________________
[शा.पा ममुमचा स्त-३श्लोक
है। 'गुणविधया कारण' का पर्ण कि 'गुण'इस प्रघांसा सूचक वाद से बहत होनाला कारण । प्रमा अपने विषय का प्रयभिवारीमान होता है। उस से मनुष्य पोखा नहीं होता। इसलि जप्त के कारण को प्रशंसा बोधक गुण शाम्ब से व्यवहत किया जाता है। इस कार्यकारण भाव का अभिप्राय यह है कि प्रमा उसी विषय की होती है जिस विषय को प्रमा कमी पहले हुई रहती है। मोर जो विषय पहले कमी नहीं प्रमित रजसा उस की प्रपा नहीं होती। इसलिये ममत् पदार्थ को प्रमा कभी नहीं हो सकती क्योंकि उसकी प्रमा पहले कभी हई रहती नहीं है। इस कार्यकारण भाव से ईश्वर की सिटिइस अनुमान से होती है फि 'सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाली पहली जन्यममा अपने समान विषयक प्रमा से अन्य है क्योंकि यह प्रमा है। जो भी प्रमा होती है वह समानयिषसक प्रमा से जन्य होती है जैसे बार में होनेवाली घटत्वावि की प्रमा पूर्व में होने वाली घटत्वादि प्रमा से उत्पन्न होती हैं। इस अनुमान से आचत्रमा की जनक कोई ऐसी प्रम। माननी होगी जिस को समानविषयक मन्यप्रमा की मावस्यकता न हो और यह तो हो सकता है जब वह प्रमा निस्य हो । इस प्रकार को प्रमा सिद्ध हो जाने पर उसके साश्रषरूप में ईश्वर को सिधि अनिवार्य हो जाती है।
व्याख्याकार श्री पशोदिजयजी महाराज स्वर सिद्धि के सम्बन्ध में इस कचन को मूढकथन सूचित करते है। क्योंकि उनकी दृष्टि में जन्य सत्प्रकारक प्रमा सामान्य में तत्प्रकारक प्रमा कारण है यह कार्यकारणभाव ही मनावश्यक है। उन का कहना है कि घभिन्न में घटत्व प्रकारक प्रमा की प्रापसि का वारण करने के लिये नैयायिक को घटसिविशेष्यता सम्बन्ध से घटत्वप्रकारकप्रमा के प्रति घटत्व कोही समवाय सम्बन्ध में कारण मान लेना चाहिये। सभा घटत्यप्रकारक प्रमा कोही संस्कार द्वारा कारण मान लेना चाही किंवा घटत्यसमवाय को स्वरूप सम्बन्ध से कारण मान देना चाहीये । प्रथम और तृतीय पक्ष में प्रमा की उत्पत्ति में प्रमाको अपेक्षा ही नहीं होती । प्रात: आच प्रमा के लिये ईश्वरीय प्रमा की सिसि नहीं हो सकती । और द्वितीय पक्ष में प्रमा की उत्पत्ति में प्रमा की अपेक्षा होने पर भी उस के स्वयं रहने की अपेक्षा नहीं होती किन्तु उस से उत्पादित संस्कार की अपेक्षा होता है। मत: इस पक्ष में भी मात्र प्रमा के लिये ईश्वरीय प्रमा की सिद्धि नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी उत्पत्ति पूर्वसर्ग की प्रमा से स्पादित संस्कार वारा हो सकती है पद्यपि यह द्वितीयपक्षीय कार्यकारणभाव उषित नहीं नहीं हो सकता क्योंकि उस पक्ष में संस्कार अन्य होने से प्रमा मात्र में स्मात्तत्व को प्रापत्ति होगी प्रथम पक्षमें घटस्वको कारण मानने पर घटायरवको कारणसादरक मानना पड़ेगा और घटत्वष घटेसरासमवेतवे सति सफल घटसमवेतवरूप है पत घटस्थ को कारण मानने में गौरव होगा। प्रत एक प्रथम कार्यकारणभाव भी उचित नहीं हो सकता । किन्तु तृतीय पक्ष हो उचित हो सकता है क्योंकि थदश्व समवाय को कारण मानने पर समवायत्व मोर घटस्य को धर्म कारणता के प्रबच्छेवक होगे ! उन में समवायस्व प्रखण्ड उपाधि है और घटस्य समवायसम्बन्ध से अनुत्सित्यमान होने के कारण स्वरूपात: कारणतावच्छेदक होगा । इसलिये घरव समवाय को कारण मानने में गौरव नहीं होगा। इस प्रकार इस कार्यकारण भाव से हो घटभिन्न में घटस्थ प्रकारक प्रमा की मापत्तिका वारणा हो जायगा। पत: तत्प्रकारक जन्यममा सामान्य में तरकारकमा को कारण मानने को पावापकता नहीं है श्रीयशोविजयजी महाराज मेस प्रसङ्ग में यह भी कहा है कि प्राहकों के मत में तो जरत प्रकार के कार्यकारण भावों को कल्पना के प्रपत्र में पड़ने की कोई पावायकता हो महीं है । ग्योंकि उस मत में सम्पग वर्शम हो प्रमा का गुणविधया कारण होता है। घटभिन्न म घट