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________________ स्था का टीका-हिनीविषेचना ] एवं ध न पूक्तिदोष इत्याहमूलम्-तस्गाश्यानेकरूपत्वात् परिणामिन्षयोगतः । ___आस्मनो बन्धनस्वाच्च नोक्तदोषसमुनयः ॥४०॥ तस्याश्च कर्मप्रकृतेः अनेकरूपत्वात् एकानेकशयलस्यभावन्वात् , परिणामित्वपोगतः ज्ञानावरणादिविपाकपरिणामोपपत्तेः, एकरूपत्य स्वाऽनेककार्यजनकन्वाइसंभवात् । आत्मनोऽन्योन्यानुप्रवेशेन पन्धनल्यात् स्वरूपतिरोधायकत्वात् , क्रमांऽऽत्मनोयोरपि बन्धनयध्यस्वभावपरिणामाव लथोपपतेः, नौस्तदोषम्याऽनिर्मोक्षादेः समुचोऽवकाशः ||४॥ मभाव भौर बाद में उस का भाव मानमे पर ही उक्त बात कही जा सकती है । यदि यदि यह कहा जाय कि-'पट व्यापार के पूर्व कार्य के साथ इणिय का विजातीय संयोग अथवा जिस स्थान में कार्य को उपसविध होती है तत्स्थानापोवेम इन्द्रियसन्निकार्यरूप व्याक का प्रभाव होने से कारण व्यापार के पूर्व कार्य की उपलविध नहीं होती--'तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस उत्तर में भी उक्त संयोग या सन्निकर्ष का पहले प्रमाव और बाद में माव मानने से प्रसत्कार्यवाव की प्राप्ति होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'उक्त संयोग पा सधिकर्ष पहले भी सप्त रहता है किन्तु ग्यञ्जक मानित होने पर व्यक्त होता है क्योंकि उसके अधिमान के विषय में मो सत और असत् का विकल्प उह सरता है। वि यह कहा आम कि-कार्य स्थूल रूप से प्रवजिटल होकर पहले नहीं रहता इसलिये पहले उसकी उपलस्थि नहीं होसी और धर्म मोर धर्मी में ऐक्य होने से कार्य के सूक्ष्म और स्थल रूप में ऐक्य होने से अवस्था भी नहीं होतो -तो यह कहना भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि मूक्ष्मरूपास्निकार्य को यदि महतुक माना जाषगा तो कार्य समरूप से किसी मियत देश ही में न रहकर प्रम्य वेचा में भी उसके अस्तित्व की मापत्ति प्रोगी और यदि प्रकृतिमात्र को ही उसका हेतु माना आया तो कार्य की स्पन्नत्व दशा में मो कार्य में सूक्ष्मता की मापत्ति होगो पर उस सूक्ष्मता के कारण पहले के समान कारणव्यापार के बाद भी कार्य की उपलपिमझो सकेगी और सूक्ष्मरूपायिन कार्य को महतकपा प्रकृतिमात्र हेसकामागने पर उसका कभी भी प्रभाव हो सकने से उसका बन्धन बोके कारण मोक्ष का प्रभावहो जायगा इसलिये वस्तु को अनेकान्तात्मक मानकर ही उसके सस्व और प्रसवका कधित उपपावन पुषितसंगल हो सकता है 1 निश्कर्ष यह है कि युद्धपादिका अध्यवसाय महमर्य भारमा में होता है, अत एव उसे महमर्थ का धर्म मानकर माहमर्थ में ही उसका समन्वय मानमा उचित है। कर्म प्रकृति सो उस में निर्मित मात्र है ॥३९॥ [ प्रकृतिस्थानीय कर्म से बन्ध और मोक्ष का सम्भव ] ४० कारिका में यह बताया गया है कि-साल्पमत में मास्मा में संसारिराव मोर मुक्तत्व को अनुपपत्तिरूप दोष जैन मत में महीं हो सकता है। इस बात का उपचारन करते हुए कहा गया है कि कर्मप्रकृति ममेकरूप है प्रति एक-पक स्थिर क्षणिक सत् असत् पापि रूपों से उस का स्वभाव पाबल-बबिध है। प्रतः उस में प्रामावरणावि के विपाकास्मक परिणामों की उप
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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