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मा०० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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नानुप:, इति एतत् अशुक्तिमत् = अनुभवाचितम्। घटादिमंविस्तिव देहस्पशादियांत्रनिरात्मनोऽतन्मयन्येऽप्युपपत्स्यत' इत्यत आह- इयं च - देहम्पदिनेवितिश्व अन्योन्यष्यामिजा गुड शुण्ठीच्ययोरिव शरीराऽऽत्मनोजव्यन्तरायशिप्रभवा प्रतिप्रतिकं तदनुभवाद एकामावेऽप्यभावाच्च । युक्तं चैतत् अविभागदर्शनात् नवत्यादेरेक निष्टत्वेऽतिप्रसङ्गात् पा सज्यवृत्तित्वे च परस्यापसिद्धान्तः, व्यासज्यवृत्तिज्ञान्यनभ्युपगमात् एफाश्रयत्वानुभवषिरोधात् शरीराऽप्रत्यक्षेण्यन्धकारे नरत्वप्रतीत्यनुपपतेव तदिदमाह भगवान सम्म तकारः*apavargamot at a é ufo ikeamage,
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जह बुद्ध-पाणियाणं ज्ञावंत विसेसपज्जाया ।। [सम्मति० गाथा ४७ ] ॥ अन्योन्यानुगतयोरात्म-कर्मणोदुग्ध पानीययोग्य यावन्तो विशेषपयार्यस्तावत्सु 'हर्द
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वा तद् वा इति विभजनमयुक्तम् प्रमाणाभावात् । एवं तर्हि ज्ञानादयोऽपि देहे स्युः देहरूपाकभी मूर्त नहीं होता' अनुभव से वापिस होने के कारण प्रयुक्त है । यदि यह कहा जायजामा में घटादिरूपता न होने पर भी उसको घटादि का अनुभव होता है, उसी प्रहार देह स्पर्शाति न होने पर भी स्पर्शादि का अनुभव आत्मा को हो सकता है। श्रतः मात्मा को देहस्परिमय मानकर अमूर्त्त को मूर्त के रूप में परिणत होने की सिद्धि नहीं की जा सकती तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा को पद की अनुभूति होती है यह बेह और मामा को एक दूसरे में व्याप्ति होने से ही होती है जैसे गुड और के इन दोनों द्रव्यों का परस्पर में मिश्रण हो जाने पर ही एक में दूसरे के धर्म की अनुभूति होती है उसी प्रकार देह और श्रात्मा का परस्पर में मिश्रण हो जाने पर हो एक में दूसरे के धर्म की अनुभूति होती है, वह और आत्मा का परस्पर में मिश्रण अर्थात धारमा में देश रूपता और देह में प्रारमरूपता होने पर ही प्रामा में देहस्पचादि की अनुभूति हो सकती है। [ सांख्यमत में देहात्म विभाग को अनुपपत्ति ]
यह इसलिये मानना आवश्यक है कि दोनों में दोनों के धर्मो को अनुभूति होती है और एक के प्रभाव में दूसरे को अनुभूति नहीं होती और यही युक्तिसंगत भी है क्योंकि देह और श्रात्मा में विभाग देखा जाता है ।
सरियल और मात्मा का यह अविभाग नहीं उपपत्र हो सकता है क्योंकि नरश्व आदि धर्मो को एकमात्रगत मानने पर दूसरे में उसका प्रतुभव मानने पर प्रसिद्ध होगा और उभयलि अर्थात् देह-प्रारम उभयगत मानने पर अपसिद्धान्त होगा, क्योंकि साश्य मत में व्यासवृति जाति नहीं मानी जाती है। नरत्व और आत्मस्व में 'अहं नर:' इस प्रकार एकाधिकरणता का अनुभव होता है सांख्यमत में इसकी उपपत्ति नहीं हो सकत। एवं प्रभ्धकार में शरीर का प्रत्यक्ष न होने पर भी नरव को प्रतीत होती है, सायमत में इसकी भी उपपत्ति नहीं हो सकती । जनमत में इन त्रुटियों की संभावना नहीं होती क्योंकि देह और श्रात्मा का प्रयोग्य मिश्रा होने के कारण पश्मा में देह धर्म मोर येह में परमधर्म को अनुति होने में कोई बाधा नहीं होती । भगवान् सन्मतिकार ने इस बात को 'प्रयोगा' इस गाया से स्पष्ट किया है। गाया का अर्थ इस प्रकार है
१] अन्योन्यनुनयोर बात बेसि विभाजनमयुक्तमपानीययोर्यायो विशेषपर्यायाः ।