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[ शा.पा. समुरुषय स्व०-३५शोक-३
अस्या-कार्यादीश्वरसिद्धिः, 'कार्य सक कम् कार्यत्वात् । इत्यनुमानात् । न च कार्यत्वस्य कृतिसाध्ययलक्षणस्य मित्यादारसिद्धिरिति वाच्यम्, फालपृश्यत्यन्ताभाषप्रतियोगित्वे सति, प्रागभावप्रतियोगित्वे सनि, ध्वंसप्रतियोगित्वं सति पा सभ्यस्य हेतुत्वात् । पक्षतावच्छेदकारनछेदेन माध्यसिद्धरुद्देश्यत्वाच्च न कार्थस्य घटादेः सत्त्व सिद्धर्या:शतः सिद्धसाधनम्, न वा पानावनोदकस्य हेतुत्वं दोषः, 'कार्यत्वं साध्यसमानाधिकरणम्' इति गइचारग्रहेऽपि 'कार्य सक्त कम्' इनि बुद्धरभावाच्य । संकेत किया है। उन में कार्य से ईश्वर का अनुमान पहला अनुमान है जिस का प्रयोग रस प्रकार होता है
[ कार्य-हेतुक अनुमान ] 'कार्य सकटक होता है क्योंकि वह कार्य है-इस अनुमानप्रयोग के द्वारा कार्य हेतु से ईश्वर की सिशि होती है । इस पर यह शंका हो सकती है कि-'कार्यत्व हेतु का अर्थ है कृतिसाध्यत्व पौर यह पक्ष के अन्तर्गत मानेवासे मित्यादि में पशिख है। इसलिए कार्यत्व हेतु के मागासिद्ध हो जाने से उससे संपूर्ण कार्य में सक कल्प का अनुमान नहीं किया जा सकता । क्योंकि उसके लिये समस्त कार्य में हेतु का होमा आवश्यक है ।-हिन्तु यह बांका कार्यत्व हेतु का मिमोस्त रूप में नियंचम कर थेने पर निखसोपाती है । अंले-कायत का अर्थ है हालति-आयनतामाप का प्रतियोगो हो । भावात्मकमोनास प्रकार काकायस्पक्षिस्थावि में विद्यमानयोफिक्षिरयादिभावाश्मक और वित्यादि अस्पति के पूर्वकाल में और क्षिश्यारिविनाशकाल में उसका आयस्ताभाव होने से वह कालपत्ति अस्वम्लामात्र का प्रतियोगी है। कार्यस्व के इस परिकल स्वरूप में सस्त्र-मावास्मकत्व का संनिवेश विंस में व्यभिचार धारण करने के लिये आवश्यक है। यदि यह कहा जाय कि-"प्राचीन नंयायिक मत मेंस और प्रागभाव के साथ अत्यन्ताभाव का विरोध होने से नित्यादि का अश्यस्ताभाव उसके उत्पति के पूर्वकाल तथा विनाशका में नहीं रह सकता क्योंकि पूर्वकाल में उसके अत्यन्ताभाव का बिरोधी उसका प्रागभाव और विनाशकाल में अत्यन्तामा का विरोयो म्यस विद्यमान होता है। मित्यादि के अस्तित्वकाल में भी भित्यादि का अत्यन्तामाव नहीं रश सकता क्योंकि उस समय वित्यादि स्वयं ही अपने अत्याताभावका विरोधी विद्यमान होता है। अत: क्षिप्त्यादि में कालवृत्तिअत्यन्तामावप्रतियोगिस्व संभव न होने से उक्त कार्यस्व हेतु स्वरूपासिड हो जाता है। मौन धायिक मत में भी उक्त कामस्व हेतु से सातत्व का अनुमान नहीं किया जा सकताबयोंकि मिस्यास्य कातिक सम्बन्ध से किसी में भीमही रहतास मत के अनुसार निरयम्बकालपूतिमत्यम्लामायका प्रतियोगी भावारमकवस्तू किन्तु सकर्तृक नहीं है। इस प्रकार निस्पत्रव्यों में उक्त कार्यत्व हेनु में सात मत्व का व्यभिचार स्पष्ट है।
(कार्यस्व प्रागभावप्रतियोगिसत्त्व) इस वोष का परिहार करने के लिये कार्यत्वको प्रागमाव-प्रतियोगिश्वे सति स्व रूप में परिकृत करना आवश्यक है, किन्तु प्रागमासन मानने वाले कीधितिकार आदि के मत में प्रागमारत तसित हो जाने से जातानुमान के द्वारा लिस्यादि सक करव की सिद्धि नहीं होती । तथापि यंत प्रतियोगिस्वे सति सस्व' को कार्यक्ष मानकर उस से संपूर्ण कार्य में सार्नुकस्यका अनुमान करने में कोई