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स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ]
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अत्रापि यावा यथोपपन्नं तावतस्तथाचार्मामाइमूलभू-प्रापि पुरुषस्यान्ये मुक्तिमिच्छन्ति वादिनः ।
प्रकृति चापि सन्न्पायारकर्मप्रकृतिमेय हि ॥३६॥ अत्रापि साख्यवादे, अन्ये वादिनः जनाः, पुरुषस्य मुक्तिमिच्छन्ति प्रकृतिवियोगलक्षणाम् । प्रकृति वापि सन्न्यागातू-मसात् , हिनिश्चितम् , कर्मप्रकृतिमेषेति, बुद्ध्यादीना निमित्तस्वान् । तत्समन्ययश्च कश्चिदात्मादायोपपद्यते । सर्वथा सन्कार्यवादे तु सतः सिद्भन्धेनाप्रकरणान , साध्यार्थितये वोपादान ग्रहणात , नियतादेष श्रीरादेः सामग्र्या दध्याविदर्शनात , सिद्धे शक्त्यव्यापागन , तादात्म्ये स्वस्मिाभित्र कार्यकारण[व]भावाद् [इति] विपरीत हेतुपश्चकम् ।
( सांख्यमत में तभ्यांश का निरूपण ) ३६ बी कारिका में सांस्पोक्त विषयों में निस रोति से उपपत्ति हो सकती है उस रीति से उस की उपपसि बताई गई है। कारिका का अर्ष इस प्रकार है--
सायशिक्षान्त में पुरुष को मुक्ति और प्रकृति का प्रतिपावा किया गया है। इस प्रकार जैन विद्वानों ने पुरुष की मुषित व प्रकृति मान ली है और उनका कहना है कि पुरुष की प्रकृतिषियोगरूप मुक्ति होती है यह ठीक है किन्तु प्रकृति का जो स्वरूप सांस्य ने माना है वह न्यायपूर्वक विचार करने पर अन शासन में वणित कर्मप्रकृति से भिन्न नहीं सिद्ध होती । मत: कर्मप्रकृति के रूप में ही प्रकृति मान्य हो सकती है, पयोंकि यही वृद्धि प्रादि सम्पूर्ण जगत् की निमित्त कारण होती है। उसका सम्मम्म मी कथञ्चित् प्रात्मा में उपपन्न हो जाता है।
[ सत्कार्यबाद विरोधी हेतुपश्चक ] सांख्यशास्त्र में सत्कार्षवाद का वर्णन किया गया है, वह भी यथापित रूप में जैन विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है क्योंकि कार्य को सर्वथा सत् मानने पर सत्कार्यषाव को लिा करने के लिये सांविधानों द्वारा प्रयोग में लाये गये पांचों शेतु विपरीत हो जाते हैं । अर्थात् (१) जसे असत का करण-जन्म नहीं हो सकता उसी प्रकार सर्वपा सेल का भी स्वतःलित होने के कारण-जन्म नहीं हो सकता। (२) एवं जो सिद्ध है उसके लिये जपावान का ग्रहण भी नहीं हो सकता है, क्योंकि सर्वधा सिद्ध में कुछ साघनीय नहीं होता और उपादाम का प्राहरण साधनीय के लिये ही होता है। (३) समी पवाओं से सभी कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती' यह हेतु मी सर्वथा सिलवस्तु के सम्बन्ध में उपपन्न नहीं होसा, क्योंकि नियत दुग्धाविसामग्रो से वधि के रूप में पूर्व प्रसिल का हो संपावन होता है । (४) शक्य द्वारा शक्य का ही करण होता है-' यह हेतु भो सर्वधा सिलवस्तु के सम्बन्ध में युक्त नहीं हो सकता क्योंकि पाक्ति का व्यापार भी सिद्ध में नहीं देखा जाता । (५) कार्य मोर कारण के तादात्म्य को मी सरकार्यवाद का समर्षक नहीं किया जा सकता, क्योंकि कार्य और कारण में सर्वथा सारारम्प मानने पर कार्यकारण माव हो नहीं हो सकता-असे यहो पातु उस का कार्य और कारण नहीं होती। मतः