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स्या का रीका-हिन्दीविचेचना ]
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घटादिसंप्रदायप्रवर्तकन्ये च पराभिमतेश्वरम्य मायायित्तरमेव विद्याधर विशेषस्थ व्यञ्जयति । पितुरिव पुत्रादेयुगादी युगादीशस्य जगतः शिक्षया नु तथा युक्तिमत् , स्वभाव एव वार्थकता परोपकारित्वात् । अत एव 'कूलालेभ्यो नमः' इत्याषा श्रुतिः संगच्छत इति युक्न पश्यामः । अनुमानऽपि सिद्धसाधनं बोध्यम् ।
प्रत्ययादिना तु येदप्रामाण्यवादिनामाम-तक्त सिद्धावपि नेश्वरसिद्धिा, इति किमिह मदुपन्यासेन १ एतेन कार्यादिपदानामर्थान्तरमाप प्रयासमात्रम् । 'जन्यतत्प्रमासामान्ये तस्प्रम त्वेन गुणतया हेतुस्यात् , पाद्यप्रमाजनकप्रमाश्यतयेश्वसिद्धिः' इति तु मूढानो वचः, घटखादिमातविशेष्यतया तत्र घटस्यादिमिपरत्वेनैव हेतु तया, संस्कारणच घटत्वादिसंबन्धहेतमयैव वा सवापि निबाहान् , अस्माकं तु सम्यग्दर्शनस्यैत्र गुणत्वान् । सम्बाम का पाह: पोर घटादि पदार्थ के व्यवहार का प्रवर्तक कह सकता है जो करचर स्पमुखकणं मावि से विहीन मोर अशरीरी होने से वस्तुतः कुछ भी करने में असमय है। हो, यह घुक्तिसङ्गत प्रवाप हो सकता है कि जैसे पिता अपने पुत्र को शिक्षा देता है उसी प्रकार पुगावि में प्रारम्भिक युग का ईश प्रममतीर्थकर जगत को शिक्षा सम्मान
लीक हो ग वीस होते है और वह स्वमात्र से ही सर्व जीवों का हितेन्छु होने से उन्हें जरवेश देते हैं। इसी प्रकार ताकर मी युगापि में बिना किसी निमी प्रयोजन के केवल स्वभाववश प्रजा को उपदेश देते हैं। इस प्रकार 'मम कुनालेभ्यः प्रावि श्रुतियां भी सङ्गत हो सकती है । और इसी कारण सत्संप्रदाय के स्वतंत्र प्रवर्तक के अनुमान में सिद्धसाधन दोष भी हो सकता है क्योंकि प्रत्येक युगादि में उस घुगका प्रावि तीर्थकर तत्तसंप्रदाय के प्रवर्तक रूप से सिल है।
[प्रत्ययावि प्रमाणों की निरर्थकता ] प्रत्यय-प्रमा, श्रुति-वेद और वाक्य द्वारा मी ईश्वर की मिति नहीं हो सकती क्योंकि जो वेद को प्रमाण मानते हैं उन के मत में प्रमा वेब पोर वाक्य से होने वाले मनुमानों से वेदार्थ के प्रमाता बेवफर्ता की सिद्धि हो सकती है किन्तु वह विवर है। यह बात उन अनुमानों से मी सिद्ध हो सकती, क्योंकि हिरबर को सर्वकर्ता माना जाता है और वे अनुमान बिप्त पुरुष को सिद्ध करते हैं उस की सर्वशता और समतताको सिद्ध करने में उवासीन है। इसीलिये कार्य प्रायोजनात पों का प्रग्य पर्थ कर के जिन भनेक प्रनुमानों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है उन अनुमानों से भी समंजसकतः ईश्वर की सिद्धि नहीं होती. घोंकि वे प्रनुमान मी जिस पुरुष का साधन कर पाते हैं उसे देव वेसर्थविषयकतापर्य का धारक. यागावि का पनुष्ठाता, प्रणवावि पत्रों का दोध्य, बेवस्थ महं पर का स्वतंत्र उच्चारण कर्ता, मावि हो सिन्द कर पाते हैं किन्तु उस को मिला और सत्ता प्रमाणित करने में वे सर्वथा असमर्थ रहते हैं । इसलिये कार्य आयोजन स्थावि पत्रों के प्रोक्त प्रम्य की की कल्पना कर के अनुमान करने का प्रयास ही श्वर सिद्धि कोष्टि से मिरर्थक कष्टमात्र ही है।
कुछ लोग ईश्वर को सिद्ध करने के लिये इस प्रकार के अनुमान का प्रयोग करते हैं कि विशेष्यतासम्बन्ध से अन्य तरप्रकारकप्रमासामाश्य में विशेषयता सम्बन्ध से सरकारक प्रमा गुणविधया कारण