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________________ ४६] [ शास्त्रमा समुच्चय एस. ३-लोक ९७ शास्त्रापिरोधेन-युक्त्याऽऽगमबाधा यथा न स्यात् तथा, न तु यथाश्रुतग्रहणमात्रेणाऽऽध्ये मज्जनीयं मनः, अन्यथा 'ग्रावाणः प्लबन्ने' इत्यादिश्रुतिश्रवणेन गगनमेवाऽवलोकनीयं स्यात् । मन पराऽभियुक्तसंमतिमाह-यथा मनुरपि अदा-वक्ष्यमाणम् आह ॥१६॥ किम् ।। हत्याहमूखम-आर्ष च धर्मशास्त्रं च वेदशास्त्राऽपिरोधिना । यस्तगानुसंधत्तं स धर्म घेद नेतरः ॥१७॥ आप-वेदादि, धर्मशास्त्रं च पुराणादि । 'आय धर्मोपदेशे च' इति क्वचित् पाठः, सनाऽप्ययमेवार्थ:-आ-मन्पादिवाश्यम् , धर्मजनक उपदेशः धर्मोपदेशः, धर्मस्येश्वरस्य पोपदेशो धर्मोपदेशस्त, 'वेदम् इत्यन्ये । वेदशास्त्राविरोधिना--परस्परं तदुभयाऽविरोधिना तःण यः अनुसंधत्ते-तदर्थमनुस्मरति, स धर्म धेद-जानाति, नेतर:-ऊहरहिनः । तस्मादीश्वरकत - समारने का प्रयत्न किया जाप जिस से मुमुल के मार्ग में कोई कठिनाई नहो और युक्तिया शास्त्रका aif पिरोषमहो। अंसा नहीं बताये कि उनके शामों से जो भी अर्थ मापाततः प्रतीत हो असेही परमार्थ मानकर उसी में अपने मन को अभिनिविष्ट कर दिया जाय, योकि एसा होने पर 'प्रामाण: सबाले परपर तैरते है ऐसे बयानों को सुनकर आश्चर्यचकित हो साकार के प्रति देखने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस विषय में प्राहंतों को ही सम्मति हैतमा ही नहीं अपितु मम्प मतावलम्बियों के सम्मान्य पुरुष को भी सम्मति है । उखाहरणार्य मनु के इस माशय का पचम प्रस्तुत किया जा सकता है (धर्म तत्त्व के मोष का उपाय तानुसंधान-मनुवचन) पूर्व कारिका में मनु के जिप्त वचन का संस किया गया है, १७ वी कारिका उस बयान में रूप में ही अवतरित की गई हैं। कारिका का अर्थ यह है को व्यक्ति भूषित वेवावि शास्त्रों को और पुराणादि धर्मशास्त्रों को पेव और शास्त्र अधिरोषीमास्त्र से विरुद्ध न पड़ने वाले, तर्फवारा समझता अर्भात ऐसे तर्क से वेद और धर्मशास्त्र के का निर्धारण करता है कोलक व मोर शास्त्री से सिद्ध न हो, हो ग्यमित धर्म के स्वको शाम पाता है। और जो तकं की सहायता नहीं लेता यह पर्म के शस्त्रको महो समान सकता । वास्या. कार ने इस कारिका की व्याख्या करते हुये 'आर्य धर्मोपदेस मनुवशम के पाठरता का भी उल्लेख किया है और उस का मोमीनार्थ किया है 'को आर्व चर्मशाम्पब इस पार से मिल मत अन्य लोगों द्वारा वार्षभर्मोपदेश' इस पाठ का दूसरा अर्थ किया गया है उसका जस्लेख ग्याल्याकार ने इस प्रकार किया है कि आर्ष शब्द का अर्थ है ममुनावि ऋषियों का वाक्य जैसे 'मनुस्मृति' आदि प्रम्प, मोर 'पर्योपवेश' साध का ब है बंद, क्योंकि देवके पाठ धर्म होता है, और वेव से पर्म और सिर के स्वरूप का नाम होता है। शास्त्र के तारपयका मिर्गय करने के लिये शास्त्राऽविरोधी तक अवलम्बन की आवश्यकता के सम्बश्य में माहतों और पराभिमत मनु आदि शिष्टपुरुषों को सम्मति ताका व्यापाकार ने
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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