________________
Pac 1
[ ० ० समुद्रचय - एक ७-२८
'एतदेोपदर्श यनाथ
मूलम् - पञ्चविंशतिस्वो यत्र तत्राश्रम
रमः 1
जदी मुण्डी शिवी वापि सुरुगते नात्र संशयः | ३७ || पञ्चविंशतितत्वज्ञः = प्रकृति महादादिप चिंशनिनचरहरूपपरिज्ञाता यत्र तत्र-गृहस्थाद आश्रमे रतः तवज्ञानाभ्यास्वान् जटी जटावान, मुण्डी निशिराः शिखी वापि शिखावानपि ते प्रकृति-विकारोपधानविलयन स्वरूपावस्थितो भवति, बाह्यलिङ्गसत्राऽकारणम् । नात्र संशयः - इदमित्थमेव वचनप्रामाण्यात् ॥३७॥
2
+
निगमयति
मूलम् - पुरुषस्योदिता मुक्तिरिति चिरंतनेः 1
पुरुषा ।
इथं न घटते यमिति सर्वमयुक्तिमत् ||३८| इति एतत्प्रकारे तन्त्रे शास्त्रे, चिरंतन:- पूर्वाचार्यैः न रुपस्य मुक्तिः, इथं उक्तप्रकारेण विचार्यमाणा, घटते इति हेती, सर्वसोक्तम् अयुक्तिमत् पृक्तिरहितम् ||३८|
,
है । जैसे, घटादि किसी भी वस्तु में उस वस्तु को निवृत्ति नहीं देखी जाती। क्योंकि स्थ में स्व की प्रसारित नहीं होती, छतः स्व में स्व का प्रतिषेध भी नहीं हो सकता, और प्रसवत का ही प्रतिषेध होता है अलक्स का नहीं । प्रकृति में मोक्ष मानना शास्त्रविद्ध मो है जो मान्य श्रमि कारिका में स्पष्ट है ।। ३६ ।।
[ सांस्यसिद्धान्त में पुरुष का ही मोक्ष कहा गया है ]
३७ श्री कारिका में पूर्वारिका में कधित शास्त्रविध का प्रदर्शन करते हुए कहा गया है किप्रकृति-महत् श्रामि पचीस तत्त्वों का रहस्य जानेवाला मनुष्य गृहस्थादि किसी भी माश्रम में रहने पर मुक्त हो सकता है, चाहे वह जाता हो या शिर का मुण्डग कराता हो अथवा चाहे वह शिखा धारण करता हो। प्रवृति के लवज्ञान का अभ्यासद्वारा तरदर्शन हो जाने पर प्रकृति के विकारों का विलय होने से श्रात्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हो कर मुक्त हो सकता है। मोक्ष के लिये किसी भी प्रकार का महा चिह्न अपेक्षित नहीं है। सत्वज्ञान से किसी भी स्थिति में पुरुष के मुक्त होने में कोई संशय नहीं है- यह तथ्य शास्त्रवचनों से सिद्ध है। इस स्थिति में यह स्पष्ट है कि ज्ञाता पुरुष ही मुफ्त हो सकता है। श्रवेतना प्रकृति तत्ववेत्ता नहीं हो सकती है एवं उसको सुि नहीं मानी जा सकती ||३७ ८ व कारिका में निषमताया जा रहा है
शास्त्र में वायों ने पुरुष की हो मुक्ति होती है ऐसा कहा है किन्तु सांख्यमत में पुरुष की सुक्ति नहीं हो सकती। जैसा कि विचार-विमर्श द्वारा सिद्ध हो यूका है। अतः सांख्य जो कुछ भी कहा है यह सब युक्तिहीन होने के कारण प्रामाण्य है ||
18, Ron GPAR-Aga unegalarım şfa 4157 1