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________________ १] [ शा० प्रा० समुच्चय-स्स० ३-श्रोः २१ २. वो कारिका में इस तस्य का प्रतिपारन करते हुये प्रथम हेतु के हो प्रसिपायन की प्रतिमा को गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है विप्रतिपन्न आगम-वे आगम जिन के प्रामाण्य में जनों की विमति है, आपतपुरुष से चिल नहीं है। योकि उन में विशेष तथा इष्टविरोष है, और यह मियम है कि जिस में दृष्टविरोध एम इटावशेष होता है वह आरसपुरुष से रचित नहीं होता। उन आगमों में विराध और अष्टविरोध किस प्रकार है, यह बात हो अब बलामी हैं। (प्रासङ्गिक 'नाप्त'पदसाधुता विचार) प्रस्तृत कारिका में अंतर आगों को 'नाप्तप्रणवत' कहा गया है। भ्यासपाकारत उसकेको अर्थ बताये है, कtinारत' अनास्त से रचित होना, और दूसराहन आप्त-ii) मारत से वित महाना धन में पहला अर्थ 'नाम' पक्ष को नत्र, और आप्त पद के रामास से निप्पल मानने पर फलित होता है, किम्म ऐसा मापने पर प्रति 'नाप्स' शा को निष्पत्ति संकटग्रस्त मालुम पडती है. बयोंकि मजा पारद समासघटक होने पर न लोपोना . इस पागि व सत्र 1 से 'न' का लोप और 'सस्मासन्निपात्र E-1.5 से 'म और भारत के बीच नद् (न) का आगम हाने से-और सिद्धहम सूत्र 'अव स्वरे ।।२।१६९ से सीधा हो नत्र का अन आयेश होकर प्रमारत'शम्न हो 'अनादि' 'अनन्त' 'अमगार' आदि शारदों के समान सिद्ध हो सकता है 'नाप्त' वाम्ब नहीं, तापिणिमोयम से माकादिगणए'ठ में माता का प्रदा PTA में कोई सकट महीं कि जहां उक्त सत्रय लागूनों हति में सुरूत प्रयोग निपातन से सिव होते है । उमप्रयोगोंको 'आकृतस्य विधि: 'प्राप्त जाधमम्' अधिकाविपक्षा' इन तीन निमित्त पाकर यारणलो मिपासनरूप से घोषित करते है एवं इसके लिए आकृतिसंशक गणपा देते हैं। सिव स्यापारण में तो 'नखावमः' ।३-२-१८ मूत्रही दिया गया है। यही नख भावि' शबद से बावचन भाकृतिगण का सूचक है। प्राकृतिगण सूचक सत्र में जहां आदि शब्द एकवचनात होता है, बहसोमित अर्थात उस गणपाठ में जितने दिलिप्त ई उतने ही शव लिये जाते है. और वहां अपचनास 'आविशय होता है, जैसे कि 'नसाबमः' वहां धमा संशयाका नियम नहीं है। इसलिये प्रजम् अस्प इसि पन्नः' ' भ्रामले मभ्राट् । 'त अस्य कुलम् अम्ति ति नकुम: मासस्यम् 'तकम् स्पाविषत् 'अनाप्सअर्थ में 'नाप्स' सम्ब प्रयोग भी साधु है। तात्पर्य, पाणिनीय.याकरणामुमार नाकादिगणपाठ संव सिहमव्याकरणानुसार ममादिक्षाकृतिगण समिबेश से भारत' प्रयोग साधु सिद्ध होता है। अधया अलबत्ता मा से समास नकर के, निषेधार्थक '' अश्यप के माप ही समाप्त कर देने से "कया 'मेकत्र 'म' प्रयोगों के समान प्राप्त साम्दप्रयोग सिह हो सकता है तथापि ध्यायाकार ने गम के साथ समास करने हेनु नाकावि गण को ही गतिविधि प्रस्तुत कर 'नाप्त' काय को साधुला का समचम यह कहते हुए किया है कि जिस प्रकार 'न अकं यस्मिन् ममाफ' इस अर्थ में 'म' और अका का समास होकर नाक वारद बनसा हा जसो प्रकार 'म' और 'आम्त' पाद समास से 'माता शम्ब भी बन सकता है। दूसरा अर्थ साप्तप्रणीतता' मास्वको आप्त प्रणीता' स कप में योजित करने से और ना पाप अभाव में प्रणयम क्रिया का अन्वय करने से 'झापामगोतता का मभाव' ऐसा भी लाप
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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