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स्या क० टीका-हिली विवेचन |
मलम् - प्रतिपक्षागमानां ष्टा वितः । तथाऽनासप्रणीतत्वात्रागम न युज्यते ॥ २८ ॥
प्रतिपक्षागमानां जनातिरिक्तदर्शनानी, टेष्टाभ्यां विशेषतः अाधिनप्रत्यचादिस्वाभ्युपगमविरुद्धार्थामिधायकत्वात् इति यथार्थवाक्यार्थज्ञानशून्यवक्तुकत्वाद आगमत्वं प्रमाणदन्यं न युज्यते ॥१२
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अत्रोमयन्वभिधानेऽपि द्वितीयऽपि प्रथम एव हेतुः इत्युपजीव्यत्यात् तस्यैवाश्रावणं युक्तमित्युपदर्शयन् तदुपदर्शनमेव प्रतिज्ञानीते
मूलम् दृष्टेष्टाभ्यां विरोधाच्च तथां नासीत्तना ।
नियमाद्गम्यते यस्मात् मदसावेच दश्यते ॥ २९॥
तेषां विप्रतिप्रभागमान हप्टेष्टायां विरोधाच नाप्रणीता नामपदस्य नाकादिम ध्वनिवेशाश्रमणादनाप्रणीननेत्यर्थः । 'आसवणीतता' इत्युत्तरं नत्रो योजनात् नत्र क्रियान्वये तात्पर्यादाप्रणीतस्वाभाव निरार्थः । नियमात् ==पाविलात् गम्यते = अनुमीयते यस्माद्, तत्तस्मात् हेतोः असावेच दृष्टेष्टा विरोध एवं शब्देन श्रतां बोध्यते ॥ २६ ॥
( जनेतर मात्र अप्रामाणिक क्यों हैं ? )
कारिका का अर्थ इस प्रकार है
जैन दर्शन से अतिरिक्त सभी वर्णन का आगम वर्शन के प्रति आगम हैं किन्तु उन आगमों में जनवर्शन का विशेष करने की क्षमता नहीं है, क्योंकि वे हट और इष्ट से विरुद्ध होने के कारण निक हैं। और नागम और से अविरुद्ध होने के कारण है। अंतर आगमों में जातिप्रत्यक्ष अनुमान आदि से विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन होने से विशेष और उन्हीं भागमों में एकत्र स्वीकृत अर्थका विरोध होने से विरोध स्पष्ट है. जब किसानों में ऐसा कुछ नहीं है। कारिका में तथा शब्द से अन्य हेतु कर भी समुच्चय किया गया है. यह हेतु है 'अनाप्तप्रणीतव' नेतर सभी आगम अमाप्त = वाक्यार्थ के यथार्थमान से शून्य पुरुष द्वारा रचित है, अतः उन्हें आगम यानी प्रमाणभूत मानना उचित नहीं है ||३८||
[जनेतर शास्त्र दृष्टेष्टविरुद्ध है ]
पूर्व कारिका में जैनागम से भिन्न आगमों के प्रमाण न होने में हो हेतु बसाये गये हैं- एक हण्टविशेष तथा विशेय और दूसरा अनाणोसत्व आसपुरुष से रचित होता किन्तु ये दोनों सम्मान नहीं हैं. इस में पहला हेतु जनातिरिक्त आगमों के अप्रमाणस्व का हेतु होने के साथ ही दूसरे हेतु का भी हेतु होता है, अतः उपजोष्य होने के कारण प्रथम हेतु का हो भाग लेना उचित है ।