SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (श यार समुभ अग्रस्त० २ श्लो: २६ नन्यागमेनापि कथमयं नियमो बोवनीयः, पापादपि सुग्वदर्शनन व्यभिचारीनश्चया ? इत्यत आह मूलम् अशुमावगनुष्ठानात सौरूपप्रापितश्च या कवयित् । फलं विपापविरसा सा तथाविधकर्मणः ॥३॥ अशुभादा नुहानात् अदेयताविशेषोशन भूतप्रधानाचारादपि, या क्वचित सौख्यप्राप्तिः पुत्रप्राप्यादिजन्या, सा पिपाकविरसा आयाहनानुबम्धिनी, तथाविध. कर्मणप्राचीनपापानुमान्धपुण्यस्य फलम् । न व तत्कर्मानपंसा स्यात् । पापजनकव्यापारमपेश्श्य व तम्योदेश्यफलजनकन्त्रात्, तद्विपाकजनकनया नदपेक्षणान् । अन एव 'क्वचित इत्यनेन व्यभिचारवचनान् नन्कर्मणस्तस्कलजनकत्वमारा-तम । न हिफतत्तत्फनोदशेन नत्ताकर्म [ दुखबहुलतादृष्टा के वाक्य से प्रसंगसाधन शक्य है ] पूर्व कारिका में इस बात का संकेत किया गया है कि "सुव पति पाप से उत्पन्न हो तो उसे युःस्त्र से अधिक होना चाहिये' इस प्रसङ्गापादन के लिये सुन से तु गप के चहल होने का मान अपेक्षित है, जो उक्त प्रसङ्ग के उद्भग्वक भयवित को गुलभ नहीं है, अतः उक्त प्रसङ्गपावन सुरुशार है। प्रस्तुत २५ वी कारिका में इस संमेल के विषबात कही गयो । कारिका का अथ इस प्रकार हैं जिस व्यक्ति की सभी क्षेत्रों में मुख की अपेक्षा दुःख माहस्य का दर्शन प्राप्त है, उसके बचन में उक्स प्रमण के उद्भावक ग्यापन को भी दुसवाइल्य का बान शो सकता है, अत: उक्त प्रसङ्नानादन में कोई कठिनाई नहीं हो सकती, पोंकि संसार में हाप को अपेक्षा बु:साहस्य का जान रहने पर उपन आपादान का पर्यवसान इस प्रकार के विपरीतामुयाम में मनामा सम्पन्न हो सकता है कि सुज पापमय नहीं हो सकता क्योंकि संसार में मुखको अपेक्षा बुष अधिक है, जब कि सुख को पापजन्य मानने पर पापाधिक्य के कारण उसों को अधिक होना चाहिये। ( चुखबाहुल्यदृष्टा के वाक्य का प्रागमप्रमाण में अन्तर्भाव ) प्रसङ्गापादन के इस समर्थन के सम्बन्ध में प्रागमवावी का कहना है कि यह ठीक है कि सभी क्षेत्रों में दुःख मास्या के पचन से दु.सबाल्य का मान करके उसमे द्वारा उक्त प्रसङ्गापावन सुकर हो सकता है किन्तु तब 'मुख पापजन्य नहीं हो सकता इस बात का निश्चायक सक न हो सकेगा किन्तु मागम ही होगा, क्योंकि तक के लिये अपेक्षित वु वधाहस्य का मान समस्त क्षेत्रों में दुःखा. माहरूष के दा पुरुषपचम से होता है जो आज से भिन्न ही महा जा सकता, क्योंकि यतका मानुसरण करने वालो मति का श्रुत में ही अन्तर्भाव उचित है। __यही कारण है कि भगान सम्मतिसूचकार ने पहले 'सत्य अहेवाओ सगाथा से भक्ष्यस्य अभपस्म मावि मावों को अनुवाद का विषय साया और बाप में भागमानुमोदित हेनु को प्रवृत्ति को सृष्टि में रखकर अमियो सम्मइसण स दूसरो गाथा से उन भाषों को हतुवाब का भी विषय बताया है ॥२५
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy