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स्था०] [२] टीका-हिलीविवेचना ]
दोपान्तरमप्याह
मूलम् - मोक्षः प्रत्ययोगो भवतोऽस्याः स कथं भवेत् । रूपचिगमापतेस्तथा तन्त्रविरोधतः । 11 24 1
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मोनः प्रकृत्ययोगः, यत् - यस्मात् कारणात्, 'प्रकृतिवियोगो मोक्षः' इति वचनात् । असो हेतोः अस्याः प्रकृतेः सः मोत्तः, कथं भवेत् ? कुन इत्याह स्वाविगमापतेः प्रकृतिस्वरूपनिवृत्तिप्रसङ्गात् पुरुषे सु तत्र्यापार निश्चिद्वारा नियुज्येवापि न तु स्वस्मिन स्व निवृत्तिः संभवति घटे घटनित्यदर्शनात् अप्रमत्तस्याऽप्रतिषेधात् । तथा तन्त्रविरोधोऽपि प्रकृतेर्मोक्षः कथम् १ ||३३॥
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जाय कि सव्यापारता और निर्ध्यापररता में विशेष होने पर भी मिन भित्र प्रात्मा के प्रति उन दोनों का समावेश प्रकृति में एक काल में भी हो सकता है। प्रत प्रकृति में एकपुरुषा वलेमुक्ति रोक्का होते से सुमित को प्रकृतिगत मामने पर भी संसार के उच्छेव की प्राप्ति नहीं हो सकती। सी यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रकृति जैसे सबंगल है उसी प्रकार धारना भी सर्वगत है । श्रतः यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृति का एक माग एक ही प्रात्मा से सम्बद्ध होता है और श्रम्य श्रात्मा से सम्बद्ध नहीं होता । श्रौर जब ऐसा नहीं हो सकता तब यह बात कैसे युक्ति संगत हो सकती है कि प्रकृति में एक प्रशासन मुक्ति और अन्यात्मानमुक्ति का प्रभाव होता है । यदि यह कहा जाय कि- 'पुरुष के सर्वगत होने के कारण पुरुष से प्रकृति का प्रवच्देव सम्भव नहीं हो सकता किन्तु वृद्धि के मसवंगत होने के नाते बुद्धि से प्रथमदेव हो सकता है। अतः यह मानना सम्भव कि प्रकृति जब एक पवन मुक्त होती है तब प्रत्यबुद्धधयच्छेवेन भक्त भी रह सकती हैंतो यह ठीक नहीं है क्योंकि वृद्धि का क्षय होने पर ही यह मोक्ष होता है तो फिर क्षीणबुद्धि को मोल का प्रवच्छेवक कैसे कहा जा सकता है ? और मुख्य बात तो यह है कि यदि पुरुष में संसार का वास्तविक सम्बन्ध न होता किन्तु संसार का वास्तविक सम्बन्ध बुद्धि में ही होता है तो फिर बुद्धि का ही मोक्ष मानना युक्तिसङ्गल हो सकता है, क्योंकि जो वास्तव रूप में संलारी हो वास्तवरूप में वही मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। अतः पुरुष को संसारो और मुक्त कहना प्रसङ्गत है ॥ ३५॥
( प्रकृतिवियोगात्मक मोक्ष श्रात्मा का हो संभावित है ]
३६ कारिका में मोक्ष को प्रकृतिगत मानने में एक अन्य दोष बताते हुए कहा गया है कि 'प्रकृतिवियोगो मोक्षः इस सायशास्त्रीय वचन के अनुसार प्रकृति के साथ सम्बन्ध का अभाव होता हो मोक्ष है । इसलिये वह प्रकृति में नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति में प्रकृति का सम्बन्ध मामले पर प्रकृति के स्वरूप की ही निवृत्ति हो जायगी । पुरुष में तो प्रकृति का असम्ब माना जा सकता है, क्योंकि पुरुष के साथ प्रकृति का सम्बन्ध प्रकृति के व्यापार से ही होता दे मतः प्रकृति के व्यापार को निवृलि होने पर प्रकृति के सम्बन्ध को निवृत्ति हो सकती