प्रति मिपितत्व सम्बन्ध से सय किविशिष्ट मियति'को कारण माना है और नियति के साथ सभ्यक्ति को अपने अनुभूत नियति का निरूपण करने के लिये वर्ष रहमा आवाया नहीं है किन्तु उसका नाम आवश्यक है और कान तो अनुत्पन्न का भी अनुमाम आवि से हो सकता है. अत पदयक्ति के प्रति तवरूप विसनिरूपितनियति को कारण मानने में यह बाधा नही हो सकती-तोस कपा से भी मिप्रतिको उक्त कारणताका समर्थन नहीं हो सकता क्योंकि इस ग में कार्य को कारणसावरक मानने पर कार्यवस्वरूप कारण मामले में कोई आपत्ति न होम से कामffarवत धर्मों को कारगताबछेदक मानना अनारश्यक हो जायगा । फलतः प्रकृत में भी कार्यनिसिखमम्बन्ध में कवस्वेन कारणता मानने पर कारणसामनक कोटि में लियतिरस के निवेश को आवश्यकता न
हजाने से नियति की कारणता ही समाप्त हो जामगोक्योंकि कारणता कार्यवश्व में प्रवन्छिन है, नितिरव से सक्छिन्न नहीं है इसलिये जो कावयवाला होगा वह कारण होगा किन्तु नितित्व पाला नहीं ।
७३ौं कारिका में कार्य को नियतिमभ्य मामले पर भी नियति के स्वभावमेव से कार्य में भेज हो समाता है। इस बार का का निर्यात के निराकरण में पयंत्रसान बताया गया है। कारिका का अर्थ
['निर्यात के स्वभाष वैचित्र्य में विचित्रकार्य-यह भी प्रसिद्ध है। यविनियति में स्वभाव मेव की सपनाकर उसके द्वारा नियति के कार्यों में मेर-याने विध्य की उपपतिकी जागी तो स्वभाव का आश्रय करने से नियतिवाद का स्पाग हो जायगा । यति यह कहा जाय कि-"निषति का परिपाक ही नियति का स्वभाव है अत: नितिस्वरूप ही है, इसलिये उसे कार्यवभिनय का प्रपोजक मामने पर भी कार्य में भम्यहेतुकरण की प्रसक्सिान होने में नियतिवाद का परित्याग म होगा नो यह को नहीं है, क्योंकि नियति के परिपाक को निर्यातमा से जन्य मानने पर मिपत्ति का परिपाक भी नियति के समान विम्यहीन हो होगा, अत: उस से भी कार्य में वैविध्य न हो सक.गा, और यदि उसे निर्यात से भिन्न हेतु से शाम मान कर उस में प्रविश्य माना