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________________ १२२ [ शा. रा. समुच्चय स्तम्-३लोक ३ यदि कारणव्यापारान् प्रागपि पटस्तुन्तुषु सन्नेत्र, तदा किमित्युपलब्धिकारणेषु मान्सु सन्यामपि जिज्ञासायर्या नोपलभ्यते ? 'अनाविर्भावादिति चेत् । कोऽयमनाविर्भावः १ उपलब्धेरभावश्षेत् । सेव कथम् इत्याक्षप तदेवोत्तरम् , इति घटुकुट्टयां प्रभातम् । अधोग्लब्धिपोग्यस्याक्रियाकारिरूपस्य विरहोऽनाविर्भाव इति छन् ? अमत्कार्यवादः, ताशरूपस्य प्रागसनः पश्वाझावात् । 'रिजातीयगंयोगस्य तदवच्छेदेन सभिकस्य वा व्यजफस्याऽभाषाद न प्रागुपलब्धिरि नि चेत् ? सहि तस्यैव प्रागसरवेऽसत्कार्यापातः । 'प्राक सन्नेवाविभूनो व्यानक' इति चत्न , आविर्भावस्यापि सदसद्विकल्पग्रामात् । 'स्थूलरूपावच्छिनास्प प्रागसम्वाद नोपलब्धिः, धर्म-धर्मिणो मौदम्यस्थौल्य योश्चकत्वाद् नानवस्थेति चेत् ? नहिं यक्ष्मरूपानिनस्पाऽहेतुफत्वेऽतिप्रसङ्गाः । प्रकृतिमात्र हेतुकत्ये च स्थूलतादशायामपि तापमिा, अनिमोशाय इति न किश्चिदेतत् । तस्माच्छबलस्यैव वस्तुनः कश्चित् सत्यम् असत्वं चोपपत्तिमत् । तथा च शुद्धयादीनामइंत्वसामानाधिकरणयेनाऽध्यवसीयमानत्वात् तदर्मतया तष समन्वयः, कर्मप्रकतिस्तु सत्र निमित्तमात्रमिति प्रतिपत्तव्यम् ॥३९॥ इन हेतुनों से उपसि के पूर्ण कार्य को एकान्त सस्ता नहीं सिद्ध हो सकती अपितु यह सिद्ध होता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारणपर्याय के रूप में सात होता है और कार्य पर्याय के रूप में प्रसत होता है। परमपने कारणों के व्यापार के पूर्व मी सम्मों में यदि सस्मिना सत होगा तो इस प्रश्न का कोई उत्तर बिया आमा कठिन होगा कि कारण व्यापार के पूर्व भी पट की उपलब्धि के समस्त कारणों के रहने पर और पट को उपलब्ध करने की इच्छा होने पर भी पर की उपलधि क्यों नहीं होती? 'उस समय पट का प्राविर्भाव न होने से पर की उपलग्धि नहीं होतो' मह नहीं कहा जा सकता स्पोंकि पाविर्भाव न होने का अर्थ है उपलस्थि का प्रभाष । प्रात: कारणम्यापार के पहले सायं को उपलस्पि नहीं बयों होती? इस प्रश्न का उत्तर यह नहीं दिया जा सकता कि कार्य को उपलब्धि का प्रभाव है, क्योंकि जिस उपलब्धि के प्रभाव से काय को अनुपलविध मानी जायगी वह उपलग्धि क्यों नहीं होती?' यह प्रान भी उठेगा । प्रतः यह उत्तर नवी के घाट पर नदी पार करने का कर ग्रहण करने के लिये बनी हुई कुटी में ही प्रमात होने के समान होगा । श्राशय यह है कि जैसे कोई पति रात्रि के समय नदी पार कर नयी भोर कुटी के बीच ही किसी रास्ते से इस मनिप्राय से मीकले कि जिससे करी पर उसे नमामा पड़े मौर यह करवान से मुक्त हो जाय किन्तु रात के मधेरे में चलते चलते जल फूटी पर ही पहुंचने पर प्रमात हो जाय और वह कर प्रहण करने वालों के घेरे में या नाम उसी प्रकार कार्य को उत्पत्ति के पहले सर्वथा सत् मारने पर कारख व्यापार के पूर्व काकी उपास्थि क्यों नहीं होती' इस प्रश्न का उक्त उत्तर देने पर उत्तरका पूर्वप्रश्न की परिधि में ही फेंस जाता है। यदि यह कहा जाय कि-माविर्भाव न होने का अर्थ है उपलब्धि योग्य वस्तु को उपसग्धिका विषय बनाने वाले रूप का प्रभाव ।सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर मप्सत्कार्यबाद सिर पर ना हो जाता है। पोंकि उपलमिष योग्य को उपलषि विषय बनाने पाले रूप का पहले
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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