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स्या० १० टीका-हिन्दी विवेचन )
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जानकृतो नास्ति विरक्तानाम्, किन्तु शुभाइष्टकृत एष । तच्च शुभारष्ट्र विषयाप्रत्येव भवति, तत्प्रयुज्या तु तत्प्रतिकूलाधाजेनादुकटेच्छव विषये जायते । तदुक्तं पतञ्जलिनाऽपि 'भोगाभ्यासमनुयतन्ते रागा, कौशलं पेन्द्रियाणाम्' इति । गीतास्वप्युक्तम्
___ "न जातु काः कामानाम्पमांगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णपामेव भूय एवाभिवर्धते ॥ इति ॥ इन्ध चैतदवश्यमकीकर्तव्यम् , पिपासाया इव विषवेच्छाथाः क्लिष्टकर्मोदयजनित
(यषेछाप्रवृत्ति से विषयपराछ मुखता का असम्भव) सक्त के समय में मण्डलतन्त्रवादी ही भोर से कहा जा सकता है कि- सम्पूर्ण विषयों में
का निरोप सम्भव न होने से इफा के निरोष से मनुष्य को विषयमुल्य भले न हो किन्तु औचित्य-मनोचिस्प का विचार न कर सिमानुसार विषयोपभोग में प्रवृत्त होने से विषयायीन मुख में अब विषयसुख तिय हो गया ऐसा सिस्म का ज्ञान होने पर तो विषयवे मुरूम सुसम्पन्न हो सकता है, अत: योग को सिद्धि के लिये विषयों में पच्छ प्रवृत्ति हो उचित है, यह स्त्रियों के समाध में गम्या-अगम्यागिका भेव करना अमापक है। "-किन्तु प्रस्तुत कारिका के प्याल्पाता के अनुसार यह कथन ठीक नहीं है. मोंकि 'समस्त पुल सिद्ध हो गए' ऐसा समस्त सुख में सिसव का काम हुये विमा विशेषज्ञों प्रति प्राप्त मुखों से भिन्न सुन की सम्भाव्यता को जामनेवाले मनुष्य की सामान्य रूप में सुखमात्र को 91 का उक्लेव मही हो सकता, एक सुख के सिवत्व का नाम दूसरे सुनको मला का निवर्तक नहीं हो सकता। एक बस्तुको सिधि से पति उस वस्तु के सह अन्य वस्तुको इम्मा का विश्व माना जायगा तो अपनी प्रेयसी से दुर परदेश गधे पुरुष को असको मृत्यु का जान म होने की स्थिति में उसके पुनः अवलोकन को जो इच्छा होती है वह न हो सकेंगीयोंकि उसका अबलोकन प्रोषण के पूर्व हो चुका है । पो विषय सिद्ध नहीं है उस को इसका निरोध होता भी नहीं है । अतः यही मानना अमितसंगत है कि विरक्त पुरुषों को जो समय कला का विम्व होता। बा कतिपय अष्ट वस्तुओं के सिदश्यतान से नहीं झोता. अपितु शुभाटक प्रभाव से होता है और यह शुभाहाट विषयों में यल्छ प्रप्ति से महो कर विषषों में प्रवत होमे से निष्पन्न होता है। विषयों में प्रवत होने से सो विषयेच्छा-गवर्तक अष्ट के विरोधी अहष्ट का उदय होता है जिसमें विषय की उत्कट रच्दा काही संबधन होता है । पप्तअलि ने भी इस तथ्य को पुष्टि यह कहकर की है कि विषयोपभोग अभ्यास से विषयों में राग को अभिवृद्धि होती है, और विषयग्रहण में इन्द्रियों को पटुता सम्पावित होती है।
गीना में भी कहा गया है जि-काम-विग्यसुख के उपभोग से काम पिय सुम्न की एफडा निवृत्त नहीं होती, प्रत्युत रवि-घुल मादि हसनीय तथ्यों से भग्नि के समान अधिकाधिक बढती जासी ।
टिप्पण- गीता पधन के रूप में निर्दिष्ट 'न जातु कामः कामानाम' इत्यादि वचन प्रसिस गीता भगबद्रीता में प्राप्य नहीं है किन्तु मनुस्मृति में प्राप्य है। भत! यहां 'गीता शम्द से मनुस्यूवि में तात्पर्य दो ऐसा प्रतीत होता है।