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________________ स्या का टीका-हिन्दी यिवेचन ] [ २५ विधानादगादिव कल्यप्रयुक्तो व्यभिचार इति न दोष इति वाच्यं, साङ्गादपि पुष्टयादे। चत्रचित् पृप्राधनुषाददर्शनान । पलंग प्रतिबन्धकाराष्ट्रध्वम एव पवेष्टवादिफलं. प्रनिवन्धकाभावमहकनदृष्ट कारणसमाजाच्य पुत्राद्युत्पनिनि न दोष' पनि निरस्तम , प्रतिकूलकर्माभाववदनुकूलकणारेऽष्यवश्यमनणात । ततिपकार्थमेव नत्कान्यामिद्धेः ॥२३॥ इदमेव रवानेन इलयात (अशुभानुष्ठान से मुख्य प्राप्ति वस्तुतः जन्मान्तरोयकर्म का फल है) पाप से भो सुको उत्पत्ति धेयो जाती है, अतः पुत्र के अभाव में भी लुल का जन्म होने से ग्यतिरेक व्यभिचार होने के कारण 'पूप से सुख होता है। इस नियम का निश्चय मागम से सो कैसे हो सकता है ? २६वीं कारिका में ग्रो प्रश्न का उत्तर दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है___यह सही है कि देवता के प्रोपर्थ प्राणिवध जसे लिप्रदान आदि अशुभ कमों के करने से कमी कभी पुत्र प्राषि का लाभ होने में सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु वह मुख प्रारित भविष्य में अहित का जनक होती है अतः वह पूर्वकृत पापानुबन्धो पुण्य का ही फल होता है कि श्वेवतोद्देश्यक प्राविध आवि से होने वाले पाप का फल होता है। उन कर्मों की अपेमातोशमलिये होतो है कि पापानमन्धी पुण्य पापकृत्यों के सहयोग से हो अमोण्ट फर नमक होते हैं. अतः उक्त पुण्य के मिपाकाथ ही उस कृत्यों की आवश्यकता होती है। इसीलिये उक्त पाप कृश्यों सेवित हो सुख प्राप्ति होने की बात कह कर उन्हें सुख का व्यभिचारी बता कर उन को मुजनकता का निराकरण बित किया गया है। यह कहा जा सकता है कि-"इस जन्म में होनेवाले तत्तत् फलों के लिये ही सतत कमी का विधान है। अत: तत्तत् कर्म सतत फल के कारण तो हैं ही, कभी कभी यदि उन कर्मों से उन फलों की प्राप्ति नहीं होती तो यह बात जर को बनविकरलता के कारचा होती हैं। अतः अङ्गसम्पन्न को को तत्तत् फल का कारण मानने में ज्यभिचार शो हो सकप्ता क्रिम्स यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण अङ्गों से सम्पन्न मी पुत्रेष्टि आदि याग से पति-पत्नी को शारीरिक अक्षमता के कारण पुत्र को 'उत्पत्ति नहीं होती, अत: अङ्गसम्पम कर्मों को मो तत्तत् फल का कारण मानने में श्यभिचार का होना निषिताव है। इस पर यह कहना कि-"पुत्रेष्टि का फल पुत्रोत्पत्ति नहीं है किन्तु पुत्रोत्पत्ति के प्रतिबन्धक अशष्ट का विनाश है. पुत्रोत्पसि सो प्रतिबन्ध का अभाव हो जाने पर पुष जन्म के कारणों से हो सम्मान होती है वह ठीक नहीं है, क्योंकि फलोत्पत्ति में प्रतिकूल कम के अभाव समान अनुकुल कर्म का होना भी आवश्यक है। अतः अनुकूल कम के ताधिष्यसम्पादनाथं ही अवातर कमों की अपेक्षा होने से, अवान्सरकम अनुकुलकर्म के फल के प्रति अपमासिस होते हैं। इसलिये यह मिक मरिमना सात है कि रेसा उदम से किये जानेवाले प्राणिषय आदि कर्म की अपमोगिता पूर्वकृत पापानुसन्धी पुण्य को फलोन्मुख बनाने मात्र में है, फलोदय तो उस पुण्य का ही कार्य होता है ।।२६।। अशुभ कर्मों के अनुमान से होनेवाला इष्टलाभ उन कर्मों का फल होकर पूर्वहस पापानुबन्धी पुषध का ही फल होता है, इस पूर्वमारिकोषत विषय को ५७ वीं कारिका में सातारा पृट किया या कारिका का भय इस प्रकार है
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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