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स्पा० १० टीका-हिन्दी विषन ]
युगपहुभयोत्पत्तियारणायसामग्रश्रा अपरत्र प्रतिभन्धत्वकल्पने गौरवम् , चहन्यादेशाब्दानुमितेः अपरस्य शाम्दानुमितेरचैकदोत्पत्तिवारणाय तथापि शान्दानुमितेः शादतरानुमितिप्रतिबन्धकत्वकल्पनाबश्यकत्वात् , इत्यन्यत्र विस्तारः ॥७॥ निगमयमाह
मूलम्-तस्माद यथादितासम्गागमालयात प्रमाणतः ।
हिंसादिभ्योऽशुभाानि नियमोऽपं व्यवस्थिमः ||८|| तस्माद्-उक्तोपपत्ते, गधाविमात्-पृथक् प्रमाणत्वेन व्यवस्थापितात , सम्यगागमाख्यात-आमोक्तशब्दाभिधानात् प्रमाणता, हिंसादिभ्या-हिंसाऽइिंसादिभ्यः, पशभापोनि-पायपुग्यानि, बहुवचनाद् दुःखमुखादिसंग्रहः, अयं नियमा=नियतहेतुहेतुमझाया, व्यवस्थित सिद्भः॥८॥
('शाश्वयामि' अनुव्यवसाय से शल्यस्वतन्त्रप्रमाण की सिद्धि) वास्तविक बात तो यह है कि सभ्य बोध का अनुभव अनुमितिस्वरूप से न होकर सामरवहाराही होता । पाक
पर
श नानुमिनोमि किन्तु माश्यपामि-मुझे शम्द से पर्थ कि अनुमति नहीं है किन्तु शास्ता है इस प्रकार का मुध्यवसाय होता है, इस अनुम्यवसाय से अनुमिति विषपता से शाम्यमान को विलमग विषयता सिद्ध होने से भासमान में अनुमितिभिन्नता की सिद्धि अनिवार्य है।
(उभयपक्ष में गौरव तुल्यता) 'शाबोध को अनुमिति से भिन्न मानने पर किसी एक विषम के शासबोध और उसी विषय की अनुमिति को मानबियों का एक काल में सविधान होने पर एक हो समय उस विषय के नाम्दयोष और अनुमति की उत्पसिका वारण करने के लिए एक की सामग्री को अग्य के प्रति प्रतिवरषक मानने से गौरव हागास प्रकार बायपोध के अनुमितिभिन्नता पक्ष में गौरव सोष का बापावन उचित नहीं हो सकता, क्योंकि शायदोष के अनुमितिरूपता पक्ष में भी इस प्रकार का दोष अनिवार्य है. बंस बलि की मशालय अनुमिति और अन्य वस्तुको बारूद अनुमिति की सामग्रियों का एक काल में सन्निधान होने पर दोनों अमितियों की एक साथ उत्पत्ति न होकर पहले पाय अनुमिति की ही उत्पत्ति होती है, अत: अशाच्य अनुमिति के प्रति हाम्च अनुमिनिकी सामग्रीको प्रतिबन्धक मानना भावाषक हो जायगा। इस विषप का विस्तृत विचार अन्यत्र किया गया है ।
(हिसादि से पाप और अहिंसापि से पुण्य'-नियम को सिवि) साठवीं कारिका में पूर्वोक्त विचार का उपसंहार करते हमे यह कहा गया है कि उम्तयुक्तिमों से यह सिद्ध है कि शव एक स्वतन्त्र प्रमाण है और अनागम भाप्सोक्त शब्द होने से असन्दिग्ध प्रमाण ह । इस प्रमाण से हिंसा आधि का पाप आदि के साथ यह नियत हेतु तुमाद्भाव सिद्ध हक