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[ शा० वा० समुचय ०२ एल०-५७
प्रति हेतुतासिद्धिः, तदवच्छिमनियतपूर्ववर्त्तित्त्व निश्चयादेवता चरस रखेऽवश्यं पटोत्पतिरिति निश्वयेन कृतिसाध्यताधीसंभवात्, अप्रामाणिक व्यवहारानुपपत्तिरूपमाकस्मिकत्वं तु न बाधकम् । युक्तं चैतद्, अनन्तनियतपूर्ववर्त्तिष्य नन्यथासिद्धत्वा कल्पनेन लाघवात् इत्याः ॥५६॥ ॥ उक्तः कालवादः ॥
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मूलम् न स्वभावातिरेकेण गर्भयालशुभादिकम् परिकचिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल ॥५७॥
स्वभाषातिरेकेण = स्वभावमतिवृत्य, गर्भ बाल- शुभादिकं यत् किञ्चित्कार्यं लोके न कारण कादाचित्कत्वजायते, तत् तस्मात् कारणात् 'किल' इनि सत्ये असा स्वभावः, नियामकः) आकाशत्वादीनां क्याविन्कन्ववद् पदादीनां कादाचित्कन्येतराऽनियम्यत्वात् । आकाशत्वादीनामन्यत्र सध्ये तत्स्वभावत्वाभावप्रसङ्गस्येव कादाचित्कत्वस्याऽपि गगनादौ
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उपपत्ति के लिये कारण की कल्पना आवश्यक नहीं है। "तथापि क्षण के समान हो कपालावि भी घटाव के नियतपूर्ववत होने से उनको कारणता का अपलाप कैसे हो सकता है ! यह प्रश्न भो afer है क्यों कि क्षण के अवश्य होने से शेष सभी कारण अवश्य नितिन कार्य सम्भवे समिन्यथासिद्धं इसम अन्ययासिद्धि के आश्रय हो जाते हैं।
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-क्षण के समान जो अन्य पाच कार्य के मियतपूर्ववत होते है. काल द्वारा उनके अन्यथासिद्ध हो जाने से उनमें कारणत्व का प्रतिषेध होता है. यह ठीक है, किन्तु तसच तो तसं कार्य का कारण होता है, पटराव का कारण तो होता नहीं अतः उसके आकस्मिकरण को आपति के वारणार्थ पदके प्रति स्तुत्याद्यस्को कारण माममा आवश्यक है" यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिसने पदार्थों में पटरवाद्यवनिका नियमपूर्वपतिश्व निश्चित होता है उसने का सन्निधान होने पर पटस्थ की उत्पति होती है. इस निश्चय से उतने पदार्थों के समधान में कृतिसाध्यता के नाम से उक्त आकस्मिकत्वापसिका वारण हो सकता है, अतः परत्वाच के प्रति अतिरिक्त कारण की कल्पना अनावश्यक है। लस्तु आदि में पटकारण का व्यवहार अप्रामा पिक है अतः पट के अन्य नियतपूतियों में अध्याय की पत्रा न करने में होने वाले साधन के अनुरोध से उनमें पटावि के कारणरण का त्याग ही उचित है । ५६॥
( सर्व कार्य का कारण एकमात्र स्वभाव )
५७ को कारिका में स्वभावचाव का उपपादन किया गया है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है
गर्भ, बाल, शुभ स्वर्ग आदि जो कोई भी कार्य संसार में होता है वह स्वभाव का अतिक्रमण करके नहीं होता. इसलिये स्वभाव हो कार्यों का कारण है. उसी मे कार्यों के कार्याधरकरण -कभी होने और कभी न होने का नियमन होता है। प्राकाशस्थ आदि के चित्रण किसी स्थान में होने और किसी स्थान में न होने का नियामक से स्वभाव से भिन्न दूसरा कुछ नहीं है उसी प्रकार घट आणि कार्यों के कायाकल्प का भी नियामक स्वभाव से भिन्न कुछ नहीं हो सकता | जसे आधात्य आदि को घटादिनिष्ठ