Book Title: Sabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Author(s): Thakurprasad Sharma
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004021/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनम:सिद्धेभ्यः रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला। श्रीमदुमाखातिविरचितम् सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । व्याकरणाचार्यपण्डितठाकुरप्रसादशर्मभणीत हिन्दीभाषानुवादसहितम् । तच स्वर्गीय शा तेजसीनत्थूइत्यभिधानस्य स्मरणार्थ मुम्बापुरीस्थश्रीपरमश्रुतप्रभावकमण्डलस्वत्वाधिकारिभिः निर्णयसागराख्यमुद्रणालये मुद्रयित्वा प्राकाश्यं नीतम् । श्रीवीरनिर्वाणसंवत् २४ For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा. नरसीभाई तेजसी तरफथी पोताना स्वर्गस्थ पिता श्री तेजसी नत्थुना स्मरणार्थ श्रीमदुमाखातिरचित सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र नामक परमोत्तम ग्रन्थ, भाषानुवाद तैयार कराववामा __ अने छपाववामां सहायता रूपे रु. २५०) अढीसोनी रकम रायचंद्रजैनशास्त्रमालाने अर्पण कीधी छे. For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः। उत्थानिका। तत्वार्थसूत्र। तत्त्वार्थसूत्र, जिसका अपरनाम तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र भी है, जैनियोंका परममान्य और मुख्य ग्रन्थ है । इसमें जैनधर्मके सम्पूर्ण सिद्धान्त बड़े लाघवसे संग्रह किये गये हैं। ऐसा कोई भी जैनसिद्धान्त नहीं है, जो इसके सूत्रोंमें संगठित न हो। सिद्धान्तसागरको एक अत्यन्त छोटेसे तत्त्वार्थरूपी घटमें भर देना यह कार्य इसके क्षमताशाली रचयिताका ही था । तत्त्वार्थके छोटे २ सूत्रोंके अर्थगांभीर्यको देखकर विद्वानोंको विस्मित होना पड़ता है, और उसके रचयिताकी सहस्रमुखसे प्रशंसा करनी पड़ती है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम चार अध्यायोंमें जीवतत्त्वका, पांचवेंमें अजीव (पुद्गल ) का, छठे सातवेमें आस्रवका, आठवेंमें बंधका, नवमेंमें संवर और निर्जराका और अन्तके दशवें अध्यायमें मोक्षतत्त्वका वर्णन है । इस प्रकार इसमें जैनियोंके माने हुए सप्ततत्त्वोंका विवरण है । यथा-- पढम चउक्के पढमं पंचमे जाण पुग्गलं तच्चं । छहसत्तमेसु आसव, अठ्ठमे बंधं च णायव्यो । णवमे संवरणिज्जर दहमे मोक्खं वियाणेहि । इह सत्ततच्च भणियं दहसुत्ते मुणिवरिंदेहिं ॥ तत्त्वार्थसूत्रके मूलका भगवत् उमास्वामि अथवा उमास्वाति हैं। इन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही पूज्य मानते हैं, और इसी प्रकार उनके बनाये हुए मोक्षशास्त्रको भी आदरणीय समझते हैं । दोनों ही सम्प्रदायोंके आचार्योने तत्त्वार्थसूत्र पर बड़े २ भाष्य और टीकाग्रन्थ रचे हैं । और मैं समझता हूं, तत्त्वार्थसूत्रपर जितने भाष्य और टीकाग्रन्थ बने हैं, कदाचित् ही किसी दूसरे ग्रन्थपर बने हों। सुतरां कहा जा सकता है कि, तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ जैसा अद्वितीय बना; लोगोंने आदर भी उसका वैसा ही किया । तत्त्वार्थसूत्रपर आज तक कितने भाष्य और टीकाग्रन्थ लिखे गये हैं, साधनाभावसे उन सबका उल्लेख न करके मैं यहां कुछ टीका ग्रन्थोंकी सूची देता हूं, जो अनेक भंडारोंके सूचीपत्रों और रिपोर्टोसे तयार की गई है। १ दिगम्बर समाजमें उमास्वामि नामका और श्वेताम्बर समाजमें उमास्वाति नामका अतिशय प्रचार देखा जाता है, परन्तु ग्रन्थों में प्रायः उमास्वाति ही आता है । श्रुतसागरीटीकामें आचार्य श्रुतिसागरजीके "उमास्वामिना, उमास्वामिनः" आदि प्रयोगोंसे उमास्वामि नाम भी माननीय है । For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बरसम्प्रदाय । १ गन्धहस्तिमहाभाष्य-भगवत्समन्तभद्रस्वामिविरचित । श्लोक संख्या-८४००० । २ सर्वार्थसिद्धिटीका-श्रीमत्पूज्यपादस्वामिविरचित । श्लो० सं० ५५०० । ३ राजवार्तिकालंकार-श्रीमद्भट्टाकलंकदेवरचित । श्लो० सं० १६०००। . ४ श्लोकवार्तिकालंकार-श्रीमद्विानंदिप्रणीत । श्लो० सं० १८००० । ५ श्रुतसागरीटीका-श्रीश्रुतसागरसूरिरचित । श्लो० सं० ८००० । ६ तत्त्वार्थस्यसुखबोधिनीटीका-द्वितीय श्रुतसागरसूरिरचित । ७ तत्त्वार्थटीका-श्रीविबुधसेनाचार्यप्रणीत-श्लो० सं० ३२५० । ८ तत्त्वप्रकाशिकाटीका-श्रीयोगीन्द्रदेव । ९ तत्त्वार्थवृत्तिः-श्रीयोगदेव गृहस्थाचार्य । १ दुःखकी बात है कि, आज यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, परन्तु आजसे सौवर्षके पहलेके प्रायः सम्पूर्ण बड़े २ विद्वानों और आचार्योंने इस ग्रन्थका अस्तित्व स्वीकार किया है, और उसके जगह २ प्रमाण दिये हैं। इस भाष्यके प्रारंभमें समन्तभद्रस्वामीने जो ११५ श्लोकोंमें मंगलाचरण किया है, उसे देवागमस्तोत्र अथवा आप्तमीमांसा कहते हैं । आप्तमीमांसापर श्रीमद्भट्टाकलंकने अष्टशती और श्रीमद्विद्यानन्दि स्वामिने अष्टसहस्री ऐसे दो भाष्य बनाये हैं, जिन्हें देखके बडे २ नैयायिक विद्वानोंको विस्मित होना पडता है । विद्वान् पाठक विचार करें कि, जिसके मंगलाचरण मात्रपर बडे २ कठिन भाष्य रच डाले गये, वह सम्पूर्ण ग्रन्थ कैसा गौरवशाली और विलक्षण न होगा ? । उदयपुर तथा जयपुरादि नगरोंके भंडारोंमें जैनपुस्तकालयों में गन्धहस्तिमहाभाष्यका अस्तित्व सुना जाता है। परन्तु उक्त भंडारोंके अध्यक्षोंके प्रमादसे अथवा हम लोगोंके दुर्भाग्यसे कहिये; आज उस अमूल्यरत्नकेदर्शन दुर्लभ हो गये । और बड़े खेदको बात है कि ऐसे २ ग्रन्थरत्नोकी शोधमें प्रयत्न करनेवाला भी आज कोई दृष्टिगत नहीं होता। २ समन्तभद्स्वामिका अस्तित्व विक्रमसंवत् १२५ के लगभग माना जाता है । आराधनाकथाकोषमें आपके जीवनकी एक प्रभावोत्पादक कथा मिलती है। ३ यह टीका मुद्रित हो चुकी है, और प्रायः सर्वत्र पुस्तकालयों में मिलती है। ४ पूज्यपादस्वामि नन्दिसंघके आचार्य थे । देवनन्दि और जिनेन्द्रबुद्धि ये दो नाम भी इन्हींके हैं । गणरत्न. महोदधिके कर्त्ताने आपका नाम चन्द्रगोमि भी बतलाया है। विक्रम संवत् ३०८ जेष्ठ सुदी १० को आपका जन्म हुआ था, ऐसा पट्टावलियों से प्रतीत होता है । जैनाभिषेक, समाधिशतक, चिकित्साशास्त्र और जैनेन्द्रव्याकरण आदि ग्रन्थ भी आपके बनाये हुए हैं। ५ विक्रमकी छठी शताब्दिके लगभग श्रीभट्टाकलंकदेवका जन्म खेट नामक नगरमें हुआ था। आप न्यायके अभूतपूर्व और अद्वितीय विद्वान् थे। राजा हिमशीतलकी सभा में एक बडे भारी बौद्धाचार्यको जिसकी ओरसे उसकी तारा नामक देवी बाद करती थी, आपने परास्त किया था । यह कथा सर्वत्र प्रसिद्ध है । अकलंकदेव देव. संघके आचार्य थे, और भट्ट आपका पद था । अकलंक नामके और भी अनेक आचार्य हो गये है । परन्तु अष्टशती, बृहत्रयी, लघुत्रयी आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ भट्टाकलंकदेवके ही बनाये हुए हैं। ६ श्रीविद्यानन्दिस्वामी वि० संवत् ६८१ के लगभग हुए हैं । आपका बनाया हुआ अष्टसहस्री ग्रन्थ नैयायिक विद्वानोंके गर्वको खर्व करदेनेवाला है। ___७ श्रीश्रुतसागरसूरि वि. सं. १५५० में वर्तमान थे। यशस्तिलकचम्पू महाकाव्यकी यशस्तिलकचन्द्रिका टीकाके कर्ता भी आप ही हैं। < Bhandarkar 5 th 1096 For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० तत्त्वार्थटीका-श्रीलक्ष्मीदेव गृहस्थाचार्य । ११ तात्पर्यतात्त्वार्थकीटीका-श्रीअभयनन्दिसूरि (तृतीय) प्रणीत । १२ तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यान-( कर्णाटकीभाषामें ) भाषाटीकायें । १३ सर्वार्थसिद्धिभाषा--पं० जयचन्द्रजीरचित । श्लो० सं० १०००० । १४ अर्थप्रकाशिका-पं० सदासुखदासजीरचित । श्लो. सं. १०८७२ । १५ राजवार्तिक-पं०फतहलालजी और पं० पन्नालालजी रचित । १६ सूत्रदशाध्याय-(श्रुतसागरीके अनुसार ) पं० टेकचन्द्रजी प्रणीत । १७ सूत्रदशाध्याय वचनिका-पं० जयवन्तजी । श्लो० सं० ४२७० । १८" " पं० शिवचन्द्रजी । श्लो० सं० ४०००। पं० सदासुखजी । श्लो० सं० १९०० । २० सूत्रदशाध्याय वचनिका-पं० फतहलालजी । पं० देवीदासजी । पं० मकरन्दजी। पं० प्रभाचन्द्रजी। २४ , " पं० वख्तावर-रतनलालजी । २५ सूत्रदशाध्याय (छन्दोबद्ध ) पं० हीरालालजी । २६, , , पं० छोटेलालजी। २७ तत्त्वार्थबोध ,, , पं० विधीचन्दजी (बुधजन)। श्वेताम्बरसम्प्रदाय । १ गजगन्धहस्तिमहाभाष्य-श्रीसिद्धसेनदिवाकर । २ श्रीसिद्धसेनगणिरचितटीका-(श्लोकसंख्या १८२८२०) مہ २२" ع १ श्रीमभयनन्दिसूरि तीसरे वि० सं०७७५ में हुए हैं। आपने जैनेन्द्रव्याकरणकी बृहद्वृत्तिकी रचना की है। २ यह व्याख्यान श्रीलक्ष्मीसेन भट्टारक पट्टाचार्य कोल्हापुरके पुस्तुकालयमें पेटी नं. १४ में मौजूद है। ३ इस बातसे कोई सज्जन अप्रसन्न न होवें कि, यहांपर दिगम्बरियोंकी अपेक्षा श्वेताम्बरी टीकाग्रन्थ बहुत कम बतलाये गये हैं। क्योंकि हमारा अभिप्राय किसीको निम्नोन्नत बतलानेका नहीं है, जो कुछ संग्रह हो सका, हमने वही किया है । श्वेताम्बरीय सम्प्रदायमें टीका ग्रन्थोंकी कमी नहीं है, परन्तु श्वेताम्बरीयसज्जनोंका ध्यान इस ओर कम होनेसे परिश्रम करनेपर भी हमको उनके नाम नहीं मिल सके, यह खेदकी बात है । शीघ्रताके कारण इस विषयकी खोजकेलिये बहुत समय नहीं दिया जा सका, सो पाठकगण क्षमा करें। ___ ४ दक्षिणदेशके प्रतिष्ठानपुर नामक नगरमें महावीर संवत् ५०० के अनुमान श्रीसिद्धसेनदिवाकरका स्वर्गवास हुआ था, ऐसा कहा जाता है । द्वात्रिंशतिका, एकविंशतिगुणस्थानप्रकरण, शाश्वतजिनस्तुति, और कल्याणमन्दिरस्तोत्र आदि ग्रन्थ उक्त आचार्यके बनाये हुए प्रसिद्ध हैं । परन्तु महापुराणकारके "कवयो । सिद्धसेनादि" पदसे स्मरण किये हुए सिद्धसेन इनसे पृथक् प्रतीत होते हैं। ५ यथा-अष्टादशसहस्राणि द्वेशते च तथा परे । अशीतिरधिका द्वाभ्यां टीकायाः श्लोकसंग्रहः । इति । ६ ऐसा प्रसिद्ध है कि, यह टीका श्रीहरिभद्रसूरिने प्रारंभ की थी, परन्तु उनका देहोत्सर्ग हो जानेसे उनके शिष्यवर्य श्रीयशोभद्रसूरिन पूर्ण की थी। For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तत्त्वार्थटीका-श्रीहरिभद्रसूरिरचित । (श्लो० सं० ११०००) ४ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम-श्रीउमाखातिवाचक । दिगम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियोंके अनुसार, कार्तिकशुक्ला ८ विक्रमशक १०१ में भगवदुमास्वामि नंदिसंघके पट पर विराजमान हुए थे । उन्होंने चालीसवर्ष ८ दिन आचार्यपदपर सुशोभित रहके परमधरमका उपदेश किया । १९ वर्षकी अल्पवयमें आपने जिनदीक्षा ग्रहण की और २५ वर्ष दीक्षित रहनेके पश्चात् आचार्य पद लाभ किया । इस प्रकार विक्रम सं० ५७ के अनुमान आपने जन्मलेकर इस देशको पवित्र किया था, ऐसा जान पड़ता है । भगवान् महावीर तीर्थकरके निर्वाणके अनन्तर आचार्यपरम्पराका क्रम पट्टावलीमें इस प्रकार दिया है। विक्रमशकसे पूर्व । केवली-गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी, श्रुतकेवली-विष्णुकुमार, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाहु ।। ग्यारह अंग और दशपूर्वके पाठी-विशाखाचार्य, नक्षत्राचार्य, नागसेनाचार्य, जयसेनाचार्य, सिद्धार्थाचार्य, धृतिसेनाचार्य, विजयाचार्य, बुद्धिलिंगाचार्य, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य । ग्यारह अंगके पाठी-नक्षत्राचार्य (दूसरे ), जयपालाचार्य, पांडवाचार्य, कंसाचार्य । दशअंग-सुभद्राचार्य । नवअंग-यशोभद्राचार्य । विक्रमशकके पश्चात् । आठअंगके पाठी-भद्रबाह्वाचार्य (दूसरे) विक्रमशक ४ चैत्रसुदी १४ को आचार्य पदपर आरूढ हुए। सातअंग-लोहाचार्य ( इनके समयमें काष्ठासंघ स्थापित हुआ )। एक अंग-अर्हद्वलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवलि । आचार्य भूतवलिके पश्चात् अंगज्ञानका विच्छेद हो गया। उनके पीछे फागुन सुदी १४ विक्रमशक २६ में गुप्तिगुप्ति, आश्विन सुदी १४ वि. श. ३६ को माघनन्दि, फागुन सुदी १४ वि. श.४० में जिनचन्द्र, और पौषवदी ८ वि. श. ४९ में अनेक ग्रन्थोंके रचयिता भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य क्रमसे आचार्य पदपर आरूढ हुए और उनके शिष्य भगवदुमास्वामी वि. श. १०१ में हुए, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। १ महावीर भगवान्के निर्वाणके विषयमें लोगोंके अनेक मत हैं, परन्तु हालमें श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें प्रायः यह निर्णय हो गया है कि, विक्रमशकसे ६०५ वर्ष पहले वीर भगवान्का निर्वाण हुआ था। २ विक्रमशकसे शालिवाहन अथवा शक संवत् चलानेवाले राजासे अभिप्राय है । दिगम्वरीय जैनग्रन्थों में प्रायः सर्वत्र इसी संवत्का प्रयोग मिलता है । इसे विक्रमसंवत् न समझ लेना चाहिये । शालिवाहनके विक्रमादित्यादि अपरनाम थे। परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो संवत् लिखा जाता है, वह विक्रम ही है । और इसलिये उनके अनुसार विक्रमसे ४७० वर्ष पहिले भगवान्का निर्वाण ठीक है। ३ विक्रमसंवत्के विषय आजकलके पाश्चात्य विद्वानोंके अनेक मत हैं। उनमेंसे वहुतसे यह कहते हैं कि, पहले यह संवत् शक जातिके राजाओंने चलाया था, पीछेसे संवत् ६०० में विक्रमादित्य प्रतापी राजा हुए, सो उन्होंने उसीमें अपना नाम जोड दिया, परन्तु यह भ्रममात्र है। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्दकुन्दस्वामीके पद्मनन्दैि, एलाचार्य, वक्रग्रीव, गृद्रपिच्छ आदि अनेक नामान्तर है। और इसी प्रकार कोई २ कहते हैं कि, उमास्वामि भी उन्हींका एक नाम हैं । परन्तु इस विषयमें कोई बलिष्ठ प्रमाण नहीं मिलनेसे एकाएक विश्वास नहीं किया जा सकता । इसके अतिरिक्त कुन्दकुन्दस्वामीके उपर्युक्त नामोंमेंसे एक गृपिच्छ नामको उमास्वामिका वाचक भी मानते हैं । जैसे, तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृपिच्छोपलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्रसंयातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥ परन्तु किंचित् विचार करनेसे गृपिच्छोपलक्षित यह उमास्वामिका नामान्तर नहीं किन्तु विशेषण प्रतीत हो जाता है । गृङपिच्छ ( कुन्दकुन्द ) गुरुके नामसे उपलक्षित अर्थात् गृपिच्छ है, गुरु जिसका ऐसा युक्तियुक्त अर्थ उक्तपदका बन जाता है । और ऐसा माननेमें भी कोई विरोध नहीं आ सकता कि, अपने गुरुकी नाईं वे भी गृङ्गकी पिच्छी रखते थे, उनका नाम गृद्रपिच्छ नहीं था। __ यहांपर पाठकोंको कौतुक उत्पन्न होगा कि, गृङ्गपिच्छ ऐसा नाम कुन्दकुन्दस्वामीका कैसे हुआ ? सो इस विषयमें गुरुपरम्परासे एक कथा प्रसिद्ध है उसे हम यहां लिखदेना उचित समझते है:___ एक वार कुन्दकुन्दखामी स्वमनोगत किसी शंकाका निवारण करनेके लिये चारण ऋद्धिके बलसे आकाशमार्गके द्वारा विदेहक्षेत्रस्थ तीर्थकरभगवान्के समवशरणमें जा रहे थे। मार्गमें अचानक उनकी मयूरपिच्छिका हाथसे छूटकर गिर गई, और उसी समय आकाशमें जाते हुए एक गृङ्गकी पिच्छि पड़ी। तब मुनिवेषकी रक्षाकेलिये उन्होंने उसे ग्रहण कर ली। और विदेहक्षेत्रको गमन किया । कहते है, तबहीसे उनका नाम गृपिच्छ हो गया । उमास्वामिका अपरनाम गृपिच्छ माननेवाले उपर्युक्त कथाको उमास्वामिकी ही बतलाते हैं, और ऐसा मानकर वे उमास्वामिको चारणऋद्धि प्राप्त भी मानते हैं। ___ कुन्दकुन्दस्वामीके बनाये हुए ८४ प्राभृत (पाहुड) ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमेंसे नाटकसमयसार पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, रयणसार, षट्पाहुड़ आदि अनेक प्राकृत ग्रन्थ मिलते हैं । परन्तु उमास्वामिका एक तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ ही मिलता है, जो कि संस्कृत है और इसके अतिरिक्त उनका कोई दूसरा ग्रन्थ सुननेमें भी नहीं आया। १ पद्मनन्दि नामके धारण करनेवाले और भी ७-८ आचार्य हो गये हैं । उनमेंसे पंचविंशतिका, जम्बूद्वी. पप्रज्ञप्ति, आदिके कर्ता विशेष प्रसिद्ध हैं। २-तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्यः सत्संयमादुद्गतचारणार्द्धिः । अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसा-वाचार्यशब्दोत्तरगृहपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्य-स्तात्कालिकाशेषपदार्थवादी ॥ इन श्लोकोंसे यह जान पडता है कि कुन्दकुन्दका पद्मनन्दि प्रथम नाम था, पश्चात् कुन्दकुन्दादि अनेक नाम हुए । और उमास्वाति उनके पीछे आचार्य हुए, जिनको गृद्धपिच्छ भी कहते थे। सो इससे कुन्दकुन्द और उमास्वातिके एक होनेकी शंका तो सर्वथा मिट जाती है, रही गृपिच्छ संज्ञाकी बात सो दोनोंके घटित हो सकती है। ३ कुन्दकुन्द नामके एक दूसरेभी आचार्य हुए हैं, जिन्होंने वैद्यगाहा नामक प्राकृत वैद्यकग्रन्थ बनाया है। वैधगाहामें ४००० गाहा (गाथा) हैं। ४ उमास्वामिरचित श्रावकाचार तथा पंचनमस्कारस्तवन ऐसे दो ग्रन्थ और प्रसिद्ध हैं, परन्तु वे लघु उमास्वामिके हैं, जो कि उनसे बहुत पीछे हुए है। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थकी रचनाके विषयमें कर्णाटकभाषाकी तत्त्वार्थवृत्ति नामकटीकाकी प्रस्तावनामें एक बड़ी मनोरंजक कथा लिखी है, वह इस प्रकार है कि: सौराष्ट्र ( गुजरात ) देशके किसी नगरमें एक पवित्रान्तःकरण और नित्यनैमित्तक क्रियाओंमें तत्पर श्रद्धावान् द्वैपायक नामक श्रावक रहता था । वह बड़ा विद्वान् था । और इसलिये चाहता था कि किसी उत्तमग्रन्थकी रचना करूं, परन्तु गार्हस्थ्यजंजालके कारण अनवकाशवशतः कुछ कर नहीं सकता था । निदान एकदिन उसने प्रतिज्ञा की कि, प्रतिदिन जब एक सूत्र बना लूंगा, तब ही भोजन करूंगा, अन्यथा उपवास करूंगा । और मोक्षशास्त्रके बनानेका निश्चय करके उसी दिन उसने "दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः” यह प्रथम सूत्र . बनाया । तथा विस्मरण हो जानेके भयसे अपने घरके एक खंभेपर उसे लिख दिया । इसके पश्चात् दूसरे दिन वह श्रावक किसी कार्यके निमित्त कहीं अन्यत्र चला गया और उसके घर एक मुनिराज आहारके लिये आये । मुनिके दर्शनसे द्वैपायककी सुशीला गुणवती भार्याने अत्यन्त प्रसन्न होकर नवधाभक्तिपूर्वक उन्हें भोजन कराया । भोजनोपरान्त मुनिराजने खंभेपर लिखा हुआ वह सूत्र जो द्वैपायकने लिखा था, देखकर किंचित् विचार किया और तत्काल ही उसके पहले सम्यक् विशेषण लिखकर वहांसे चल दिया । तदनन्तर जब द्वैपायक आया, तो उसे अपने लिखे हुए सूत्रमें सम्यक् विशेषण अधिक लिखा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, और साथ ही सूत्रकी शुद्धता निर्दोषतासे आनन्द भी हुआ । भार्याके पूछनेसे विदित हुआ कि, मुनिराज आहारके निमित्त पधारे थे, कदाचित् वे लिख गये होंगे । तब श्रावक उसी समय बडी आतुरतासे उनके ढूंढनेको निकला । यत्र तत्र बहुत भटकनेके पश्चात् एक रमणीक वनमें उसे उक्त मुनिराजके दर्शन हुए। वे एक बड़े भारी मुनियोंके संघके नायक थे । उनकी मुद्राके दर्शनमात्रसे वह श्रावक जान गया कि, इन्हीं महात्माने मेरे सूत्रको शुद्धकरनेकी कृपा की होगी। और गद्गद होके उनके चरणोंपर पड़ गया, बोला, भगवन् ! उस मोक्षशास्त्रको आप ही पूर्ण कीजिये । ऐसे महान् ग्रन्थके रचनेका सामर्थ्य मुझमें नहीं है । आपने बड़ा उपकार किया, जो मेरी वह बडी भारी भूल सुधार दी । सच है दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्षका मार्ग नहीं है. किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र ही मोक्षमार्ग है। अतएव "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" ही परिपूर्ण आरै विशुद्ध सूत्र है । श्रावकके उक्त आग्रह और प्रार्थनाको मुनिराज टाल नहीं सके, और निदान उन्होंने इस तत्त्वार्थसूत्र मोक्षशास्त्रको रचके पूर्ण किया । पाठक ! वे मुनिराज और कोई नहीं, हमारे इस लेखके मुख्यनायक भगवान् उमास्वामि ही थे । दिगम्बरीय ग्रन्थोंके द्वारा जितना संग्रह हो सका, ऊपर लिखा जा चुका । अब श्वेताम्बर सम्प्रदायमें आपके विषयमें कितना इतिहास मिलता है, देखनेका प्रयत्न किया जाता है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके कर्ता भी उमास्वामि माने जाते हैं, जैसा कि, आगे कहा जावेगा और यदि वे मूलतत्त्वार्थके कर्ता ही हों, तो उनके माता, पिता, जन्मस्थानादिके विषय विशेष प्रयत्न करनेकी आवश्यकता नहीं है। तत्त्वार्थाधिगमके अंतमें जो प्रशस्ति दी है, उसीसे स्पष्ट होता है कि, उमास्वाति आचार्य ग्यारह अंगके ज्ञाता व श्रीघोषनन्दिक्षमणके शिष्य और वाचकमुख्य शिवश्रीके प्रशिष्य थे । तथा वाचनारूपसे महावाचकक्षमण मुण्डपादके शिष्य वाचकाचार्य मूलनामके शिष्य थे । आपके पिताका नाम स्वाति और माताका वात्सी था। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यग्रोधिकानगरीमें आपका जन्म हुआ था, परन्तु यह ग्रन्थ आपने कुसुमपुर (पाटलिपुत्र ) में विहार करते हुए बनाया था। कहते हैं कि, आपने एक वार सरस्वतीकी पाषाणमूर्तिसे शब्दोच्चारण करवाये थे। जम्बूद्वीपसमासटीकामें आचार्य श्री विजयसिंहजीने लिखा है कि, उमास्वातिकी माताका नाम उमा और पिताका स्वाति था, इससे उनका नाम उमास्वाति हुओ ! अनेक विद्वानोंका मत है कि, आप बड़े भारी वैयाकरण भी थे । कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिने अपने शब्दानुशासनमें अनु और उपको उत्कृष्टताके अर्थमें विधान करते हुए उमास्वातिका नाम उदाहृत किया है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उमास्वातिके बनाये हुए प्रशमरति, यशोधरचरित्र, श्रावकप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपसमास, पूजाप्रकरण आदि अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। श्रीजिनप्रभसूरिने अपने तीर्थकल्प नाम ग्रन्थमें तथा श्रीहरिभद्रसूरिने प्रशमरतिकी टीकामें आपको पांचसौ ग्रन्थोंका प्रणेता बतलाया है । इससे सिद्ध है कि, आप एक असाधारण शक्तिशाली विद्वान् थे । . श्वेताम्बराचार्योंकी पट्टावलियोंमें उमास्वातिका नाम कहीं नहीं मिलता, इससे वे किस शताब्दिमें हुए थे, इसका यथार्थ निर्णय नहीं हो सकता, परन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि, परिश्रमपूर्वक नानाग्रन्थोंका पर्यालोचन करनेसे कालान्तरमें यह कठिनता दूर हो जावेगी । डाक्टर पिटर्सनकी रिपोर्टमें वीर निर्वाणके ३०० वर्ष पीछे उमास्वातिका होना बतलाया है, परन्तु जबतक इस विषयमें पूरे २ प्रमाण न दिये जावें, तबतक विश्वास नहीं हो सकता । क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टिसे ऐसी अनेक शंकायें उपस्थित होती हैं, जिनसे उमास्वातिका विक्रमके बहुत पहले होना बन नहीं सकता। यदि दिगम्बरियोंके माने हुए उमास्वाति ही तत्त्वार्थसूत्र मूलके कर्ता हैं, और उन्हें श्वेताम्बरी भाई भी मानते हैं, तो इसमें सन्देह नहीं है कि, वे एक ही थे, और उनका समय भी एक ही था। ऐसा नही हो सकता कि, श्वेताम्बरियोंके उमास्वाति किसी समयमें हुए और दिगम्बरियोंके और किसी समयमें । क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र एक ही है। ऐसी दशामें दिगम्बरीय सम्प्रदायमें माना हुआ समय अर्थात् विक्रमकी प्रथम शताब्दि मान लेनेमें कोई हर्ज नहीं है । हां यह दूसरी बात है कि, उमास्वाति श्वेताम्बरी थे अथवा दिगम्बरी ? परन्तु अब मैं समझता हूं, इस विषयमे विवाद करनेकी आवश्यकता नहीं है, दोनोंको ही अपने २ कहके मानना चाहिये और पूजना चाहिये । उनके ग्रन्थोंने दोनोंका ही अनन्त उपकार किया है। इतनेपर भी यदि किसीको उक्त विवाद के निर्णय करनेकी इच्छा हो, तो वह प्रसन्नतासे निर्णय करे । नाना ग्रन्थों और ऐतिहासिक ग्रन्थोंके पाठसे उसकी इच्छा पूर्ण हो सकती है। मैं इस विषयमें और कुछ नहीं कहना चाहता । तत्त्वार्थसूत्रमें भिन्नता । तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें मान जाता है, परन्तु इससे ऐसा नहीं समझलेना चाहिये कि, दोनों सम्प्रदायोंमें वह एकसा है, नहीं ! उसके अनेक सूत्रोंमें भेद है, जो कि, एक पृथक् दिये कोष्टकसे विदित होगा । परन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि, भगवदुमास्वातिने एक ही . १ ......अस्य संग्रहकारस्योमा माता स्वातिः पिता तत्सम्बन्धादुमास्वातिः...... २ उपोमास्वातिसंगृहीतारः ( अध्याय २ पाद २ सूत्र ३९ ।) ३ इहाचार्यः श्रीमानुमास्वातिपुत्र.......पञ्चशतप्रवन्धप्रणेता वाचकमुख्यः...... । For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थशास्त्र बनाया है पीछे अपने २ मान्य पदार्थों के प्रतिपादनके लिये आचायाँको पाठभेद करना पड़ा ! प्रायः ऐसा होता है कि, जो ग्रन्थ बहुत उत्तम होता है, तथा जिसका कर्ता अतिशय मान्य और प्रतिभाशाली प्रसिद्ध होता है, उस ग्रन्थ तथा आचार्यको प्रत्येक शाखाके लोग अपनाया चाहते हैं, और थोड़ा बहुत पाठभेद करके वे अपने मनोरथको पूर्ण करते हैं। मैं समझता हूं, तत्त्वार्थसूत्रमें पाठभेद इसी खेंचातानीसे हुआ है, और आज इस बातका निर्णय करना कठिन हो गया है कि, आचार्यकी असली कृति कौन है । अस्तु । __ पाठभेदका जो कोष्टक दिया गया है, उसमें केवल दिगम्बरसम्प्रदायमान्यसूत्रों और इस भाष्यके सूत्रोंका विभेद बतलाया है । परन्तु कहते हैं कि, श्वेताम्बराम्नायके अन्य टीकाग्रन्थों में और इस भाष्यमें भी बहुत कुछ सूत्रोंका पाठभेद हैं । जो हो, मुझे अन्यटीकाग्रन्थोंके देखनेका अवकाश नहीं मिला, इसलिये कुछ नहीं कह सकता । परन्तु दिगम्बरी टीकाकारोंका सूत्रपाठमें एक मत है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य। पहले जिन टीकाग्रन्थोंकी सूची दी गई है, उन सबमेंसे जहांतक मैं जानता हूं, संस्कृत सर्वार्थसिद्धि तथा और दोतीन भाषाटीका ग्रन्थोंको छोड़के शेष सब अप्रकाशित हैं। और उक्त दो तीन जो छपे हुए हैं, वे केवल दिगम्बर सम्प्रदायके पदार्थोंके कहनेवाले हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदायके टीकाग्रन्थ अभीतक कोई भी प्रकाशित नहीं हुए, और इस कारण उनके प्रकाशित होनेकी आवश्यकता थी। हर्षका विषय है कि, इसी बीचमें बंगालकी एशियाटिक सुसाइटीने अपनी संस्कृतग्रन्थ सीरीजमें तत्त्वार्थाधिगमभाष्य प्रकाशित करके जैनसम्प्रदायका गौरव बढ़ानेकी कृपा की । परन्तु हमारे समाजमें संस्कृतविद्याका एक प्रकारसे अभाव होनेके कारण उक्त मूल ग्रन्थ कुछ लाभ नहीं पहुंचा सकता था, अतएव श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलके स्वामियोंने व्याकरणाचार्य पं० ठाकुरप्रसादजीसे इसकी सार्वदेशिक हिन्दी भाषाटीका करानेका मनोरथ किया, और हर्षका विषय है कि, वह पूर्ण होके आज आपके समक्ष प्रस्तुत है। __ इस तत्त्वार्थाधिगम भाष्यके कर्ता श्रीउमास्वातिवाचक हैं । और अनेक विद्वानोंका मत है कि, मूल तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वाति ही भाष्यके कर्ता हैं, अर्थात् श्रीमदुमास्वातिने स्वयं ही अपने ग्रन्थपर उक्त भाष्यके रचनेकी कृपा थी, परन्तु ग्रन्थान्तरोंसे इस विषयका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता, इसलिये सहसा विश्वास करनेको जी नहीं चाहता । ग्रन्थकी रचनाप्रणाली और प्रतिपाद्य विषयकी असूक्ष्मता पर ध्यान देनेसे में समझता हूं, बहुत थोड़े विद्वान् इस बातको स्वीकार करेंगे कि, यह भाष्य मूलग्रन्थकर्ताका ही है। क्योंकि मूलग्रन्थकर्ताकी टीका कुछ विलक्षण ही होती है। वह ऐसे सूक्ष्म विषयोंपर अपनी लेखनी घिसता है, जिसको अन्य विद्वान् कहनेका सामर्थ्य नहीं रखते । सो वह बात इस ग्रन्थमें दिखाई नहीं देती। और कदाचित् मेरा यह भ्रम मात्र हो, तो विद्वज्जन निर्णयकरें, मेरे लेखको किसी प्रकार पक्षपातपूर्ण न समझें । ___ अब मैं इस विषयको यहीं समाप्त करता हूं, और साथ ही एक दो प्रार्थना किये देता हूं कि, जैनसमाजमें अच्छे विद्वानोंका अभाव होनेके कारण इस ग्रन्थकी हिन्दीटीका एक भिन्नधर्मी विद्वान्से बनवाई है । यद्यपि वे जैनधर्मके तत्त्वोंके जाननेवाले तथा परिचयी हैं, परन्तु भिन्नधर्मी होनेके कारण यदि कहींपर टीकामें भूलें रह गई हों, और ऐसा संभव भी है तो आप लोग मूलके अनुसार १ सर्वार्थसिद्धिभाषा रायचन्द्रशास्त्रमालाद्वारा शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाली है। .. For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारके पदें। आजकलकी पद्धतिके अनुसार इस ग्रन्थकी भूमिका विद्वद्वर्य पं० ठाकुरप्रसादजीको ही लिखनी चाहिये थी, परन्तु उनको अनुपस्थितिके कारण प्रकाशक महाशयके आग्रहसे भूमिकाका कार्य मुझे करना पड़ा है। इसमें मेरी अल्पज्ञता तथा प्रमादसे कुछ भूल हुई हो, तो उदार पाठक क्षमा करें । अन्तमें श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलके सभ्योंको मैं सच्चे हृदयसे धन्यवाद देता हूं, जो जैनधर्मके अपूर्व ग्रन्थभंडारको प्रकाशित करनेमें दत्तचित्त हैं । इत्यलम् विद्वद्वरेषु चंदाबाडी-गिरगांव बम्बई । २०-१-०६ई. जिनवाणीका सेवकदेवरी (सागर) निवासी. नाथूराम प्रेमी. For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर और श्वेताम्बरानायके सूत्रपाठोंका भेदप्रदर्शककोष्टक । x प्रथमोध्यायः। सूत्राङ्क। दिगम्बरानायीसूत्रपाठ। सूत्राङ्क। श्वेताम्बराम्नायीसूत्रपाठ । १५ अवग्रहेहावायधारणाः । १५ अवग्रहेहापायधारणाः । २१ द्विविधोवधिः। २१ भवप्रत्ययोवधिर्देवनारकाणाम् । २२ भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् । २२ क्षयोपशमनिमित्तः षड्डिकल्पः शेषाणाम् ।। २३ यथोक्तनिमित्तः...................। २३ ऋजुविपुलमाती मनःपर्ययः । २४ ....................पर्यायः । २८ तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य । २९ ....................पर्यायस्य । ३३ नैंगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढवम्भूता ३४ ...............सूत्रशब्दा नयाः । नयाः । | ३५ आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ। द्वितीयोऽध्यायः। ५ ज्ञानाशानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्च भेदाः स- ५ ......दर्शनदानादिलब्धयः............ ___ म्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च । १३ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः।। | १३ पृथिव्यब्वनस्पतयः स्थावराः। १४ द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः। १४ तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः। १९ उपयोगः स्पर्शादिषु । २० स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः । २१ ................शब्दास्तेषामर्थाः । २२ वनस्पत्यन्तानामेकम् । २३ वाय्वन्तानामेकम् । २९ एकसमयाविग्रहा। ३० एकसमयोऽविग्रहः। ३० एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः । ३१ एकं द्वौ वानाहारकः । ३१ सम्मूछेनग पपाद जन्म । ३२ सम्मूर्च्छनगर्भोपपाता जन्म । ३३ जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः । ३४ जराय्वण्डपोतजानां गर्भः । ३४ देवनारकाणामुपपादः । ३५ नारकदेवानामुपपातः । ३७ परं परं सूक्ष्मम् । ३८ तेषां परं परं सूक्ष्मम् । ४० अप्रतीघाते । ४१ अप्रतिघाते। ४६ औपपादिकं वैक्रियकम् । ४७ वैक्रियमौपपातिकम् । ४८ तैजसमपि । ४९ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंय- ४९ ............... ........चतुर्दशपूर्वतस्यैव । धरस्यैव । १ भाष्यके सूत्रों में सर्वत्र मनःपर्ययके बदले मनःपर्याय है । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० तत्र भरत.............................. x x x x x ५२ शेषास्त्रिवेदाः। ५३ औपपादिकचरमोत्तमदेहाःसङ्खयेयवर्षायुषोऽ- | ५२ औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासङ्खथे .... नपवायुषः। तृतीयोऽध्यायः। १ रत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमः प्रभाभू-) १...............सप्ताधोऽधःपृथुतराः । ___ मयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः ।। २ तासु नरकाः । २ तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैक नरकशतसहस्त्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् । ३ नित्याशुभतरलेश्या.. ३ नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदना- ...........। विक्रियाः । ७ जम्बूद्वीपलवणादयः शुभनामानोद्वीप स. ७ जम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीप- मुद्राः । समुद्राः। १० भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः .......। क्षेत्राणि । १२ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः।। १३ मणिविचित्रपार्थी उपरि मूले च तुल्यवि स्ताराः। १४ पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेसरिमहापुण्डरीकपुण्ड रीका हृदास्तेषामुपरि। १५ प्रथमो योजन सहस्रायामस्तदर्धविष्कम्भो ह्रदः। १६ दशयोजनावगाहः ।। १७ तन्मध्ये योजनं पुष्करम् । १८ तद्द्विगुणद्विगुणा ह्रदाः पुष्कराणि च । १९ तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धि लक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरि षत्काः । २० गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीता सीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तार क्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः । २१ द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः। २२ शेषास्त्वपरगाः । २३ चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृत्ता गङ्गासिन्ध्वादयो नद्यः । २४ भरतः षडिंशतिपश्चयोजनशतविस्तारः षट् | चैकोनविंशतिभागा योजनस्य । x x x x x x x x x x x x x x x x x x x x . For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ २५ तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षाविदेहान्ताः । २६ उत्तरा दक्षिणतुल्याः । २७ भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौं षट्समयाभ्यामुत्सर्पवसर्पिणीभ्याम् | २८ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः । २९ एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकारिवर्षक दैवकुरुवकः । ३० तथोत्तराः । ३१ विदेहेषु सङ्खयेकालाः । ३२. भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशत. भागः । ३८ नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते । ३९ तिर्यग्योनिजानां च । २ आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः । X X ८ शेषाः स्पर्शरूपशब्द मनःप्रवीचाराः । ८ १२ ज्योतिष्काः सूर्यचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णक- १३ तारकाश्च । १९ सौधर्मैशानसानत्कुमार माहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरला X X X X X X २९ सौधर्मेशानयोः सागरोपमेऽधिके । X X 1 X X __× × × ३० सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त । 3 X X चतुर्थोऽध्यायः । X न्तवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च । २२ पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु । २३ ......... २४ ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः । २४ २८ स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपम - २९ स्थितिः । त्रिपल्योपमार्द्धहीनमिताः X X X X X १७ .........परापरे.................. । १८ तिर्यग्योनीनां च । X २ तृतीयः पीतलेश्यः । ७ पीतान्तलेश्याः । X x ...... X X X X X For Personal & Private Use Only तारका: । २० सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्र ब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारे-.. . प्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः । . सर्वार्थसिद्धे च । .. लेश्या हि विशेषेषु । .. लोकान्तिकाः । . प्रकीर्ण ३० भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम् । ३१ शेषाणां पादोने | ३२ असुरेन्द्रयोः सागरोपमधिकं च । ३३ सौधर्मादिषु यथाक्रमम् । ३४ सागरोपमे । ३५ अधिके च ३६ सप्त सानत्कुमारे । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० x xx xx २ द्रव्याणि । .. ३१ त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपश्चदशभिरधिकानितु।। ३७ विशेषस्त्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपश्चदशभिरधि कानि च । ३३ अपरा पल्योपमधिकम् । ३९ अपरा पल्योपममधिकं च । ४० सागरोपमे। ४१ अधिके च । ३९ परापल्योपमधिकम् । ४७ परापल्योपमम् । ४० ज्योतिष्काणां च । ४८ ज्योतिष्काणामधिकम् । ४९ ग्रहाणामेकम् । ५० नक्षत्राणामधम् । ५१ तारकाणां चतुर्भागः। ४१ तदष्टभागोऽपरा। ५२ जघन्या त्वष्टभागः। ५३ चतुर्भागः शेषाणाम् । ४२ लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ।।x x पञ्चमोऽध्यायः। २ द्रव्याणि जीवाश्च। ३ जीवाश्च।. १० सङ्खयेयांसङ्खयेयाश्च पुद्गलानाम् । ७ असङ्खयेयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ८ जीवस्य च। १६ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् । | १६ .......विसर्गाभ्यां......। २६ भेदसङ्घातेभ्य उत्पद्यन्ते । २६ सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते । २९ सद्रव्यलक्षणम् । ३७ बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च । ३७ बन्धे समाधिको पारिणामिकौ । ३९ कालश्च । ३९ कालश्चेत्येके। ४२ अनादिरादिमांश्च । | ४३ रूपिष्वादिमान् । ४४ योगोपयोगौ जीवेषु । षष्ठोऽध्यायः। ३.शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य । ३ शुभः पुण्यस्य । ४ अशुभः पापस्य । ५ इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविं- ३ अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः.......... शतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः। .......................... । ६ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्य- ७ ........भाववीर्याधिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः। स्तद्विशेषः । १७ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य । १८ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य ।। xxx xxx For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X xx X ........ .... .... .... . . . x - x x x १८ स्वभावमार्दवं च। २१ सम्यक्त्वं च । २३ तद्विपरीतं शुभस्य २२ विपरीतं शुभस्य । २४ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनती- २३ ................ चारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्या- ...भीक्ष्णं.................. गतपसीसाधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यब- तपसीसङ्घसाधुसमाधिवैयावृत्यकरण..... हुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य । । तीर्थकृत्वस्य । सप्तमोऽध्यायः। ४ वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपान-| भोजनानि पञ्च । ५ क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभा षणं च पञ्च । ६ शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैश्य शुद्धिसधौविसंवादाः पञ्च । ७ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्व रतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाःपञ्च। ८ मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वषवर्जनानि पश्च ।। ९ हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् । ४ हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् । १२ जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् । ७ जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् । २८ परविवाहकरणेवरिकापरिगृहीतापरिगृहीताग- २३ परविवाहकरणेबरपरिगृहीता.... ___ मनानङ्गक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः। ..................। ३२ कन्दर्पकौत्कुच्यमौख-समीक्ष्याधिकरणोप- | २७ कन्दर्पकौकुच्य............... भोगपरिभोगानर्थक्यानि । ___णोपभोगाधिकत्वानि । ३४ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रम- २९ ...............................संस्तारो णानादरस्मृत्यनुपस्थानानि । ............नुपस्थापनानि । ३७ जीवितमरणशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदा- ३२ ............. नानि । । निदानकरणानि। अष्टमोऽध्यायः । २ सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलाना- २ ...........पुद्गलानादत्ते । दत्ते स बन्धः ३ स बन्धः । ४ आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्ना- ५ ................. मगोत्रान्तरायाः। मोहनीयायुष्क नाम.......। १ आठवें अध्यायके १२ वें सूत्रमें भी तीर्थकरत्वं चके स्थानमें तीर्थकृतत्वं च पाठ है । x For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम् । ७ मत्यादीनाम् । ७ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्रा ८ ............ प्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च । ...स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च। ९ दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायाकषायवेदनीया- १० ..........मोहनीयकषायनोकषाय......... ख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यऽकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोक- तदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्य- ख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोमा:हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुक्रोधमानमायालोमाः। प्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदाः। १३ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् । १४ दानादीनाम् । १६ विंशतिर्नामगोत्रयोः। १७ नामगोत्रयोविंशतिः। १७ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः । १८ ................युष्कस्य । .... १९ शेषाणामन्तर्मुहूर्ता। २१ ..........मुहर्तम् । २४ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रा- | २५ ................ ................क्षेत्रा__ वगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः। वगाढस्थिताः..............। २५ सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् । | २६ सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुः...। २६ अतोऽन्यत्पापम् । नवमोऽध्यायः। ६ उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमस्तपस्त्या- ६ उत्तमः क्षमा............ गाकिश्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । १७ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः । १७ ................विंशतः । १८. सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्म- | १८ ............ साम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् । यथाख्यातानि चारित्रम् । २२ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतप- | २२ ... ... .... ... श्छेदपरिहारोपस्थापनाः। ..... ...........स्थापनानि । • २७ उत्तमसंहनस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मु- २७ .... .... .... निरोधो ध्यानम् । हूर्तात् । २८ आमुहूर्तात् । x x ........ ३३ विपरीतं मनोज्ञानाम् । ३१ विपरीतं मनोज्ञस्य । . . . . . ........ . ३६ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयायधर्म्यम् । धर्ममप्रमत्त संयतस्य । . ३८ उपशान्तक्षीणकषाययोश्च । ३७ शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः । .................' ३९ शुक्ले चाये। ४० त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् । ४२ तत्र्येककाययोगा............। ४१ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे । ४३ ..........सवितर्के पूर्वे । . . . . . . For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमोऽध्यायः। २ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो. २...........निर्जराभ्याम् । मोक्षः। ३ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । ३ औपशामिकादि भव्यत्वानां च । ४ औपशामिकादिभव्यत्वाभावाश्चान्यत्र केवल. सम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः । ४ अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः।। ५ तदनन्तरमूवं गच्छन्त्यालोकान्तात् । ५ ..........गच्छत्या......। ६ पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्वन्धच्छेदात्तथा गतिपरिमाच्च । तदतिः । .. ७ आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाम्बूवदेर. ण्डबीजवदग्निशिखावच्च । ८ धर्मास्तिकाया भावात्। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय। १९८ वर्णानुसारी सूत्रानुक्रमणिका । -~icticसूत्र। पृष्ठांक ।। ३४ आकाशादेकद्रव्याणि ५ ५ १२१ ३५ आचार्योपाध्याय ९ २४ २१५ ७ १४ १६२ ३६आदितस्तिसृणामन्तरायस्य० ८ १५ १८७ ५ १ १२० | ३७ आद्य संरम्भ. ६ ९१४५ ५ २५ १३१ ३८ आयशब्दौ द्वित्रिभेदौ १ ३५ ३१ ७ १५ १६२ ३९ आये परोक्षम् ... १ ११ १५ ७ १० १६१ ४० आद्यो ज्ञानदर्शनावरण. ८ ५ १७५ १४५ ४१ आनयनप्रेष्यप्रयोग ११६ ४२ आमुहूर्तात् ९ २८ २१७ ४ ४१ ११७ ४३ आरणच्युतादू० ४ ३८ ११६ २ ४० ४४ आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि ९ २९ २१७ ९ १९ २१० ४५ आर्तममनोज्ञानां. ९ ३१ २१७ १४१ ४६ आर्या म्लिशश्च २ ४२ ४७ आलोचनप्रतिक्रमण ९ २२ २१३ ४८ आस्रव निरोधः संवरः ९ १ १९१ ७ ३३ १७२ ४९ आज्ञापायविपाक. ९ ३७ २१८ ४ ३९ ५० इन्द्रसामानिक० २ ४१ ५१ ई-भाषैषणा० १९२ ७ २९ १७० ५२ उच्चैर्नीचैश्च ८ १३ १८६ ५३ उत्तमः क्षमा० ५४ उत्तमसंहननस्यै० ९ २७ २१७ ५५ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ५ २९ १३२ २ २८ ५६ उपयोगो लक्षणम् ५७ उपयोगः स्पर्शादिषु २ १९ ४४ ६ ६ ५८ उपर्युपरि ४ १९ १०५ ६ ४ १४३ ५९ उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ९ ३८ २१९ ५ १५ १२३ ६० ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्य० ७ २५ ४ ३२ ११५ । | ६१ ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः १ २४ २४ ५ ९ १२२ ए। ५ १८ १२५) ६२ एकप्रदेशादिषु भाज्यः० ५ १४ १२३ २ २७ १ अगार्यनगारश्च २ अजीवकाया० ३ अणवः स्कन्धाश्च ४ अणुव्रतो ऽगारी ५ अदत्तादानं स्तेयम् ६ अधिकरणं जीवाजीवाः ७ अधिके च ८ अधिके च ९ अनन्तगुणे परे १० अनशनावमौदर्य ११ अनादिरादिमांश्च १२ अनादिसम्बन्धे च १३ अनित्याशरण. १४ अनुग्रहार्थ १५ अनुश्रेणि गतिः १६ अपरा पल्योपममधिकं च १७ अपरा द्वादशमुहूर्ता १८ अप्रतिघाते १९ अप्रत्यवेक्षिता २० अर्थस्य २१ अर्पितानर्पितसिद्धेः २२ अल्पारम्भपरिग्रहवं. २३ अवग्रहेहापायधारणाः २४ अविग्रहा जीवस्य २५ अविचारं द्वितीयम् २६ अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः० २७ अशुभःपापस्य २८ असङ्खयेयाः प्रदेशा० २९ असङ्खयेयभागादिषु० ३० असदभिधानमनृतम् ३१ असुरेन्द्रयोः० आ। ३२ आकाशस्यानन्ताः ३३ आकाशंस्यावगाहः ८ १९ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dow6 26 ६३ एकसमयो ऽविग्रहः २ ३० ४८ ६४ एकं द्वौ वानाहारकः २ ३१ ४८ ९७ जगत्कायस्वभावौ च ७ ७ १५९ ६५ एकादश जिने ९ ११ २०८ ९८ जघन्या त्वष्टभागः ४ ५२ ११९ ६६ एकादयो भाज्या० ६ १७ २१० ९९ जम्बूद्वीपलवणादयः ६७ एकादीनि भाज्यानि० १ ३१ २७/ १०० जरायवण्डपोतजानां गर्भः २ ३४ ५० ६८ एकाश्रये सवितर्के. १०१ जीवभव्याभव्यत्वादीनि च २ . औ। १०२ जीवस्य च ५ ८ १२२ ६९ औदारिकवैक्रिय. १०३ जीवाजीवास्रव० १०४ जीवितमरणाशंसा० ७० औपपातिकचरमदेहो० २ ५२ ६. ७१ औपपातिकमनुष्येभ्यः० ४ २८ ११४ १०५ ज्योतिष्काः० ७२ औपशमिकक्षायिकौ० २ १ १०६ ज्योतिष्काणमधिकम् ४ ४८ ७३ औपशमिकादि० १ ० ४ २२७ त। १०७ ततश्च निर्जरा १०८ तत्कृतः कालविभागः ४ १५ ७४ कषायोदयात्ती. ६ १५ १४९ १०९ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् १ २ ७५ कन्दर्पकौकुच्य. ११० तब्येककाययोगायोगानाम् ९ ४२ २२० ७६ कल्पोपपन्नाः० ४ १८ १११ तत्प्रमाणे १ १० १५ ७७ कायप्रवीचारा ११२ तत्प्रदोषनिह्नव. ६ ११ १४७ ७८ कायवाङ्मनःकर्मयोगः ११३ तत्र भरत. ३ १० ८० ७९ कालश्चेयेके ५ ३८ १४० ११४ तत्स्थैर्यार्थ ३ १५४ ८० कृमिपिपीलिका २ २४ ११५ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य १ २६ २६ ८१ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः १. ३ ११६ तदनन्तरमूवं. १० ५ २२८ ८२ केवलिश्रुतसङ्घ ११७ तदविरतदेशविरत. ९ ३५ २१८ ८३ क्षुत्पिपासा. ११८ तदादीनि भाज्यानि० ८४ क्षेत्रवास्तुहिरण्य. ११९ तदिन्द्रियानिन्द्रिय २ १४ १७ ८५ क्षेत्रकालगतिलिङ्ग. १२० तद्विभाजिनः० ३ ११ ग। १२१ तद्विपर्ययो. ८६ गतिकषायलिङ्ग १२२ तद्भाव परिणामः ५ ४१ १४१ ८७ गतिशरीरपरिग्रहा० १२३ तद्भावाव्ययं नित्यम् ८८ गतिस्थित्युपग्रहो | १२४ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ८९ गतिजातिशरीरा० १२५ तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो० ३ ९. गर्भसंमूर्छनजमाद्यम् १२६ तपसा निर्जरा च ९१ गुणसाम्ये सदृशानाम् १२७ तारकाणां चतुर्भागः ११९ ९२ गुणापर्यायवद्रव्यम् १४० १२८ तासु नरकाः ९३ ग्रहाणामेकम् १२९ तिर्यग्योनीनां च १३० तीव्रमन्दज्ञाताज्ञात. ९४ चक्षुरचक्षुरवधि० ८ ८ १७६ १३१ तृतीयः पीतलेश्यः ९५ चतुर्भागः शेषाणाम् ४ ५३ १२० १३२ तेजोवायू० २ १४ ९६ चारित्रमोहे. ९ १५ २०९/ १३३ तेषां परं परं सूक्ष्मम् २ ३८ ५१ rry به سه م سه م به هو به ११९ २ ९० For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ १० १९ ४० ३९ १३४ तेष्वकत्रि. ३ ६ ७४ १७० नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ८ ११ १८० १३५ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ८ १८ १८७ १७१ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ५ ३ १२१ १३६ त्रायस्त्रिंशलोकपाल... ४ ५ ९२ १७२ नित्याशुभतरलेश्या० ३ ३ ६६ १७३ निदानं च ९ ३४ २१८ १३७ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता०६ २३ १५१ १७४ निरुपभोगमन्त्यम् १३८ दर्शचारित्रमोहनीय. ८ १० १७५ निर्देशस्वामित्व० १३९ दर्शनमोहान्तराययो० ९ १४ २०९ १७६ निर्वर्तनानिक्षेप १४० दश वर्षसहस्राणि ४ ४४ ११९ १७७ निवृत्त्युपकरणे. २ १७ १४१ दशाष्टपञ्च० १७८ निःशल्यो व्रती ७ १३ १६२ १४२ दानादीनाम् ८ १४ १८६ १७९ निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ६ १४९ १४३ दिग्देशानर्थदण्ड० ७ १६ १६२ १८० निष्कियाणि च . ५ ६ १२१ १४४ दुःखशोकतापा० ६ १२ १४८ १८१ नृस्थिती परापरे. ३ १७ ८८ १४५ दुःखमेव वा ७ ५ १५६ १८२ नैगमसंग्रह. १४६ देवाश्चतुर्निकायाः १४७ देशसर्वतोऽणुमहती १८३ पञ्चनव० ६ १७५ १४८ द्रव्याणि जीवाश्च १८४ पञ्चेन्द्रियाणि २ १५ ४२ १४९ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ५ १८५ परतः परतः० .४ ४२ ११८ १५० द्विनवाष्टादशै० १८६ परविवाहकरणे. १५१ द्विर्द्विर्विष्कम्भाः० १८७ परस्परोदीरितदुःखाः १५२ द्विर्धातकीखण्डे १८८ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ५ २१ १२७ १५३ द्विविधानि १८९ परात्मनिन्दाप्रशंसे०६ २४ १५२ १५४ द्विविधो ऽवधिः १ २१ १९० परा पल्योपमम् ४ ४७ ११९ १५५ ब्यधिकादिगुणानां तु ५ ३५ | १९१ परे केवलिनः ध। १९२ परेऽप्रवीचाराः ४ १० १० ९५ १५६ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ५ १३ १२३ १९३ परे मोक्षहेतू १९४ पीतपद्मशुक्ललेश्या० १५७ नक्षत्राणामर्धम् ११९ १९५ पीतान्तलेश्याः १५८ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् २ १९ १९ १९६ पुलाकबकुश० ९ ४८ १५९ न जघन्यगुणानाम् १९७ पुष्करार्धे च ३ १३ १६० न देवाः १९८ पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वा० १०६ १६१ नवचतुर्दश० ९ २१ २१२ १९९ पूर्वयोन्द्रिाः १६२ नाणोः ५ ११ १२३ २०० पृथक्कैकत्व० ९ ४१ २१९ १६३ नामगोत्रयोविंशतिः ८ १७ १८७ २०१ पृथिव्यवनस्पतयः स्थावराः २ १३ ४१ १६४ नामगोत्रयोरष्टौ ८. २० १८८ २०२ प्रकृतिस्थित्यनुभाव०८ ४ १७५ १६५ नामप्रत्ययाः० ८ २५ १८९ २०३ प्रत्यक्षमन्यत् १ १२ १५ १६६ नामस्थापनाद्रव्य० १ ५ ८, २०४ प्रदेशतोऽसङ्खयेयगुणं २ ३९ ५१ १६७ नारकदेवानामुपपातः २ ३५ ५० २०५ प्रदेशसंहार० ५ १६ १२४ १६८ नारकसंमूछिनो नपुंसकानि १ ५० ५९ २०६ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा७ ८ १६. १६९ नारकाणां च द्वितीयादिषु ४ ४३ ११८ | २०७ प्रमाणनयैरधिगमः For Personal & Private Use Only २ १६ ४२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४१ २०८ प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ४ २४ ११२ | २.९ प्राग्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ३ १४ ८५ | २४३ यथोक्कनिमित्तः० १ २३ २३ २१. प्रायश्चित्तविनय. २४४ योगदुष्प्रणिधाना. ७ २८ १७० २४५ योगवक्रता. ६ २१ १५० २४६ योगोपयोगी जीवेषु ५ ४४ १४१ २११ बन्धवधविच्छेदा० . २० २१२ बन्धहेत्वभावनिजराभ्याम् १० २ २४० रन-शर्करा. २१३ बन्ध समाधिकौ० . ५ ३६ २४८ रूपिणः पुद्गलाः १२१ २१४ बहिरवस्थिताः ४ १६ १०५ २४९ रूपिष्ववधेः २६ २१५ बहुबहुविध० २५० रूपिध्वादिमान् २१६ बह्वारम्भपरिग्रहत्वं० २१७ बादरसंपराये सर्वे २५१ लब्धिप्रत्ययं च २ ४८ ५५ २१८ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः २१९ ब्रह्मलोकालया० ४ २५ २५२ लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् २ १८ २५३ लोकाकाशे ऽवगाहः ५ १३ १२३ भ। २२० भरतैरावतविदेहाः० ३ १६ २५४ वर्तना परिणामः ५ २२ १२७ २२१ भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् १ २२ २५५ वाचनाप्रच्छना. २२२ भवनवासिनो ४ ११ २५६ वाय्वन्तानामेकम् २२३ भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां०४ ३० २५७ विग्रहगतौ कर्मयोगः २ २६-४७ २२४ भवनेषु च ४ ४२ २५८ विग्रहवती च. २ २९ ४७ २२५ भूतव्रत्यनुकम्पा० २५९ विघ्नकरणमन्तरायस्य ६ २६ १५३ २२६ भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः ५ २८ १३० २६०विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः९ ४६ २२० २२७ भेदादणुः ५ २७ १३२ २६१ विजयादिषु द्विचरमाः ४ २७ ११४ २६२ वितर्कः श्रुतम् ९ ४५ २२० २२८ मतिःस्मृतिः. १ १३ १६ २६३ विधिद्रव्यदातृ. ७ ३४ १७२ २२९ मतिश्रुतावधि १ ९ १५ २६४ विपरीतं शुभस्य ६ २२ १५१ २३० मतिश्रुतयोर्निबन्धः०१ २७ २६ २६५ विपरीतं मनोज्ञानाम् ९ ३३ २१८ २३१ मतिश्रुतावधयो० १ ३२ २९/ २६६ विपाकोऽनुभावः ८ २२ १८८ २३२ मत्यादीनाम् ८ ७ १७५ २६७ विशुद्धिक्षेत्र. २३३ माया तैर्यग्योनस्य ६ १७ १४९ / २६८विशुन्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः१ २५ २४ २३४ मारणन्तिकी संलेखनां जोषिता७ १७ १६४ २६९ विशेषत्रिसप्त. २३५ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ० ९ ८ २०७, २७० वेदनायाश्च ९ ३२ २१८ २३६ मिथ्यादर्शनाविरति० ८ १ १७३/ २७१ वेदनीये शेषाः ९ १६ २०९ २३७ मिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यान०७ २१ १६६ / २७२ वैक्रियमौपपातिकम् २ ४७ २३८ मूर्छा परिग्रहः ७ १२ १६१ २७३ वैमानिकाः २३९ मेरुप्रदक्षिणा० ४ १४ १००२७४ व्यञ्जनस्यावग्रहः १८ २४० मैत्रीप्रमोदकारुण्य. ६ १५८२७५ व्यन्तराः किन्नर. २४१ मैथुनमब्रह्म ११ १६१२७६ व्यन्तराणां च ४६ ११९ २४२ मोहक्षयाज्ञा० १० १ २२५ २७७ व्रतशीलेषु पञ्च. १३ १०५ १ १० ७ १९ १६६ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ शङ्काकांक्षा • १७९ शब्दबन्धसौक्ष्म्य० २८० शरीरवाङ्मनः० श । ३८१ शुक्ले चा २८२ शुभं विशुद्धमव्याघाति० २८३ शुभः पुण्यस्य २८४ शेषाः स्पर्शरूप० २८५ शेषाणां संमूर्च्छनम् २८६ शेषाणां पादोने २८७ शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् २८८ श्रुतं मतिपूर्व० २८९ श्रुतमनिन्द्रियस्य स । २९० स आस्रवः २९१ स कषायत्वाज्जीवः० २९२ स कषाया • २९३ संक्लिष्टासुरो • २९४ स गुप्तिसमिति • २९५ संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते २९६ सङ्ख्येयासङ्ख्येयाश्च ० २९७ सचित्तनिक्षेपपिधान० २९८ सचित्तशीत संवृत्ताः ० २९९ सचित्त संबद्ध ० ३०० सत्सङ्ख्या ० ३०१ सदसतोरविशेषाद्य • ३०२ सदसद्वेद्ये ३०३ स द्विविधो ३०४ सद्वेद्य० ३०५ सप्ततिर्मोहनीयस्य ३०६ स बन्धः ३०७ संमूर्छनगर्भोपपाता जन्म ३०८ समनस्कामनस्का: ३०९ सम्यक्त्वचारित्रे ३१० सम्यग्दर्शन० ३११ सम्यग्दृष्टिश्रावक ० 4 ७ ५ ५ ९ २ ६ ४ २ ४ ८ १ २ ६ ३ ९ ५ ५ ६ ८ २ ७ २ ७ १८ २४ १९ २९ ४९ १. ३ ९ ९ ३६ ३१ २१ २० २२ MN 55 m २ ५ ५ २ २६ १० ३१ ३३ ३० . २२ ३ १ ४७ ३१२ सम्यग्योग निग्रहो गुप्तिः १६५३१३ सप्त सनत्कुमारे १२९ ३१४ स यथा नाम १२५ | ३१५ संयम श्रुत २१९ ३१६ सरागसंयम ० ५५ | ३१७ सर्वद्रव्ययर्यायेषु १६९ ३१८ सर्वस्य ९३ | ३१९ संसारिणो मुक्ताश्च ५० ३२० संसारिणस्त्रसस्थावराः ११५ | ३२१ संज्ञिनः समनस्काः १८८ | ३२२ सागरोपमे १८ | ३२३ सागरोपमे • १७१ | ३३५ स्पर्शनरसनप्राण ० १ १३ | ३३६ स्पर्शरसगन्ध० १ ३३ ३० | ३३७ स्पर्शरस० ८ ९ १७६ २ ९ ४० ८ २६ १९० ८ १६ १८७ ८ ३ १७४ २ ३२ २ ११ २ ४५. ३२४ सारखता • ३२५ सामायिकच्छेदोप• १४२ | ३२६ सुखदुःख ० १७४ | ३२७ सूक्ष्म सम्पराय ० १४३ | ३२८ सोऽनन्तसमयः १९१ ७१ ३२९ सौधर्मादिषु यथाक्रमम् सौधर्मेशान • ३३० १३१ | ३३१ स्तेनप्रयोग० १२३ | ३३२ स्थितिः १७१ | ३३३ स्थितिप्रभाव० ४९ | ३३४ स्रग्धरूक्षत्वाद्बन्धः ३३८ हिंसादिष्विहामुत्र ० ३३९ हिंसानृतस्तेयविषय ० ३४० हिंसानृतस्तेया० ह। २२१ | ३४४ ज्ञानाज्ञानदर्शन ० ४९ - ४१ ३४१ ज्ञानदर्शनदान ० ३८ | ३४२ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ६ ३४३ ज्ञानदर्शनचरित्रोपचाराः For Personal & Private Use Only ज्ञ । ९ ४ ४ ३६ ८ २३ ९ ४९ ६ २० १५० १. २७ ५२ ४१ ४१ ४६ ११६ ११७ २ २ २ २ ४ ४ ૪ ५ ४ २६ ११३ ९ १८ २१० ५ २० १२५ ९ १० २०८ ३९ १४० ३३ ११५. २० १२६ २ ३० ४३ १० ४ ७ २२ १६७ ४ २९ ११५ ४ २२ १०७ १३७ ४४ ५ ३२ २ २० ७ १२ २५ ૨૪ ४० ४ ९ ३६ ७ १ ९ ९ १९१ ११६ १८९ २२२ २ २३ .१२९ २१ ४४ २ ४. ३८ १३ २०९ २३ २१४ ५ ३९ १५४ २१८ १५३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ saas or रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला. श्रीमत् - उमास्वातिविरचितं सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । हिंदी भाषानुवादसहितम्. सम्बन्धकारिकाः सम्यग्दर्शनशुद्धं यो ज्ञानं विरतिमेव चाप्नोति । दुःखनिमित्तमपीदं तेन सुलब्धं भवति जन्म ॥ १ ॥ जन्मनि कर्मक्लेशैरनुबद्धेऽस्मिंस्तथा प्रयतितव्यम् । कर्मक्लेशाभावो यथा भवत्येष परमार्थः ॥ २ ॥ परमार्थालाभे वा दोषेष्वारम्भकस्वभावेषु । कुशलानुबन्धमेव स्यादनवद्यं यथा कर्म || ३ || कर्माहितमिह चामुत्र चाधमतमो नरः समारभते । इह फलमेव वधमो विमध्यमस्तूभयफलार्थम् ॥ ४ ॥ परलोकहितायैव प्रवर्तते मध्यमः क्रियासु सदा । मोक्षायैव तु घटते विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुषः ।। ५॥ यस्तु कृतार्थोऽप्युत्तममवाप्य धर्म परेभ्य उपदिशति । नित्यं स उत्तमेभ्योऽप्युत्तम इति पूज्यतम एव ॥ ६॥ तस्मादर्हति पूजामर्हन्नेवोत्तमोत्तमो लोके । देवर्षिनरेन्द्रेभ्यः पूज्येभ्योऽप्यन्यसत्त्वानाम् ॥ ७ ॥ अभ्यर्चनादर्हतां मनःप्रसादस्ततः समाधिच । तस्मादपि निःश्रेयसमतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् ॥ ८॥ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तीर्थप्रवर्तनफलं यत्प्रोक्तं कर्म तीर्थकरनाम । तस्योदयात्कृतार्थोऽप्यर्हस्तीर्थ प्रवर्तयति ॥ ९ ॥ तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थकर एवम् ॥१०॥ यः शुभकर्मासेवनभावितभावो भवेष्वनेकेषु । जज्ञे ज्ञातेक्ष्वाकुषु सिद्धार्थनरेन्द्रकुलदीपः॥ ११ ॥ ज्ञानैः पूर्वाधिगतैरपतिपतितैर्मतिश्रुतावधिभिः। त्रिभिरपि शुद्धैर्युक्तः शैत्ययुतिकान्तिभिरिवेन्दुः ॥ १२ ॥ शुभसारसत्त्वसंहननवीर्यमाहात्म्यरूपगुणयुक्तः। जगति महावीर इति त्रिदशैर्गुणतः कृताभिख्यः॥१३॥ स्वयमेव बुद्धतत्वः सत्त्वहिताभ्युद्यताचलितसत्वः । अभिनन्दितशुभसत्वः सेन्ट्रैलॊकान्तिकैर्देवैः ॥ १४ ॥ जन्मजरामरणार्त जगदशरणमभिसमीक्ष्य निःसारम् । स्फीतमपहाय राज्यं शमाय धीमान्प्रवव्राज ॥१५॥ प्रतिपद्याशुभशमनं निःश्रेयससाधकं श्रमणलिङ्गम् । कृतसामायिककर्मा व्रतानि विधिवत्समारोप्य ॥ १६ ॥ सम्यक्खज्ञानचारित्रसंवरतपःसमाधिबलयुक्तः। मोहादीनि निहत्याशुभानि चत्वारि कर्माणि ॥ १७ ॥ केवलमधिगम्य विभुः स्वयमेव ज्ञानदर्शनमनन्तम् । लोकहिताय कृतार्थोऽपि देशयामास तीर्थमिदम् ॥ १८ ॥ द्विविधमनेकद्वादशविधं महाविषयममितगमयुक्तम् । संसारार्णवपारगमनाय दुःखक्षयायालम् ॥ १९ ॥ ग्रन्थार्थवचनपटुभिः प्रयत्नवद्भिरपि वादिभिर्निपुणैः। अनभिभवनीयमन्यैर्भास्कर इव सर्वतेजोभिः ॥ २० ॥ कृत्वा त्रिकरणशुद्धं तस्मै परमर्षये नमस्कारम् । पूज्यतमाय भगवते वीराय विलीनमोहाय ॥ २१ ॥ तत्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थ संग्रहं लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२ ॥ महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य । कः शक्तः प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम् ॥ २३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । शिरसा गिरिं विभित्सेदुञ्चिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोर्भ्याम् | प्रतितीर्षेच समुद्रं मित्सेच्च पुनः कुशाग्रेण ॥ २४ ॥ व्योम्नीन्दुं चित्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयिषेत् । गत्यानिलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ।। २५ ।। खद्योतकप्रभाभिः सोऽभिबुभूषेच्च भास्करं मोहात् । asaमहाग्रन्थार्थं जिनवचनं संजिघृक्षेत ॥ २६ ॥ एकमपि तु जिनवचनाद्यस्मान्निर्वाहकं पदं भवति । श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रपदसिद्धाः ।। २७ । तस्मात्तत्प्रामाण्यात् समासतो व्यासतश्च जिनवचनम् । श्रेय इति निर्विचारं ग्राह्यं धार्यं च वाच्यं च ॥ २८ ॥ न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ।। २९ ॥ श्रममविचिन्त्यात्मगतं तस्माच्छ्रेयः सदोपदेष्टव्यम् । आत्मानं च परं च हि हितोपदेष्टानुगृह्णाति ॥ ३० ॥ नर्ते च मोक्षमार्गाद्धितोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥ ३१ ॥ ॥ इति सम्बन्धकारिकाः समाप्ताः ॥ " जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे शुद्ध ज्ञान तथा ( उसकेद्वारा इस संसार से ) विरतिको प्राप्त करता है, (संसार में ) अनेक दुःखों का कारण होनेपर भी यह जन्म, उस मनुष्यको उत्तम लाभदायक है. ॥ १ ॥ अनेक प्रकारके कर्मोंसे उत्पन्न हुवे क्लेशोंसे निरन्तर संबद्ध इस जन्म में ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि जिस्से कर्मजनित क्लेशरहित मोक्षरूप परमार्थ सिद्ध हो. ॥ २ ॥ यदि मोक्षरूप परमार्थका लाभ न हो, तथा जन्मके आरम्भकारी कषायरूप दोषोंकी अस्तितामें, ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि, जिससे कुशल अर्थात् शुभप्रयोजनसहित, और निन्दारहित ही कर्म्म हो. ॥ ३ ॥ अत्यन्त अधम मनुष्य, इस लोक तथा परलोकमें दुःखदायक कर्मोंका ही आरंभ करता है, अधम मनुष्य, इस लोकमें केवल फलदायक कर्मोंका आरम्भ करता है, और विमध्यम श्रेणीका मनुष्य, उभय लोकमें फलदायक कर्मोंको करता है; और मध्यमजन परलोक में हितकारी क्रियाओंमें सदा प्रवृत रहता है. परन्तु विशिष्टबुद्धि उत्तम मनुष्य तो केवल मोक्षकेही लिये निरन्तर प्रयत्न करता है. ॥ ४५ ॥ और जो मनुष्य, उत्तम धर्मको प्राप्त करके स्वयं कृतार्थ हो गया है, और अन्य मनुष्योंको धर्मका उपदेश देता है, वह निरंतर उत्तम जनोंसे भी अति उत्तम तथा सबका पूजनीय है || ६ || इस हेतुसे उत्तमोत्तम जो अर्हन् For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भगवान् हैं वेही लोकमें अन्य प्राणियोंके पूज्यदेवर्षिनरेन्द्रोसेभी पूजाके योग्य हैं. ॥ ७ ॥ अर्हन् भगवान्की पूजासे मनकी प्रसन्नता प्राप्त होती है, और मनके प्रसाद अर्थात् प्रसन्नतासे समाधि प्राप्त होती है, तथा समाधिरूप योगसे निःश्रयस मोक्ष प्राप्त होता है; इस कारणसे अर्हन् भगवान्की पूजाही इस लोकमें उत्तम वस्तु है. ( क्योंकि उसीके द्वारा मोक्षपदकाभी लाभ होता है) ॥ ८ ॥ तीर्थप्रवर्तनरूप (संसारसे उद्धार करनेवाले) फलदायक जो तीर्थकरनाम कर्म शास्त्रमें कहा गया है उसीके उदयसे यद्यपि तीर्थकर अर्हन् भगवान् कृतार्थ हैं, तथापि तीर्थकी प्रवृत्ति अर्थात् संसारसागरसे पार उतारनेवाले. धर्मका उपदेश करतेही हैं. ॥९॥ उसी तीर्थकरनामकर्मसे, जिस रीतिसे सूर्य लोकमें प्रकाश करता है उसी रीतिसे तीर्थके प्रवर्तनके अर्थ तीर्थकर लोकमें प्रवृत्त होते हैं. ॥ १० ॥ जो कि अनेक जन्मोंमें शुभ कर्मोंके निरन्तर सेवनसे भावित अर्थात् पूजित भाव, सिद्धार्थ नरेन्द्रोंके कुलमें प्रदीपके समान समुज्वल ज्ञातसंज्ञक इक्ष्वाकुवंशके क्षत्रियोंमें, जन्म लिया. ॥ ११ ॥ तथा अति शुद्ध, और अप्रतिपाती पूर्व जन्मोंमें प्राप्त, मति, श्रुत, तथा अवधि, इन तीन ज्ञानोंसे युक्त होकर ऐसे शोभित हुये जैसे शैत्यद्युति (उष्णतारहित प्रकाश) तथा कान्तिगुणोंसे युक्त होनेसें चन्द्रमा ॥ १२ ॥ तथा शुभ, सार, सत्व, संहनन (शरीररचनाविशेष) वीर्य, और माहात्म्यरूप गुणोंसे युक्त, तथा त्रिदश (अर्थात् शास्त्रोक्त तीस) गुणोंसहित जगत्में महावीरस्वामी इस नामसे प्रसिद्ध (इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुये.) ॥ १३ ॥ स्वयमेव सप्त तत्वोंके ज्ञाता, निराकुलताके कारणोंसे जिनका अचल सत्व अभ्युदयको प्राप्त था, और इन्द्रसहित लोकान्तिक देव जिनके शुभ सत्वकी प्रशंसा किया करते थे ऐसे वे महावीरस्वामी थे. ॥ १४ ॥ तथा जन्म, वृद्धावस्था और मरणसे पीडित इस असार संसारको अशरण देखके अपने उत्तम विशाल राज्यको त्यागकर वे बुद्धिमान् महावीरस्वामी शान्तिके लिये वनमें चले गये. ॥ १५॥ और अशुभ कर्मोको दमन करनेवाला तथा मोक्षका साधक श्रमणों (जैनमतके मुनियों) के लिङ्ग (चिन्ह) धारण करके, सामायिक कर्मोंको करतेहुये विधिपूर्वक सब व्रतोंको करके, ॥ १६ ॥ सम्यग्ज्ञान, चारित्र, संवर, तप, समाधि, और बल इनसे तो युक्त और मान, मोह, लोभ तथा माया इन चार अशुभ कर्मोंका सर्वथा घात करके, ॥ १७ ॥ पश्चात् स्वयमेव वे प्रभु अनन्त, ज्ञान और दर्शन आदिकी प्राप्तिसे कृतार्थ होनेपरभी इस तीर्थ (जैनधर्म) का उपदेश किया. ॥ १८ ॥ प्रथम प्रमाणनयके अनुसार दो प्रकार, पुनः अनेक प्रकार, वा द्वादशभेदसहित तप आदि धर्म, जो कि १ यह अर्थ "सत्वहिताऽभ्युद्यताचलितसत्वः” इस पदका कियागया है परन्तु हमारी समझमें इस पदका "जीवोंके हितकेवास्ते अभ्युद्यत और अविचलित सत्त्वको धारण करनेवाले" ऐसा अर्थ प्रतीत होता है. संशोधक. For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । महान् विषयोंसे युक्त, और अमित आगमोंके प्रमाणोंसे युक्त, तथा संसारसमुद्रसे पार उतारने और संपूर्ण दुःखोंके नाशके लिये समर्थ धर्म है उसका उपदेश दिया. ॥ १९ ॥ तथा यह धर्म अनेक ग्रंथोंके अर्थनिरूपणमें प्रवीण, और अति प्रयत्नशाली निपुण वादियोंसेभी वैसे अखण्डनीय है जैसे अन्य सब तेजोंसे सूर्य ॥२०॥ ऐसे पूर्वोक्त धर्मके प्रवर्तक परमऋषिस्वरूप मोहादिरहित, तथा सर्वपूज्य वीरभगवान् महावीरस्वामीको मैं ग्रंथकर्ता त्रिकरण (मन वचन तथा काया) की शुद्धिपूर्वक नमस्कार करके, ॥ २१ ॥ अधिक अर्थसे पूर्ण, और अल्पशब्दयुक्त इस तत्त्वार्थाधिगम नामक लघु ग्रंथको जो कि अर्हत् भगवान्के वचनोंकाही एक देश है, शिष्यजनोंके हितार्थ वर्णन करूंगा. ॥ २२ ॥ और महान् तथा महाविषयोंसे पूर्ण, और अपार, जिन भगवान्के वचनरूपी महासमुद्रका प्रत्यास (संग्रह) करनेको दुर्गमग्रंथभाषीभी कौन समर्थ होसक्ता है ? ॥ २३ ॥ जो मनुष्य अति विशाल गम्भीरार्थोंसे पूर्ण जिनवचनरूपी महासमुद्रका संपूर्णरूपसे संग्रह करनेकी इच्छा करता है वह मानो शिरसे पर्वतको तोडना चाहता है, पृथिवीको दोनों भुजाओंसे फेकना चाहता है, भुजाओंसे समुद्रको पार करना चाहता है, और उसी समुद्रका कुशाके अग्रभागसे थाह (पत्ता ) लेना चाहता है, आकाशमें उछलके चन्द्रमाको लंघन करना चाहता है, मेरुपर्वतको हाथसे कंपाना चाहता है, गतिमें वायुसेभी आगे जाना चाहता है, अन्तिम महासागरको पान करना चाहता है, और निजमूर्खताके कारण वह खद्योत (जुगन् वा आगियाकीडा) की दीप्तिसे सूर्यके तेजकोभी अभिभूत (पराजित) करना चाहता है. ॥ २४।२५।२६ ॥ जिनभगवान्के उपदेशवचनका एकभी पद अभ्यास करनेसे उत्तरोत्तर ज्ञानप्राप्तिद्वारा संसारसागरसे पार उतार देता है, क्योंकि केवल सामायिक मात्र पदसे अनंत सिद्ध होगये, ऐसा श्रवण करनेमें आता है. ॥ २७ ॥ इस हेतु, शास्त्रप्रमाणसे जिन भगवान्का वचन संक्षेपसे तथा विस्तारसे अभ्यस्त होनेसे कल्याण (मोक्ष) दायक है; इस कारण सन्देहरहित होकर जिनवाणीको ग्रहण करना चाहिये, उसके अनुसार धारण करना चाहिये, और दूसरोंको सुनानाभी चाहिये ॥ २८॥ हितवाक्यके श्रवणसे संपूर्ण श्रोताओंको सर्वथा धर्मसिद्धि नहीं होती, परन्तु अनुग्रहबुद्धिसे वक्ताको धर्मसिद्धि अवश्य होती है ॥ २९ ॥ इसकारण अपने श्रमका विचार न करके सदा मोक्षमार्गका उपदेश करना चाहिये, क्योंकि हितपदार्थोंका उपदेशदाता अपने तथा जिसको उपदेश देता है, दोनोंके ऊपर मानो अनुग्रह करता है ॥ ३० ॥ इस संपूर्ण संसारमें मोक्षमार्गके सिवाय अन्य कोई हितोपदेश नहीं है, इस हेतुसे सर्व श्रेष्ठ इसी मोक्षमार्गकाही कथन मैं करूंगा ॥ ३१ ॥ इति मोक्षमार्गप्रतिपादक तत्वार्थाधिगमसूत्रसम्बन्धप्रकाशकैकत्रिंशत्कारिकाः समाप्ताः ॥ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रथम अध्यायः। मूलसूत्रम्-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ सूत्रार्थः-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तथा सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है।॥१॥ _भाष्यम्-सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येष त्रिविधो मोक्षमार्गः। तं पुरस्ताल्लक्षणतो विधानतश्च विस्तरेणोपदेक्ष्यामः । शास्त्रानुपूर्वीविन्यासार्थ तूदेशमात्रमिदमुच्यते । एतानि च समस्तानि मोक्षसाधनानि । एकतराभावेऽप्यसाधनानीत्यतस्त्रयाणां ग्रहणम् । एषां च पूर्वलाभे भजनीयमुत्तरं । उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः । तत्र सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातः समञ्चतेर्वा । भावः । दर्शनमिति । दृशेरव्यभिचारिणी सर्वेन्द्रियानिन्द्रियार्थप्राप्तिरेतत्सम्यग्दर्शनं । प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनं । संगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । एवं ज्ञानचारित्रयोरपि ॥ विशेष व्याख्याः -सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र (आचरण) यह तीन प्रकारका मोक्षमार्ग है । उस त्रिविध मोक्षमार्गको हम लक्षण तथा परीक्षा भेदनिरूपणपूर्वक आगे विस्तारसे कहेंगे; और यहांपर केवल शास्त्रानुपूर्वी (क्रम) की रचनाके प्रदर्शनार्थ केवल उद्देश मात्र कहते हैं । ये तीनों मिलेहुये, अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तथा सम्यकचारित्र तीनों मिलकर ही मोक्षमार्गके साधक हैं, क्योंकि तीनोंमेंसे एकके भी न होनेपर एक वा दो मोक्षके साधन नहीं हो सकते, इसलिये भगवान् सूत्रकारने तीनोंका ग्रहण किया है । इनमेंसे पूर्वका लाभ होनेसे उत्तरको प्राप्त करना चाहिये; (अर्थात् सम्यग्दर्शनका लाभ होनेसे उत्तर सम्यग्ज्ञान, तथा सम्यक् चारित्रको निजप्रयत्नसे प्राप्त करना चाहिये, ) और उत्तरके लाभमें तो पूर्वका लाभ अवश्यही नियत है, (तात्पर्य यह कि सम्यग्ज्ञानका लाभ होनेसे सम्यद्गर्शनका लाभ अवश्य नियत है, तथा सम्यक्चारित्रके लाभसे दर्शन, ज्ञान दोनोंका लाभ नियत है)। सूत्रमें दर्शन आदिका विशेषण जो सम्यक् पद दिया है वह प्रशंसा अर्थका द्योतक वा वाचक निपात है, (अर्थात् प्रशंसित उत्तम दर्शन आदि मोक्ष मार्गके साधन हैं)। अथवा सम् उपसर्गपूर्वक अञ धातुसे क्विप्प्रत्यय करनेसे सम्यक् बनता है. (व्यभिचारशून्य ) अर्थात् अवश्य संपूर्ण इन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय के द्वारा जो पदार्थोंकी प्राप्ति है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं; यह दर्शन पद दृश धातुसे ल्युट् (अन) प्रत्यय करनेसे सिद्ध होता है. । प्रशस्त अर्थात् उत्तम (निन्दाव्यभिचार आदिसे शून्य) १. पदार्थोके केवल नाम मात्रके निरूपणको उद्देश कहते हैं-अनुवादकारः. २. व्युत्पत्तिपक्षमेंभी सम्यक्पद प्रशंसारूप अर्थका प्रतिपादक होकर दर्शनआदि पदोंका विशेषण होता है इसके लिये प्रकारान्तर कहते हैं । अर्थात् जो पूर्णरूपसे द्रव्यभावोंका प्राप्त हो वह सम्यग्दर्शन आदि । अनु० For.Personal &Private Use Only ___ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । जो दर्शन है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं. । अथवा संगतं (निरन्तर व्यवधानशून्य ) जो दर्शन है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं. । इसी प्रकार ज्ञान तथा चारित्रमेंभी सम्यक् पदकी योजना करनी चाहिये.॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ सूत्रार्थः-तत्वार्थको जो श्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन हैं । भाष्यम्-तत्त्वानामर्थानां श्रद्धानं तत्त्वेन वार्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानम् तत् सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वेन भावतो निश्चितमित्यर्थः । तत्त्वानि जीवादीनि वक्ष्यन्ते । त एव चार्थास्तेषां श्रद्धानं तेषु प्रत्ययावधारणम् । तदेवं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति ॥ विशेष व्याख्याः -(जिनशास्त्रोंसे प्रतिपाद्य ) तत्त्वभूत पदार्थोंका श्रद्धान, अथवा तत्त्वसे जो अर्थोंका श्रद्धान है उसको तत्त्वार्थश्रद्धान कहते हैं, और उसी तत्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं, तत्त्वसे अर्थात् भाव (यथार्थरूप) से निश्चियको सम्यग्दर्शन कहते हैं; (तात्पर्य यह है कि, जो पदार्थ जैसा है उसीरूपसे उसका जो निश्चय है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं) जीव आदि पदार्थ तत्त्व कहेजाते हैं जिनको हम आगे निरूपण करेंगे। वेही तत्त्वभूत जीवादि जो पदार्थ हैं, उनका श्रद्धान अर्थात् उनके यथार्थ स्वरूपमें विश्वास करनाही सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार प्रशम, अर्थात् रागादिकोंकी उत्कटताका अभाव, संवेग, अर्थात् संसार देह भोग इनका भय, निर्वेद, अर्थात् संसारके पदार्थों में घृणापूर्वक वैराग्य, अनुकम्पा (सर्वभूतदया) और शास्त्रबोधित पदार्थआदिमें अस्तित्वकी । अभिव्यक्ति (आविर्भाव) रूप जो तत्त्वार्थश्रद्धान है वही सम्यग्दर्शन है. ॥ २ ॥ तन्निसर्गादधिगमादा ॥३॥ सूत्रार्थ-वह सम्यग्दर्शन निसर्ग तथा अधिगमसे होता है। भाष्यम्-तदेतत्सम्यग्दर्शनं द्विविधं भवति । निसर्गसम्यग्दर्शनमधिगमसम्यग्दर्शनं च । निसर्गादधिगमाद्वोत्पद्यत इति द्विहेतुकं द्विविधम् ॥ निसर्गः परिणामः स्वभावः अपरोपदेश इत्यनान्तरम् । ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीव इति वक्ष्यते । तस्यानादौ संसारे परिभ्रमतः कर्मत एव कर्मणः स्वकृतस्य बन्धनिकाचनोदयनिर्जरापेक्षं नारकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभवग्रहणेषु विविधं पुण्यपापफलमनुभवतो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वाभाव्यात् तानि तानि परिणामाध्यवसायस्थानान्तराणि गच्छतोऽनादिमिथ्यादृष्टेरपि सतः परिणामविशेषादपूर्वकरणं ताहग्भवति येनास्यानुपदेशात्सम्यग्दर्शनमुत्पद्यत इत्येतन्निसर्गसम्यग्दर्शनम् ॥ अधिगमः अभि १. जो पदार्थ जैसें अवस्थित है तैसा तिसका होना सो 'तत्व' है, और जो निश्चय किया जावे वह अर्थ है; तत्त्वरूप जो निश्चय सो 'तत्वार्थ' है; तात्पर्य्य कि, जो पदार्थ जिसप्रकार अवस्थित है उसका उसी प्रकारसे ग्रहण-निश्चय-होना सो “तत्वार्थ' है-संशोधकः For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गम आगमो निमित्तं श्रवणं शिक्षा उपदेश इत्यनर्थान्तरम् । तदेवं परोपदेशाद्यत्तत्त्वार्थश्रद्धानं भवति तदधिगमसम्यग्दर्शनमिति ॥ विशेष व्याख्याः —यह सम्यग्दर्शन दो प्रकारका होता है, एक तो निसर्गजसम्यग्दर्शन, और दुसरा अधिगमजसम्यग्दर्शन, निसर्ग तथा अधिगम दो हेतुओंसे उत्पन्न होनेसे दो प्रकारका है। निसर्ग, परिणाम, स्वभाव, और दुसरेके उपदेशादिका अभाव, ये सब एकार्थवाचक, अर्थात् पर्यायशब्द हैं. ज्ञान तथा दर्शनरूप जो उपयोग है उस उपयोगसे युक्त होना यह जीवका लक्षण है वह आगे कहेंगे. उस जीवके अनादिकाल सिद्ध इस संसारमें कर्मसेही भ्रमण करते हुये निजकृतकर्महीका; नारक तिर्यग् मनुष्य तथा देव जन्म ग्रहणों में बन्ध निकाचन उदय तथा निर्जराकी अपेक्षा रखनेवाले अनेक प्रकारके पुण्य तथा पाप फलोंको अनुभव करते हुवे, उस जीवके ज्ञान तथा दर्शनरूप उपयोग स्वभावसे उन २ परिणाम अध्यवसाय तथा अन्य २ स्थानादिको प्राप्त होते हुवे अनादि कालसे मिथ्यादृष्टि होनेपरभी परिणामविशेष (कर्मोंका परिपाकतासे भावविशेष) से अपूर्व करण ऐसा होता है कि जिसके द्वारा विना किसीके उपदेश आदिके स्वयं किसी समयमें जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वही निसर्गजसम्यग्दर्शन है । और अधिगम, अभिगम, आगम, निमित्त, श्रवण, शिक्षा, तथा उपदेश, ये सब समानार्थ कही हैं, इन अधिगम परोपदेशादिकेद्वारा जो तत्वार्थश्रद्धान उत्पन्न होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है ॥३॥ अत्राह । तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युक्तम् । तत्र किं तत्त्वमिति । अत्रोच्यते । अब यहांपर कहतेहैं कि, "तत्त्वरूप अर्थोंका जो श्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन है" यहांपर तत्व शब्दसे किस २ का ग्रहण है! इस हेतुसे अग्रिम सूत्रका कथन है. ॥ ___जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४ ॥ सूत्रार्थः-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सम्वर, निर्जरा, तथा मोक्ष, ये सात तत्त्व हैं.। भाष्यम्-जीवा अजीवा आस्रवा बन्धः संवरो निर्जरा मोक्ष इत्येष सप्तविधोऽर्थस्तत्त्वम् । एते वा सप्त पदार्थास्तत्त्वानि । ताल्लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद्विस्तरेणोपदेक्ष्यामः ॥ विशेष व्याख्या । जीव मनुष्यादि अजीव आकाश आदि आत्रव, बन्ध, संबर निर्जरा तथा मोक्ष इन सप्तभेदोसहित जो पदार्थ है वही तत्व है । अथवा ये जीव आदि सात पदार्थ तत्त्व हैं । उन सात प्रकारके तत्त्वरूप पदार्थोंको आगे लक्षण तथा भेद निरूपणपूर्वक विस्तारसे कहेंगे. ॥ ४ ॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः ॥५॥ सूत्रार्थः-नाम, स्थापना, द्रव्य, तथा भाव इन अनुयोगोंसे जीव आदि सप्त तत्त्वोंका न्यास होता है.। For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । एभिर्नामादिभिश्चतुभिरनुयोगद्वारैस्तेषां जीवादीनां तत्त्वानां न्यासो भवति । विस्तरेण लक्षणतो विधानतश्चाधिगमार्थ न्यासो निक्षेप इत्यर्थः । तद्यथा । नामजीवः, स्थापनाजीवो, द्रव्यजीवो, भावजीव इति । नाम, संज्ञा, कर्म इत्यनर्थान्तरम् । चेतनावतोऽचेतनस्य वा द्रव्यस्य जीव इति नाम क्रियते स नामजीवः ॥ यः काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते जीव इति स स्थापनाजीवो देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो, रुद्रः, स्कन्दो, विष्णुरिति ॥ द्रव्यजीव इति गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो जीव उच्यते । अथवा शून्योऽयं भङ्गः। यस्य ह्यजीवस्य सतो भव्यं जीवत्वं स्यात् स द्रव्यजीवः स्यात्। अनिष्टं चैतत् ॥भावतो जीवा औपशमिकक्षायिकक्षायौपशमिकौदयिकपारिणामिकभावयुक्ता उपयोगलक्षणाः संसारिणो मुक्ताश्च द्विविधा वक्ष्यन्ते । एवमजीवादिषु सर्वेष्वनुगन्तव्यम् ॥ विशेष व्याख्या-नाम आदि जो चार अनुयोगद्वार हैं उनके द्वारा जीवादि तत्त्वोंका न्यास होताहै, अर्थात् विस्तारसे लक्षण तथा विधान ( अर्थात् भेद संख्याआदि ) से ज्ञान होनेके लिये जो व्यवहारोपयोग है वही न्यास वा निक्षेप है । (तात्पर्य यह कि नामआदि निक्षेपोंसे न्यस्तजीवादि पदार्थों का बोध पूर्णरूपसे होता है। जैसे नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव, और भावजीव । नाम, संज्ञा और कर्म ये पर्यायवाचक अर्थात् समानार्थक हैं । चेतनावान् अथवा अचेतन द्रव्यकी व्यवहारके लिये जो जीव ऐसा नाम वा. संज्ञा की जाती है उसको नामजीव कहते हैं । और काष्ठ, पुस्तक, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप (फांसा आदिके प्रक्षेपने) में जीवरूपसे स्थापना की जाती है उसको स्थापनाजीव कहते हैं । देवताओंकी प्रतिमाके सदृश यह इन्द्र हैं, यह रुद्र हैं, तथा यह विष्णु हैं, इत्यादि रूपसे जो पाषाण वा धातु आदिकी मूर्तियोंमें स्थापना होती है; वही स्थापनाजीव कहा जाता है । गुणपर्यायरहित और अनादि पारिणामिक भावोंसे युक्त और प्रज्ञा (केवल बुद्धि मात्र) से स्थापित किया जाता है वह द्रव्यजीव है । अथवा यह भङ्ग शून्य है । जैसे अजीवरूपसे विद्यमान द्रव्यका भव्यरूपसे जीवत्व हो सकै वह द्रव्यजीव होगा, किन्तु यह अनिष्ट है। और भावसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायौपशमिक, औदयिक, तथा पारिणामिक भावोंसे युक्त और उपयोग लक्षणवाले जीव, संसारी तथा मुक्त ऐसे दो प्रकारके आगे कहे जांयगे. इसी रीतिसे अजीव आदि संपूर्ण पदार्थोमें नामादि निक्षेप विधिका अनुसरण करना चाहिये. पर्यायान्तरेणापि नामद्रव्यं, स्थापनाद्रव्यं, द्रव्यद्रव्यं, भावतोद्रव्यमिति । यस्य जीवस्याजीवस्य वा नाम क्रियते द्रव्यमिति तन्नामद्रव्यम् । यत्काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते द्रव्यमिति तत् स्थापनाद्रव्यम् । देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो, रुद्रः, स्कन्दो, विष्णुरिति । द्रव्यद्रव्यं नाम गुणपर्यायवियुक्तं प्रज्ञास्थापितं धर्मादीनामन्यतमत् । केचिदप्याहुर्यद्रव्यतो द्रव्यं भवति तच्च पुद्गलद्रव्यमेवेति प्रत्येतव्यम् । अणवः स्कन्धाश्च सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्त इति वक्ष्यामः । भावतो-द्रव्याणि धर्मादीनि सगुणपर्यायाणि प्राप्तिलक्षणानि वक्ष्यन्ते। आगमतश्च प्राभृतज्ञो द्रव्यमिति भव्यमाह । द्रव्यं च भव्ये । भव्यमिति प्राप्यमाह । भू Jain Education Interna konal For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्राप्तावात्मनेपदी । तदेवं प्राप्यन्ते प्राप्नुवन्ति वा द्रव्याणि ॥ एवं सर्वेषामनादीनामादिमतां च जीवादीनां भावानां मोक्षान्तानां तत्त्वाधिगमार्थ न्यासः कार्य इति ॥ तथा अन्य पर्यायसे योभी कह सकते हैं कि, नामद्रव्य, स्थापनाद्रव्य, द्रव्यद्रव्य, तथा भावसे द्रव्य,। जैसे जीव वा अजीवका द्रव्य ऐसा नाम किया जाता है वह नामद्रव्य है । तथा जो काष्ठ, पुस्तक, चित्रकर्म, तथा अक्षनिक्षेप आदिमें द्रव्यरूपसे स्थापना की जाती है उसको स्थापनाद्रव्य कहते हैं । जैसे देवताओंकी प्रतिमाके तुल्य यह इन्द्रद्रव्य, यह रुद्ररूप तथा यह विष्णुरूप द्रव्य है । और द्रव्यद्रव्य, द्रव्यगुणपायोंसे रहित केवल प्रज्ञामात्रसे स्थापित धर्म आदिमेंसे किसी एकको जानना चाहिये. और कोई ऐसा भी कहते हैं कि, जो द्रव्यनिक्षेपसे द्रव्य होता है वह तो पुद्गलद्रव्यही है ऐसा निश्चय करना चाहिये. अणु और स्कन्ध, संघात भेदसे उत्पन्न होते हैं ऐसा आगे चलके कहेंगे । और भावसे द्रव्य, गुण, तथा पर्यायसहित, तथा प्राप्ति आदि लक्षणसंयुक्त धर्म आदि आगे निरूपण करेंगे । और आगमसेभी “प्राभृतज्ञ (जीव वा अजीव विधीका ज्ञाता) द्रव्य ही है" यह वचन भी भव्यको कहता है, क्योंकि 'द्रव्यं च भव्ये' 'भव्य अर्थमें द्रव्य यह निपात होता है' यहांपर भव्य यह शब्द भी प्राप्य अर्थको कहता है, क्योंकि आत्मनेपदमें भूधातु प्राप्तिरूप अर्थमें है । इस प्रकार गुणपर्याय आदिसे प्राप्त किये जांय अथवा स्वयं गुणादिको प्राप्त हों वे द्रव्य हैं। इस रीति अनादि वा आदिमान् संपूर्ण जीवआदि मोक्षान्तपदार्थोंके तत्त्वज्ञानार्थ न्यास अवश्य करना चाहिये। प्रमाणनयैरधिगमः॥६॥ सूत्रार्थः—पूर्वकथित जीवादि तत्त्वोंका ज्ञान प्रमाण तथा नयोंके द्वारा होता है। भाष्यम्-एषां च जीवादीनां तत्त्वानां यथोद्दिष्टानां नामादिभिय॑स्तानां प्रमाणनयैर्विस्तराधिगमो भवति ।। तत्र प्रमाणं द्विविधम् परोक्षं प्रत्यक्षं च वक्ष्यते । चतुर्विधमित्येके । नयवादान्तरेण ।। नयाश्च नैगमादयो वक्ष्यन्ते ।। किं चान्यत् । विशेष व्याख्या-यथा क्रमसे संकीर्तित तथा नाम स्थापना आदि निक्षेप विधिसे उपन्यस्त जीवादि सप्त तत्त्वोंका ज्ञान प्रमाण तथा नयोंसे यथार्थ रूपसे होता है । उसमें परोक्ष तथा प्रत्यक्ष दो प्रकारका प्रमाण कहेंगे । और कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, तथा उपमानरूप, नयवादसे चार प्रकारका प्रमाण कहते हैं। और नैगमसंग्रह आदि नय आगे कहेंगे ॥ ६॥ ___ और प्रमाण नयसे अन्य भी जीवादिके ज्ञानका उपाय है वा नहीं। सो अन्य भी है इसलिये आगेका सूत्र कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ११ निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ सूत्रार्थ:-निर्देश (वस्तु नाम संकीर्तन ) स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, ' और विधान ( भेदसंख्या ) इनके द्वाराभी जीव आदि तत्त्वोंका ज्ञान होता है। भाष्यम्-एभिश्च निर्देशादिभिः षभिरनुयोगद्वारैः सर्वेषां भावानां जीवादीनां तत्त्वानां विकल्पशो विस्तरेणाधिगमो भवति । तद्यथा । निर्देशः । को जीवः । औपशमिकादिभावयुक्तो द्रव्यं जीवः । विशेष व्याख्या—ये निर्देश आदि षट् अर्थात् छः जो अनुयोगद्वार हैं उनसे सब भावोंका जीव आदि तत्त्वोंका विकल्प तथा विस्तारसे बोध होता है। जैसे निर्देश-जीव क्या है ? उ० औपशमिक तथा क्षायिक आदि जो भाव हैं उनकरके सहित यह द्रव्यही जीव है॥ सम्यग्दर्शनपरीक्षायाम् । किं सम्यग्दर्शनम् । द्रव्यम् । सम्यग्दृष्टिजीवोऽरूपी नो स्कन्धो नो प्रामः ।। स्वामित्वम् । कस्य सम्यग्दर्शनमित्येतदात्मसंयोगेन परसंयोगेनोभयसंयोगेन चेति वाच्यम् । आत्मसंयोगेन जीवस्य सम्यग्दर्शनम् । परसंयोगेनजीवस्याजीवस्य जीवयोरजीवयोर्जीवानामजीवानामिति विकल्पाः । उभयसंयोगेन जीवस्य नोजीवस्य जीवयोरजीवयोर्जीवानामजीवानामिति विकल्पा न सन्ति। शेषाः सन्ति॥ साधनं । सम्यग्दर्शनं केन भवति । निसर्गादधिगमाद्वा भवतीत्युक्तम् । तत्र निसर्गः पूर्वोक्तः । अधिगमस्तु सम्यग्व्यायामः । उभयमपि तदावरणीयस्य कर्मणः क्षयेणोपशमेन क्षयोपशमाभ्यामिति ॥ अधिकरणं त्रिविधमात्मसन्निधानेन परसन्निधानेनोभयसन्निधानेनेति वाच्यम् । आत्मसन्निधानमभ्यन्तरसन्निधानमित्यर्थः । परसन्निधानं बाह्यसन्निधानमित्यर्थः । उभयसन्निधानं बाह्याभ्यन्तरसन्निधानमित्यर्थः। कस्मिन्सम्यग्दर्शनम् । आत्मसन्निधाने तावत् जीवे सम्यग्दर्शनं, जीवे ज्ञानं, जीवे चारित्रमित्येतदादि । बाह्यसन्निधाने जीवे सम्यग्दर्शनं नोजीवे सम्यग्दर्शनमिति यथोक्ता विकल्पाः । उभयसन्निधाने चाप्यभूताः सद्भूताश्च यथोक्ता भङ्गविकल्पा इति ॥ स्थितिः । सम्यग्दर्शनं कियन्तं कालम् । सम्यग्दृष्टिर्द्विविधा । सादिः सपर्यवसाना सादिरपर्यवसाना च । सादि सपर्यवसानमेव च सम्यग्दर्शनम् । तज्जघन्येनान्तर्मुहूतै उत्कृष्टेन षट्षष्टिः सागरोपमानि साधिकानि । सम्यग्दृष्टिः सादिरपर्यवसाना । सयोगः शैलेशीप्राप्तश्च केवली सिद्धश्चेति ॥ विधानं । हेतुत्रैविध्यात् क्षयादित्रिविधं सम्यग्दर्शनम् । तदावरणीयस्य कर्मणो दर्शनमोहस्य च क्षयादिभ्यः । तद्यथा । क्षयसम्यग्दर्शनं, उपशमसम्यग्दर्शनं, क्षयोपशमसम्यग्दर्शनमिति । अत्र चौपशमिकक्षायौपशमिकक्षायिकाणां परतः परतो विशुद्धिप्रकर्षः ॥ किं चान्यत्। तथा सम्यग्दर्शनकी परीक्षामें सम्यग्दर्शन क्या है ? द्रव्य सम्यग्दर्शन है. सम्यग्दृष्टि जीव रूपरहित नो स्कन्ध तथा नो ( ईषत् ) ग्राम है । स्वामित्व सम्यग्दर्शन किसका है वा किसको होता है ? इस हेतुसे कहते हैं कि यह सम्यग्दर्शन आत्माके संयोगसे ही आत्मासे भिन्न अन्य पुद्गल धर्म आदिके संयोगसे, तथा आत्मा और अनात्मा उभयके संयोगसे होता है, ऐसा कहना चाहिये । आत्माके संयोगसे जीवको सम्यग्दर्शन होता है, वा जीवका सम्यग्दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शनका स्वामी जीव है । तथा पर (आत्मासे For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भिन्न) के संयोगसे जीवको, अजीव ( ईषत् जीव ) को, दो जीवोंको, दो अजीवोंको, बहुत जीवोंको, वा बहुत अजीवोंको होता है; इत्यादि विकल्प हैं । और उभयके संयोगसे, अर्थात् आत्मा तथा परसंयोगसे जीवको, नो ( ईषत् ) जीवको, दो जीवोंको, दो अजीवोंको, बहुत जीवोंको, बहुत नो जीवोंको इत्यादि विकल्प नहीं हैं और शेष विकल्प हैं । साधन ( जिससे होता है ) जैसे सम्यग्दर्शन किससे उत्पन्न होता है। निसर्ग तथा अधिगमसे होता है, यह प्रथम कहचुके हैं। उनमेंसे विसर्गतो कहचुके हैं। और अधिगमतो सम्यग् व्यायाम है, अर्थात् गुरुआदिके समीप रहनेवाले शिष्यकी जो सम्यग्दर्शनके उत्पन्न करनेवाली शुभ क्रिया है वही व्यायाम है । निसर्गज तथा अधिगमज दोनों प्रकारका सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शनावरणीय जो कर्म है उसके क्षयसे उपशमसे अथवा क्षयोपशम दोनोंसे होता है । अधिकरण तीन प्रकारका है, एक आत्माके सन्निधानसे, दूसरा पर अर्थात् अनात्माके सन्निधान (सामीप्य ) से, और तीसरा आत्मा और अनात्मा एतदुभय सन्निधानसे ऐसा कहना चाहिये । आत्माका सन्निधान इसका यह तात्पर्य है कि आत्माके आभ्यन्तरीय सामीप्य वा सान्निध्यसे, । और पर सन्निधानका तात्पर्य आत्माके बाह्य सन्निधानसे है । और उभय सन्निधानका अर्थ बाह्य तथा आभ्यन्तर उभय सन्निधान है । आत्माके सन्निधानका उदाहरण जैसे जीवमें सम्यग्दर्शन है, जीवमें ज्ञान है, तथा जीवमें चारित्र है इत्यादि । और बाह्य सन्निधानका उदाहरण जैसे जीवमें सम्यग्दर्शन, नो (ईषत् ) जीवमें सम्यग्दर्शन, इत्यादि पूर्वोक्त विकल्प हो सकते हैं। और उभयसन्निधानमें उभयसन्निधानसे अप्राप्य तथा सद्भूत पूर्वोक्त भङ्गविकल्प होते हैं । स्थिति; जीवमें सम्यग्दर्शन कितने कालतक स्थित रहता है। जीवकी सम्यग्दृष्टि दो प्रकारकी होती है, एक तो सादिसान्त अर्थात् आदिसहित और अन्तसहित, और दूसरी सादिअनन्त, अर्थात् उत्पन्न होकर जिस सम्यग्दृष्टिका पुनः अन्त वा नाश नहीं होता । और सम्यग्दर्शन सादि तथा अन्तसहितही होता है । वह सम्यग्दर्शन न्यूनसे न्यून अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होता है, अर्थात् कमसे कम अन्तर्मुहर्त पर्यन्त सम्यग्दर्शनकी स्थिति रहती है । और अधिकसे अधिक अर्थात् उत्कृष्टतासे किंचित् अधिक षट्षष्टि छियासठ ६६ सागरोपम कालपर्यन्त रहता है । और सम्यग्दृष्टि सादि अनन्त है। जैसे सयोग अर्थात् त्रिविधयोगसहित, शैलेशी प्राप्त केवली और सिद्ध हैं ॥ विधान क्षय आदि हेतुओंके त्रिविध होनेसे तीन प्रकारका है । और यह सम्यग्दर्शनका तीन प्रकारका विधान ( भेद) दर्शनावरणीय कर्मके तथा दर्शन मोहके क्षयादि तीनों हेतुओंसे है । जैसे क्षायिक सम्यग्दर्शन, औपशमिक सम्यग्दर्शन, तथा क्षायौपशमिक सम्यग्दर्शन, इन औपशमिक, क्षायौपशमिक, और क्षायिक, सम्यग्दर्शनोंमेंसे पर पर अर्थात् आगे आगेके में विशुद्धि और प्रकर्षता (अधिक उत्तमता) है ॥ ७ ॥onal & Private use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। प्रथम कहे हुये इन प्रकारोंके अतिरिक्त अन्य प्रकारोंसेभी सम्यग्दर्शनादि तथा जीवादि तत्त्वोंका ज्ञान होता है यह जनानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं । सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥ सूत्रार्थ:-सत्, ( अस्तितानिर्देश ) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, तथा अल्पबहुत्व इनसे जीवादि पदार्थ तथा सम्यग्दर्शनादिका अधिगम अर्थात् ज्ञान विस्तारसे होता है। भाष्यम्-सत् , संख्या, क्षेत्रं, स्पर्शनं, कालः, अन्तरं, भावः, अल्पबहुत्वमित्येतैश्च सद्भूतपदप्ररूपणादिभिरष्टाभिरनुयोगद्वारैः सर्वभावानां विकल्पशो विस्तराधिगमो भवति । कथमिति चेदुच्यते । सत् सम्यग्दर्शनं किमस्ति नास्तीति । अस्तीत्युच्यते । कास्तीति चेदुच्यते । अजीवेषु तावन्नास्ति । जीवेषु तु भाज्यम् । तद्यथा । गतीन्द्रियकाययोगकषायवेदलेश्यासम्यक्त्वज्ञानदर्शनचारित्राहारोपयोगेषु त्रयोदशस्वनुयोगद्वारेषु यथासम्भवं सद्भूतप्ररूपणा कर्तव्या ॥ संख्या। कियत्सम्यग्दर्शनं किं संख्येयमसंख्येयमनन्तमिति । उच्यते । असंख्येयानि सम्यग्दर्शनानि, सम्यग्दृष्टयस्त्वनन्ताः ॥ क्षेत्रम् । सम्यग्दर्शनं कियति क्षेत्रे । लोकस्यासंख्येयभागे ॥ स्पर्शनम् । सम्यग्दर्शनेन किं स्पृष्टम् । लोकस्यासंख्येयभागः । सम्यग्दृष्टिना तु सर्वलोक इति ॥ अत्राह सम्यग्दृष्टिसम्यग्दर्शनयोः कः प्रतिविशेष इति । उच्यते । अपायसद्व्यतया सम्यग्दर्शनमपाय आभिनिबोधिकम् । तद्योगात्सम्यग्दर्शनम् । तत्केवलिनो नास्ति । तस्मान्न केवली सम्यग्दर्शनी, सम्यग्दृष्टिस्तु ॥ कालः । सम्यग्दर्शनं कियन्तं कालमित्यत्रोच्यते । तदेकजीवेन नानाजीवैश्व परीक्ष्यम् । तद्यथा । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूतै उत्कृष्टेन षटषष्टिः सागरोपमानि साधिकानि । नानाजीवान् प्रति सर्वाद्धा ॥ अन्तरम् । सम्यग्दर्शनस्य को विरहकालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टेन उपापुद्गलपरिवर्तः । नानाजीवान् प्रति नास्त्यन्तरम् ॥ भावः । सम्यग्दर्शनमौपशमिकादीनां भावानां कतमो भाव उच्यते । औदयिकपारिणामिकवजे त्रिषु भावेषु भवति ॥ अल्पबहुत्वम् । अत्राह सम्यग्दर्शनानां त्रिषु भावेषु वर्तमानानां किं तुल्यसंख्यत्वमाहोस्विदल्पबहुत्वमस्तीति । उच्यते । सर्वस्तोकमौपशमिकम् । ततः क्षायिकमसंख्येयगुणम् । ततोऽपि क्षायौपशमिकमसंख्येयगुणम् । सम्यग्दृष्टयस्त्वनन्तगुणा इति ॥ एवं सर्वभावानां नामादिभिासं कृत्वा प्रमाणादिभिरधिगमः कार्यः ॥ उक्तं सम्यग्दर्शनम् । ज्ञानं वक्ष्यामः । विशेष व्याख्या-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, तथा अल्पबहुत्व, ये सदादि पद, अर्थात् विद्यमान अर्थके प्ररूपणाकारक आठ अनुयोगद्वारोंसे सब भाव तथा तत्वोंका विकल्प तथा विस्तारपूर्वक ज्ञान होता है । कैसे होता है ऐसा कहो तो कहते हैं ॥ सत्-सम्यग्दर्शन है वा नहीं है ? है ऐसा कहते हैं। यदि यह प्रश्न करो कि कहां है तो कहते हैं । अजीव पदार्थों में तोसम्यग्दर्शन नहीं है। और जीवोंमें विभाग करना चाहिये अर्थात् गति, इन्द्रिय, काय, योग, कषाय, वेद, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तथा आहार, योग, इन अनुयोगों ( मार्गणा स्थानों ) से यथासंभव सत् आदि प्ररूपणा करनी For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् चाहिये । जैसे मनुष्य आदि चारों गतियोंमें स्त्री पुरुष दोनोंमें शास्त्रोक्त रीतिसे यथासंभव सम्यग्दर्शन होता है। ऐसेही इन्द्रिय, काय, योगादिसहित जीवोंमें भी आगमके अनुसार सत् आदि प्ररूपणा करनी चाहिये । संख्या-सम्यग्दर्शन कितना है ? क्या संख्येय है. वा असंख्येय है अथवा अनन्त है ? इसका उत्तर कहते हैं. कि सम्यग्दर्शन असंख्येय हैं । और सम्यग्दृष्टि अनन्त हैं । क्षेत्र अर्थात् सम्यग्दर्शन कितने क्षेत्रमें है ? उ०-लोकके असंख्येयभागमें सम्यग्दर्शन है । स्पर्शन-सम्यग्दर्शननें क्या स्पर्श किया है ? उत्तर-लोकका असंख्येयभाग सम्यग्दर्शनसे स्पृष्ट है; अर्थात् लोकके असंख्येयभागको सम्यग्दर्शनने स्पर्श किया है; और सम्यग्दृष्टिने तो संपूर्ण लोकको स्पर्श किया है। यहां प्रश्न करते हैं कि सम्यग्दृष्टि तथा सम्यग्दर्शनमें क्या भेद है ? उत्तर कहते हैंअपाय और सद्रव्यरूपसे सम्यग्दर्शन अपाय वा आभिनिबोधिक है । अर्थात् सम्यग्दर्शनका कदाचित् अपाय (नाश ) होता है और कदाचित् स्फुरण होता है, उस अपायके योगसे सम्यग्दर्शन है वह केवलीको नहीं होता, अतः केवली सम्यग्दर्शनी नहीं है. और सम्यग्दृष्टि तो है । काले निरूपणा-सम्यग्दर्शन कितने कालतक रहता है ? इसका उत्तर कहते हैं । वह कालकी स्थिति एक जीव तथा नाना जीवोंसे परीक्षा करने योग्य है । जैसे जघन्यतासे अर्थात् न्यूनसे भी न्यून एक जीवके प्रति अन्तमुहूर्त पर्यन्त सम्यग्दर्शनकी स्थिति है । और उत्कृष्टतासे अर्थात् अधिकसे अधिक कुछ अधिक छियासठि (६६) सागरोपम इसकी स्थिति है । और नाना जीवोंके प्रति संपूर्ण कालमें सम्यग्दर्शनकी स्थिति है, अर्थात् नाना जीवोंमेंसे किसीनकिसी जीवमें सदाकालमें सम्यग्दर्शन बना ही रहता है । अन्तरकी प्ररूपणा-सम्यग्दर्शनका अन्तर अर्थात् विरहकाल क्या है ? उत्तर-एक जीवके प्रति जघन्यतासे तो अन्तर्मुहूर्त है, और उत्कृष्टतासे उपार्द्धपरिवर्तन काल तक है । और नाना जीवोंके प्रति अन्तर अर्थात् विरह काल है ही नहीं; क्योंकि नाना जीवोमेंसे किसीनकिसी जीवमें सदा सम्यग्दर्शन बना रहैगा । भाव प्ररूपणा-औपशमिक आदि भावों से सम्यग्दर्शन कौनसा भाव है ? उत्तर- औदयिक तथा पारिणामिक भावोंको छोड शेष तीन भावोंमें अर्थात् औपशमिक, क्षायौपशमिक, और क्षायिकभावमें सम्यग्दर्शन होता है । अल्प बहुत्व प्ररूपणा-औपशमिक आदि तीन भावोंमें वर्तमान सम्यग्दर्शनोंकी तुल्य संख्या है अथवा अल्पबहुत्व अर्थात् न्यूनाधिक है ? उत्तर कहते हैं। सबसे न्यून औपशमिकभाव है । और उससे असंख्येयगुण क्षायिकभाव है । और उससे भी क्षायौपशमिक भाव असंख्येयगुण है । और सम्यग्दृष्टि तो अनन्तगुण है । इसप्रकार सब भावोंका नाम स्थापना आदिसे न्यास करके प्रमाण आदि द्वारा उनका बोध सम्पादन करना चाहिये ॥ ___ सम्यग्दर्शनका लक्षण आदि कहचुके । अब आगे ज्ञानके विषयमें कहेंगे ॥ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् ॥९॥ सूत्रार्थ:-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय, केवल ये पांच ज्ञानके भेद हैं। भाष्यम्-मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं, अवधिज्ञानं, मनःपर्यायज्ञानं, केवलज्ञानमित्येतन्मूलविधानतः पञ्चविधं ज्ञानम् । प्रभेदास्त्वस्य पुरस्ताद्वक्ष्यन्ते ॥ विशेष व्याख्या-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, और केवलज्ञान, मूलभेदसे यह पांच प्रकारका ज्ञान है । इनके भेद प्रभेद आगे वर्णन करेंगे ॥९॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ सूत्रार्थः-पूर्वोक्त पंचविधज्ञान दो प्रमाणोंमें विभक्त हैं। भाष्यम्-तदेतत्पञ्चविधमपि ज्ञानं द्वे प्रमाणे भवतः परोक्षं प्रत्यक्षं च ॥ विशेष व्याख्या—यह अनन्तर कथित मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्य्यय, तथा केवलज्ञान, दो प्रमाण होते हैं, अर्थात् पूर्वोक्त पंचविधज्ञान ही प्रमाण हैं, और यह प्रमाण परोक्ष, तथा प्रत्यक्ष भेदसे दो प्रकारका है ॥ १० ॥ आये परोक्षम् ॥११॥ सूत्रार्थ:-प्रथमके दो ज्ञान परोक्षप्रमाण हैं । भाष्यम्-आदौ भवमाद्यम् । आये सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्रथमद्वितीये शास्ति । तदेवमाद्ये मतिज्ञानश्रुतज्ञाने परोक्षं प्रमाणं भवतः । कुतः । निमित्तापेक्षत्वात् । अपायसद्व्यतया मतिज्ञानम् । तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमिति वक्ष्यते ॥ तत्पूर्वकत्वात्परोपदेशजत्वाच्च श्रुतज्ञानम् ॥ विशेष व्याख्या-आदि आरंभमें जो हो उसको आद्य कहते हैं । " आये" यह द्विवचन है. इसलिये 'मति श्रुतावधि' इत्यादि सूत्रक्रमके प्रमाणसे सूत्रकार ही प्रथम तथा द्वितीयज्ञानको परोक्ष रूपसे आज्ञा देते हैं । इस हेतुसे पूर्वोक्त रीतिसे आदिके दो ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान, और श्रुतज्ञान ये दोनों परोक्षप्रमाण होते हैं । क्योंकि-निमित्तकी अपेक्षा रखनेसे मति, श्रुतज्ञान, परोक्षप्रमाण ही हैं । अपाय तथा सद्रव्यरूपतासे मतिज्ञान संज्ञा है । वह मतिज्ञान इन्द्रिय, तथा अनिन्द्रियमन निमित्तक है अर्थात् नेत्रआदि इन्द्रिय और अनिन्द्रिय मन इनसे उत्पन्न होता है । वह आत्मासे भिन्न निमित्तकी अपेक्षा रखता है इसलिये परोक्ष है । और मतिपूर्वक होनेसे तथा परोपदेशजन्य होनेसे श्रुतज्ञान भी परोक्ष ही है ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२॥ सूत्रार्थ:-मति और श्रुतसे अन्य तीनों ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण होते हैं। भाष्यम्-मतिश्रुताभ्यां यदन्यत् त्रिविधं ज्ञानं तत्प्रत्यक्षं प्रमाणं भवति । कुतः । अतीन्द्रियत्वात् । प्रमीयन्तेऽस्तैिरिति प्रमाणानि ॥ अत्राह । इह अवधारितं द्वे एव प्रमाणे १. कहीं. २. "मनःपर्यय” ऐसे प्रथम यकार ह्रख है, और इस ग्रन्थमें 'पर्याय' दीर्घही लिखा है। For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रत्यक्षपरोक्षे इति । अनुमानोपमानागमार्थापत्तिसम्भवाभावानपि च प्रमाणानीति केचिन्मन्यन्ते । तत्कथमेतदिति । अत्रोच्यते । सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकपनिमित्तत्वात् । किं चान्यत् । अप्रमाणान्येव वा । कुतः । मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद्विपरीतोपदेशाच्च । मिथ्यादृष्टेहि मतिश्रुतावधयो नियतमज्ञानमेवेति वक्ष्यते । नयवादान्तरेण तु यथा मतिश्रुतविकल्पजानि भवन्ति तथा परस्ताद्वक्ष्यामः ॥ विशेष व्याख्या-मति और श्रुत इन दोनोंसे अन्य अर्थात् भिन्न त्रिविध ज्ञान अर्थात् अवधि, मनःपर्य्यय, तथा केवल ये तीनों प्रत्यक्षप्रमाण हैं । क्योंकि ये तीनों अतीन्द्रिय ज्ञान हैं । जिनके द्वारा संपूर्ण पदार्थ प्रमाविषयीभूत किये जांय, अर्थात् साक्षात् अनुभवगोचर किये जाँय उनको प्रमाण कहते हैं । अब यहांपर कहते हैं कि इस शास्त्रमें अर्थात् जैनशास्त्रमें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दो ही प्रमाण निश्चित किये हैं। और अनुमान, उपमान, आगम, (शब्द) अर्थापत्ति, संभव, तथा अभाव, इनको भी कोई २ अन्यमतवाले प्रमाणरूपसे मानते हैं, सो यह दोही प्रमाण आपने कैसे माने ? अर्थात् दो प्रमाणोंकी व्यवस्था असंगत प्रतीत होती है। अब यहांपर समाधान कहते हैं । इन्द्रियां तथा पदार्थोंके सन्निकर्षसे उत्पन्न होनेके कारण अनुमान उपमान आदि ये सब प्रमाण मति तथा श्रुत ज्ञान जो कि परोक्ष प्रमाणरूपसे कहे गये हैं उन्हीमें गतार्थ अर्थात् अन्तभूत हैं । अथवा अनुमान आदि सब अप्रमाण ही हैं। क्योंकि-इनमें मिथ्यादर्शनका परिग्रह है, और विपरीत उपदेश जन्य हैं । कारण यह कि मिथ्यादृष्टिके मति, श्रुत, और अवधिज्ञान, ये तीनों नियमसे अप्रमाण ही हैं ऐसा आगे कहेंगे । और यद्यपि अप्रमाण होनेसे मतिश्रुतमें अन्तर्भूत हैं यह कहनाभी अयोग्य है तथापि नयोंके वादसे, अर्थात् स्वरचितार्थप्रकाशनरूप जो नयवाद है उसके भेदसे मतिश्रुतके विकल्प(भेद ) जन्य जिसप्रकार प्रमाण होते हैं उसप्रकार आगे निरूपण करेंगे ॥ ११ ॥ __ अत्राह । उक्तं भवता मत्यादीनि ज्ञानानि उद्दिश्य तानि विधानतो लक्षणतश्च परस्ताद्विस्तरेण वक्ष्याम इति । तदुच्यतामिति । अत्रोच्यते । अब यहांपर कहते हैं कि-प्रथम आप (ग्रन्थकार ) ने मतिश्रुतादि पांचो ज्ञानोंको कहा और उनको लक्ष्य करके यह भी कहा कि इन ( मतिआदि ) को भेद तथा लक्षणपूर्वक आगे कहेंगे सो अब वही कहना चाहिये । इसलिये आगेका सूत्र कहते हैं मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम् ॥ १३ ॥ सूत्रार्थ:-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध यह पर्यायवाचक शब्द माने गये हैं। भाष्यम्-मतिज्ञानं, स्मृतिज्ञानं, संज्ञाज्ञानं, चिन्ताज्ञानं, आभिनिबोधिकज्ञानमित्यनान्तरम् ॥ विशेष व्याख्या–मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान, संज्ञाज्ञान, चिन्ताज्ञान, तथा आभिनिबोधिक ज्ञान ये पांचों एकार्थवाचक हैं ॥ १३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ:-यह पूर्वोक्त मति तथा स्मृति आदि शब्द वाच्य मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रियनिमित्तक है। भाष्यम्-तदेतन्मतिज्ञानं द्विविधं भवति । इन्द्रियनिमित्तमनिन्द्रियनिमित्तं च । तत्रेन्द्रियनिमित्तं स्पर्शनादीनां पञ्चानां स्पर्शादिषु पञ्चस्वेव स्वविषयेषु । अनिन्द्रियनिमित्तं मनोवृत्तिरोघज्ञानं च ॥ विशेषव्याख्या-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, और अभिनिबोध इन पांचो पर्यायोंसे वाच्य मतिज्ञान दो प्रकार होता है । इन्द्रियनिमित्तक अर्थात् इन्द्रियजन्य, और अनिन्द्रिय निमित्तक अर्थात् मनःकारणक । उनमेंसे इन्द्रियनिमित्तसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान स्पर्शन आदि पांचो इन्द्रियोंके स्पर्श आदि पांचो निजविषयोंमें ही होता है । और अनिन्द्रियनिमित्त अर्थात् मनोजन्य ज्ञान मनकी सब वृत्तियां तथा ओघ अर्थात् अविभक्त सर्वेन्द्रियविषयक ज्ञान है ॥ १४ ॥ अवग्रहेहापायधारणाः ॥१५॥ सूत्रार्थ:-यह मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अपा (वा) य, तथा धारणा, इन चार भागोंमें विभक्त है। भाष्यम्-तदेतन्मतिज्ञानमुभयनिमित्तमप्येकशश्चतुर्विधं भवति । तद्यथा । अवग्रह ईहापायो धारणा चेति । तत्राव्यक्तं यथास्वमिन्द्रियैर्विषयाणामालोचनावधारणमवग्रहः । अवग्रहो ग्रहणमालोचनमवधारणमित्यनर्थान्तरम् ॥ अवगृहीते विषयाथैकदेशाच्छेषानुगमनं निश्चयविशेषजिज्ञासा ईहा । ईहा ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासेत्यनर्थान्तरम् । अवगृहीते विषये सम्यगसम्यगिति गुणदोषविचारणाध्यवसायापनोदोऽपायः । अपायोऽपगमः अपनोदः अपव्याधः अपेतमपगतमपविद्धमपनुत्तमित्यनर्थान्तरम् ॥ धारणा प्रतिपत्तिर्यथास्वं मत्यवस्थानमवधारणं च । धारणा प्रतिपत्तिरवधारणमवस्थानं निश्चयोऽवगमः अवबोध इत्यनान्तरम् ॥ विशेषव्याख्या-यह पूर्वोक्त इन्द्रिय और अनिन्द्रिय उभयनिमित्तक मतिज्ञान एक होनेपर भी चार प्रकारका है । अर्थात् अवग्रह, ईहा, अपाय तथा धारणा ये चार, भेद मतिज्ञानके हैं । वहांपर ऐसा कहा है कि निज २ विषयोंके अनुसार इन्द्रियोंकेद्वारा पदार्थोंका आलोचन, वा अवधारण, जो है उसको अवग्रह कहते हैं । अवग्रह, ग्रहण, आलोचन, तथा अवधारण, ये सब शब्द अनर्थान्तर अर्थात् एकार्थवाचक हैं ॥ अवग्रह रूपज्ञानसे गृहीत जो विषय एकदेश है उस पदार्थके एकदेशसे शेषपदार्थके जाननेकेलिये जो अनुगमन है, अर्थात् विशेष निश्चय करनेकी चेष्टाविशेष वा जिज्ञासा है वही ईहा है । ईहा, ऊहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा, और जिज्ञासा, ये समानार्थक शब्द हैं । और अवग्रह तथा ईहासे गृहीत विषयमें यह सम्यक् है वा असम्यक् For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थात् योग्य है वा अयोग्य इसप्रकार गुणदोषके विचारका जो उद्योग वा अपनोद है उसको अपा (वा) य कहते हैं । अपाय, अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, और अपनुत्त, ये एकार्थवाचक हैं। पदार्थके स्वरूपके अनुसार जो उसकी प्रतिपत्ति, अर्थात् यथार्थबोध, वा बुद्धिकी पदार्थमें युक्त चिरकालार्थ स्थिति, अथवा अवधारणा है उसको धारणा कहते हैं । धारणा, प्रतिपत्ति, अवधारण, अवस्थान, निश्चय, अवगम, और अवबोध, ये शब्द एकार्थवाचक हैं ॥ १५॥ बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥ सूत्रार्थः—बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव और इनसे इतर अर्थात् अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त, अध्रुव ये १२ भेद अवग्रहादिमें होते हैं। भाष्यम्-अवग्रहादयश्चत्वारो मतिज्ञानविभागा एषां बह्वादीनामर्थानां सेतराणां भवन्त्येकशः । सेतराणामिति सप्रतिपक्षाणामित्यर्थः । बह्ववगृह्णाति अल्पमवगृह्णाति बहुविधमवगृह्णाति एकविधमवगृह्णाति । क्षिप्रमवगृह्णाति चिरेणावगृह्णाति । अनिश्रितमवगृह्णाति निश्रितमवगृहाति । अनुक्तमवगृह्णाति उक्तमवगृह्णाति । ध्रुवमवह्नाति अध्रुवमवगृह्णाति । इत्येवमीहादीनामपि विद्यात् ॥ विशेषव्याख्या-मतिज्ञानके जो अवग्रह, ईहा, आदि चार विभाग हैं उन प्रत्येकमें बहु, बहुविध, तथा इनके विरुद्ध अल्प एकविध आदि १२ भेद होते हैं । यहां “सेतराणाम्" इससे बहुआदिके प्रतिपक्ष (विरुद्ध) अल्प, तथा एकविध, इत्यादिसे तात्पर्य है। जैसे बहुत ग्रहण करता है, अल्पग्रहण करता है । बहुविध (बहुप्रकार) से ग्रहण करता है, एकविध ग्रहण करता है। क्षिप्र अर्थात् शीघ्र ग्रहण करता है, चिरकालसे ग्रहण करता है। अनिश्चित (चिन्हादिसे अज्ञात) ही ग्रहण करता (जानता) है. निश्चित (लिङ्ग वा चिन्हसे ज्ञात) को ग्रहण करता है । अनुक्त विना कहा हुआ ही ग्रहण करता है, उक्त कहाहुआ ग्रहण करता है । ध्रुव ग्रहण करता है, तथा अध्रुव ग्रहण करता है । इसीप्रकार ईहादिके विषयमें भी बहु, बहुविध, तथा इनके विरुद्ध अल्प, एकविध आदिकी योजना करनी चाहिये । अर्थात् बहुईहा अल्पईहा इत्यादि जानना चाहिये ॥ १६ ॥ __ अर्थस्य ॥१७॥ भाष्यम्-अवग्रहादयो मतिज्ञानविकल्पा अर्थस्य भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-अवग्रह आदि जो मतिज्ञानके विकल्प (भेद) हैं, सो अर्थके ही होते हैं ॥ १७॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः॥१८॥ सूत्रार्थः-व्यञ्जनका तो अवग्रह ही होता है। भाष्यम्-व्यञ्जनस्यावग्रह एव भवति नेहादयः । एवं द्विविधोऽवग्रहो व्यञ्जनस्यार्थस्य इहादयस्त्वथेस्यै For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १९ विशेषव्याख्या- - व्यञ्जन (अव्यक्तशब्द आदि) का अवग्रह ही होता है न कि ईहा आदि । इसप्रकार अवग्रह दो प्रकारका होता है. एक अर्थाऽवग्रह और दूसरा व्यञ्जनाsaग्रह और ईहा आदि तो अर्थके ही होते हैं ॥ १८ ॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९ ॥ सूत्रार्थः - नेत्रइन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय ( मन ) से व्यञ्जनका अवग्रह नहीं होता । भाष्यम् – चक्षुषा नोइन्द्रियेण च व्यञ्जनावग्रहो न भवति । चतुर्भिरिन्द्रियैः शेषैर्भवतीत्यर्थः । एवमेतन्मतिज्ञानं द्विविधं चतुर्विधं अष्टाविंशतिविधं अष्टषष्टयुत्तरशतविधं षट्त्रिंशलिशतविधं च भवति ॥ विशेषव्याख्या - चक्षुष नेत्रइन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थात् ईषत् इन्द्रिय मन, इन दोनोंसे व्यञ्जनका अवग्रहरूप ज्ञान नहीं होता है किन्तु शेष स्पर्शन आदि चार इन्द्रियोंसे होता है । इस रीति से इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्तसे मतिज्ञान दो प्रकारका होता है, अवग्रह तथा ईहा अपाय और धारणा इन भेदोंसे चार प्रकारका होता है । तथा स्पर्शन (त्वक्) आदि पांचइन्द्रियां और मन इन छहों के प्रत्येकके अवग्रह आदि चार २ भेद मिलके २४ और नेत्र तथा मनको छोडके शेष स्पर्शन आदि चार इन्द्रियों का चार प्रकारका व्यञ्जनाऽवग्रह सब मिलकर २८ प्रकारका भी मतिज्ञान होता है । और इन्हीं अट्ठावीस २८ भेदोंको बहु, बहुविध आदि छह २ भेदोंसे एकसोअड़सठ १६८ भेद मतिज्ञानके होते हैं । तथा इन्हीं पूर्वोक्त अट्ठावीस २८ भेदोंमेंसे प्रत्येकको बहु, बहुविध, तथा इनके इतर अल्प, एकविध आदिसे बारह भेद करनेसें तीनसोछत्तीस ३३६ भेद मतिज्ञानके होते हैं ॥ १९ ॥ अत्राह । गृह्णीमस्तावन्मतिज्ञानम् । अथ श्रुतज्ञानं किमिति । अत्रोच्यते ॥ अब कहते हैं कि मतिज्ञानको पूर्वोक्त भेदोंसहित ग्रहण करते हैं, अब क्रमप्राप्त श्रुतज्ञान क्या है, सो कहिये ? इसलिये श्रुतज्ञानके भेद प्रदर्शन करनेकेलिये अग्रिम सूत्र कहते हैं । श्रुतं मतिपूर्व द्व्यनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ सूत्रार्थ - श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, और उसके दो अनेक तथा द्वादश भेद हैं । भाष्यम् – श्रुतज्ञानं मतिज्ञानपूर्वकं भवति । श्रुतमाप्तवचनमागम उपदेश ऐतिह्यमाम्नाय : प्रवचनं जिनवचनमित्यनर्थान्तरम् । तद्विविधमङ्गबाह्यमङ्गप्रविष्टं च । तत्पुनरनेकविधं द्वादशविधं च यथासङ्खयम् । अङ्गबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा । सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवो वन्दनं प्रतिक्रमणं कायव्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं दशवैकालिकं उत्तराध्यायाः दशाः कल्पव्यवहारौ निशीथमृषिभाषितान्येवमादि ॥ अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधम् । तद्यथा । आचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायः व्याख्याप्रज्ञप्तिः ज्ञातधर्मकथा उपासकाध्ययनदशाः अन्तकृद्दशाः अनुत्तरौपपातिक For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दशाः प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिपात इति ॥ अत्राह । मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः कः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते । उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानम् । श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयं उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकम् ॥ अत्राह । गृह्णीमो मतिश्रुतयोर्नानात्वम् । अथ श्रुतज्ञानस्य द्विविधमनेकद्वादशविधमिति किं कृतः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते । वक्तविशेषाव विध्यम् । यद्भगवद्भिः सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः परमर्षिभिरर्हद्भिस्तत्स्वाभाव्यात्परमशुभस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकरनामकर्मणोऽनुभावादुक्तं भगवच्छिष्यैरतिशयवद्भिरुत्तमातिशयवाग्बुद्धिसंपन्नैर्गणधरैईब्धं तदङ्गप्रविष्टम् । गणधरानन्तर्यादिभिस्त्वत्यन्तविशुद्धागमैः परमप्रकृष्टवाङ्मतिशक्तिभिराचार्यैः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत्प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति ॥ सर्वज्ञप्रणीतत्वादानन्त्याच्च ज्ञेयस्य श्रुतज्ञानं मतिज्ञानान्महाविषयम् । तस्य च महाविषयत्वात्तांस्ताननधिकृत्य प्रकरणसमाप्त्यपेक्षमङ्गोपाङ्गनानात्वम् । किं चान्यत् । सुखग्रहणधारणविज्ञानापोहप्रयोगार्थ च । अन्यथा ह्यनिबद्धमङ्गोपाङ्गशः समुद्रप्रतरणवदुरध्यवसेयं स्यात् । एतेन पूर्वाणिवस्तूनि प्राभृतानि प्राभृतप्राभृतानि अध्ययनान्युद्देशाश्च व्याख्याताः॥अत्राह । मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति । द्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्विति। तस्मादेकत्वमेवास्त्विति । अत्रोच्यते । उक्तमेतत् साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयं विशुद्धतरं चेति । किं चान्यत् । मतिज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमात्मनो ज्ञवाभाव्यात्पारिणामिकम् । श्रुतज्ञानं तु तत्पूर्वकमाप्तोपदेशाद्भवतीति ॥ विशेषव्याख्या-मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है । श्रुत, आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन, तथा जिनवचन ये सब अनर्थान्तर अर्थात् समानार्थवाचक शब्द हैं । पुनः वह श्रुत दो प्रकारका है । एक अङ्गबाह्य, और दूसरा अङ्गप्रविष्ट और दोनो यथा संख्यासे अर्थात् अङ्गबाह्य अनेक प्रकारका है और अङ्गप्रविष्ट द्वादश १२ प्रकारका है। इनमें अनेकभेदसहित अङ्गबाह्यके कुछ उदाहरण. जैसेःसामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, २४ स्तोत्र वन्दन, प्रतिक्रमण, कायव्युत्सर्ग, अर्थात् किये हुए पापकी शुद्धता जहां शरीरके त्यागसे वर्णन की गई है, प्रत्याख्यान दशवैकालिक, उत्तरअध्याय, दशा, कल्प तथा व्यवहार, और निशीथ, इत्यादि ऋषियोंसे भाषित अनेक प्रकारका अङ्गविध है । अङ्गप्रविष्ट बारह प्रकारका है जैसे:-आचार १ सूत्रकृत २ स्थान ३ समवाय ४ व्याख्याप्रज्ञप्ति ५ ज्ञातृधर्मकथा ६ उपासकाध्ययनदशा, ७ अन्तकृद्दशा ८ अनुत्तर औपपातिक (उपपात सम्बधिनी) दशा ९ प्रश्नव्याकरण १० विपाकसूत्र ११ तथा दृष्टिपात १२ । यहांपर प्रश्न करते हैं कि मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान क्या भेद है ? उत्तर देते हैं कि उत्पन्न होकर जो नष्ट नहीं हुआ है ऐसे पदार्थका वर्तमानकालमें ग्राहक तो मतिज्ञान है । और श्रुतज्ञान तो त्रिकालविषयक है, जो पदार्थ उत्पन्न हुवा है, अथवा उत्पन्न होकर नष्ट हो गया है, वा उत्पन्न ही नहीं हुआ, किन्तु भविष्यमें उत्पन्न होनेवाला है वा नित्य है उन सबका ग्राहक श्रुतज्ञान है । यह भेद इन दोनोंमें है । अब पुनः यहांपर कहते हैं कि For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २१ मति तथा श्रुतज्ञानका नानात्व ( भेद ) तो अङ्गीकार करते हैं, किन्तु श्रुतज्ञान द्विविध ( दो भेद ) अनेकविध, तथा द्वादशविध अर्थात् १२ भेद सहित है, इस विशेषता क्या कारण है, यह परस्पर भेद किसका किया है ? अब इसका उत्तर देते है कि वक्ताके भेदसे प्रथम दो भेद माने गये हैं, अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट ये भेद वक्ताओंके भिन्न २ होनेसे माने गये हैं । जो कि सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा परमऋषि स्वरूप भगवान् अर्हतोंने परमशुभ, तथा प्रवचन प्रतिष्ठापन फलदायक तीर्थकर नाम कर्मके प्रभावसे तादृश स्वभाव होनेके कारणसे कहा है; उसीको अतिशय अर्थात् साधारण जनोंसे विशेषता युक्त, और उत्तम तथा विशेषवाणी तथा बुद्धि ज्ञान आदि संपन्न भगवान् शिष्य गणधरोंने जो कुछ कहा है वह अङ्ग प्रविष्ट है । और गणधरोंके अनन्तर होनेवाले अत्यन्त विशुद्ध आगमोंके ज्ञाता तथा परमोत्तम वाक् बुद्धिआदिकी शक्तिसम्पन्न आचायॊने कालसंहनन तथा अल्पायु आदिके दोषोंसे अल्पशक्तिवाले शिष्योंके ऊपर अनुग्रहार्थ जो ग्रन्थ निर्माण किये हैं वे सब अङ्गबाह्य हैं । सर्वज्ञसे रचित होनेके कारण तथा ज्ञेयवस्तुके अनन्त होनेसे मतिज्ञानकी अपेक्षा श्रुतज्ञान् महान् विषयोंसे संयुक्त है । अतएव श्रुतज्ञानके महाविषय होनेके कारण उन २ जीवादि पदार्थोंका अधिकारकरके प्रकरणोंकी समाप्तिकी अपेक्षा संयुक्त अङ्ग तथा उपाङ्गोंका नानात्व अर्थात् अनेक भेदत्व है । और भी, सुखपूर्वक ग्रहण, धारण, तथा विज्ञानके निश्चय प्रयोगार्थ भी श्रुतज्ञानका नानात्व (अनेक भेदत्व) है और यदि ऐसा न हो अर्थात् प्रत्येक विषय निज २ प्रकरणमें निबद्ध न हो तो समुद्रके तरनेके सदृश उन २ पदार्थोंका ज्ञान दुःसाध्य हो जाय । और इस सुखपूर्वकग्रहणआदि रूप अङ्ग तथा उपाङ्गोंके भेदस्वरूप प्रयोजनसे पूर्वकालिकवस्तु, प्राप्तव्य जीवादि द्रव्य, तथा जीवादि द्वारा ज्ञेय विद्या आदि अध्ययन और उनके उद्देशोंका भी निरूपण हो गया, अर्थात् ज्ञेयकी सुगमताकेलिये ही जीवसे ज्ञेय जीवसम्बन्धी ज्ञान, तथा जीवसे बोध्य अचेतन पदार्थोंका ज्ञान, यह सब नाना भेद सहित श्रुतज्ञान द्वारा वर्णन किया गया है । अब यहांपर कहते हैं कि मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानकी तुल्यता "द्रव्येष्वसर्वप-येषु" ( तत्वार्थसूत्र, अध्याय १ सूत्र २७ ) में कहेंगे अर्थात् असर्वपायों ( कतिपय पर्यायों ) में संपूर्ण द्रव्योंमें मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका विषय निबन्ध है, तात्पर्य यह कि इस सूत्रद्वारा यह कहा गया है कि संपूर्ण द्रव्योंके कुछ पर्याय मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानके विषय हैं, इससे दोनोंकी एकता हो गई । अब उत्तर कहते हैं कि यह विषय प्रथम ही कह चुके हैं कि मतिज्ञान तो वर्तमानकालविषयक है, और श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक है, तथा मतिज्ञानसे अधिक विशुद्ध और महाविषययुक्त है अर्थात् मतिज्ञानसे तो केवल वर्तमानकालके ही पदार्थ जाने जाते हैं, और श्रुतज्ञानसे तीनों कालके पदार्थ जाने जाते हैं । और दूसरी बात यह भी है कि For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मतिज्ञान तो इन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय ( मन ) को निमित्त मानकर आत्माके ज्ञस्वभाव (जाननेके स्वभाव ) से उत्पन्न होता है अतएव पारिणामिक है; और श्रुतज्ञान तो मतिपूर्वक है और आप्तके उपदेशसे उत्पन्न होता है; इस हेतुसे भी दोनोंका भेद है ॥२०॥ अत्राह । उक्तं श्रुतज्ञानम् । अथावधिज्ञानं किमिति । अत्रोच्यते ॥ अबकहते हैं श्रुतज्ञान तो कह चुके उसके अनन्तर जो अवधिज्ञानका उद्देश (नाम संकीर्तन ) किया है उसका क्या स्वरूप है ? इसलिये अग्रिम सूत्र कहते हैं । द्विविधोऽवधिः ॥ २१ ॥ सूत्रार्थः–अवधिज्ञान दो प्रकारका है । भाष्यम्-भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्च ॥ विशेषव्याख्या-भवप्रत्यय अर्थात् केवल जन्ममात्रके कारणसे उत्पन्न होनेवाला तथा क्षयोपशमनिमित्तसे उत्पन्न होनेवाला, इस रीतिसे क्षयोपशमनिमित्तक तथा भवप्रत्यय भेदसे अवधिज्ञान दो प्रकारका है ॥ २१ ॥ तत्रउनमें भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ॥ २२ ॥ सूत्रार्थः–नारकी जीव तथा देवोंको अवधिज्ञान केवल जन्म निमित्तसे होता है। भाष्यम्-नारकाणां देवानां च यथास्वं भवप्रत्ययमवधिज्ञानं भवति । भवप्रत्ययं भवहेतुकं भवनिमित्तमित्यर्थः । तेषां हि भवोत्पत्तिरेव तस्य हेतुर्भवति पक्षिणामाकाशगमनवत् न शिक्षा न तप इति ॥ विशेष व्याख्या-नरकमें उत्पन्न होनेवाले जीव तथा देव इनको अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है । अर्थात् इनके अवधिज्ञान होनेमें नरकयोनि तथा देवयोनिमें उत्पत्ति होना ही एक हेतु है; जैसे पक्षियोंमें जन्म होना आकाशगमनमें हेतु है । अर्थात् जैसे पक्षियोंका जन्म ही आकाशमें गतिका कारण है न कि शिक्षा वा तप आदि, ऐसे ही नारकी तथा देवोंमें उत्पत्तिमात्रसे अवधिज्ञान प्राप्त होता है ॥ २२ ॥ _ यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ २३ ॥ सूत्रार्थ:-क्षयोपशमनिमित्तक तथा षट्भेद सहित अवधिज्ञानशेष अर्थात् तिर्यग् योनि और मनुष्य योनियोंमें होता है। भाष्यम्-यथोक्तनिमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः । तदेतदवधिज्ञानं क्षयोपशमनिमित्त पद्धिं भवति शेषाणाम् । शेषाणामिति नारकदेवेभ्यः शेषाणाम् तिर्यग्योनिजानां मनुष्याणां For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २३ च । अवधिज्ञानावरणीयस्य कर्मणः क्षयोपशमाभ्यां भवति षद्धिधम् । तद्यथा अनानुगामिकं आनुगामिकं हीयमानकं वर्धमानकं अनवस्थितं अवस्थितमिति । तत्रानानुगामिकं यत्र क्षेत्रे स्थितस्योत्पन्नं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति प्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत् ॥ आनुगामिकं यत्र कचिदुत्पन्नं क्षेत्रान्तरगतस्यापि न प्रतिपतति भास्करप्रकाशवत् घटरक्तभाववञ्च ॥ हीयमानकं असंख्येयेषु द्वीपेषु समुद्रेषु पृथिवीषु विमानेषु तिर्यगूर्ध्वमधो यदुत्पन्नं क्रमशः संक्षिप्यमाणं प्रतिपतति आ अङ्गुलासंख्येयभागात् प्रतिपतत्येव वा परिच्छिन्नेन्धनोपादानसंतत्यग्निशिखावत् ॥ वर्धमानकं यदङ्गुलस्यासंख्येयभागादिषूत्पन्नं वर्धते आ सर्वलोकात् अधरोत्तरारणिनिमथनोत्पन्नोपात्तशुष्कोपचीयमानाधीयमानेन्धनराश्यग्निवत् ॥ अनवस्थितं हीयते वर्धते च वर्धते हीयते च प्रतिपतति चोत्पद्यते चेति पुनः पुनरूमिवत् ॥ अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्नं भवति ततो न प्रतिपतत्या केवलप्राप्तेः आ भवक्षयाद्वा जात्यन्तरस्थायि वा भवति लिङ्गवत् ॥ विशेष व्याख्या-पूर्व प्रसंगमें जो क्षयोपशमनिमित्त कहा है उस यथोक्त निमित्तसे उत्पन्न तथा आनुगामिक आदि भेद सहित अवधिज्ञान देव तथा नारकियोंसे शेष जो तिर्यग्योनिज और मनुष्य हैं, उनको होता है । अवधिज्ञानावरणीयकर्मके क्षय तथा उपशमसे जो अवधिज्ञान होता है, वह षडिकल्प है, अर्थात् उसके छह भेद हैं । जैसे १ अनानुगामिक, २ आनुगामिक, ३ हीयमान, ४ व मानक, ५ अनवस्थित और अवस्थित । इनमेंसे अनानुगामिक अवधिज्ञान वह हैं, कि जो जिसक्षेत्रमें स्थित पुरुषको उत्पन्न होता है, उस क्षेत्रसे जब वह पुरुष च्युत होता है अर्थात् गिरता है, तब उसका वह अवधिज्ञान भी गिर जाता है, उसके साथ ऐसा नहीं जाता जैसे प्रधान पुरुषनिष्ठज्ञान. अर्थात् जैसे निमित्तज्ञानी किसी स्थानविशेषमें ही किसी पुरुषमें ज्ञान प्राप्त कर सक्ता है न कि सर्वत्र और सो भी पृष्ट अर्थको ही कह सक्ता है । और आनुगामिक व अनुगामी अवधिज्ञान वह है, कि जो किसी क्षेत्रमें किसी पुरुषको उत्पन्न हुआ उससे अन्यक्षेत्रमें जानेपर भी उस पुरुषसे ऐसे पतित नहीं होता जैसे सूर्यका प्रकाश घटादिका रक्तभाव । हीयमान अवधिज्ञान वह है, जो कि असंख्यातद्वीप समुद्रोंमें, पृथ्वीके प्रदेशोंमें, विमानोंमें तथा तिर्यक् (तिरछे) ऊर्द्ध व अधोभागमें उत्पन्न हुआ है, वह क्रमसे संक्षिप्त होता हुआ यहां तक गिर जाता है वा न्यून हो जाता है, जबतक अंगुलके असंखेय भागको नहीं प्राप्त होता अथवा सर्वथा गिर ही जाता है, जैसे परमित उपादान कारण (ईंधन) वाले अग्निकी शिखा । वर्तमानक अवधिज्ञान वह है, जो कि अंगुलके असंखेय भाग आदिमें उत्पन्न होकर सम्पूर्ण लोकपर्यन्त ऐसे बढता है, जैसे ऊपर नीचेके अरणिके मंथनसे उत्पन्न तथा शुष्क ईंधनकी राशिपर फैंकाहुआ वर्द्धमान अग्नि । अनवस्थित अवधिज्ञान वह है, जो कि तरंगके समान जहांतक उसको बढना चाहिये वहां तक पुनः २ बढता है और छोटा भी यहांतक होता है कि जहांतक उसको छोटा होना चाहिये. इसी १ काष्ठरचित यंत्रविशेष. For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् रीतिसे वह बार २ बढता तथा न्यून होता और गिरता तथा उत्पन्न होता रहता है. एकरूपमें अवस्थित नहीं रहता किन्तु न्यूनाधिकभावमें सदा अनवस्थितरूप रहता है । और अवस्थित अवधिज्ञान वह है, कि जो जिस क्षेत्रमें जितने आकार में उत्पन्न हुआ हो, उस क्षेत्र से केवलज्ञानकी प्राप्तिपर्यन्त नहीं गिरता अथवा भवके नाश तक नहीं गिरता, वा लिङ्गके समान वह अन्यजातिमेंभी स्थिर रहता है ॥ २३ ॥ . उक्तमवधिज्ञानम् । मनःपर्यायज्ञानं वक्ष्यामः । अवधिज्ञान कह चुके अब मनःपर्यायज्ञानका निरूपण करेंगे । ऋजुविपुलमती मनः पर्यायः ॥ २४ ॥ सूत्रार्थः - मनः पर्यायज्ञानके ऋजुमति तथा विपुलमति ये दो भेद हैं । भाष्यम् – मनःपर्यायज्ञानं द्विविधम् । ऋजुमतिमनः पर्यायज्ञानं विपुलमतिमनः पर्यायज्ञानं च ॥ विशेष व्याख्या - ऋजुमतिमनःपर्याय तथा विपुलमतिमनःपर्याय इन दो भेदोंसे मनः पर्यायज्ञानके दो भेद हैं । ऋजु अर्थात् मनवचनकायकी सरलतासे मनमें स्थित रूपी - पदार्थ तथा परके मनमें स्थित पदार्थ जिससे जाने जाते हैं वह ऋजुमतिमनः पर्याय है. और सरल तथा वक्ररूप दूसरेके मनमें स्थित रूपीपदार्थ जिससे जाने जाते हैं, वह विपुलमतिमनःपर्याय है ॥ २४ ॥ अत्राह । कोऽनयोः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते । अब यहांपर कहते हैं कि ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञान तथा विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानमें क्या भेद है ? यहां कहते हैं । विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २५ ॥ सूत्रार्थः - विशुद्धि तथा अप्रतिपात इन दोनों हेतुओंसे ऋजुमति तथा विपुलमति मनःपर्यायज्ञानमें विशेष ( भेद ) है । भाष्यम्—विशुद्धिकृतश्चाप्रतिपातकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । तद्यथा । ऋजुमतिमनः पर्यायाद्विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानं विशुद्धतरम् । किं चान्यत् । ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानं प्रतिपतत्यपि भूयो विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानं तु न प्रतिपततीति ।। - विशेष व्याख्या — विशुद्धिकृत तथा अप्रतिपातकृत इन दोनों में विशेषता है । जैसे ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानकी अपेक्षासे विपुलमतिमनःपर्याय विशुद्धतर है; अर्थात् अधिक विशुद्ध है । और भी ऋजुमतिमनः पर्यायवाला गिर जाता है और विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानवाला पुनः नहीं गिरता ॥ २६ ॥ 1 अत्राह । अथावधिमनःपर्यायज्ञानयोः कः प्रतिविशेष इति । अब कहते हैं कि; अवधिज्ञान तथा मनःपर्यायज्ञानमें क्या भेद है ? For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रोच्यते । यहां सूत्र कहते हैं । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २५ विशुद्धिक्षेत्रखामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः ॥ २६ ॥ सूत्रार्थः - विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी तथा विषयकृत अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानमें विशेषता है । भाष्यम् - विशुद्धिकृतः क्षेत्रकृतः स्वामिकृतो विषयकृतश्चानयोर्विशेषो भवत्यवधिमनः पर्यायज्ञानयोः । तद्यथा । अवधिज्ञानान्मनः पर्यायज्ञानं विशुद्धतरम् । यावन्ति हि रूपाणि द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते तानि मनःपर्यायज्ञानी विशुद्धतराणि मनोगतानि जानीते । किं चान्यत् । क्षेत्रकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । अवधिज्ञानमङ्गुलस्यासंङ्घयेयभागादिषूत्पन्नं भवत्या - सर्वलोकात् । मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यक्षेत्र एव भवति नान्यक्षेत्र इति ॥ किं चान्यत् । स्वामिकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । अवधिज्ञानं संयतस्य असंयतस्य वा सर्वगतिषु भवति । मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यसंयतस्यैव भवति नान्यस्य ॥ किं चान्यत् विषयकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । रूपिद्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्ववधेर्विषयनिबन्धो भवति । तदनन्तभागे मनःपर्यायस्येति ।। विशेषव्याख्या—विशुद्धिकृत अर्थात् अधिक शुद्धिद्वारा क्षेत्रकृत अर्थात् उत्पत्तिस्थानद्वारा स्वामिद्वारा और विषयद्वारा अवधिज्ञान तथा मनःपर्यायज्ञानमें भेद है । जैसे अवधि - ज्ञानकी अपेक्षासे मनःपर्यायज्ञान अधिकतर विशुद्ध है, जितने रूप वा रूपी द्रव्यों को अवधिज्ञानवाला जानता है, उनको मनःपर्यायज्ञानी अधिकतर शुद्धतासे मनोगत होनेपर भी अधिकतर शुद्धतासे जान लेता है । और क्षेत्रकृति भी इन दोनों अर्थात् अवधि तथा मनःपर्यायज्ञानमें विशेषता है । जैसे अवधिज्ञान तो अंगुलके असंख्येय भागादि क्षेत्रों में उत्पन्न होकर सम्पूर्ण लोकपर्यन्तमें हो सक्ता है और मनःपर्यायज्ञान मनुष्य क्षेत्रमें ही उत्पन्न होता है न कि अन्य किसी क्षेत्रमें । और इन दोनोंमें स्वामिकृत भी विशेषता है । जैसे अवधिज्ञान तो संयत असंयत सब ही जीवोंको सब गतियों में होता है; परन्तु मनःपर्यायज्ञान मनुष्य योनिमें सो भी केवल संयतीको होता है, अन्य जीवको व असंयत मनुष्यको नहीं । और इन दोनों में विषयकृत भी विशेषता है । जैसे रूपवाले द्रव्योंमें असर्वपर्यायोंमें ही अवधिज्ञानका विषय निबंध है, अर्थात् अवधिज्ञानी रूपीद्रव्योंके कतिपय पर्यायों को ही जान सक्ता है, न कि सम्पूर्ण द्रव्य तथा सर्व पर्यायोंको, परन्तु मनःपर्याय ज्ञानका विषय तो उसके अनन्त भागमें भी है । तात्पर्य यह कि जो रूपीद्रव्य अवधिज्ञानसे जाना जाता है, उसके अनन्तवें सूक्ष्म भागको भी मनःपर्यायज्ञान जान लेता है ॥ २६ ॥ 1 अत्राह । उक्तं मनः पर्य्यायज्ञानम् । अथ केवलज्ञानं किमिति । अत्रोच्यते । केवलज्ञानं दशमेऽध्याये वक्ष्यते । मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलमिति ॥ अब यहांपर कहते हैं, कि मनःपर्यायज्ञानका वर्णन तो कर चुके, अब उसके अनन्तर क्रमप्राप्त केवलज्ञान क्या वस्तु है ? | यहां कहतें हैं कि, केवल ज्ञानको विशेष For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् रूपसे दशवें अध्यायमें "मोहके क्षयसे तथा ज्ञानावरणी दर्शनावरणी अन्तरायके क्षयसे केवल ज्ञान होता है,, इस प्रकार कहेंगे। अत्राह । एषां मतिज्ञानादीनां ज्ञानानां कः कस्य विषयनिबन्ध इति अत्रोच्यते । अब पुनः कहते हैं कि ये जो मतिश्रुतादि ज्ञान हैं, इनमेंसे किसका क्या विषय निबन्ध है अर्थात् किस ज्ञानसे कौनसा किस प्रकारका पदार्थ जाना जाता है । इसके उत्तरमें सूत्र कहते हैं। मतिश्रुतयोर्निबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २७ ॥ सूत्रार्थः-सम्पूर्ण द्रव्योंके असर्व (कतिपय ) पर्यायोंमें मतिज्ञान और श्रुतिज्ञान इन दोनोंका विषय निबन्ध है। भाष्यम् –मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोर्विषयनिबन्धो भवति सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु । ताभ्यां हि सर्वाणि द्रव्याणि जानीते न तु सर्वैः पर्यायैः । विशेषव्याख्या-मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका विषय कतिपय (कुछ, न कि सब) पर्याय सहित जो कि सम्पूर्ण द्रव्य हैं, उनमें है अर्थात् इन दोनों ज्ञानोंसे जीव सब द्रव्योंको जानता है. परन्तु सर्व द्रव्योंके सर्व पर्यायोंको नहीं जानता। अपने योग्य कुछ पर्यायोंको ही जानता है ॥ २७ ॥ रूपिष्ववधेः ॥ २८ ॥ सूत्रार्थः-कृष्णपीतादि जो रूपवान् द्रव्य हैं, उन्हींमें अवधिज्ञानका विषय निबन्ध है। भाष्यम्-रूपिष्वेव द्रव्येष्ववधिज्ञामस्य विषयनिबन्धो भवति असर्वपर्यायेषु । सुविशुद्धेनाप्यवधिज्ञानेन रूपीण्येव द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते तान्यपि न सर्वैः पर्यायैरिति ॥ . विशेष व्याख्या-जो पदार्थ व द्रव्य रूपवाले है, वे ही अवधि ज्ञानके विषय हैं । उन रूपी द्रव्योंमें सम्पूर्ण पर्याय अवधिज्ञानके विषय नहीं है, किन्तु कतिपय पर्याय अत्यन्त शुद्ध अवधिज्ञानद्वारा भी रूपवान् ही पदार्थ जाने जाते हैं, न कि रूप रहित । और रूपवान् द्रव्य भी सम्पूर्ण पर्यायों सहित नहीं जाने जाते, किन्तु कतिपय पर्याय सहित ही जाने जाते हैं ॥ २८ ॥ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य ॥ २९॥ सूत्रार्थः-उसके अनन्तवें भागमें मनःपर्यायज्ञानका विषयनिबन्ध है । भाष्यम्-यानि रूपीणि द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते ततोऽनन्तभागे मनःपर्यायस्य विषयनिबन्धो भवति । अवधिज्ञानविषयस्यानन्तभागं मनःपर्यायज्ञानी जानीते रूपिद्रव्याणि मनोरहस्यविचारगतानि च मानुषक्षेत्रपर्यापन्नानि विशुद्धतराणि चेति ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २७ विशेषव्याख्या - जिन रूपीद्रव्योंको अवधिज्ञानी जानता है, उससे अनन्त भा - गर्मे मनःपर्यायज्ञानका विषय निबंध है । अवधिज्ञानका विषय जो पदार्थ है, उसका अनन्तभाग अति सूक्ष्मतर मनःपर्यायज्ञानका विषय है । अतएव अवधिज्ञान के विषय के अनन्त भागको मनःपर्यायज्ञानी जानता है । और रूपीद्रव्यों को भी जो मनमें रहस्य गुप्त भावको प्राप्त मानुषक्षेत्रमें व्यवस्थित हैं, उनको जानता है । और मानुषक्षेत्र में स्थित विशुद्धतर रूपी द्रव्य हैं, उनको मनः पर्यायज्ञानी जानता है ॥ २९ ॥ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥ ३० ॥ सूत्रार्थः – सम्पूर्ण द्रव्य तथा सम्पूर्ण पर्यायोंमें केवल ज्ञानका विषय निबन्ध है । भाष्यम् – सर्वद्रव्येषु सर्वपर्यायेषु च केवलज्ञानस्य विषयनिबन्धो भवति । तद्धि सर्वभावग्राहकं संभिन्नलोकालोकविषयम् । नातः परं ज्ञानमस्ति । न च केवलज्ञानविषयात्परं किंचिदन्यज्ज्ञेयमस्ति । केवलं परिपूर्ण समप्रमसाधारणं निरपेक्षं विशुद्धं सर्वभावज्ञापकं लोकालोकविषयमनन्तपर्यायमित्यर्थः ।। विशेष व्याख्या - जीवादि सम्पूर्ण द्रव्य तथा उन द्रव्योंके यावत् पर्याय हैं, वे सब केवल ज्ञानके विषय हैं । वह केवल ज्ञान संभिन्न लोक तथा अलोक सर्व विषयक है और सर्वभावोंका ग्राहक अर्थात् ग्रहण करनेवाला है । केवल ज्ञानसे बढकर कोई भी ज्ञान नहीं है । और केवल ज्ञानका जो विषय है, उससे परे कोई ऐसा अन्य पदार्थ भी नहीं है, जो कि केवल ज्ञानसे प्रकाशित न होवे । तात्पर्य यह है, कि सम्पूर्ण विषय तथा सम्पूर्ण विषयोंके सम्पूर्ण स्थूल तथा सूक्ष्म सर्व पर्याय हैं, उन सबको केवल ज्ञान प्रकाशित करता है । केवल ज्ञान परिपूर्ण है । समग्र है । असाधारण है । अन्य ज्ञानोंसे निरपेक्ष है अर्थात् निज विषयोंको अन्यकी अपेक्षा न रखके स्वयं सबको प्रकाशित करता है । विशुद्ध है | सर्व भावोंका ज्ञापक अर्थात् जतानेवाला है । लोकालोक विषयक है, अर्थात् लोक अलोक सभी इसके विषय हैं । तथा अनन्त पर्याय है, अर्थात् सब द्रव्योंके अनन्त पर्यायोंको यह केवलज्ञान प्रकाश करता है ॥ ३० ॥ 1 अत्राह । एषां मतिज्ञानादीनां युगपदेकस्मिञ्जीवे कति भवन्तीति । अत्रोच्यते । अब यहां पर कहते हैं, कि ये जो मतिज्ञानादि ज्ञान हैं, इनमेंसे एक कालमें तथा एक जीव में कितने ज्ञान हो सक्ते हैं, अर्थात् एक ही कालमें एक ही जीव में एक वा दो अथवा और कितने ज्ञान हो सक्ते हैं ? इस हेतुसे यह अग्रिमसूत्र कहते हैं । एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः ॥ ३१ ॥ सूत्रार्थः - एक कालमें तथा एक जीव में मति आदिज्ञानों में से एकसे लेकर चारतक ज्ञान हो सक्ते हैं । For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-एषां मत्यादीनां ज्ञानानामादित एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिजीवे आ चतुर्व्यः। कस्मिंश्चिज्जीवे मत्यादीनामकं भवति । कस्मिंश्चिज्जीवे द्वे भवतः । कस्मिंश्चित्रीणि भवन्ति । कस्मिंश्चिच्चत्वारि भवन्ति । श्रुतज्ञानस्य तु मतिज्ञानेन नियतः सहभावस्तत्पूर्वकत्वात् । यस्य तु मतिज्ञानं तस्य श्रुतज्ञानं स्याद्वा न वेति । अत्राह । अथ केवलज्ञानस्य पूर्वैमंतिज्ञानादिभिः किं सहभावो भवति । नेत्युच्यते । केचिदाचार्या व्याचक्षते । नाभावः । किं तु तदभिभूतत्वादकिंचित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत् । यथा वा व्यभ्रे नभसि आदित्य उदिते भूरितेजस्त्वादादित्येनाभिभूतान्यन्यतेजांसि ज्वलनमणिचन्द्रनक्षत्रप्रभृतीनि प्रकाशनं प्रत्यकिचित्कराणि भवन्ति तद्वदिति । केचिदप्याहुः । अपायसद्व्यतया मतिज्ञानं तत्पूर्वकं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमनःपर्यायज्ञाने च रूपिद्रव्यविषये तस्मान्नैतानि केवलिनः सन्तीति ।। किं चान्यत् । मतिज्ञानादिषु चतुर्पु पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत् । संभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति ॥ किं चान्यत् । क्षयोपशमजानि चत्वारि ज्ञानानि पूर्वाणि क्षयादेव केवलं । तस्मान्न केवलिनः शेषानि ज्ञानानि सन्तीति ॥ विशेष व्याख्या—ये जो मतिज्ञानादि ज्ञान कहे हैं, उनमेंसे आरंभसे ( मतिज्ञानसे लेकर ) एक कालमें तथा एक जीवमें एक ज्ञानसे लेकर चार ज्ञानतक प्राप्त हो सक्ते हैं। किसी जीवमें एक ही ज्ञान होता है, किसीमें दो होते हैं, किसी जीवमें तीन होते हैं और किसी जीवमें चारों ज्ञान होते हैं । तात्पर्य यह है, कि एक कालमें किसी जीवमें एक मतिज्ञान ही होता है। किसीमें मति श्रुत दोनों होते हैं, अथवा मति अवधि और मति मनःपर्याय होते हैं, किसीमें मति, श्रुत अवधि ये तीन होते हैं । और किसीमें मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्याय ये चारों होते हैं । किन्तु यह अवश्य जानना उचित है, कि जहां श्रुतज्ञान है, वहां उसके साथ मतिज्ञानका पूर्व सहभाव अवश्य नियत है, क्योंकि मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है । अतएव यह नियम है, कि जिसको श्रुतज्ञान है उसको नियमसे मतिज्ञान है; परन्तु जिसको मतिज्ञान है उसको श्रुतज्ञान हो भी और न भी हो । अब यहांपर यह कहते हैं कि, केवल ज्ञानका मतिज्ञानादिके साथ सहभाव है कि नहीं है ? उत्तर-केवल ज्ञानके साथ मतिज्ञानादिका सहभाव नहीं है । परन्तु कोई २ आचार्य कहते हैं कि, केवल ज्ञानकी सत्ता दशामें मतिज्ञानादि ज्ञानोंका अभाव नहीं है किन्तु केवलज्ञानसे वे मत्यादि ज्ञान अभिभूत ( पराजित ) होनेसे ऐसे अकिंचित्कर हैं, जैसे कि नेत्रादि इन्द्रियां । केवल दशामें मतिश्रुतादि अन्यज्ञान अभिभूत होकर ऐसे अकिंचित्कर हैं, जैसे मेघ रहित आकाशमें सूर्यके उदित होनेपर अधिक तेजके कारण सूर्यसे अभिभूत अग्नि, मणि, चन्द्रमा तथा नक्षत्रादिके तेज प्रकाश करनेमें अकिंचित्कर हैं । और कोई ऐसा कहते हैं कि अपाय सद्रव्यता अर्थात् श्रोत्रादि इन्द्रियोंसे उपलब्ध पदार्थके निश्चयार्थ मतिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । इस हेतुसे श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक है। अवधिज्ञान तथा मनःपर्याय ज्ञान भी रूपी द्रव्यके विषयमें अपायसद्रव्यतासे ही प्रवृत्त होता है। अतः उनकी सत्तामें मतिज्ञान रह सक्ता है । और केवलज्ञानीको इन्द्रियद्वारा पदार्थोपलब्धि नहीं होती, इस कारणसे केवलज्ञानीको मतिज्ञानादिज्ञान नहीं है । किं चान्यत् । और भी यह बात है, कि मतिज्ञानादि चारों ज्ञानोंमें पर्याय वा क्रमसे उपयोग होता है न कि एक ही कालमें । और मिलित है ज्ञानदर्शन जिसका ऐसे भगवान् केवलीको तो एक ही कालमें सर्वभावके ज्ञापक वा ग्राहक और अन्यज्ञाननिरपेक्ष केवलज्ञान तथा केवलदर्शन होते हैं और प्रतिक्षण वा प्रतिसमय ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग होता है । और यह भी है, कि पूर्वमतिज्ञानादि चार ज्ञान तो ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होते हैं, और केवल ज्ञान क्षयसे ही उत्पन्न होता है; इसलिये भी केवलज्ञानीको मतिज्ञान आदि शेष चार ज्ञान नहीं होते ॥३१॥ - मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३२ ॥ सूत्रार्थः-मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान विपर्यय रूप भी होते है अर्थात् ये अज्ञानरूप भी हो जाते हैं। (१) नेत्रादि इन्द्रियोंसे उपलब्ध जो ईहित पदार्थ है, उसके निश्चयको अपाय कहते हैं. अर्थात् अवग्रह तथा ईहारूप मतिज्ञानसे गृहीत पदार्थके निश्चयको अपाय कहते हैं. ऐसा अपाय केवलीको अपेक्षित नहीं है, इस कारण केवलीको मतिज्ञानादिकी आवश्यकता नहीं है। (२) किं चान्यत् इससे अपने दोनों आशयोंको ग्रन्थकर्ता प्रकाश करते हैं, कि मतिज्ञानादि चारो ज्ञानोमें पर्यायसे क्रमसे उपयोग तथा निज २ विषयग्राहिता होती है, न कि एक कालमें । इनमें एक २ का. लमें न तो उपयोग ही है, और न निज २ विषयोंमें ग्राहकतारूप व्यापार ही है । जिस समय मतिज्ञानी मतिज्ञानसे उपयुक्त है अर्थात् मतिज्ञानरूप उपयोग उसमें है, उस समय अन्यश्रुतादि ज्ञानसे नहीं; और इसीप्रकार जिस समय श्रुतज्ञानसे उपयुक्त है, उस समय अन्यमतिआदि ज्ञानसे नहीं है । और केवलीको तो क्रमसे एतद्ज्ञानगत उपयोग नहीं है क्योंकि उसके विषयमें यह कहा गया है कि उसके दर्शन तथा ज्ञान संमिलित हैं। विशेष ग्राहक ज्ञान और सामान्य ग्राहक दर्शन ये दोनों जिस केवली भगवानके संभिन्न हैं, अर्थात् सर्वभाव ग्राहक हैं और माहात्म्यादि गुणोंसे संयुक्त सर्व द्रव्यपर्यायग्राहक केवल ज्ञान जिसको है वह केवली भगवान् है । उनको एक कालमें ही प्रतिसमय उपयोग होता है । सर्वभाव पंचास्तिकायादिका ग्राहक तथा इन्द्रियादिकी अपेक्षासे रहित उसका ज्ञान है । उसमें कालकृतव्यवधानसे शून्य निरन्तर उपयोग होता रहता है । 'अनुसमय, पदसे वारंवार उपयोग होता है, यह तात्पर्य है। कोई २ पंडितमन्य इस सूत्रका अन्यथा व्याख्यान करते हैं वह असंगत हैं । कदाचित् यह कहो कि, साकारज्ञान तथा निराकारदर्शन इन शब्दोंमें भेद होनेसे वारंवार एक कालमें ही दर्शनोपयोग तथा ज्ञानोपयोग नहीं हो सक्ता, क्योंकि प्रथम सामान्य ग्राहक निराकार दर्शन हो लेगा, पश्चात् ज्ञानोपयोग होगा सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि केवली भग. वान्का जब ज्ञानावरणी सर्वथा क्षीण हो गया और दर्शनावरणी भी सर्वथा निरवशेष नष्ट हो गया तब आवरण भेद कहां रहा ? भगवान् केवलीका ज्ञान तो सर्वथा और सर्वदा विशेषरूपको परिच्छिन्न करके पदार्थ ग्राहक है। वहां अष्टविधि ज्ञानोपयोग और चतुर्विधि दर्शनोपयोग यह भी भेद न रहा, इससे सिद्ध हुआ, कि केवलीको मत्यादि ज्ञान नहीं होते। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्. भाष्यम्-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमिति । विपर्ययश्च भवत्यज्ञानं चेत्यर्थः । ज्ञानविपर्ययो ऽज्ञानमिति । अत्राह । तदेव ज्ञानं तदेवाज्ञानमिति । ननु च्छायातपवच्छीतोष्णवच्च तदत्यन्तविरुद्धमिति । अत्रोच्यते । मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद्विपरीतग्राहकत्वमेतेषाम् । तस्मादज्ञानानि भवन्ति । तद्यथा । मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति । अवधिर्विपरीतो विभङ्ग इत्युच्यते ॥ विशेषव्याख्या-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान ये विपर्यय अर्थात् अज्ञान स्वरूपताको भी प्राप्त होते हैं क्योंकि विपर्यय कहनेसे ज्ञानका विपर्यय वा विरोधी अज्ञान हुआ । अब यहांपर कहते हैं, कि वे ही मति आदि ज्ञान और वे ही अज्ञान हैं ऐसा कथन किया सो यह कथन छाया और आतप अथवा शीत और उष्णके समान अत्यन्त विरुद्ध है, .अर्थात् एकहीमें दो विरुद्ध धर्म कैसे रह सक्ते हैं ? अब इसका उत्तर कहते हैं कि मिथ्यादर्शनके होनेसे इन मत्यादिज्ञानोंकी विपरीतग्राहकता हो जाती है, इस कारणसे ये अज्ञान हो जाते हैं । जैसे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, और विभङ्गज्ञान । विपरीतावधिज्ञानको ही विभङ्गज्ञान कहते हैं, अथवा कुमति, कुश्रुत कुअधि वा विभङ्गावधि यों भी मति आदिके विपर्ययको कहते हैं ॥ ३२ ॥ अत्राह । उक्तं भवता सम्यग्दर्शनपरिगृहीतं मत्यादिज्ञानं भवत्यन्यथा ज्ञानमेवेति मिथ्यादृष्टयोऽपि च भव्याश्चाभव्याश्चेन्द्रियनिमित्तानविपरीतान्स्पर्शादीनुपलभन्ते उपदिशन्ति च स्पर्श स्पर्श इति रसं रस इति । एवं शेषान् । तत्कथमेतदिति । अत्रोच्यते । तेषां हि विपरीतमेतद्भवति । ___ अब यहांपर कहते हैं, कि आपने यह कहा, कि सम्यग्दर्शनके होनेसे तो मत्यादि ज्ञान हैं और अन्यथा अर्थात् मिथ्यादर्शनके होनेसे विपरीत अर्थात् अज्ञान हो जाते हैं, यह कैसे संगत होता है? क्योंकि मिथ्यादृष्टिजन भी कोई भव्य हैं, कोई अभव्य हैं वे भी इन्द्रिय अनिन्द्रिय निमित्तक अविपरीत स्पर्शादि विषयोंको प्राप्त होते हैं। और स्पर्शको स्पर्श, रसको रस, तथा रूपको रूप कहते हैं, इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के विषयोंको आपके समान मिथ्यादृष्टि भी उपलब्ध करते हैं, तब यह कैसे हो सक्ता है कि आपगृहीत तो मत्यादि ज्ञान है और अन्यगृहीत अज्ञान है ? । अब यहां उत्तर देते हैं कि मिथ्यादृष्टियोंके मतिआदिज्ञान विपरीत अर्थात् अज्ञान ही होते हैं, क्योंकि उनको विवेक नहीं है । इसलिये यह अग्रिमसूत्र कहते हैं। सदसतो रविशेषाद्यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् ॥ ३३॥ सूत्रार्थ:-मिथ्यादृष्टियोंके उन्मत्तके समान सत् तथा असत्की अविशेषसे यहच्छापूर्वक उपलब्धि होनेसे मत्यज्ञान श्रुताज्ञान विभङ्गज्ञान ही होते है । १सम्यग्दृष्टी. २ मिथ्यादृष्टी. For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३१ भाष्यम्-यथोन्मत्तः कर्मोदयादपहतेन्द्रियमतिविपरीतग्राही भवति सोश्वं गौरित्यध्यवस्यति गां चाश्व इति लोष्टं सुवर्णमिति सुवर्ण लोष्ट इति लोष्टं च लोष्ट इति सुवर्ण सुवर्णमिति तस्यैवमविशेषेण लोष्टं सुवर्ण सुवर्ण लोष्टमिति विपरीतमध्यवस्यतो नियतमज्ञानमेव भवति । तद्वन्मिथ्यादर्शनोपहतेन्द्रियमतेर्मतिश्रुतावधयोऽप्यज्ञानं भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-जैसे उन्मत्त पुरुष कर्मोंके उदयसे इन्द्रियोंकी मति वा शक्तिके नष्ट हो जानेसे विपरीतअर्थका ग्राही हो जाता है और विपरीत ग्रहणके स्वभावसे अश्व को गौ, गौको अश्व निश्चय करता है। पाषाण को सोना, सोनेको पाषाण, माताको स्त्री, तथा स्त्रीको माता, और कदाचित् अविशेषरूपसे घोडेको घोडा, पाषाणको पाषाण, माताको माता, और स्त्रीको स्त्री भी यदृच्छासे जानता है । उसको इस प्रकार अनालोचनपूर्वक यदृच्छासे अविशेषतापूर्वक पाषाणको सुवर्ण, सुवर्णको पाषाणरूपसे विपरीत निश्चय होनेसे अज्ञान ही है, ऐसे ही मिथ्यादर्शनके आग्रहसे जिसकी इन्द्रियां उपहत (नष्टशक्ति) हो गई हैं, उसको मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान भी अज्ञान ही हैं ॥ ३३ ॥ उक्तं ज्ञानं । चारित्रं नवमेऽध्याये वक्ष्यामः । प्रमाणे चोक्ते । नयान्वक्ष्यामः तद्यथा । ज्ञानका वर्णन कर चुके, चारित्र नववें अध्यायमें कहेंगे । प्रमाण भी परोक्षप्रत्यक्षभेदसे कह चुके, अब आगे नयका निरूपण करते हैं । जैसे: नैगमसङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः ॥ ३४ ॥ सूत्रार्थ:-नैगमादि पांच नय हैं। भाष्यम् नैगमः सङ्ग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रः शब्द इत्येते पञ्च नया भवन्ति । तत्र । विशेषव्याख्या-नैगम, संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र, तथा शब्द ये पांच नय हैं ॥ ३४ ॥ उनमें। आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ॥ ३५ ॥ सूत्रार्थः-आद्य अर्थात् प्रथम नैगम नय दो प्रकारका है, शब्दनयके तीन भेद हैं। भाष्यम्-आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यान्नैगममाह । स द्विभेदो देशपरिक्षेपी सर्वपरिक्षेपी चेति । शब्दस्त्रिभेदः साम्प्रतः समभिरूढ एवम्भूत इति । अत्राह । किमेषां लक्षणमिति । अत्रोच्यते । निगमेषु येऽभिहिताः शब्दास्तेषामर्थः शब्दार्थपरिज्ञानं च देशसमग्रग्राही नैगमः। अर्थानां सर्वैकदेशसङ्ग्रहणं संग्रहः । लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः । सतां साम्प्रतानामर्थानामभिधानपरिज्ञानमृजुसूत्रः । यथार्थाभिधानं शब्दः । नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छब्दादर्थे प्रत्ययः साम्प्रतः । सत्स्वर्थेष्वसङ्कमः समभिरूढः । व्यञ्जनार्थयोरेवम्भूत इति ॥ विशेष व्याख्या-उन पांच नयोंके मध्यमें आदिमें होनेवाले नैगम नयके दो भेद हैं । जैसे देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी । और शब्दनयके तीन भेद हैं, साम्प्रत, सम For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भिरूढ, एवंभूत । अब इन नयोंके लक्षण क्या हैं । इसलिये कहते हैं:-निगमोंमें ( शास्त्रोंमें ) जो शब्द कहे गये हैं, उनके अर्थ, और शब्द तथा अर्थका जो ज्ञान है वह एकदेशसे ग्राही वा समग्ररूपसे ग्राही नैगम है । अर्थोंका सब रूपसे वा एकदेशसे जो संग्रह है, उसको संग्रह कहते हैं । लौकिकके समान उपचारसे बहुधा पूर्ण और विस्तृत अर्थका बोधक जो है वह व्यवहार नय है । विद्यमान सांप्रतिक अर्थों का अभिधान अथवा परिज्ञान जो है, उसको ऋजुसूत्र कहते हैं । और यथार्थ वस्तुका कथन वा नाम जो है, उसको शब्दनय कहते हैं । नामादिकमें प्रसिद्ध पूर्व शब्दसे जो शब्दार्थमें प्रत्यय अर्थात् ज्ञान है, वह सांप्रत शब्द नय है । विद्यमान अर्थों में जो असंक्रम है, वह समभिरूढ शब्दनय है । और व्यञ्जन तथा अर्थमें जो प्रवृत्त है, वह एवंभूतनय है ॥ ३५॥ भाष्यम्---अत्राह । उद्दिष्टा भवता नैगमादयो नयाः । तन्नया इति कः पदार्थ इति । नयाः प्रापकाः कारकाः साधका निवर्तका निर्भासका उपलम्भका व्यञ्जका इत्यनान्तरम् । जीवादीन्पदार्थान्नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वर्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यञ्जयन्तीति नयाः॥ अब यहांपर कहते हैं, कि आपने नैगम आदि नयोंका संकीर्तन किया, अब उन नयोंमें नयत्व क्या पदार्थ हैं ? अर्थात् यहां नयशब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ क्या है.? इसका उत्तर कहते हैं:- नय, प्रापक ( अर्थविशेषको प्राप्त करानेवाले) कारक (विशेष कार्यके करनेवाले ) साधक, निवर्तक, निर्भासक ( किसी अर्थके प्रकाशक) उपलम्भक, तथा व्यञ्जक ये सब पर्यायवाचक वा समानार्थक शब्द हैं। जो जीवादि पदार्थों को प्राप्त करते हैं, प्राप्त होते हैं, कराते हैं, सिद्ध करते हैं, व्यवहारमें वर्ताते हैं, प्रकाशित करते हैं, उपलब्ध करते हैं, और प्रकट करते हैं, वे नय हैं । तात्पर्य यह कि नयशब्दका प्रापक, कारक तथा साधक आदि अर्थ है। भाष्यम्-अत्राह । किमेते तन्त्रान्तरीया वादिन आहोस्वित्स्वतन्त्रा एव चोदकपक्षग्राहिणो मतिभेदेन विप्रधाविता इति । अत्रोच्यते । नैते तन्त्रान्तरीया नापि स्वतन्त्रा मतिभेदेन विप्रधाविताः । ज्ञेयस्य त्वर्थस्याध्यवसायान्तराण्येतानि । तद्यथा । घट इत्युक्ते योऽसौ चेष्टाभिनिवृत्त ऊर्ध्वकुण्डलौष्टायतवृत्तग्रीवोऽधस्तात्परिमण्डलो जलादीनामाहरणधारणसमर्थ उत्तरगुणनिर्वर्तनानिवृत्तो द्रव्यविशेषस्तस्मिन्नेकस्मिन्विशेषवति तज्जातीयेषु वा सर्वेष्वविशेषात्परिज्ञानं नैगमनयः । एकस्मिन्वा बहुषु वा नामादिविशेषितेषु साम्प्रतातीतानागतेषु घटेषु सम्प्रत्ययः सङ्ग्रहः । तेष्वेव लौकिकपरीक्षकग्राह्येषूपचारगम्येषु यथास्थूलार्थेषु संप्रत्ययो व्यवहारः । तेष्वेव सत्सु साम्प्रतेषु संप्रत्यय ऋजुसूत्रः । तेष्वेव साम्प्रतेषु नामादीनामन्यतमग्राहिषु प्रसिद्धपूर्वकेषु घटेषु सम्प्रत्ययः साम्प्रतः शब्दः । तेषामेव साम्प्रतानामध्यवसायासङ्कमो वितर्कध्यानवत् समभिरूढः । तेषामेव, व्यञ्जनार्थयोरन्योन्यापेक्षार्थग्राहित्वमेवम्भूत इति ॥ For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । यहांपर यह शंका करते हैं, कि ये नय हैं, सो जैनतन्त्र ( शास्त्र ) से भिन्न जो कणाद आदिके शास्त्र वैशेषिक आदि हैं, उनमें कुशल जो वादी है उनके संकेत हैं अर्थात् वैशेषिकतन्त्रवादीजन इनको नय कहते हैं ? अथवा स्वतन्त्र (निज जैनशास्त्र) के संकेतसिद्ध चोदक पक्षग्राही अर्थात् दुरुक्त विषयके सूचक पक्षको ग्रहण करनेवाले अयथार्थ अर्थको मतिभेदसे कहनेकेलिये सहसा प्रवृत्त होनेवाले ये नय हैं? इसका समाधान करते हैं, कि ये नय कणाद वैशेषिक आदि शास्त्रोंके नहीं हैं, और स्वतंत्र मतभेदसे अयथार्थ अर्थके निरूपणकेलिये भी नहीं दौड पडे हैं, किन्तु ज्ञेय जीवादिक पदार्थोंके बोध करानेको उपाय विशेष ये नैगमादि नय हैं । जैसे घट (घटा) ऐसा कहनेपर कुंभकारकी चेष्टाओंसे उत्पन्न उर्ध्वदेशमें कुंडलाकार, विस्तृत, ओष्टसहित, वर्तुलाकार, ग्रीवायुक्त, अधोदेशमें परिमंडलाकार, जलादि द्रवीभूत पदार्थोंके आनयन तथा धारणादि कार्योंमें समर्थ, तथा उत्तरोत्तर पाकजनित रक्तादिगुणोंकी समाप्तिसिद्ध जो द्रव्य विशेष है उस एकमें वा उस जातिके सम्पूर्ण घटोंमें अविशेषरूपसे जो परिज्ञान है, वह नैगम नयका विषय हैं । तथा एक अथवा अनेक वर्तमान, अतीत, अनागत ( होनेवाले ) नाम आदिसे विशेषित घटोंका जो ज्ञान है, वह संग्रहनय है, अर्थात् संग्रहनयका विषय है। और लौकिक परीक्षाओंसे ग्रहण करने योग्य उपचारसे जानने योग्य उन्हीं घटोंमें स्थूल पदार्थोंके तुल्य जो ज्ञान है वह व्यवहार नय है । तथा वर्तमान कालमें विद्यमान उन्हीं घटोंमें जो ज्ञान है वह ऋजुमूत्र नयका विषय है । तथा नामादिमेंसे किसी एकके द्वारा ग्राह्य और प्रसिद्धिपूर्वक उन्हीं वर्तमानकालिक घटोमें जो ज्ञान है वह सांप्रत शब्द नयका विषय है । और वितर्क ध्यानके समान उन्हीं सांप्रत घटोंमें अध्यवसाय (निश्चयात्मक ज्ञान ) का जो असंक्रम है वह समभिरूढ नय है । और उन्हींमें व्यञ्जन तथा अर्थकी परस्पर अपेक्षासे जो पदार्थग्राहकता है, वह एवंभूत नयका विषय है । भाष्यम्-अत्राह । एवमिदानीमेकस्मिन्नर्थेऽध्यवसायनानात्वान्ननु विप्रतिपत्तिप्रसङ्ग इति। अत्रोच्यते । यथा सर्वमेकं सदविशेषात् सर्व द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् सर्व त्रित्वं द्रव्यगुणपर्यायावरोधात् सबै चतुष्वं चतुर्दर्शनविषयावरोधात् सर्व पञ्चत्वमस्तिकायावरोधात् सर्व षट्त्वं षड्द्रव्यावरोधादिति । यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसायस्थानान्तराण्येतानि तद्वन्नयवादा इति । किं चान्यत् । यथा मतिज्ञानादिभिः पञ्चभिर्जानैर्धर्मादीनामस्तिकायानामन्यतमोऽर्थः पृथक् पृथगुपलभ्यते पर्यायविशुद्धिविशेषादुत्कर्षेण न च ता विप्रतिपत्तयः तद्वन्नयवादाः । यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनैः प्रमाणैरेकोऽर्थः प्रमीयते स्वविषय. नियमात् न च ता विप्रतिपत्तयो भवन्ति तद्वन्नयवादा इति । आह च अब यहांपर कहते हैं, कि एक ही पदार्थमें ज्ञानकी अनेकता ( नैगम संग्रह आदि रूपसे अनेक ज्ञानविषयता) होनेसे विवादका प्रसङ्ग हो गया, अर्थात् कीदृशज्ञानसे यहां For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् 1 पर घट ग्राह्य है ? इस प्रकार विवाद प्राप्त हुआ। इसका उत्तर कहते हैं:- सबै एक ही है, क्योंकि सत्स्वरूपसे सबमें अभेद है, अर्थात् सद्रूपसे सब अभिन्न है । जैसे जो सत् है धर्म सत् है, अधर्म सत् है, आकाश सत् है, इस प्रकार सत्स्वरूपसे किसी में भेद नहीं है । तथा सब द्विविध है, क्योंकि सब कुछ चेतन और अचेतनमय है, चेतन और अचेतनसे भिन्न कुछ नहीं है, इसलिये चेतन और अचेतन भेदसे सब द्विविध है । तथा सब त्रित्व संख्यायुक्त है; क्योंकि द्रव्य, गुण और पर्यायरूप ही समस्त लोक है । द्रव्य गुण और पर्याय इनसे भिन्न कुछ नहीं है; इसलिये सब जगत त्रिविध है । तथा सब चार संख्या युक्त है, क्योंकि चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवल दर्शन इन चार प्रकार के दर्शनविषयों में सब गतार्थ है । तथा सब कुछ पंचसंख्यामय है, क्योंकि जीवास्तिकायादि पंचास्तिकायमें सब गतार्थ है । तथा सब कुछ षट्संख्यामय हैं; क्योंकि षड्द्द्रव्यमें सब अन्तर्भूत है । जैसे एकत्व, द्वित्व आदि विवाद के स्थान नहीं हैं, किन्तु कथन तथा ज्ञानकी भिन्न २ परिपाटी है, ऐसे ही नयवाद भी हैं। किं च दूसरी यह भी वार्त्ता है, कि जैसे मतिज्ञान आदि पांच ज्ञानोंसे धर्मास्तिकाय आदि पंचास्तिकायों में कोई एक अस्तिकायरूप पदार्थ पर्यायविशुद्धि तथा उत्कर्ष से पृथक् २ उपलब्ध होता है; और वह पृथक् २ उपलब्धि विप्रतिपत्ति नहीं है, ऐसे ही नयवाद भी हैं । अर्थात् पृथक् २ नयसे भिन्न प्रकारसे पदार्थों के स्वरूप जाने जाते हैं, इसमें कुछ विवाद नहीं है । अथवा जैसे निज २ विषयके नियमसे प्रत्यक्ष अनुमान उपमान तथा आप्तवचनसे एक ही पदार्थ प्रमाण साक्षात् विषयीभूत किया जाता है, किन्तु वह अनेक प्रमाणोंसे एक पढ़ार्थकी प्रमिति विवाद नहीं है । ऐसे ही नयवाद भी हैं । अब इस विषय में संक्षिप्त रुचिवा - लेको बोध कराने के अनुग्रहसे आर्याद्वारा कहते हैं, : नैगमशब्दार्थानामेकानेकार्थनयगमापेक्षः । देशसमग्रग्राही व्यवहारी नैगमो ज्ञेयः ॥ १ ॥ यत्सङ्गृहीतवचनं सामान्ये देशतोऽथ च विशेषे । तत्सङ्ग्रहनयनियतं ज्ञानं विद्यान्नयविधिज्ञः ॥ २ ॥ समुदायव्यक्ताकृतिसत्तासञ्ज्ञादिनिश्चयापेक्षम् । १ द्रव्यसमूह | लोकोपचारनियतं व्यवहारं विस्तृतं विद्यात् ॥ ३ ॥ साम्प्रतविषयग्राहकमृजुसूत्रनयं समासतो विद्यात् । विद्याद्यथार्थशब्द विशेषितपदं तु शब्दनयम् ॥ ४ ॥ इति ॥ निगमजन पदमें होनेवाले शब्द और उनके अर्थोंको नैगम, और उन नैगम शब्दार्थोंमेंसे एक विशेष तथा अनेक सामान्यविषयों वा अर्थोंके एकदेशसे वा समग्ररूपसे ग्रहण करानेमें जो समर्थ है, उसको व्यवहारी नैगम कहते हैं ॥ १ ॥ For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३५ सामान्य विषय में वा विशेषके विषयमें जो संगृहीतका वचन अभिधान है, उस संग्रह नयके नियत ज्ञानकी नयविधि जाननेवालेको संग्रह नय जानना चाहिये ॥ २ ॥ समुदाय, व्यक्ति, आकृति, सत्ता और संज्ञा अर्थात् नाम स्थापना द्रव्य और भाव आदिके निश्चयकी अपेक्षा रखनेवाला, तथा लौकिक उपचारसे जो नियत है; उसको विस्तृत व्यवहार नय जानना चाहिये || ३ ॥ और संक्षेपसे साम्प्रतविषयका जो ग्राहक है, उसको ऋजुसूत्र नय जानना चाहिये । तथा यथार्थविषयक साम्प्रतसमभिरूड और एवंभूत इत्यादि पदोंसे जो विशेषित उसको शब्द नय जानना चाहिये ॥ ४ ॥ भाष्यम् - अत्राह । अथ जीवो नोजीवः अजीवो नोऽजीव इत्याकारिते केन नयेन कोsर्थः प्रतीयत इति । अत्रोच्यते । जीव इत्याकारिते नैगमदेशसङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रसाम्प्रतसमभिरूढैः पञ्चस्वपि गतिष्वन्यतमो जीव इति प्रतीयते । कस्मात् । एते हि नया जीवं प्रत्योपशमिकादियुक्तभावग्राहिणः । नोजीव इत्यजीवद्रव्यं जीवस्य वा देशप्रदेशौ । अजीव इत्यजीवद्रव्यमेव । नोऽजीव इति जीव एव तस्य वा देशप्रदेशाविति । एवम्भूतनयेन तु जीव इत्याकारिते भवस्थो जीवः प्रतीयते । कस्मात् । एष हि नयो जीवं प्रत्यौदयिक भावग्राहक एव । जीवतीति जीवः प्राणिति प्राणान्धारयतीत्यर्थः । तच्च जीवनं सिद्धे न विद्यते तस्माद्भवस्थ एव जीव इति । नोजीव इत्यजीवद्रव्यं सिद्धो वा । अजीव इत्यजीवद्रव्यमेव । नोऽजीव इति भवस्थ एव जीव इति । समग्रार्थग्राहित्वाच्चास्य नयस्य नानेन देशप्रदेशौ गृह्येते । एवं जीव जीवा इति द्वित्वबहुत्वाकारितेष्वपि । सर्वसङ्ग्रहणे तु जीवो नोजीवः अजीवो नोऽजीवः जीवौ नोज अजीव नोऽजीवौ इत्येकद्वित्वाकारितेषु शून्यम् । कस्मात् । एष हि नयः सङ्ख्यानन्त्याजीवानां बहुत्वमेवेच्छति यथार्थग्राही । शेषास्तु नया जात्यपेक्षमेकस्मिन्बहुवचनत्वं बहुषु च बहुवचनं सर्वाकारितग्राहिण इति । एवं सर्वभावेषु नयवादाधिगमः कार्यः । अब यहांपर कहते हैं । जीव, नोजीव तथा अजीव और नो अजीव ऐसा कहने पर किस नयसे और कौनसा पदार्थ प्रतीत ( ज्ञानविषयीभूत) होता है ? इसका उत्तर कहते हैं, कि 'जीव, ऐसा कहनेसे वा पुकारनेसे नैगम, देशसंग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, साम्प्रत और समभिरूढ नयोंसे पांचो गतियों में किसी एक जीवका ज्ञान होता है, क्योंकि ये नैगम आदि नय जीवके प्रति औपशमिकादि भावयुक्त पदार्थके ग्राहक हैं । तथा 'नोजीव, ऐसा कहनेसे अजीवद्रव्य वा जीवके देश प्रदेशका बोध होता है । और 'अजीव, ऐसा कहने से अजीव द्रव्यका ही ज्ञान होता है । और 'नो अजीव, ऐसा कहने से जीव अथवा जीवके देश प्रदेशका बोध होता है । और एवंभूत नयसे तो 'जीव, ऐसा कहने से भवस्थजीवका ग्रहण होता है, क्योंकि यह नय जीवके प्रति औदयिक भावका ग्राहक है । जीव इस शब्द की व्युत्पत्ति यह है " जीवति ( प्राणिति ) इति जीव:" अर्थात् जो दशों १ अवस्था. For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्राणोंको धारण करै । और वह प्राणधारणरूप जीवन सिद्धोंमें नहीं होता, इस हेतुसे 'जीव, ऐसा कहनेसे एवंभूत नयसे तो भवस्थजीवका ही ग्रहण होता है । और 'नो जीव, ऐसा कहनेसे अजीवद्रव्य अथवा सिद्धका ग्रहण होता है । अजीव ऐसा कहनेसे अजीव द्रव्यका ही ग्रहण होता है, और नोजीव ऐसा कहनेसे संसारस्थ जीवका ही ज्ञान होता है। क्योंकि यह एवंभूत नय सम्पूर्णरूपसे पदार्थका ग्राहक है; इसके द्वारा देश तथा प्रदेशका ग्रहण नहीं होता । इसी रीतिसे "जीवौ जीवाः” दो जीव वा बहुत जीव इत्यादि द्वित्व तथा बहुतरूपसे कहनेपर भी संसारस्थ जीवका ही इस नयसे ग्रहण होता है । और सम्पूर्ण जीवमात्रका ग्रहण होनेपर तो जीव, नोजीव (ईषत् जीव ), अजीव, नोऽजीव ( ईषत् वा किंचित् अजीव ) जीव (दो जीव) नोजीव (द्वित्वसंख्या सहित नोजीव ) तथा दो अजीव और दो नोऽजीव इत्यादि एकत्व वा द्विरूपसे कहनेपर शून्यका ही बोध होगा। क्योंकि यह यथार्थग्राही नय संख्याकी अनन्ततासे जीवोंके बहुत्वको ही चाहता है। और पूर्वोक्त उदाहरणमें तो एकत्व तथा द्वित्व ही हैं, अर्थात् एकवचन और द्विवचन ही हैं । और शेष जो नय हैं, वे तो जातिकी अपेक्षासे एकमें बहुवचन तथा बहुतमें भी बहुवचनको सम्पूर्ण वचनोंसे एक वचनादिसे आकारित उच्चारित विकल्पोंको ग्रहण करनेवाले हैं । इसी प्रकार सब पदार्थोमें नयवादका ज्ञान समझना चाहिये । __ भाष्यम्-अत्राह । अथ पञ्चानां ज्ञानानां सविपर्ययाणां कानि को नयः श्रयत इति । अत्रोच्यते । नैगमादयस्त्रयः सर्वाण्यष्टौ श्रयन्ते । ऋजुसूत्रनयो मतिज्ञानमत्यज्ञानवर्जानि षट् ।। अत्राह । कस्मान्मति सविपर्ययां न श्रयत इति । अत्रोच्यते । श्रुतस्य सविपर्ययस्योपग्रहत्वात् । शब्दनयस्तु द्वे एव श्रुतज्ञानकेवलज्ञाने श्रयते । अत्राह । कस्मान्नेतराणि श्रयत इति । अत्रोच्यते । मत्यवधिमनःपर्यायाणां श्रुतस्यैवोपग्राहकत्वात् । चेतनाज्ञस्वाभाव्याच सर्वजीवानां नास्य कश्चिन्मिथ्यादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते । तस्मादपि विपर्ययान्न श्रयत इति । अतश्च प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनानामपि प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायत इति । आह च___ अब यहांपर कहते हैं, कि कुमति कुश्रुत तथा विभङ्गरूप विपर्यय ( अज्ञान ) सहित जो मत्यादि पांच ज्ञान हैं, उनमेंसे किन ज्ञानोंको कौन नय आश्रय करता है ? इसका उत्तर कहते हैं, कि नैगमसे आदि लेके जो तीन नय हैं, अर्थात् नैगम संग्रह और व्यवहार; सो आठों ज्ञानका अर्थात् कुमति कुश्रुत तथा विभङ्गज्ञान सहित पांचों ज्ञानोंका आश्रय करते हैं। और ऋजुसूत्र नयतो मतिज्ञान तथा मत्यज्ञानको छोडके षट् ज्ञानोंको आश्रय करता है । यहां कहते हैं, कि ऋजुसूत्र नय विपर्यय सहित मतिज्ञानका आश्रय क्यों नहीं करता? इस पर कहते हैं, कि विपर्यय सहित श्रुतका ही इससे उपग्रह होता है । और शब्दनय तो श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान इन्हीं दोनोंका आश्रय करता है। यहांपर कहते हैं, कि शब्द नय इन दोनों के सिवाय अन्यका आश्रय क्यों नहीं करता ? इसका For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । उत्तर कहते हैं, कि मति, अवधि, तथा मनःपर्याय ज्ञानोंको श्रुतकी उपग्राहकता है । तथा सब संसारी जीवोंका चेतनज्ञ स्वभाव होनेसे इस नयकी दृष्टिमें कोई मिथ्यादृष्टि अथवा अज्ञानी जीव है ही नहीं । इस कारणसे शब्दनय विपर्ययोंका आश्रय नहीं करेगा। इसी कारण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, तथा आप्तवचन इनका भी प्रामाण्य हम स्वीकार करते हैं । और कहा भी है,: विज्ञायैकार्थपदान्यर्थपदानि च विधानमिष्टं च । विन्यस्य परिक्षेपान्नयैः परीक्ष्याणि तत्त्वानि ॥ १ ॥ ज्ञानं सविपर्यासं त्रयः श्रयन्त्यादितो नयाः सर्वम् ।। सम्यग्दृष्टानं मिथ्यादृष्टेविपर्यासः ॥ २ ॥ ऋजुसूत्रः षट् श्रयते मतेः श्रुतोपग्रहादनन्यत्वात् । श्रुतकेवले तु शब्दः श्रयते नोऽन्यच्छूताङ्गत्वात् ॥ ३ ॥ मिथ्यादृष्टयज्ञाने न श्रयते नास्य कश्चिदज्ञोऽस्ति । ज्ञस्वाभाव्याज्जीवो मिथ्यादृष्टिर्न चाप्यज्ञः ॥ ४ ॥ इति नयवादाश्चित्राः कचिद्विरुद्धा इवाथ च विशुद्धाः ।। लौकिकविषयातीतास्तत्त्वज्ञानार्थमधिगम्याः ॥ ५ ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसङ्ग्रहे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ॥ एक अर्थवाचक पदोंको तथा अनेक अर्थके वाचक पदोंको जानकर और इष्ट विधानका विन्यास करके अनन्तर परिक्षेपसे नयोंके द्वारा तत्त्वोंकी परीक्षा करनी चाहिये ॥ १॥ आदिसे नैगम आदि तीन नय विपर्यय सहित सब ज्ञानोंका आश्रय करते हैं, उसमें सम्यग्दृष्टिको तो ज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टिको विपर्यास होता है ॥ २ ॥ ऋजुसूत्र नय विपर्यय सहित मतिज्ञानको छोड़के शेष षट् ज्ञानोंका आश्रय करता है, क्योंकि मतिज्ञानका अभेद होनेसे श्रुतसे ही उपग्रह हो जाता है, शब्दनय तो श्रुत और केवल ज्ञानका ही आश्रय करता है, न कि अन्यका; क्योंकि शब्दनय श्रुतका ही अङ्ग है ॥ ३॥ तथा मिथ्यादृष्टि अज्ञानका आश्रय नहीं करता। क्योंकि इसकी दृष्टि में ज्ञस्वभाव (ज्ञानी स्वभाव ) होनेसे न तो कोई मिथ्यादृष्टि है, और न कोई अज्ञानी है ॥ ४ ॥ इस रीतिसे विचित्र नयवाद कहीं विरुद्ध सदृश होनेपर भी अति विशुद्ध तथा लौकिक विषयोंसे परे हैं, इसीसे तत्त्वार्थज्ञानकेलिये इनको जानना चाहिये ॥ ५ ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसङ्ग्रहे आचार्योपाधिधारि पण्डितठाकुर प्रसादशर्मविरचित भाषाटीकासमलङ्कतः प्रथमोध्यायः । For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ द्वितीयोऽध्यायः । अत्राह । उक्तं भवता जीवादीनि तत्त्वानीति । तत्र को जीवः कथं लक्षणो वेति । अत्रोच्यते । यहांपर कहते हैं, कि आपने जीव आदि तत्त्वोंको कहा है, सो जीव क्या और उसका लक्षण क्या है ? इसलिये यह अग्रिमसूत्र कहते हैं। औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपा रिणामिकौ च ॥१॥ सूत्रार्थ:-औपशमिक, क्षायिक और मिश्रभाव जीवके स्वतत्त्व हैं, तथा औदयिक और पारिणामिक भी हैं। भाष्यम्-औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक औदयिकः पारिणामिक इत्येते पञ्च भावा जीवस्य स्वतत्त्वं भवन्ति । विशेषव्याख्या-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा पारिणामिक । ये पांचभाव जीवके निजतत्त्व अर्थात् निज स्वभाव हैं ॥ १ ॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥२॥ सूत्रार्थ:-औपशमिक आदि पांच भाव यथाक्रमसे दो, नव, अठारह, इक्कीस तथा तीन भेदवाले हैं। भाष्यम्-एते औपशमिकादयः पञ्च भावा द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा भवन्ति । तद्यथा । औपशमिको द्विभेदः क्षायिको नवभेदः क्षायोपशमिकोऽष्टादशभेदः औदयिक एकविंशतिभेदः पारिणामिकस्त्रिभेद इति । यथाक्रममिति येन सूत्रक्रमेणात ऊर्ध्व वक्ष्यामः । विशेषव्याख्या-पूर्वोक्त औपशमिक आदि पांच भाव जो जीवके स्वतत्त्व है उनके भेद इस प्रकार हैं । जैसे औपशमिकके दो भेद, क्षायिकके नव भेद, क्षायोपशमिकके अठारह भेद, औदयिकके इक्कीस भेद, और पारिणामिकके तीन भेद हैं । 'यथाक्रम, इसका यह तात्पर्य है, कि जिस क्रमसे सूत्रमें उपनिबद्ध है, उसीसे ये भेद हैं । और जो जिसके भेद हैं, उनको क्रमसे आगे कहते हैं ॥ २ ॥ सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥ सूत्रार्थः-प्रथम अर्थात् औपशमिकके सम्यक्त्व चारित्र दो भेद हैं। भाष्यम्-सम्यक्त्वं चारित्रं च द्वावौपशमिको भावौ भवत इति । विशेषव्याख्या-सम्यक्त्व तथा चारित्र ये दो प्रकार औपशमिक भावके हैं अर्थात् औपशमिकसम्यक्त्व और औपशमिकचारित्र दो भेद हैं ॥ ३ ॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३९ सूत्रार्थः—दूसरे अर्थात् क्षायिकके ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपयोग, वीर्य सम्यक्त्व और चारित्र ये नौ भेद हैं । भाष्यम् – ज्ञानं दर्शनं दानं लाभो भोग उपभोगो वीर्यमित्येतानि च सम्यक्त्वचारित्रे च नव क्षायिका भावा भवन्तीति । ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपयोग और वीर्य ये सात तथा च शब्दसे सम्यक्त्व और चारित्र मिलाकर नव प्रकारका क्षायिक भाव होता है, अर्थात् क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ॥ ४ ॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५ ॥ सूत्रार्थ :- चार प्रकारका ज्ञान, तीन प्रकारका अज्ञान, तीन प्रकारका दर्शन और पांच प्रकारकी लब्धि, तथा सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ये अष्टादश भेद क्षायोपशमिक भावके हैं । भाष्यम् –ज्ञानं चतुर्भेदं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनः पर्यायज्ञानमिति । अज्ञानं त्रिभेदं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति । दर्शनं त्रिभेदं चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिद्र्शनमिति । लब्धयः पञ्चविधा दानलब्धिर्लाभलब्धिर्भोगलब्धिरुपभोगलब्धिर्वीर्यलब्धिरिति । सम्यक्त्वं चारित्रं संयमासंयम इत्येतेऽष्टादश क्षायोपशमिका भावा भवन्तीति । विशेषव्याख्या - मतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनःपर्याय ज्ञान ये चार ज्ञान; मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान तथा विभंगावधि ये तीन अज्ञान; चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन; दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, तथा वीर्य - लब्धि ये पांच प्रकारकी लब्धि इस प्रकार ज्ञानादि पन्द्रह और सम्यक्त्व, चारित्र, तथा संयमासंयम सब मिलाकर अठारह भेदवाला क्षायोपशमिक भाव है ॥ ५ ॥ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धत्वलेश्याश्चतुश्चतुरूये केके के कषभेदाः ॥ ६ ॥ सूत्रार्थ:-चार गति, चार कषाय, तीन लिङ्ग, मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, असंयत एक, असिद्धत्व एक, और लेश्या छह; ये औदयिक भावोंके २१ भेद हैं । भाष्यम्–गतिश्चतुर्भेदा नारकतैर्यग्योनमनुष्यदेवा इति । कषायश्चतुर्भेदः क्रोधी मानी मायी लोभीति । लिङ्गं त्रिभेदं स्त्रीपुमान्नपुंसकमिति । मिथ्यादर्शनमेकभेदं मिध्यादृष्टिरिति । अज्ञानमेकभेदमज्ञानीति । असंयतत्वमेकभेदमसंयतोऽविरत इति । असिद्धत्वमेकभेदमसिद्ध इति । एकभेदमेकविधमिति । लेश्या षट् भेदाः कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुकुलेश्या । इत्येते एकविंशतिरौदयिकभावा भवन्ति । For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या-नारक, तैर्यगयोनि मनुष्य और देव ये चार गति; क्रोध, मान, माया, तथा लोभ ये चार कषाय; स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद ये तीन लिङ्ग; मिथ्यादृष्टिरूप मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, अविरत असंयतरूप असंयत एक, असिद्धत्व एक, और कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या पद्मलेश्या तथा शुक्ललेश्या इस प्रकार सब मिलकर इक्कीस प्रकार औदयिक भाव है ॥ ६ ॥ जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ॥७॥ सूत्रार्थ:-जीवत्व, भव्यत्व, और अभव्यत्व ये तीनों पारिणामिक भाव हैं । भाष्यम्-जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वमित्येते त्रयः पारिणामिका भावा भवन्तीति । आदिग्रहणं किमर्थमिति । अत्रोच्यते । अस्तित्वमन्यत्वं कर्तृत्वं भोक्तृत्वं गुणवत्त्वमसर्वगतत्वमनादिकर्मसन्तानबद्धत्वं प्रदेशत्वमरूपत्वं नित्यत्वमित्येवमादयोऽप्यनादिपारिणामिका जीवस्य भावा भवन्ति । धर्मादिभिस्तु समाना इत्यादिग्रहणेन सूचिताः । ये जीवस्यैव वैशेषिकास्ते स्वशब्देनोक्ता इति । एते पञ्च भावास्त्रिपञ्चाशद्भेदा जीवस्य स्वतत्त्वं भवन्ति । अस्तित्वादयश्च । किं चान्यत् विशेषव्याख्या-जीवत्व, भव्यत्व, तथा अभव्यत्व आदि पारिणामिक भाव हैं। पारिणामिक भावके तीन ही भेद कहे हैं, तब इस सूत्रमें आदिग्रहण क्यो किया ? इसका उत्तर कहते हैं,:-अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणवत्व, असर्वगतत्व, अनादिकर्मसन्तानबद्धत्व, प्रदेशत्व, अरूपत्व तथा नित्यत्व; इत्यादि और भी अनादिकालसिद्ध पारिणामिक भाव जीवके हैं । और ये अस्तित्वादि भाव धर्मादिके समान हैं, इसलिये आदिग्रहणसे उनको भी सूचित किया है । जो जीवके वैशेषिक अर्थात् जो विशेष करके जीवमें ही होते हैं, उनको तो पृथक् २ स्व शब्दसे कहा है । ये औपशमिकादि पांचों भाव मिलके त्रिपञ्चाशत अर्थात् ५३ भेद जीवके स्वतत्त्व हैं, अर्थात् निज विशेष भाव हैं, जो कि जीवमें ही होते हैं । और अस्तित्वादि भी जीवके भाव हैं ॥ ७ ॥ और भी कहते है,: उपयोगो लक्षणम् ॥ ८॥ सूत्रार्थ:--उपयोगवत्ता जीवका लक्षण है। भाष्यम् - उपयोगो लक्षणं जीवस्य भवति । विशेषव्याख्या-जीवका उपयोग लक्षण होता है अर्थात् जीव उपयोगलक्षणयुक्त होता है ॥ ८ ॥ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥९॥ सूत्रार्थ:-वह उपयोग दो प्रकारका है। एक अष्टविध है, और दूसरा चतुर्विध है। भाष्यम्-स उपयोगो द्विविधः साकारोऽनाकारश्च ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेत्यर्थः । For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यत्तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । स पुनर्यथासङ्ख्थमष्टचतुर्भेदो भवति । ज्ञानोपयोगोऽष्टविधः । तद्यथा । मतिज्ञानोपयोगः श्रुतज्ञानोपयोगोऽवधिज्ञानोपयोगो मनःपर्यायज्ञानोपयोगः केवलज्ञानोपयोगो मत्यज्ञानोपयोगः श्रुतज्ञानोपयोगो विभङ्गज्ञानोपयोग इति । दर्शनोपयोगचतुर्भेदः । तद्यथा । चक्षुर्दर्शनोपयोगोऽचक्षुर्दर्शनोपयोगोऽवधिदर्शनोपयोगः केवलदर्शनोपयोग इति ॥ ४१ विशेषव्याख्या - वह उपयोग दो प्रकारका है । एक साकार और दूसरा अनाकार । अर्थात् पहिला ज्ञानोपयोगसाकार दूसरा दर्शनोपयोगअनाकार । और वह यथाक्रमसे अष्टभेद तथा चतुर्भेद है । उनमें से ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं । जैसे, :- मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग, मनःपर्यायज्ञानोपयोग तथा केवलज्ञानोपयोग, मत्यज्ञानोपयोग, श्रुताज्ञानोपयोग, और विभङ्गज्ञानोपयोग, । यह अष्टविध ज्ञानोपयोग है । और दर्शनोपयोग चार प्रकारका है । जैसे, — चक्षुर्दर्शनोपयोग, अचक्षुर्दर्शनोपयोग, अवधिदर्शनोपयोग, और केवलदर्शनोपयोग । यही द्विविध उपयोग है ॥ ९ ॥ : संसारिणी मुक्ताश्च ॥ १० ॥ सूत्रार्थः – संसारी तथा मुक्त भेदसे जीवके दो भेद हैं । भाष्यम् – ते जीवाः समासतो द्विविधा भवन्ति संसारिणो मुक्ताश्च । किं चान्यत्विशेषव्याख्या - जिस जीवका पूर्वमें उपयोग लक्षण कहा है, प्रकारका है । एक तो संसारी जो अनेक प्रकार के जन्मधारणकरके रते हैं, और दूसरे मुक्त जीव वे हैं, जिनका संसारसे सम्बन्ध छूट आवागमनसे रहित हो गये हैं ॥ १० ॥ वह जीव संक्षेपसे दो संसार में भ्रमण कगया है, तथा जो और भी,: समनस्कामनस्काः ॥ ११ ॥ सूत्रार्थ:-- जीवके समनस्क और अमनस्क ये दो भेद हैं । भाष्यम् - समासतस्ते एव जीवा द्विविधा भवन्ति समनस्काश्च अमनस्काश्च । तान्परस्ताद्वक्ष्यामः ॥ विशेषव्याख्या- - समनस्क तथा अमनस्क, अर्थात् मनसहित और मनरहित ये दो भेद जीवके हैं । हम इनका अर्थात् समनस्क और अमनस्कों का वर्णन पीछेसे करेंगे । संसारिणस्त्र सस्थावराः ।। १२ ।। सूत्रार्थः – पुनः त्रस तथा स्थावर भेदसे संक्षेप में संसारी जीव दो प्रकारके हैं । भाष्यम् - संसारिणो जीवा द्विविधा भवन्ति त्रसाः स्थावराश्च । तत्र — विशेषव्याख्या - संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं; त्रस और स्थावर । उनमें :पृथिव्यन्वनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥ सूत्रार्थ:- पृथिवी, जल और वनस्पति ये स्थावर जीव हैं । भाष्यम् – पृथिवी कायिका अप्कायिका वनस्पतिकायिका इत्येते त्रिविधाः स्थावरा जीवा For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भवन्ति । तत्र पृथिवीकायोऽनेकविधः शुद्धपृथिवीशर्करावालुकादिः । अपूकायोऽनेकविधो हिमादिः । वनस्पतिकायोऽनेकविधः शैवालादिः ॥ विशेषव्याख्या - पृथिवीकायिक, अप् (जल) कायिक, तथा वनस्पतिकायिक ये त्रिविध जीव स्थावर संज्ञक हैं । इनमेंसे पृथिवीकायिक अनेक प्रकार शुद्धपृथिवी, शर्करा, वालुकादि हैं । अप्कायिक जो हिम आदि हैं, सो अनेक प्रकारके हैं । और वनस्पति कायिक जो शैवाल आदि हैं वे भी अनेक प्रकार हैं ॥ १३ ॥ I तेजोवायू दीन्द्रियादयश्च साः ॥ १४ ॥ सूत्रार्थः - तेजः कायिक, वायुकायिक, और द्वीन्द्रियादि त्रसजीव हैं । भाष्यम् – तेजः कायिका अङ्गारादयः । वायुकायिका उत्कलिकादयः । द्वीन्द्रियात्रीन्द्रि याश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रिया इत्येते त्रसा भवन्ति । संसारिणस्त्रसाः स्थावरा इत्युक्ते एतदुक्तं भवति मुक्ता नैव सा नैव स्थावरा इति ॥ विशेषव्याख्या - तेजः कायिक अङ्गारादि, वायुकायिक उत्कलिकादि, तथा द्वीन्द्रियदि अर्थात् दो इन्द्रियवाले, तीन इन्द्रियवाले, चार इन्द्रियवाले और पांच इन्द्रियवाले; ये सब सजीव कहे जाते हैं । " संसारिणस्त्र सस्थावराः" अर्थात् संसारीजीव त्रस तथा स्थावर हैं, ऐसा कहने से यह फलित हुआ कि मुक्तजीव न तो त्रस हैं, और न स्थावर हैं ॥ १४ ॥ पञ्चेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥ सूत्रार्थः - इन्द्रियां पांच हैं । भाष्यम् – पञ्चेन्द्रियाणि भवन्ति । आरम्भो नियमार्थः षडादिप्रतिषेधार्थश्च । इन्द्रियं । इन्द्रलिङ्गमिन्द्रदिष्टमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिति वा । इन्द्रो जीवः सर्वद्रव्येष्वैश्वर्ययोगाद्विषयेषु वा परमैश्वर्ययोगात् । तस्य लिङ्गमिन्द्रियं लिङ्गनात्सूचनात्प्रदर्शनादुपष्टम्भनाद्व्यञ्जनाच जीवस्य लिङ्गमिन्द्रियम् ॥ विशेषव्याख्या - इस सूत्रका आरंभ नियमकेलिये है, अर्थात् इन्द्रियां पांच ही हैं, न कि छह अथवा चार, इस प्रकार नियम तथा षट् आदि संख्याका निषेध ये दो अर्थ सिद्ध हो गये । इन्द्रलिङ्गम् इन्द्रका लिङ्ग अर्थात् ज्ञापक व बोधक जो है वह इन्द्रिय है, इन्द्रदिष्टम् इन्द्रसे निज २ कार्योंमें आज्ञप्त जो हैं वे इन्द्रिय हैं, इन्द्रदृष्टम् अर्थात् इन्द्रसे अवलोकित, इन्द्रसृष्टम् इन्द्रसे सृष्ट, और इन्द्रजुष्टम् इन्द्र से सेवित । इन्द्र जीवात्माको कहते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्योंमें इसका ऐश्वर्यका सम्बन्ध है, अथवा सब विषयों में ऐश्वर्यका सम्बन्ध है । जीवात्माके सूचनसे, उसके प्रदर्शनसे, उपष्टम्भ करनेसे अथवा व्यक्त करनेसे ये इन्द्रिय हैं ॥ १५ ॥ द्विविधानि ॥ १६ ॥ सूत्रार्थः – इन्द्रियां दो प्रकारकी हैं । For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम्-द्विविधानीन्द्रियाणि भवन्ति । द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि च ॥ तत्र विशेषव्याख्या-द्रव्येन्द्रिय तथा भावेन्द्रिय इन दो भेदोंसे इन्द्रियां दो प्रकारकी हैं ॥ १६ ॥ उनमें,: निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥१७॥ सूत्रार्थ:-निर्वृत्तीन्द्रिय तथा उपकरणेन्द्रिय इस रीतिसे दो प्रकार द्रव्य इन्द्रियके हैं। भाष्यम्-निर्वृत्तीन्द्रियमुपकरणेन्द्रियं च द्विविधं द्रव्येन्द्रियम् । निर्वृत्तिरङ्गोपाङ्गनामनिर्वर्तितानीन्द्रियद्वाराणि कर्मविशेषसंस्कृताः शरीरप्रदेशाः । निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया मूलगुणनिर्वर्तनेत्यर्थः । उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं च । निर्वर्तितस्यानुपघातानुग्रहाभ्यामुपकारीति ॥ विशेषव्याख्या-निवृत्ति तथा उपकरण ये दोनों मिलकर द्रव्येन्द्रिय हैं । यहां पर निर्वृत्ति शब्दका अर्थ रचना है, और वह रचना इस प्रकार है कि अङ्गोपाङ्गनाम कर्मके उदयसे इन्द्रियोंके अवयव होते हैं; और निर्माणकर्मके उदयसे शरीरके प्रदेशोंकी रचना होती है । इस रीतिसे अङ्गोपाङ्गनाम तथा निर्माणकर्म इन दोनों कर्मविशेषोंसे द्रव्येन्द्रियकी रचना होती है । द्रव्येन्द्रियोंकी रचना अङ्गोपाङ्ग तथा निर्माणकर्मके आधीन होती है । तात्पर्य यह कि नेत्र आदि इन्द्रियोंकी बाह्याभ्यन्तर रचनाको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । बाह्य तथा अभ्यन्तर भेदसे उपकरण दो प्रकारका है। यह उपकरण निर्वर्तित (रचित) इन्द्रियोंका अनुपघात और अनुग्रहसे उपकारी होता है । अर्थात् रचित अङ्गोंका किसी प्रकारसे उपघात नहीं होने दे वह बाह्य, और उनको निज२ कार्यों में प्रवृत्त होनेमें जिसका अनुग्रह होता है, वह अभ्यन्तर उपकरण है। जैसे,:आंखका बाह्य उपकरण अक्षि पलक आदि है, अभ्यन्तर आलोकादिका दोषरहित आगमन आदि । इस प्रकार उपकरण सहायक व उपकारी होता है ॥ १७ ॥ लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ॥ १८॥ सूत्रार्थ:-लब्धि तथा उपयोग ये दोनों भावेन्द्रिय हैं। भाष्यम्-लब्धिरुपयोगश्च भावेन्द्रियं भवति । लब्धिर्नाम गतिजात्यादिनामकर्मजनिता तदावरणीयकर्मक्षयोपशमजनिता चेन्द्रियाश्रयकर्मोदयनिर्वृत्ता च जीवस्य भवति । सा पञ्चविधा । तद्यथा । स्पर्शनेन्द्रियलब्धिः रसनेन्द्रियलब्धिः घ्राणेन्द्रियलब्धिः चक्षुरिन्द्रियलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरिति ॥ विशेषव्याख्या-लब्धि वह है, जो जीवके गति तथा जातिआदि कर्मोंसे तथा उनके अर्थात् गतिजात्यादिके आवरण करनेवाले जो कर्म हैं, उनके क्षयोपशमसे और इन्द्रियोंके आश्रयभूत कर्मोके उदयसे उत्पन्न हो । वह जीवकी लब्धि पांच प्रकारकी है; जैसे,—स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि १, रसनेन्द्रिय लब्धि २, घ्राणेन्द्रिय लब्धि ३, चक्षुरिन्द्रिय लब्धि ४, और श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि ५॥ १८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उपयोगः स्पर्शादिषु ॥ १९॥ सूत्रार्थ:-स्पर्श, रसनादिमें उपयोग होता है। भाष्यम्-स्पर्शादिषु मतिज्ञानोपयोग इत्यर्थः । उक्तमेतदुपयोगो लक्षणम् । उपयोगः प्रणिधानमायोगस्तद्भावः परिणाम इत्यर्थः ॥ एषां च सत्यां निर्वृत्तावुपकरणोपयोगौ भवतः । सत्यां च लब्धौ निर्वृत्त्युपकरणोपयोगा भवन्ति । निर्वृत्त्यादीनामेकतराभावे विषयालोचनं न भवति । विशेषव्याख्या स्पर्शादि इन्द्रियोंके विषयमें मतिज्ञानका उपयोग होता है। और यह वार्ता तो पूर्व प्रसङ्गमें कह ही आये हैं, कि उपयोग जीवका लक्षण होता है । उपयोग, प्रणिधान, आयोग, सद्भाव तथा परिणाम ये सब प्रायः एकार्थवाचक हैं। निर्वृत्तिके उपयोग होने पर ही इनके उपकरण तथा उपयोग होते हैं। और लब्धिके होनेपर निवृत्ति, उपकरण, तथा उपयोग होते हैं । और निर्वृत्ति, उपकरण, तथा उपयोग इनमेंसे किसी एकके न होने पर विषयका ज्ञान नहीं होता ॥ १९॥ अत्राह । उक्तं भवता पञ्चेन्द्रियाणीति । तत्कानि तानीन्द्रियाणीत्युच्यते अब यहांपर कहते हैं कि आपने पांच इन्द्रियां तो कहीं, परन्तु वे पांच इन्द्रियां कौन२ हैं ? इसलिये अग्रिमसूत्र कहते हैं स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ॥२०॥ सूत्रार्थ:-स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षुः तथा श्रोत्र ये पांच इन्द्रियां हैं। भाष्यम्-स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रमित्येतानि पञ्चेन्द्रियाणि ॥ विशेषव्याख्या-जिसके द्वारा स्पर्श होता है, अर्थात् जिससे शीतोष्ण तथा मृदु कठोर आदि स्पर्शका ज्ञान होता है, वह स्पर्शन इन्द्रिय है। ऐसे ही जिसके द्वारा मिष्ट तिक्त आदिका ज्ञान होता है, वह रंसन इन्द्रिय है । जिसके द्वारा सुगन्ध दुर्गन्धादिका ज्ञान होता है, वह घाण (नासिका) इन्द्रिय है । जिसके द्वारा श्वेतपीतादि रूपका ज्ञान होता है, वह चक्षुरिन्द्रिय (नेत्र) है । तथा जिसके द्वारा शब्दका ज्ञान होता है, वह श्रोत्र इन्द्रिय है ॥ २० ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तेषामर्थाः ॥ २१॥ सूत्रार्थः-स्पर्श, रस आदि पदार्थ स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके अर्थ (विषय) हैं । भाष्यम्-एतेषामिन्द्रियाणामेते स्पर्शादयोऽर्था भवन्ति यथासङ्ख्यम् ॥ विशेषव्याख्या-स्पर्शन इन्द्रियका अर्थ स्पर्श है, क्योंकि स्पर्शन इन्द्रियके सिवाय और किसी इन्द्रियके द्वारा स्पर्श पदार्थका ज्ञान नहीं होता । रसना इन्द्रियका अर्थ रस, १ किसी २ के मतमें यह मूलसूत्र नहीं है, और कोई २ कहते हैं कि ये मूलसूत्र ही है भाष्य नहीं । For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाध्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । (मिष्ट, तिक्तादि) है । प्राण इन्द्रियका विषय गन्ध है, चक्षुष् इन्द्रियका विषय वर्ण (श्वेतपीतादिरूप) है । और श्रोत्र इन्द्रियका विषय शब्द है ॥ २१ ॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २२॥ सूत्रार्थः-श्रुतज्ञान अनिन्द्रिय अर्थात् मनका विषय है । भाष्यम्-श्रुतज्ञानं द्विविधमनेकद्वादशविधं नोइन्द्रियस्यार्थः । विशेषव्याख्या-दो भेद, अनेक भेद, तथा द्वादशभेद जिस श्रुतज्ञानके कहे हैं, वह अनिन्द्रिय (नोइन्द्रिय) अर्थात् मनका विषय है ॥ २२ ॥ ___ अत्राह । उक्तं भवता पृथिव्यब्वनस्पतितेजोवायवो द्वीन्द्रियादयश्च नव जीवनिकायाः । पञ्चेन्द्रियाणि चेति । तात्कं कस्येन्द्रियमिति । अत्रोच्यते ।। ___ अब कहते हैं कि आपने पृथिवी, अप् , वनस्पति, तेज, वायु और द्वीन्द्रिय आदि अर्थात् पृथिवीसे लेकर वायु पर्यन्त पांच, और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय ये चार इस रीतिसे नव प्रकारके जीवनिकाय कहे और पंचेन्द्रिय भी कहा; सो इनमें किसके कौन २ इन्द्रिय हैं अर्थात् , किस जीवके कितनी और कौन २ इन्द्रियां होती हैं ? इसलिये अग्रिमसूत्र कहते हैं । वायवन्तानामेकम् ॥ २३ ॥ सूत्रार्थः—पृथ्वीसे लेकर वायुपर्यन्त जीवोंके केवल एक ही इन्द्रिय है । भाष्यम्-पृथिव्यादीनां वाय्वन्तानां जीवनिकायानामेकमेवेन्द्रियं सूत्रक्रमप्रामाण्याप्रथमं स्पर्शनमेवेत्यर्थः । विशेषव्याख्या-पृथिवी, अप, तेज, वायु और वनस्पति इन पांचों जीवसमूहोंको एक ही इन्द्रिय है; और वह भी सूत्रक्रमप्रामाण्यसे प्रथम अर्थात् स्पर्शन इन्द्रिय पृथिवीकायिक आदि जीवोंमें हैं ॥ २३ ॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२४॥ सूत्रार्थ:-कृमि, पिपीलिका, भ्रमर तथा मनुष्यादि जीवोंके एक २ इन्द्रिय अधिक है। भाष्यम्-कृम्यादीनां पिपीलिकादीनां भ्रमरादीनां मनुष्यादीनां च यथासङ्ख्यमेकैकवृद्धानीन्द्रियाणि भवन्ति । यथाक्रमं । तद्यथा । कृम्यादीनां अपादिक-तूपुरक-गण्डूपदशङ्ख-शुक्तिका-शम्बूका-जलोका-प्रभृतीनामेकेन्द्रियेभ्यः पृथिव्यादिभ्य एकेन वृद्धे स्पर्शनरसनेन्द्रिये भवतः । ततोऽप्येकेन वृद्धानि पिपीलिका-रोहिणिका-उपचिका-कुन्थु-तुंबुरुक-त्रपुसबीज-कर्पासास्थिका-शतपद्युत्पतक-तृणपत्र-काष्ठहारकप्रभृतीनां त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणानि । ततोऽप्येकेन वृद्धानि भ्रमर-वटर-सारङ्ग-मक्षिका पुत्तिका-दंश-मशक-वृश्चिक-नन्द्यावर्त-कीटपतङ्गादीनां चत्वारि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुषि । शेषाणां च तिर्यग्योनिजानां मत्स्योरगभुजङ्गपक्षि-चतुष्पदानां सर्वेषां च नारकमनुष्यदेवानां पञ्चेन्द्रियाणीति ॥ For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या-कृमि आदि अर्थात् कृमित्व जाति सहित जीवोंकी स्पर्शनसे अधिक एक रसन इन्द्रिय और है । जैसे अपादिक (पादरहित), नपुरक (कृमिविशेष), गण्डूपद (केंचुआ), शंख, शुक्तिका (सीपविशेष ), शम्बूका (घोंघा), जलोका ( जोंक ) आदि कृमियोंके पृथिवी आदिसे एक इन्द्रिय अधिक है । अर्थात् इनको स्पर्शन और रसन ये दो इन्द्रियां हैं । और कृमिआदिसे भी एक अधिक पिपीलिका आदिके हैं । पिपीलिका आदि शब्दसे जैसे,:-रोहिणिका, उपचिका ( दीमक ), कुन्थु, तुंबुरुक, त्रिपुसबीज, कर्पासास्थिका, शतपद्युत्पतक, तृणपत्र, और काष्ठहारक आदि गृहीत हैं। इनके तीन अर्थात् स्पर्शन, रसन, और घ्राण इन्द्रिय है । और उन पिपीलिकादिसे भी भ्रमर, वटर, सारङ्ग, मक्षिका, पुत्तिका, दंश, मशक, वृश्चिक, नन्द्यावर्त, कीट और पतङ्गादिके एक अधिक अर्थात् चार इन्द्रिय स्पर्शन, रसन, घ्राण तथा चक्षु हैं । और उनसे भी अधिक शेष तिर्यग्रयोनिवाले मत्स्य, भुजङ्ग, पक्षी, चतुष्पदपशु और नारक, मनुष्य तथा देव आदिके पांचों इन्द्रियां अर्थात् स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षुः और श्रोत्र होती हैं ॥ २४ ॥ अत्राह । उक्तं भवता द्विविधा जीवाः । समनस्का अमनस्काश्चेति । तत्र के समनस्का इति । अत्रोच्यते-- यहांपर कहते हैं, कि आपने समनस्क तथा अमनस्क भेदसे दो प्रकारके जीव कहे हैं, उनमेंसे समनस्क कौन हैं ? यह बतलानेकेलिये अग्रिमसूत्र कहते हैं संज्ञिनः समनस्काः ॥ २५ ॥ सूत्रार्थ:--संज्ञी जीव समनस्क हैं। भाष्यम्-संप्रधारणसंज्ञायां संज्ञिनो जीवाः समनस्का भवन्ति । सर्वे नारकदेवा गर्भव्युत्क्रान्तयश्च मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाश्च केचित् ॥ ईहोपोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका संप्रधारणसंज्ञा । तां प्रति संज्ञिनो विवक्षिताः । अन्यथा ह्याहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाभिः सर्व एव जीवाः संज्ञिन इति ॥ विशेषव्याख्या-संप्रधारणसंज्ञाके होनेपर जो संज्ञी जीव हैं, वे ही समनस्क हैं । अर्थात् संप्रधारणस्वरूप जो संज्ञा है उस संज्ञाके होनेसे जो संज्ञी (संज्ञा ज्ञान रखनेवाले) हैं, वे ही समनस्क अर्थात् मनसहित हैं । सम्पूर्ण नारक ( नरकके जीव ) देव, गर्भसे बहिर्गत मनुष्य, तथा कोई २ तिर्यग्योनिसे उत्पन्न जीव संज्ञी होनेसे समनस्क हैं । यहांपर ईहा तथा अपोहसे युक्त अर्थात् गहन वा गूढ विषयोंमें कल्पनाशक्तिसे युक्त गुण और दोषके विचारणस्वरूप जो ज्ञानरूपशक्तिविशेष है; वही संप्रधारण रूप संज्ञा है । उसी संज्ञाके प्रति यहां संज्ञीपदसे विवक्षित हैं । अन्यथा आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रहरूप संज्ञाओंसे सब ही जीव संज्ञी हो सक्ते हैं ॥ २५ ॥ . For Personal & Private Use Only www.jainetibrary.org Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२६॥ सूत्रार्थ:-विग्रहगतिमें कर्मयोग होता है। भाष्यम्-विग्रहगतिसमापन्नस्य जीवस्य कर्मकृत एव योगो भवति । कर्मशरीरयोग इत्यर्थः । अन्यत्र तु यथोक्तः कायवाङ्मनोयोग इत्यर्थः ॥ विशेषव्याख्या-विग्रह गतिमें प्राप्त जो जीव हैं, अर्थात् जीव जब एक शरीरसे अन्य शरीरकेलिये गतिमें समापन्न है, तब इसको कर्मकृत ही योग अर्थात् कार्माण सरीर ही योग होता है । और विग्रहगतिसे अन्यत्र तो काय, वाक् और मनका योग होता है ॥ २६॥ अनुश्रेणि गतिः ॥ २७॥ सूत्रार्थ:-जीवोंकी गति श्रेणीके अनुसार होती है। भाष्यम–सर्वा गतिर्जीवानां पुद्गलानां चाकाशप्रदेशानुश्रेणि भवति विश्रेणिर्न भवतीति गतिनियम इति । विशेषव्याख्या-जीव तथा पुद्गलोंकी सम्पूर्ण गति आकाशप्रदेशकी श्रेणीके अनुसार ही होती है । श्रेणीके विरुद्ध नहीं होती । यह गतिका नियम है ॥ २७ ॥ अविग्रहा जीवस्य ॥ २८ ॥ सूत्रार्थ:-जीवकी अविग्रहगति होती है । भाष्यम-सिध्यमानगतिर्जीवस्य नियतमविग्रहा भवतीति । विशेषव्याख्या-जीवकी जो सिध्यमान गति है, वह नियमपूर्वक अविग्रह अर्थात् कुटिलता रहित होती है ॥ २८ ॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुभ्यः ॥ २९॥ सूत्रार्थः-अन्य जातिमें संक्रमण करनेमें संसारी जीवकी गति चार समयके पहिले विग्रहवती तथा अविग्रहा भी होती है। भाष्यम-जात्यन्तरसंक्रान्तौ संसारिणो जीवस्य विग्रहवती चाविग्रहा च गतिर्भवति उपपातक्षेत्रवशात् । तिर्यगूर्वमधश्च प्राक् चतुर्थ्य इति । येषां विग्रहवती तेषां विग्रहाः प्राक चतुर्यो भवन्ति । अविग्रहा एकविग्रहा द्विविग्रहा त्रिविग्रहा इत्येताश्चतुःसमयपराश्चतुर्विधा गतयो भवन्ति । परतो न संभवन्ति । प्रतिघाताभावाद्विग्रहनिमित्ताभावाच । विग्रहो वक्रितं विग्रहोऽवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्तिरित्यनर्थान्तरम् । पुद्गलानामप्येवमेव ॥ विशेषव्याख्या-जिस समय संसारी जीव एक जातिके शरीरको त्यागकर अन्य जातिके शरीर आदिमें संक्रमण करने लगता है, उस समय चतुर्थ समयके पूर्व विग्रहवती गति होती ह । उपपात क्षेत्रके (जन्मस्थानके)वशसे तिर्यक् (तिरछा) उर्द्ध, तथा अधोभागमें गति For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् होती है । “प्राक् चतुर्यः" इसका यह तात्पर्य है कि जिनकी विग्रहवती गति होती है, उनके विग्रहचतुर्थ समयके पूर्व ही होते हैं। अविग्रहा अर्थात् विग्रहशून्य, एकविग्रहा (एक विग्रहवाली ) द्विविग्रहा (दो विग्रहवाली ) तथा त्रिविग्रहा (तीन विग्रहवाली) ये सब 'चतुःसमयपरा' चार प्रकारकी जीवकी गति होती हैं । चतुर्थ समयके आगे विग्रहवती गति नहीं होती। इसके परे उस प्रकारकी गतिका संभव ही नहीं है । क्योंकि आगे प्रतिघातका अभाव है और विग्रहके निमित्तका भी अभाव है । यहांपर विग्रहका अर्थ वक्रित ( टेढा ) है। विग्रह, अवग्रह, श्रेण्यन्तरसंक्रान्ति अर्थात् सरलश्रेणीको त्यागके वक्रश्रेणीसे गमनये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । संसारी जीवोंके समान पुद्गलोंकी भी इसी प्रकारकी गति होती है ॥ २९॥ __ शरीरिणां च जीवानां विग्रहवती चाविग्रहवती च प्रयोगपरिणामवशात् । न तु तत्र विग्रहनियम इति ।। शरीरधारी जीवोंकी विग्रहवती तथा अविग्रहा दोनों प्रकारकी गति प्रयोगके परिणामवशसे होती है; वहांपर विग्रहका नियम नहीं है, किन्तु प्रयोगके परिणामके आधीन है । अत्राह । अथ विग्रहस्य किं परिमाणमिति । अत्रोच्यते । क्षेत्रतो भाज्यम् । कालतस्तु अब कहते हैं कि विग्रहका क्या परिणाम है ? इसपर कहते हैं कि क्षेत्रकी अपेक्षासे भाज्य (प्राप्य ) है । और कालसे तो एकसमयोऽविग्रहः ॥ ३० ॥ सूत्रार्थ:-विग्रहरहित गति एक ही समयमें होती है। भाष्यम्-एकसमयोऽविग्रहो भवति । अविग्रहा गतिरालोकान्तादप्येकेन समयेन भवति । एकविग्रहा द्वाभ्याम् । द्विविग्रहा त्रिभिः । त्रिविग्रहा चतुर्भिरिति । अत्र भङ्गप्ररूपणा कार्येति ॥ विशेषव्याख्या-विग्रहशून्यगति लोकके अन्ततक एक ही समयमें होती है । और जिसमें एक विग्रह हो वह गति दो समयोंसे, जिसमें दो विग्रह हों वह तीन समयोंसे होती है, और जिसमें तीन विग्रह गति हों वह चार समयोंके द्वारा होती है। यहांपर भंगरूपसे निरूपण करना चाहिये । अर्थात् विग्रह रहित तो एक समयसे होती है, और एक आदि विग्रहवाली दो आदि समयोंसे, इत्यादि ॥ ३० ॥ एकं द्वौ वानाहारकः ॥ ३१॥ सूत्रार्थः-एक वा दो समयतक जीव अनाहारक रहता है। भाष्यम्-विग्रहगतिसमापन्नो जीव एकं वा समयं द्वौ वा समयावनाहारको भवति । शेष कालमनुसमयमाहारयति । कथमेकं द्वौ वानाहारको न बहूनीत्यत्र भङ्गप्ररूपणा कार्या ।। विशेषव्याख्या-विग्रह गतिमें संप्राप्त जो जीव है, वह एक अथवा दो समयतक For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । तो अनाहारक रहता है, और शेष कालमें प्रतिसमयमें आहारक होता है । यह अर्थ कैसे हुआ? ऐसी यदि शंका हो तो यहां भी “एक वा दो समयतक तो अनाहारक होता है न कि बहुत समय पर्यन्त" इस प्रकार भंगसे सूत्रार्थकी व्याख्या करनी चाहिये ॥ ३१ ॥ ___ अत्राह । एवमिदानी भवक्षये जीवोऽविग्रहया विग्रहवत्या वा गत्या गतः कथं पुनर्जायत इति अत्रोच्यते । उपपातक्षेत्रं स्वकर्मवशात्प्राप्तः शरीरार्थ पुद्गलग्रहणं करोति । सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्त इति । कायवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानामुपकारः । नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषादिति वक्ष्यामः । तज्जन्म । तच्च त्रिविधम् । तद्यथा___ अब यहांपर 'इस प्रकार जब इस समय एक भवका क्षय हो गया, तब अविग्रह वा विग्रहवती गतिसे यह जीव पुनः कैसे उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर कहते हैं । निज उत्पत्तिके क्षेत्रपर अपने कर्मोंके वशीभूत होकर जब यह जीव प्राप्त होता है, तब अपने शरीरके अर्थ पुद्गलोंको ग्रहण करता है । "कषाय सहित होनेसे कर्मोंके योग्य पुद्गलोंको जीव ग्रहण करता है" काय, वाक्, मन तथा प्राण अपान ये सब जीवोके ऊपर पुद्गलोंके उपकार हैं । तथा नाम है कारण जिसको, ऐसा सर्वत्र योग विशेषसे सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाहमें स्थित आत्माके प्रदेशोंमें अनन्तानन्त है, इत्यादि आगे कहेंगे। यहां कर्मोके योग्य शरीरकी रचनाकेलिये पुद्गलोंका ग्रहण करना जन्म है । वह जन्म तीन प्रकारका है । यथा, - सम्मूछेनग पपाता जन्म ॥ ३२॥ सम्मूर्छनं गर्भ उपपात इत्येतत्रिविधं जन्म । सूत्रार्थः-संमूर्छन, गर्भ, और उपपात ये तीन प्रकारके जन्म हैं ॥ ३२ ॥ सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥ ३३ ॥ सूत्रार्थ:-जीवोंके ये जो तीन प्रकारके जन्म कहे हैं, उनके सचित्त आदि, तथा सचित्तादिके विपक्षी अचित्त आदि, और मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त आदि एक २ योनि होती है। संसारे जीवानामस्य त्रिविधस्य जन्मन एताः सचित्तादयः सप्रतिपक्षा मिश्राश्चैकशो योनयो भवन्ति । तद्यथा । सचित्ता अचित्ता सचित्ताचित्ता शीता उष्णा शीतोष्णा संवृत्ता विवृत्ता संवृत्तविवृत्ता इति । तत्र देवनारकानामचित्ता योनिः । गर्भजन्मनां मिश्रा । त्रिविधान्येषाम् ॥ गर्भजन्मनां देवानां च शीतोष्णा । तैजःकायस्योष्णा । त्रिविधान्येषाम् ॥ नारकैकेन्द्रियदेवानां संवृत्ता । गर्भजन्मनां मिश्रा । विवृत्तान्येषामिति । विशेषव्याख्या--इस संसारमें जीवोंका जो त्रिविध जन्म अभी कहा है, उसके ये अर्थात् सचित्तादि, उनके विरोधी अचित्तादि, तथा मिश्र सचित्ताचित्तादि एक २ योनि होती है ।जैसे; सचित्ता, अचित्ता और सचित्ताचित्ता, तथा शीता, उष्णा और शीतोष्णा, ऐसे ही For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् संवृत्ता, असंवृत्ता अथवा विवृत्ता, और मिश्र अर्थात् संवृत्तविवृत्ता । उनमें देव तथा नारकी जीवोंकी अचित्तायोनि होती है। गर्भसे जन्म होनेवालोंकी मिश्रा होती है। और इनसे जो शेष रहे, उनकी तीनों प्रकारकी योनि होती है । गर्भसे जन्मवाले जीवोंकी तथा देवोंकी शीतोष्णा है । तेजःकायिकवालोंकी उष्णा योनि है । और अन्य जो शेष हैं उनकी त्रिविध योनि है । नारकजीव, एकेन्द्रियजीव, तथा देव इनकी संवृत्ता योनि है । गर्भसे उत्पन्न होनेवालोंकी मिश्रा अर्थात्, संवृतविवृत्ता योनि है, और इनसे जो अन्य हैं उनकी विवृत्ता है ॥ ३३ ॥ जरायवण्डपोतजानां गर्भः ॥ ३४ ॥ सूत्रार्थ:-जरायुज, अंडज और पोतज इनका गर्भरूप जन्म होता है । भाष्यम्-जरायुजानां मनुष्य-गो-महिषाजाविकाश्व-खरोष्ट्र-मृग चमर-वराह-गवय-सिंहव्याघ्रक्ष-द्वीपि-श्व-शृगाल-मार्जारादीनाम् । अण्डजानां सर्प-गोधा-कृकलाश-गृहकोकिलिकामत्स्य-कूर्म-नक्र-शिशुमारादीनां पक्षिणां च लोमपक्षाणां हंस-चाष-शुक-गृध्र श्येन-पारावतकाक-मयूर-मद्गु-बक-बलाकादीनां । पोतजानां शल्लक-हस्ति-श्वाविल्लापक-शश-शारिका-नकुलमूषिकादीनां पक्षिणां च चर्मपक्षाणां जलूका-वल्गुलि-भारण्ड-पक्षिविरालादीनां गर्भो जन्मेति ॥ विशेषव्याख्याः -जरायु अर्थात् मनुष्य, गो, महिष (भैंस), अजा (बकरी), अविक (भेड़), अश्व (घोड़ा), खर (गधा), ऊंट, मृग, चमर, शूकर, गवय (नीलगाय), सिंह, व्याघ्र, भालू, गेंडा, कुत्ता, श्रगाल, और मार्जार (बिल्ली) आदि । अण्डज अर्थात्, सर्प, गोह, कृकलाश (गिर गिठान व छिपकली) गृहकोकिलिका, मत्स्य, कछुआ, मगर, घड़ियाल आदि जलचर । अनेक प्रकारके पक्षी, लोम पक्षवाले, हंस, नीलकण्ठ, गृध्र (गीध), श्येन (बाज), कबूतर, काक, मोर, टिट्टिम, बक, तथा बलाका आदि । तथा पोतज अर्थात् शाही (सेई), हाथी, श्वाविल्लापक, शश सारिका, नकुल, मूषिक, चर्मपक्षवाले पक्षी, जलूका, बल्गुली, तथा भारण्डपक्षी विडालआदिका भी गर्भ ही जन्म है ॥ ३४ ॥ नारकदेवानामुपपातः॥ ३५॥ सूत्रार्थ:-नारक तथा देवोंके उपपात जन्म है ॥ ३५ ॥ भाष्यम्-नारकाणां देवानां चोपपातो जन्मेति । शेषाणां सम्मूछेनम् ॥ ३६॥ सूत्रार्थ:-जरायुज, अंडज, पोतज, नारक तथा देव इनके अतिरिक्त शेष जीवोंका सम्मूर्छन जन्म है। भाष्यम्-जरायवण्डपोतजनारकदेवेभ्यः शेषाणां सम्मूर्छनं जन्म । उभयावधारणं चात्र भवति । जरायुजादीनामेव गर्भः । गर्भ एव जरायुजादीनाम् । नारकदेवानामेवोपपातः । उपपात एव नारकदेवानाम् । शेषाणामेव सम्मूर्छनम् । सम्मूर्छनमेव शेषाणाम् ॥ For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विशेषव्याख्या-इस सूत्रसे दो प्रकारके नियमोंका निश्चय होता है, एक तो यह कि जरायुज आदि जीवोंका ही गर्भ होता है, और दूसरा यह कि गर्भ ही जरायुज आदिका होता है। ऐसे ही नारक देवोंका ही उपपात होता है और उपपात ही नारक देवोंका होता है । तथा जरायुज आदिसे जो शेष रहें, उन्हींका संमूर्छन है अथवा सम्मूर्छन ही उनका होता है ॥ ३६॥ औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥ ३७॥ सूत्रार्थः-औदारिक वैक्रियक आदि पांच प्रकारके शरीर होते हैं। भाष्यम्-औदारिकं वैक्रियं आहारकं तैजसं कार्मणमित्येतानि पञ्च शरीराणि संसारिणां जीवानां भवन्ति । विशेषव्याख्या-संसारी जीवोंके औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, तथा कार्मण ये पांचप्रकारके शरीर होते हैं ॥ ३७॥ तेषां परं परं सूक्ष्मम् ॥ ३८॥ सूत्रार्थः–उनमेंसे आगे २ के सूक्ष्म होते हैं । भाष्यम् तेषामौदारिकादिशरीराणां परं पर सूक्ष्म वेदितव्यम् । तद्यथा । औदारिकाद्वैक्रियं सूक्ष्मम् । वैक्रियादाहारकम् । आहारकात्तैजसम् । तैजसात्कार्मणमिति ॥ विशेषव्याख्या-उन औदारिक आदि पांच शरीरोंमेंसे परं परं अर्थात् आगे २ के पूर्व २ की अपेक्षासे सूक्ष्म जानना चाहिये । जैसे; औदारिककी अपेक्षासे वैक्रियक सूक्ष्म है, वैक्रियककी अपेक्षासे आहारक सूक्ष्म है, आहारकसे तैजस और तैजससे भी कार्मण सूक्ष्म है ॥ ३८ ॥ प्रदेशतोऽसङ्ख्येयगुणं प्राक् तैजसात् ॥ ३९॥ सूत्रार्थ:-और उन औदारिक आदि शरीरोंमें प्रदेशोंकी अपेक्षासे तैजससे पूर्व २ के शरीर असङ्ख्यगुणें हैं। __ भाष्यम्-तेषां शरीराणां परं परमेव प्रदेशतोऽसङ्खयेयगुणं भवति प्राक् तैजसात् । औदारिकशरीरप्रदेशेभ्यो वैक्रियशरीरप्रदेशा अखङ्खयेयगुणाः । वैक्रियशरीरप्रदेशेभ्य आहारकशरीरप्रदेशा असङ्खयेयगुणा इति ।। विशेषव्याख्या-उन पूर्वोक्त शरीरों में प्रदेशकी अपेक्षासे तैजसके पूर्वके तीन शरीर पर पर असंखेयगुणें है । जैसे औदारिक शरीरके प्रदेशोंकी अपेक्षासे वैक्रियक शरीरके प्रदेश असंखेयगुणें हैं। तथा वैक्रियक शरीरके प्रदेशोंकी अपेक्षासे आहारक शरीरके प्रदेश भी असंखेयगुणें हैं ॥ ३९ ॥ अनन्तगुणे परे ॥४०॥ सूत्रार्थ:-आहारकसे परे जो दो शरीर हैं, वे पूर्व २ से अनन्तगुणें हैं । For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-परे द्वे शरीरे तैजसकार्मणे पूर्वतः पूर्वतः प्रदेशार्थतयानन्तगुणे भवतः । आहारकात्तैजसं प्रदेशतोऽनन्तगुणम् । तैजसात्कार्मणमनन्तगुणमिति । विशेषव्याख्या-पूर्व तीन शरीरोंसे परे जो दो शरीर तैजस और कार्मण हैं, वे पूर्व २ प्रदेशोंकी अपेक्षासे अनन्तगुणें प्रदेशवाले हैं । जैसे आहारकके प्रदेशोंकी अपेक्षासे तैजस शरीरके प्रदेश अनन्तगुणें हैं, और तैजस शरीरके प्रदेशोंकी अपेक्षासे कार्मण शरीरके प्रदेश अनन्तगुणें हैं ॥ ४० ॥ अप्रतिघाते ॥४१॥ सूत्रार्थ:-और ये अन्तके दो शरीर अप्रतिघात हैं। भाष्यम्-एते द्वे शरीरे तैजसकार्मणे अन्यत्र लोकान्तात्सर्वत्राप्रतिघाते भवतः । विशेषव्याख्या-पूर्व सूत्रसे परेका सम्बन्ध इसमें भी आता है, इसलिये ये अन्तिम दो शरीर अप्रतिघात अर्थात् प्रतिघातशून्य हैं । तात्पर्य यह कि ये दो तैजस और कार्मण कहीं किसीसे नहीं रुकते, और न ये किसीको रोकते हैं । परन्तु यह व्यवस्था लोकान्त तक है अर्थात् लोकके अन्तपर्यन्त इनकी गति है, लोकान्तके आगे इनका प्रतिघात हो जाता है ॥ ४१ ॥ __ अनादिसम्बन्धे च ॥४२॥ सूत्रार्थः-और इन दोनोंके साथ जीवका अनादि सम्बन्ध भी है। भाष्यम्-ताभ्यां तैजसकार्मणाभ्यामनादिसम्बन्धो जीवस्येत्यनादिसम्बन्ध इति । विशेषव्याख्या-तैजस तथा कार्माण शरीर जो हैं, उन दोनोंके साथ जीवका सम्बन्ध अनादिकालसे चला आता है ॥ ४२ ॥ सर्वस्य ॥४३॥ सूत्रार्थः-तैजस तथा कार्माण ये दो शरीर सम्पूर्ण संसारी जीवोंके होते हैं । भाष्यम्-सर्वस्य चैते तैजसकार्मणे शरीरे संसारिणो जीवस्य भवतः । एके त्वाचार्या नयवादापेक्षं व्याचक्षते । कार्मणमेवैकमनादिसम्बन्धम् । तेनैवैकेन जीवस्यानादिः सम्बन्धो भवतीति । तैजसं तु लब्ध्यपेक्षं भवति । सा च तैजसलब्धिर्न सर्वस्य कस्यचिदेव भवति । क्रोधप्रसादनिमित्तौ शापानुग्रहौ प्रति तेजोनिसर्गशीतरश्मिनिसर्गकरं तथा भ्राजिष्णुप्रभासमुदयच्छायानिर्वर्तकं तैजसं शरीरेषु मणिज्वलनज्योतिष्कविमानवदिति । विशेषव्याख्या-सम्पूर्ण संसारी जीवमात्रका तेजस तथा कार्मण शरीरसे अनादि सम्बन्ध है । यह सूत्रका अर्थ है, किन्तु कोई २ आचार्य नयवादकी अपेक्षासे व्याख्यान करते हैं । वे कहते हैं, कि एक कार्मणका ही अनादि सम्बन्ध है। वही एक शरीर ऐसा है, जिसके साथ जीवका अनादि सम्बन्ध है। और तैजस शरीर तो लब्धिकी अपेक्षा रखता है और वह किसीको ही होता है । क्योंकि तैजसलब्धि जीवमात्रको नहीं होती किसी २ को होती है । तथा क्रोध और प्रसादके (प्रसन्नताके) कारण जो शाप और For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अनुग्रह हैं, उनके प्रति अर्थात् उनकेलिये तेजका उत्पत्तिस्थान और चन्द्रमाके खभावका सम्पादक तथा अति दैदीप्यमान सूर्यकी उदय होती हुई प्रभाकी छायाका उत्पादक शरीरोंमें यह तैजस ऐसे है, जैसे मणियोंसे दैदीप्यमान ज्योतिष्क विमान ॥ ४३ ॥ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्याऽऽचतुभ्यः ॥४४॥ सूत्रार्थः-उन दोनोंको आदिलेके एक कालमें एक जीवके चार शरीर पर्यन्त प्राप्य हैं। भाष्यम्-ते आदिनी एषामिति तदादीनि । तैजसकार्मणे. यावत्संसारभाविनी आदि कृत्वा शेषाणि युगपदेकस्य जीवस्य भाजान्याचतुर्थ्यः । तद्यथा । तैजसकार्मणे वा स्याताम् । तैजसकार्मणौदारिकाणि वा स्युः । तैजसकार्मणवैक्रियाणि वा स्युः । तैजसकामणौदारिकवै. क्रियाणि वा स्युः । तैजसकार्मणौदारिकाहारकाणि वा स्युः ॥ कार्मणमेव वा स्यात् । कार्मणौदारिके वा स्याताम् । कार्मणवैक्रिये वा स्याताम् । कार्मणौदारिकवैक्रियाणि वा स्युः । कार्मणौदारिकाहारकाणि वा स्युः । कार्मणतैजसौदारिकवैक्रियाणि वा स्युः । कार्मणतैजसौदारिकाहारकाणि वा स्युः । न तु कदाचिद्युगपत्पञ्च भवन्ति । नापि वैक्रियाहारके युगपद्भवतः स्वामिविशेषादिति वक्ष्यते ।। विशेषव्याख्या-तैजस तथा कर्माण जिनकी आदिमें हैं, ऐसे शेष शरीर एक कालमें एक जीवके चार तक भाज्य (विकल्प अथवा प्राप्य) हैं । तैजस और कार्माण तो संसारी मात्र सब जीवोंमें होनेवाले हैं, उन्हींको आदि लेकर एक कालमें एक जीवको चार शरीरपर्यन्त विकल्पनीय हैं। जैसे जिसके दो ही शरीरकी योग्यता है, उसके तैजस और कार्माण हो सक्ते हैं । जिसको तीन हो सक्ते हैं, उसके तैजस कार्मण और औदारिक हो सक्ते हैं, अथवा तैजस, कार्मण, और वैक्रियक हो सक्ते हैं । और चारकी योग्यतामें तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रियक हो सक्ते हैं, अथवा तैजस, कार्मण औदारिक और आहारक हो सक्ते हैं । अथवा तैजसके अनादि सम्बन्धताके खंडन पक्षमें एक ही शरीर जब अनादि सम्बन्ध है, तब केवल कार्मण ही एक हो सक्ता है । दो १'तदादीनि भाज्यानि, इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए भाष्यकारने 'ते आदिनी एषाम् , ऐसा समासका विग्रह किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि पूर्व प्रसंगसे प्रस्तुत जो तैजस और कार्मण हैं, वे 'के ते आदिनी, इस द्विवचनान्त पदसे यहां विविक्षित हैं, अतएव उन्हींको मेढीभूत करके "तैजसकार्मणे यावसंसारभाविनी,, ऐसा विवरण किया है। अतएव उन दोनोंको आदिलेके चार शरीरतक एक कालमें एक जीवको विकल्पनीय हैं, और ऊपर कहे हुए पांच विकल्प करना जब तैजस अनादिसम्बन्ध रूपसे एक आचार्यके मतमें खण्डन किया है, तब तो एक जीवको एक कालमें तीन ही हो सक्ते हैं, और 'ते' द्विवचनान्त विग्रहसे आचार्यका यह अभिप्राय है कि आश्रयरूपसे तैजस है, अथवा 'तत् कार्मणं आदि एषां तानि तदादीनि, ऐसी व्याख्या करना और सात विकल्प करना । For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् की सत्तामें कार्मण और औदारिक हो सक्ते हैं, अथवा कार्मण और वैक्रियक हो सक्ते हैं। तथा तीनकी योग्यतामें कार्मण, औदारिक, और वैक्रियक हो सक्ते हैं वा कार्मण, औदारिक और आहारक हो सक्ते हैं । और चारकी योग्यतामें कार्मण, तैजस, औदारिक और वैक्रियक हो सक्ते हैं, अथवा कार्मण, तैजस, औदारिक और आहारक हो सक्ते हैं। परन्तु कदाचित् भी एक कालमें एक ही जीवके पांचों शरीर नहीं होते। और वैक्रियक तथा आहारक भी एक कालमें नहीं होते । क्योंकि वैक्रियक तथा आहारकके स्वामीमें विशेष (भेद) है । यह विषय हम आगे कहेंगे ॥ ४४ ॥ निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४५ ॥ सूत्रार्थ:--अन्तका जो शरीर है, वह उपभोगसे रहित है। भाष्यम्-अन्त्यमिति सूत्रक्रमप्रामाण्यात्कार्मणमाह । तन्निरुपभोगम् । न सुखदुःखे तेनोपभुज्यते न तेन कर्म बध्यते न वेद्यते नापि निर्जीयत इत्यर्थः ॥ शेषाणि तु सोपभोगानि । यस्मात्सुखदुःखे तैरुपभुज्यते कर्म बध्यते वेद्यते निर्जीयते च तस्मात्सोपभोगानीति । विशेषव्याख्या—यहांपर 'अन्त्य, शब्दसे “औदारिकवैक्रियकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि" इस सूत्रके प्रामाण्यसे सबके अन्तमें होनेवाले कार्मण शरीरको आचार्य कहते हैं । इस हेतुसे वह कार्मण शरीर निरुपभोग है, अर्थात उपभोगसे वर्जित है; उसके द्वारा सुख अथवा दुःखका उपभोग नहीं होता। कर्मोंका बन्धन भी कार्मण शरीरसे नहीं होता, कर्मका ज्ञान भी उससे नहीं होता, कर्मोंकी जीर्णता भी उससे नहीं होती । और कार्मणको छोड़के शेष जो औदारिक आदि चार शरीर हैं, वे उपभोगसहित हैं, क्योंकि उनके द्वारा सुख तथा दुःखका उपभोग होता है । कर्मोंका बन्धन होता है, कर्मोंका लाभ वा ज्ञान होता है, तथा कर्मोंकी जीर्णता भी होती है, अर्थात् कर्मोंकी निर्जरा भी शेष शरीरोंसे होती है । इस हेतुसे वे आदिके चार शरीर उपभोग सहित हैं ॥ ४५ ॥ __ अत्राह । एषां पञ्चानामपि शरीराणां सम्मूर्छनादिषु त्रिषु जन्मसु किं व जायत इति । अत्रोच्यते । अब यहांपर कहते हैं कि इन औदारिक आदि पांचों शरीरोंमेंसे संमूर्छन गर्भ तथा उपपात ये जो तीन प्रकारके जन्म कहे हैं, उनमें कौन शरीर कहां अर्थात् किस प्रकारके जन्मसे उत्पन्न होता है ? यहां कहते हैं,: गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् ॥ ४६॥ सूत्रार्थः-आदिका शरीर गर्भ तथा सम्मूर्छन रूप जन्मसे उत्पन्न होता है। भाष्यम्-आद्यमिति सूत्रक्रमप्रामाण्यादौदारिकमाह । तद्गर्भे सम्मूर्छने वा जायते । विशेषव्याख्या-यहां भी सूत्रक्रमके प्रामाण्यसे 'आद्य, शब्दसे आदिमें होनेवाले For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । __५५ औदारिक शरीरको आचार्य कहते हैं, वह आद्य औदारिकशरीर गर्भ और सम्मूर्छनरूप जन्ममें उत्पन्न होता है ॥ ४६॥ वैक्रियमौपपातिकम् ॥ ४७॥ सूत्रार्थः—वैक्रियक शरीर उपपातरूप जन्ममें उत्पन्न होता है । भाष्यम्-वैक्रियशरीरमौपपातिकं भवति । नारकाणां देवानां चेति । विशेषव्याख्या-वैक्रियक शरीर उपपात जो जन्मका तीसरा प्रकार है, उसमें उत्पन्न होता है । और उपपातरूप जन्ममें वैक्रियक शरीर नारक जीव तथा देवोंका होता है । क्योंकि उपपात जन्म नारकी तथा देवोंका होता है, यह पूर्वमें कह चुके हैं ॥ ४७ ॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४८॥ सूत्रार्थः-और वैक्रियक शरीर लब्धि प्रत्यय भी है। भाष्यम्-लब्धिप्रत्ययं च वैक्रियशरीरं भवति । तिर्यग्योनीनां मनुष्याणां चेति । विशेषव्याख्या-वैक्रियक शरीर उपपात स्वरूप जन्मसे होता है, और वह वैक्रियक लब्धि प्रत्यय भी है अर्थात् उसके उत्पन्न होनेमें लब्धि कारण है । और वह लब्धि वैक्रियक, तिर्यग्योनिज तथा मनुष्योंको होती है ॥ ४८ ॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव ॥ ४९॥ सूत्रार्थः–तथा आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और अव्याघाति होता है, और वह चतुर्दशपूर्वके धारियोंके ही होता है । भाष्यम्-शुभमिति शुभद्रव्योपचितं शुभपरिणामं चेत्यर्थः । विशुद्धमिति विशुद्धद्रव्योपचितमसावद्यं चेत्यर्थः । अव्याघातीति आहारकं शरीरं न व्याहन्ति न व्याहन्यते चेत्यर्थः । तचतुर्दशपूर्वधर एव कस्मिंश्चिदर्थे कृच्छेऽत्यन्तसूक्ष्मे सन्देहमापन्नो निश्चयाधिगमार्थे क्षेत्रान्तरितस्य भगवतोऽहंतः पादमूलमौदारिकेण शरीरेणाशक्यगमनं मत्वा लब्धिप्रत्ययमेवोत्पादयति दृष्ट्वा भगवन्तं छिन्नसंशयः पुनरागत्य व्युत्सृजत्यन्तर्मुहूर्तस्य ॥ विशेषव्याख्या-आहारक शरीर शुभ है, अर्थात् शुभ द्रव्यसे वृद्धिको प्राप्त होता है, शुभ द्रव्यका परिणाम है । तथा विशुद्ध है, विशुद्ध द्रव्यसे वृद्धिको प्राप्त होता है, अर्थात् दोष निन्दा आदिसे रहित है । और यह आहारक शरीर अव्याघाति है, अर्थात् न यह किसीका व्याघात करता है और न इसका कोई व्याघात कर सकता है । और यह आहारक चतुर्दशपूर्वधरोंमें ही होता है । जब कोई चतुर्दशपूर्वधर क्लिष्ट तथा सूक्ष्म विषयके सन्देहमें प्राप्त होता है, उस समय उस सूक्ष्म पदार्थके निश्चयकेलिये अन्यक्षेत्रमें निवास करनेवाले भगवत अर्हत्के चरणकमलोंके निकट औदारिक शरीरसे गमन अशक्य है, ऐसा मानकर लब्धिप्रत्यय शरीरको उत्पन्न करता है, अनन्तर भगवान्को देखकर सन्देहरहित होनेसे पुनः निज आश्रममें आकर अन्तर्मुहूर्तमें उस शरीरको त्याग देता है ॥ ४९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् तैजसमपि शरीरं लब्धिप्रत्ययं भवति ॥ तैजस शरीर भी लब्धिप्रत्यय अर्थात् लैब्धिरूप कारणसे होता है । कार्मणमेषां निबन्धमाश्रयो भवति । तत्कर्मत एव भवतीति बन्धे परस्ताद्वक्ष्यति । कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणामादित्यप्रकाशवत् ॥ यथादित्यः स्वमात्मानं प्रकाशयत्यन्यानि च द्रव्याणि न चास्यान्यः प्रकाशकः । एवं कार्मणमात्मनश्च कारणमन्येषां च शरीराणामिति ॥ कार्मण इन शरीरोंका निबन्ध अर्थात् आश्रय होता है, वह कार्मण कर्मसे ही होता है, ऐसा बन्धके विषय में आगे कहेंगे । कर्म जो है वह कार्मणका तथा अन्य शरीरोंका भी सूर्यके प्रकाशके सदृश कारण है । जैसे सूर्य अपना भी प्रकाश करता है और अन्य द्रव्यों का भी । किन्तु सूर्यका प्रकाशक कोई नहीं है । अत्राह । औदारिकमित्येतदादीनां शरीरसंज्ञानां कः पदार्थ इति । अत्रोच्यते । उद्गतारमुदारम् । उत्कटारमुदारम् । उद्गम एव वोदारम् । उपादानात्प्रभृति अनुसमयमुद्गच्छति वर्धते जीर्यते शीर्यते परिणमतीत्युदारम् । उदारमेवौदारिकम् । नैवमन्यानि ॥ यथोद्गमं वा निरतिशेषं ग्राह्यं छेद्यं भेद्यं दाह्यं हार्यमित्युदारणादौदारिकम् । नैवमन्यानि ॥ उदारमत च स्थूलनाम । स्थूलमुद्गतं पुष्टं बृहन्महदित्युदारमेवौदारिकम् । नैवं शेषाणि । तेषां परं सूक्ष्ममित्युक्तम् ॥ 1 परं यहां कहते हैं । औदारिक आदि जो पांचों शरीर हैं, उनमें औदारिक आदि संज्ञाओं का शब्दार्थ क्या है ? इस प्रश्नका उतर कहते हैं कि जो उद्गतार है अथवा जो उत्कटार है, वही उदार है, अर्थात् जो उत्पन्न होकर शीघ्र वृद्धिको प्राप्त हो । अथवा उद्गम (उत्पत्ति ) ही उदार है, अर्थात् जो उपादानकारणसे आरंभ करके प्रतिसमय ( कालके अल्पतम भागमें) उद्गमन करता है, बढता है, जीर्ण होता है, विशीर्ण होता है और परिणामको प्राप्त होता है, वह उदार है और उदारको ही औदारिक कहते हैं । अन्य वैक्रियक आदि वर्धन, जीरण, तथा शीरण परिणमन आदिस्वभाववाले नहीं है । अथवा जैसे; उद्गके अनुसार विदारण आदि भी निरतिशेष ग्रहण करना चाहिये । जैसे, छेद्य, भेद्य, दाह्य तथा हार्य भी यह है; इस हेतुसे उदारण व विदारण शील होनेसे यह औदारिक है । अर्थात् यह शरीर छेदन, भेदन, दहन, आदिके योग्य होनेसे औदारिक है, उस तरह अन्य शरीर नहीं है | और उदार यह स्थूलका भी नाम है, इसलिये स्थूल, उद्गत, पुष्ट, वृहत्, तथा महान् यह सब उदारके ही अर्थको कहते हैं, इस हेतुसे ये सब औदारिक हैं । क्योंकि जो उदार है वही औदारिक है । इस प्रकार स्थूल, पुष्ट, तथा बृहत्, (बड़ा ) आदि अन्य शरीरोंमें नहीं घटते; क्योंकि अन्य शरीरोंके विषय में तो " परं परं सूक्ष्मम् " आगे २ के एक दूसरेसे सूक्ष्म हैं, ऐसा पूर्व प्रसंग में कहा है । 1 १ तपोविशेषसे ऋद्धियोंका प्राप्त होना लब्धि है । For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ५७ वैक्रियमिति । विक्रिया विकारो विकृतिर्विकरणमित्यनन्तरम् । विविधं क्रियते । एक भूत्वानेकं भवति । अनेक भूत्वा एकं भवति । अणु भूत्वा महद्भवति । महच्च भूत्वाणु भवति । एकाकृति भूत्वानेकाकृति भवति । अनेकाकृति भूत्वा एकाकृति भवति । दृश्यं भूत्वादृश्यं भवति । अदृश्यं भूत्वा दृश्यं भवति । भूमिचरं भूत्वा खेचरं भवति । खेचरं भूत्वा भूमिचरं भवति । प्रतिघाति भूत्वाप्रतिघाति भवति । अप्रतिघाति भूत्वा प्रतिघाति भवति । युगपञ्चैतान भावाननुभवति । नैवं शेषाणीति । विक्रियायां भवति विक्रियायां जायते विक्रियायां निवर्त्यते विक्रियैव वा वैक्रियम् ॥ __ वैक्रियक- विक्रिया, विकार, विकृति तथा विकरण ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं। जो विविध प्रकारसे किया जावे वह वैक्रियक है। जैसे; एक होके अनेक हो, अनेक होके एक हो । अणु (अतिसूक्ष्म) होके महान् हो, महान होके अणु हो । एक आकारका होकर अनेकाकार हो, अनेकाकारका होकर एकाकार हो । दृश्य होकर अदृश्य हो, अदृश्य होकर दृश्यरूप हो । थलचर (पृथ्वीपर चलनेवाला) होकर नभचर (आकाशगामी) हो, नभचर होकर थलचर हो । प्रतिघाति (दूसरेसे रुकनेवाला वा दूसरेको रोकनेवाला) होकर अप्रतिघाति हो, तथा अप्रतिघाति होकर प्रतिघाति हो । एक कालमें जो पूर्वोक्त एक, अनेक, अणु तथा महदादि भावोंको अनुभवन करै वह वैक्रियक है । इस प्रकारके शेष शरीर नहीं है, अर्थात् वे विविध और परस्पर विरोधी आकारोंको नहीं धारण कर सक्ते । जो विक्रिया अर्थात् विकारमें हो, जो विक्रियामें उत्पन्न हो, तथा जो विक्रियामें सिद्ध किया जावे, वह वैक्रियक है । अथवा विक्रिया अर्थात् विकार ही वैक्रियक है। आहारकम् । आहियत इति आहार्यम् । आहारकमन्तर्मुहूर्तस्थिति । नैवं शेषाणि ॥ आहारक—आहारक शरीर वह है, जो कि अल्पकालकेलिये प्राप्त किया जावे वा लाया जावे । इसकी व्युत्पत्ति यह है:,-"आन्हियते इति आहार्यम्' अर्थात् आहार्य किंचित् कालकेलिये जो लभ्य वा स्थापनीय, वही आहारक । उस आहारककी स्थिति केवल अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त है । अन्य शरीर ऐसी अल्प स्थितिवाले नहीं है । तेजसो विकारस्तैजसं तेजोमयं तेजःस्वतत्त्वं शापानुग्रहप्रयोजनम् । नैवं शेषाणि । तैजस—तेजका जो विकार है वह तैजस शरीर है, अथवा जो तेजोमय तेजःपूर्ण वा तेजोरूप ही है वह तैजस है । शाप अनुग्रहरूप प्रयोजन तैजसका वास्तविक निजतत्त्व है । और अन्य शरीरोंमें यह शाप तथा अनुग्रह करनेका सामर्थ्य नहीं है, इस हेतुसे तैजस उनसे भिन्न है। कर्मणो विकारः कर्मात्मकं कर्ममयमिति कार्मणम् । नैवं शेषाणि ॥ कार्मण-जो कर्मका विकार है, कर्मस्वरूप है, वा कर्ममय है; वह कार्मण शरीर For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है । इस प्रकार अन्य शरीर नहीं है, अर्थात् कर्मके विकारादि नहीं है, इस कारण अन्यसे इसमें विशेषता है। एभ्य एव चार्थविशेषेभ्यः शरीराणां नानात्वं सिद्धम् । किं चान्यत् । कारणतो विषयतः स्वामितः प्रयोजनतः प्रमाणतः प्रदेशसङ्ख्यातोऽवगाहनतः स्थितितोऽल्पबहुत्वत इत्येतेभ्यश्च नवभ्यो विशेषेभ्यः शरीराणां नानात्वं सिद्धमिति । इन पूर्वोक्त विशेष अर्थोंसे शरीरोंका नानात्व अर्थात् अनेकविधत्व वा अनेकप्रकारत्व सिद्ध हो गया । किंच और यह भी है कि कारणसे, विषयसे, स्वामीसे, प्रयोजनसे, प्रमाणसे, प्रदेशकी संख्याओंसे, अवगाहनसे, स्थितिसे तथा अल्पबहुत्वसे भी शरीरोंका नानात्व सिद्ध हुआ । तात्पर्य यह है कि कारण, विषय और स्वामी नव विशेष अर्थ हैं, जिनसे शरीरोंका नानात्व अनेकत्व सिद्ध होता है । १ इस रीतिसे औदारिक आदि शरीरोंको अन्वर्थसंज्ञक कहके उदार ही औदारिक है, उत्कटार उदार है, इत्यादि अन्वर्थ नाना संज्ञाओंको प्रतिपादन करके अब लक्षण भेदसे एक ही प्रयत्नसे साध्य शरीरोंके नानात्वका उपदेश करते हैं । इन्हीं पूर्वोक्त अर्थविशेषोंसे शरीरोंका नानास अनेक प्रकारत्व इसका तात्पर्य यह है, कि उदार विक्रिया तथा आहार्य आदि जो विशेष अर्थ हैं, उनके लक्षणों तथा स्वरूपोंके भेदसे शरीरोंका नानात्व सिद्ध हुआ। २ किंचान्यत् इसका तात्पर्य यह हैं कि केवल अन्वर्थकी संख्याओंसे ही शरीरोंका भेद नहीं है, किन्तु संख्या आदिसे अन्य भी अतिरिक्त हेतुओंसे भी विशेष है । वे हेतु कारण आदि हैं; उनमें प्रथम कारण है । जैसे औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलोंसे रचित मूर्ति है, और वैक्रियक आदि इसप्रकार स्थूल पुद्गलरूप कारणसे नहीं बने हैं, इसलिये औदारिकमें कारणकृत अन्य शरीरोंसे विशेषता है । क्योंकि “पर २ सूक्ष्म है" ऐसा वचन है । तथा विषयकृत भेद विद्याधरोंके औदारिक शरीरोंकेप्रति नन्दीश्वर द्वीपपर्यन्त औदारिक शरीरका विषय है, और जङ्घाचारण ( ऋद्धि विशेष )के प्रति रुचकवर पर्वतपर्यन्त तिर्यग् लोकमें विषय है, ऊर्ध्व पाण्डुक वनपर्यन्त है । वैक्रियक शरीरका विषय असंखेय द्वीपसमुद्र पर्यन्त है । आहारकका विषय महाविदेह क्षेत्रपर्यन्त है । और तैजस तथा कार्मणका विषय सम्पूर्ण लोक पर्यन्त है। स्वामीके द्वारा भी विशेष है । जैसे औदारिक शरीरके स्वामी तो तिर्यग्योनिवाले जीव तथा मनुष्य हैं । वैक्रियकके देव नारक तथा कोई २ तिर्यक् और मनुष्य भी हैं । आहारकके स्वामी चौदहपूर्वके धारक संयत मनुष्य हैं। और तैजस कार्मणके समस्त संसारी जीव स्वामी हैं । प्रयोजनकृत भी भेद हैं। जैसे आहारक शरीरके धर्म, अधर्म, सुख, दुःख और केवलज्ञानकी प्राप्ति आदि प्रयोजन हैं । वैक्रियकके स्थूल, सूक्ष्म, एकत्व, अनेकत्व और आकाश, तथा भूमि जलादिमें गमन आदि लक्षणरूप अनेक ऐश्वर्यकी प्राप्ति प्रयोजन है । और आहारके सूक्ष्म, व्यवहित देश वा कालके व्यवधानमें रहनेवाले पदार्थ और अति गूढ अर्थोंका ज्ञान प्रयोजन है । तैजसका आहारकका परिपाक तथा शाप देने और अनुग्रह करनेका सामर्थ्य प्रयोजन है । और कार्मणका जन्मान्तरमें गति परिणाम प्रयोजन है । प्रमाणकृत विशेष है । जैसे कुछ अधिक एक सहस्र योजन औदारिकका प्रमाण है। वैक्रियक शरीरका एक लक्ष योजन प्रमाण है । व रनि (बद्धमुष्टिहस्त) मात्र आहारकका प्रमाण है । तथा लोकके विस्तार प्रमाण तैजस और कार्माण हैं । तथा प्रदेशसंख्याकृत भी भेद हैं, जैसे तैजस शरीरके पूर्व औदारिक आदिसे पर २ प्रदेशकी अपेक्षा उत्तर २ के असंख्यात गुणें प्रदेश हैं, यह विषय पूर्व प्रसङ्गमें कहा है । और अवगाहनाकृत भी भेद है, जैसे कुछ अधिक एक सहस्र योजन पर्यन्त असंख्येय प्रदेशोंमें औदारिक शरीरका भलीभांति अवगाहन (प्रवेश For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अत्राह । आसु चतसृषु संसारगतिषु को लिङ्गनियम इति । अत्रोच्यते । जीवस्यौदयिकेषु भावेषु व्याख्यायमानेषूक्तम् । त्रिविधमेव लिङ्गं स्त्रीलिङ्ग पुंल्लिङ्गं नपुसकलिङ्गमिति ।। तथा चारित्रमोहे नोकषायवेदनीये त्रिविध एव वेदो वक्ष्यते । स्त्रीवेदः पुवेदो नपुंसकवेद इति ॥ तस्मात्रिविधमेव लिङ्गमिति ॥ तत्र___ अब यहां कहते हैं कि संसारकी मनुष्यादि चार गतियोंमें लिङ्गका क्या नियम है ? इसका उत्तर कहते हैं । औदायिक आदि जीवोंके भावोंकी व्याख्यामें कहा है कि स्त्रीलिङ्ग पुल्लिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग भेदसे लिंगके तीन ही भेद हैं। और चारित्रमोहनीय नो कषायोंके विषयमें भी तीन ही प्रकारका वेद कहेंगे । जैसे स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंकवेद । इन कारणोंसे लिंग तीन ही प्रकार है । उसमें--- नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ सूत्रार्थ:-नारकी जीव ओर संमूर्छन जीव नपुंसक ही होते हैं । ___ भाष्यम् -नारकाश्च सर्वे सम्मूर्छिनश्च नपुंसकान्येव भवन्ति । न स्त्रियो न पुमांसः । तेषां हि चारित्रमोहनीयनोकषायवेदनीयाश्रयेषु त्रिषु वेदेषु नपुंसकवेदनीयमेवैकमशुभगतिनामापेक्षं पूर्वबद्धनिकाचितमुदयप्राप्तं भवति नेतरे इति ॥ विशेषव्याख्या-नारक गतिवाले सब जीव और संमूर्छन जन्मवाले नपुंसक ही होते वा पैठ ) है । उन प्रदेशोंसे बहुत अधिक असंखेय प्रदेशमें एक लक्ष योजनपर्यन्त वैक्रियकका अवगाहन है । और औदारिक तथा वैक्रियकसे बहुत न्यून एक हस्तमात्र ही आहारकका अवगाहन है । तथा तैजस और कार्माण लोकान्तमें विस्तृत आकाश श्रेणिपर्यन्त अवगाहन है । तथा स्थितिकृत भी विशेष है। जैसे औदारिककी जघन्य अर्थात् सबसे न्यूनस्थिति अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त है, और उत्कर्ष अर्थात् अधिकसे अधिक ३३ सागर पर्यन्त स्थिति है । तथा अभव्यके सम्बन्धसे तैजस और कार्माणकी प्रवाहके अनुरोधसे अनादि अनन्तकाल स्थिति है । और भव्यके सम्बन्धसे अनादि सान्त है । तथा अल्पबहुत्वकृत भी भेद है । जैसे यदि होनेको संभव हो तो आहारक सबसे न्यून होता है, और कदाचित् नहीं भी संभव होता। इसका कारण क्या है? उसका जघन्य अन्तर अर्थात् विरहकाल एक समय है, और यदि संभव हो तो अधिकसे अधिक छह मास है, इसकारण एकसे आदि लेकर उत्कर्षसे नव सहस्र समय पर्यन्त एक कालमें आहारक शरीरवालोंका उसका अन्तर है। तथा आहारक शरीरसे वैक्रियक शरीर देव नारकियोंके असंखेय होनेसे असंख्येय उत्सर्पिणीके समयोंकी राशिके समान संख्यायुक्त असंख्येय गुण होते हैं । तथा वैक्रियक शरीरकी अपेक्षासे औदारिक शरीर असंखेय गुण होते हैं, और वे तिर्यक् शरीर और मनुष्योंके असंख्येय होनेसे असंख्येय उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीके समयोंकी राशिके समान संख्यावाले असंख्यात होते हैं, कदाचित् ऐसा कहो कि तिर्यक् तो अनन्त हैं, तो अनन्तता होनेपर असंख्येय कैसे हो सक्ते हैं ? उत्तर कहते हैं कि प्रत्येक शरीर तो असंखेय है और साधारण शरीर अनन्त हैं, और उनके अनन्तोंका एक शरीर है; इस हेतुसे असंख्येय हैं । अनन्तोंका प्रत्येक शरीर नहीं है, इस कारण असंख्येय कथन योग्य ही है। औदारिक शरीरोंकी अपेक्षा तैजस कार्मण अनन्त है, क्योंकि वे सब संसारी जीवोंमें प्रत्येकके होते हैं, इस हेतुसे अनन्त हैं । ऐसा नहीं है कि बहुत जीवोंका एक तैजस वा कार्मण होता है । इस रीतिसे कारण आदि नव विशेषोंसे शरीरोंका नानात्व घटपटादि पदार्थों के समान निश्चय करना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हैं, वे न तो स्त्री होते हैं, और न पुरुष होते हैं । क्योंकि उनका चारित्रमोहनीय नोकषाय वेदनीय कर्मोंके आश्रयभूत तीन वेदोंमेंसे अशुभगति नामके सापेक्ष और पूर्वनिबद्ध संचित उदयको प्राप्त नपुंसक वेदनीय ही कर्म होता है, न कि अन्य ॥ ५० ॥ न देवाः ॥५१॥ सूत्रार्थः-देव नपुंसक नहीं होते। __ भाष्यम्-देवाश्चतुर्निकाया अपि नपुंसकानि न भवन्ति । स्त्रियः पुमांसश्च भवन्ति । तेषां हि शुभगतिनामापेक्षे स्त्रीपुंवेदनीये पूर्वबद्धनिकाचिते उदयप्राप्ते द्वे एव भवतो नेतरत् । पारिशेष्याच्च गम्यते जरायवण्डपोतजास्त्रिविधा भवन्ति स्त्रियः पुमांसो नपुंसकानीति ॥ विशेषव्याख्या-चारों निकायवाले देव नपुंसक नहीं होते, स्त्री और पुरुष ही होते हैं । क्योंकि उनके शुभगतिनामकर्म सापेक्ष पूर्व जन्ममें निबद्ध संचितकर्म उदयको प्राप्त स्त्री वेदनीय, तथा पुंवेदनीय ये दो ही होते हैं, न कि अन्य नपुंसक । और नारक संमू छैन वालोंका नपुंसक, देवोंका स्त्री तथा पुंवेदनीय होनेसे शेष अर्थात् जरायुज अण्डज, तथा पोतज जीवोंके त्रिविध वेद वा लिंग होते हैं, अर्थात् इनमें स्त्री पुरुष और नपुंसक तीनों होते हैं ॥ ५१ ॥ ___ अत्राह । चतुर्गतावपि संसारे किं व्यवस्थिता स्थितिरायुष उताकालमृत्युरप्यस्तीति । अत्रोच्यते । द्विविधान्यायूंषि । अपवर्तनीयानि अनपवर्तनीयानि च । अनपवर्तनीयानि पुनर्द्विविधानि । सोपक्रमाणि निरुपक्रमाणि च । अपवर्तनीयानि तु नियतं सोपक्रमाणीति॥ तत्र अब यहांपर कहते हैं कि संसारमें चारों गतियोंमें आयुष् (उमर) की स्थिति व्यवस्थित है, नहीं है अथवा अकाल मृत्यु है ? अर्थात् नियतकाल ही आयुष् है अथवा अकाल मृत्यु भी है ? इस पर उत्तर कहते है, कि आयु दो प्रकारकी होती हैं एक अपवर्तनीय अर्थात् जिनका न्यूनाधिक भाव हो सकै, और दूसरे अनपवर्तनीय अर्थात् जिनके नियतकालकी स्थितिमें कुछ अपवर्तन(न्यूनीकरण वा खंडनादि) न हो सके । पुनः अनपवर्तनीय, सोपक्रम तथा निरुपक्रम भेदसे दो प्रकार हैं । और अपवर्तनीय तो उपक्रमसहित ही सदा होती हैं। उनमेंऔपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासङ्खयेयवर्षायुषोऽनपवायुषः॥५२॥ सूत्रार्थः-औपपातिक अर्थात् उपपात रूप जन्मसे उत्पन्न होनेवाले अन्तिम देहवाले उत्तम पुरुष, तथा असंख्येय वर्ष आयुष्वाले, ये सब अनपवर्त्य आयुष्वाले होते हैं । __ भाष्यम्-औपपातिकाश्चरमदेहा उत्तमपुरुषा असङ्खयेयवर्षायुष इत्येतेऽनपवायुषो भवन्ति । तत्रौपपातिका नारकदेवाश्चेत्युक्तम् । चरमदेहा मनुष्या एव भवन्ति नान्ये । चरमदेहा अन्त्यदेहा इत्यर्थः । ये तेनैव शरीरेण सिध्यन्ति । उत्तमपुरुषास्तीर्थकरचक्रवर्त्यर्धचक्रवर्तिनः । असङ्केयवर्षायुषो मनुष्याः तिर्यग्योनिजाश्च भवन्ति । सदेवकुरूत्तरकुरुषु सान्तर For Personal- & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । द्वीपकास्वकर्मभूमिपु. कर्मभूमिषु च सुषमसुषमायां सुषमायां सुषमदुःषमायामित्यसङ्घयवर्षायुषो मनुष्या भवन्ति । अत्रैव वाह्येषु द्वीपेषु समुद्रेषु तिर्यग्योनिजा असङ्खयेयवर्षायुषो भवन्ति । औपपातिकाश्चासङ्खयेयवर्षायुषश्च निरुपक्रमाः । चरमदेहाः सोपक्रमा निरुपक्रमाश्चेति । एभ्य औपपातिकचरमदेहासङ्खयेयवर्षायुर्व्यः शेषा मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोप क्रमा निरुपक्रमाश्चापवायुषोऽनपवायुषश्च भवन्ति । तत्र येऽपवायुषस्तेषां विषशस्त्रकण्टकाग्न्युदकाह्य शिताजीर्णाशनिप्रपातोद्वन्धनश्वापदवज्रनिर्घातादिभिः क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिभिश्च द्वन्द्वोपक्रमैरायुरपवर्त्यते । अपवर्तनं शीघ्रमन्तर्मुहूर्तात्कर्मफलोपभोगः । उपक्रमोऽपवर्तननिमित्तम् ॥ विशेषव्याख्या-औपपातिक, अर्थात् उपपात संज्ञक जन्ममें उत्पन्न होनेवाले, चरमदेह अर्थात् अन्तिम शरीरवाले, उत्तमपुरुष और असंख्येय वर्ष आयुष्वाले, ये चारों अनपवर्त्य (अपवर्तन न करने योग्य) आयुष्वाले होते हैं, इनमें देव तथा नारक औपपातिक हैं, यह कह चुके हैं । और चरम देहवाले मनुष्य ही होते हैं; अन्य नहीं। जिस शरीरसे सिद्ध होते अर्थात् मोक्षरूपी सिद्धिको प्राप्त करते हैं वह चरम देह है । तीर्थकर चक्रवर्ती, अर्द्धचक्री आदि उत्तम पुरुष हैं । तथा असंखेयवर्ष आयुष्वाले मनुष्य तथा तिर्यच होते हैं । देवकुरु उत्तरकुरुओंमें और अन्तरद्वीपवाली अकर्म भूमियोंमें, तथा सुषमसुषमा, सुषमा और सुषमदुःषमाकालमें कर्मभूमियोंमें भी असंख्येयवर्ष आयुषवाले मनुष्य होते हैं। और इसी काल तथा इन्हीं देशोंमें बाह्यसमुद्र तथा द्वीपोंमें तिर्यग्योनिज जीव भी असंख्येय वर्ष आयुवाले होते हैं । औपपातिक तथा असंख्येयवर्ष आयुष्वाले उपक्रम रहित होते हैं । और चरम देहवाले उपक्रम सहित तथा उपक्रम रहित भी होते हैं। और इन औपपातिक, चरमदेह, और असंखेयवर्ष आयुष्वालोंसे शेष मनुष्य तथा तिर्यग्योनिज जो उपक्रमसहित तथा उपक्रमरहित हैं, वे अपवर्त्य आयुषवाले और अनपवर्त्य आयुष्वाले भी होते हैं । उनमें जो अपवर्त्य आयुष्वाले हैं, उनकी विष, शस्त्र, कंटक, अग्नि, जल, सर्प, अजीर्ण भोजन, वज्रपात, शूली, हिंसक जीव और वज्रादिके अभिघात आदिसे तथा द्वेन्दसे आरंभ होनेवाले क्षुत्, पिपासा, और शीतोष्णादिसे भी आयुष् अपवर्तित (न्यून) होती है । अपवर्तनका, अर्थ है शीघ्र अन्तर्मुहूर्तकालमें ही कर्मोंके फलोंका उपभोग । और उपक्रमका अर्थ है, अपवर्तनका निमित्त ॥ ५२ ॥ १ उत्तम पुरुषसे यहां तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव तथा वासुदेव आदिका ग्रहण है । कोई कहते हैं, कि सूत्रमें उत्तम पुरुषका ग्रहण नहीं है, तो तीर्थकरादिका ग्रहण कैसे होगा? इसपर कहते हैं, कि चरमदेह ग्रहणसे तीर्थकरादिका ग्रहण होगा । क्योंकि चरमशरीरी उत्तम पुरुष अवश्य होते हैं और उत्तम पुरुषोंको चरमदेह प्राप्य है । इस हेतुसे उत्तम पुरुष ग्रहण अनार्ष है । दोनों प्रकारके भाष्य हैं। अनिन्दित होनेसे प्रथम उत्तम पुरुष ग्रहण किया और तीर्थकरादि उसका विवरण किया. और पुनः उत्तर कालमें उत्तम पुरुषका ग्रहण किया, परन्तु निरुपक्रम सोपक्रम कथनसे यह सन्देह भाष्यसे होता है, अतएव उसी भाष्यकारके श्रावकप्रज्ञप्तिमें उत्तम पुरुष ग्रहण किया है, यहां भी यही समझना चाहिये । २ उपद्रव । For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ___ अत्राह । यद्यपवर्तते कर्म तस्मात्कृतनाशः प्रसज्यते यस्मान्न वेद्यते । अथास्त्यायुष्कं कर्म म्रियते च तस्मादकृताभ्यागमः प्रसज्यते । येन सत्यायुष्के म्रियते च ततश्चायुष्कस्य कर्मण आफल्यं प्रसज्यते । अनिष्टं चैतत् । एकभवस्थिति चायुष्कं कर्म न जात्यन्तरानुबन्धि तस्मानापवर्तनमायुषोऽस्तीति । अत्रोच्यते । कृतनाशाकृताभ्यागमाफल्यानि कर्मणो न विद्यन्ते । नाप्यायुष्कस्य जात्यन्तरानुबन्धः । किं तु यथोक्तैरुपक्रमैरभिहतस्य सर्वसन्दोहेनोदयप्राप्तमायुष्कं कर्म शीघ्र पच्यते तदपवर्तनमित्युच्यते । संहतशुष्कतृणराशिदहनवत् । यथा हि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरण दाहो भवति तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति तद्वत् । यथा वा सङ्ख्यानाचार्यः करणलाघवार्थ गुणकारभागहाराभ्यां राशिं छेदादेवापवर्तयति न च सङ्कयेयस्यार्थस्याभावो भवति तद्वदुपक्रमाभिहतो मरणसमुद्धातदुःखार्त्तः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करणविशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मापवर्तयति न चास्य फलाभाव इति ॥ कि चान्यत् । यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतश्चिरेण शोषमुपयाति स एव च वितानितः सर्यरश्मिवाय्वभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति न च संहते तस्मिन्प्रभूतस्नेहागमो नापि वितानितऽकत्नशोषः तद्वद्यथोक्तनिमित्तापवर्तनैः कर्मणः क्षिप्रं फलोपभोगो भवति। न च कृतप्रणाशाकृताभ्यागमाफल्यानि ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसङ्ग्रहे. द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥ यहां कहते हैं कि यदि बद्ध आयुष्कर्म अपवर्तित अर्थात् न्यून वा नष्ट हो जाता है; तब तो कृतका नाश प्राप्त हुआ। क्योंकि उस कर्म अनुभव नहीं होता; और यदि यह कहो कि आयुषनाम कर्म तो रहता है और जीव मर जाता है, तो अकृतका अभ्यागम प्राप्त हुआ । अर्थात् आयुष् कर्मके नष्ट होनेपर तो कृत (किये हुएका) नाश प्राप्त हुआ; और आयुष् कर्मके रहते ही मृत्यु होनेपर अकृत (नहीं कियेका) अभ्यागम (आगमन) सूप दोष प्राप्त हुआ; और ऐसा होना अनिष्ट है । आयुष्कर्म केवल एक ही जन्मपर्यन्त स्थिर रहता है, वह जन्मान्तरके साथ अनुगामी नहीं हैं । इस हेतुसे आयषकर्मका अपवर्तन नही होता । अब यहांपर कहते हैं कि कृतनाश, अकृतका आगमन और फलका अभाव ये कोई भी कर्मके नहीं होते । और न बद्ध आयुष्कर्म अन्यजन्मका सम्बन्धी होता है । किन्तु पूर्वोक्त अपवर्तनके निमित्तभूत विषशस्त्रादि उपक्रमों अर्थात् आरंभोंसे अभिहत (ताडित) जो जीव है उसके सर्व सन्दोहसे अर्थात् समहरूपसे उदयको प्राप्त जो आयुष्कर्म है; उसका शीघ्र ही परिपाक होता है । यही शीघ्र परिपाक आयुष्कर्मका अपवर्तन कहा जाता है । और यह शीघ्र परिपाक ऐसे होता है, जैसे घनीभूत शुष्क तृणराशिका अग्निसे दहन । यदि मिले हुए भी शुष्क तृणकी राशिके यही एक २ अवयव जलें, तो चिरकालमें दाह होता है, परन्तु शिथिलता पूर्वक For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ६३ इधर उधर विखरे हुए और पवनके झकोरोंसे अभिहत एक कालमें अग्निकी ज्वालासे प्रदीप्त उसी तृणराशिका शीघ्र दाह होता है । अथवा जैसे गणितविद्याका आचार्य क्रियाकी लघुताके अर्थ गुणन तथा भागकी क्रियाओंसे किसी गणनीय पदार्थकी राशिको खण्डआदिके द्वारा शीघ्र अपवर्तन (न्यून) करता है, परन्तु उससे संख्येय पदार्थका अभाव नहीं होता; इसी प्रकार विष, शस्त्र आदि उपक्रमोंसे अभिहत और मृत्युके समुद्धातजन्य दुःखोंसे पीडित जीव कर्मनिमित्तक आभोगके अभावके योगपूर्वक किसी करणविशेषको उत्पन्न करके फलके उपभोगके लाघवार्थ कर्मका अपवर्तन करता है; किन्तु इससे इसको फलका अभाव नहीं होता, अर्थात् विषादिपीडाजन्य दुःखोंसे शीघ्र ही उसके आयुष्कर्मका परिपाक हो गया, इससे इसने फलको पा लिया । और यह भी है; जैसे धुला हुआ जलसे आर्द्र (गीला) कपडा यदि तह लगाके वा संकुचित करके गृहमें स्थापित कर दो तो चिरकालमें शुष्क होगा; परन्तु उसी वस्त्रको यदि फैलाके खुले मैदानमें डाल दो, तो सूर्यकी किरण तथा वायुसे ताडित होकर शीघ्र ही शुष्क हो जावेगा । और उस वस्त्रके मिले रहनेपर कुछ अधिक जल नहीं निकलता और न वह फैलानेसे असम्पूर्ण शुष्क होता, किन्तु दोनों दशाओंमें समान ही जल जाता है, केवल चिरकाल और शीघ्र काल मात्रका भेद है। ऐसे ही यथोक्त विष, शस्त्रादि निमित्त भूत अपवर्तनोंसे शीघ्र ही फलोंका उपभोग हो जाता है । इससे आयुष्कर्मका अपवर्तन होनेमें न तो कृतका प्रणाश (कृतकर्मका नाश) है, और न अकृतका आगमन और फलाभाव ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसंग्रहे आचार्योपाधिधारिठाकुरप्रसादशमविरचित भाषाटीकासमलङ्कृतेः द्वितीयोऽध्यायः । अथ तृतीयोऽध्यायः। भाष्यम्-अत्राह । उक्तं भवता । नारका इति गतिं प्रतीत्य जीवस्यौदयिको भावः । तथा जन्मसु नारकदेवानामुपपातः । वक्ष्यति च । स्थितौ नारकाणां च द्वितीयादिषु । आस्रवेषु बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुष इति ॥ तत्र के नारका नाम क चेति । अत्रोच्यते । नरकेषु भवा नारकाः । तत्र नरकप्रसिद्ध्यर्थमिदमुच्यते अब यहां कहते हैं कि हे भगवन् ! आपने औदयिकभावके भेदोंकी गतिमें नरकादि चार भेद विवक्षामें नारकोंको कहा है, तथा जन्मोंके विषयमें देव और नारकोंका उपपात रूप जन्म होता है, यह कहा है । और स्थितिके विषयमें नारक जीवों की स्थिति द्वितीय आदि भूमियोंमें आगे कहेंगे । और आस्रव प्रकरणमें भी कहेंगे, कि बहुत आरम्भ तथा परिग्रह नारकायुष् कर्म बांधता है । इत्यादि अनेक स्थलोंमें नारकोंका For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रतिपादन किया है । इसलिये कृपाकरके कहिये कि नारक कौन हैं ? और उनका निवास कहां है ? अब इसपर कहते हैं कि जो नरकमें हों उनको नारक कहते हैं । उसमें नरककी प्रसिद्धिके अर्थ यह सूत्र कहते हैंरत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमाप्रभाभूमयो घनाम्बुवाता काशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः ॥१॥ सूत्रार्थः-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, और महातमःप्रभा ये सप्त पृथिवी अधो २ भागमें घनवात, अम्बुवात, तनुवात तथा आकाश प्रतिष्ठित हैं। भाष्यम्-रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा महातमःप्रभा इत्येता भूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठा भवन्त्येकैकशः सप्त अधोऽधः । रत्नप्रभाया अधः शर्कराप्रभा । शर्कराप्रभाया अधो वालुकाप्रभा । इत्येवं शेषाः । अम्बुवाताकाशप्रतिष्ठा इति सिद्धे घनग्रहणं क्रियते यथा प्रतीयते घनमेवाम्बु अधः पृथिव्याः । वातास्तु घनास्तनवश्चेति । तदेवं खरपृथिवी पङ्कप्रतिष्ठा पङ्को घनोदधिवलयप्रतिष्ठो घनोदधिवलयं धनवातवलयप्रतिष्ठं घनवातवलयं तनुवातवलयप्रतिष्ठं ततो महातमोभूतमाकाशम् । सर्व चैतत्पृथिव्यादि तनुवातवलयान्तमाकाशप्रतिष्ठम् । आकाशं त्वात्मप्रतिष्ठम् । उक्तमवगाहनमाकाशस्येति । तदनेन क्रमेण लोकानुभावसंनिविष्टा असङ्खधेययोजनकोटीकोट्यो विस्तृताः सप्त भूमयो रवप्रभाद्याः ॥ विशेषव्याख्या-'प्रभाभूमि' शब्द द्वन्द समासके अन्तमें होनेसे उसका शर्कराआदि सबके साथ सम्बध है । जैसे; रत्नप्रभाभूमि, शर्कराप्रभाभूमि वालुकाप्रभाभूमि इत्यादि । ये रत्नप्रभा आदि भूमियां एक एकके अधोभागमें हैं और घनवात, अम्बुवात, तथा आकाश प्रतिष्ठित अर्थात् घनवात, अम्बुवात तनुवात तथा आकाशके आधारपर हैं। सातों अधो अधो भागमें हैं । जैसे प्रथम रत्नप्रभाभूमि है, रत्नप्रभाके अधोभागमें वालुकाप्रभा है, उसके अधो भागमें पङ्कप्रभा है, पङ्कप्रभाके अधोभागमें धूमप्रभा है, धूमप्रभाके अधोभागमें तमःप्रभा और तमःप्रभाके नीचे महातमःप्रभा है। ये सब घनाम्बुवात आकाश प्रतिष्ठ हैं । अब यहां कहते हैं, कि 'अम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः, ऐसे ही सूत्रसे कार्यसिद्ध होता था; पुनः 'घन' ग्रहण क्यों किया? तो घन ग्रहणसे यह निश्चय होता है कि पृथिवीके अधोभागमें घन ही अम्बु है । और वायु तो घन भी है और तनु (सूक्ष्म) भी है । इससे यह सिद्ध हुआ कि खर (शुष्क ) पृथिवी तो पङ्क (कीचड ) पर प्रतिष्ठित है और पङ्क घनोदधिवलय प्रतिष्ठ है। घनोदधिवलय घनवातवलय प्रतिष्ठ ( आधार ) है और घनवातवलय तनुवात (सूक्ष्मवायु) प्रतिष्ठ है, और तनुवातवलयके पश्चात् महातमोभूत ( अन्धकारपूर्ण ) आकाश है । यह सब खर पृथिवी आदिसे लेकर तनुवातवलय पर्यन्त आकाश प्रतिष्ठ है; अर्थात् पृथिवी आदि सब आकाशके आधारपर हैं । और For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्यतत्त्वार्थाधिपम् । ६५ आकाश आत्मप्रतिष्ठ है, अर्थात् आकाशका आधार आकाश ही है । क्योंकि ऐसा कहा भी है – “अवगाहन देना आकाशका उपकार हैं" अर्थात् सब द्रव्योंको रहनेका स्थान देना यह आकाशका सबपर उपकार है । सो पूर्वोक्त क्रमसे लोकके अनुभावसे संनिविष्ट (क्रमसे स्थित ) असंख्येययोजन कोटि कोटि विस्तृत रत्नप्रभा आदि सप्त भूमि हैं । सप्तग्रहणं नियमार्थं रत्नप्रभाद्या माभूवन्नेकशो ह्यनियतसङ्ख्या इति । किं चान्यत् । अधः सप्तैवेत्यवधार्यते । ऊर्ध्वं त्वेकैवेति वक्ष्यते । अपि च तन्त्रान्तरीया असङ्ख्येयेषु लोक1 धातुष्वसङ्घयेयाः पृथिवीप्रस्तारा इत्यध्यवसिताः । तत्प्रतिषेधार्थं च सप्तग्रहणमिति ॥ “रत्नप्रभा" - इत्यादि सूत्र में जो 'सप्त' ग्रहण है वह नियमार्थक है; अर्थात् रत्नप्रभा आदिभूमि अनियत संख्यावालीं अनेक नहीं हैं, और दूसरी बात यह भी है कि अधोभागमें सात ही पृथिवी हैं और ऊपर एक ही है, ऐसा आगे कहेंगे । और अन्यतंत्र के अनुयायी अर्थात् अन्यमतावलम्बियोंने ऐसा निश्चय किया है कि, असंख्येय लोकधातुओंमें असंख्येय पृथिवी प्रस्तार भी स्थित हैं, उसके निषेध करनेकेलिये भी सूत्र में 'सप्त' ग्रहण है । सर्वाश्चैता अधोऽधः पृथुतराः छत्रातिच्छत्रसंस्थिताः । धर्मा वंशा शैलाञ्जनारिष्टा माधव्या माधवीति चासां नामधेयानि यथासङ्ख्यमेवं भवन्ति । रत्नप्रभा घनभावेनाशीतं योजनशतसहस्रं शेषा द्वात्रिंशदष्टाविंशतिविंशत्यष्टादशषोडशाष्टाधिकमिति । सर्वे घनोदधयो विंशतियोजनसहस्राणि । घनवाततनुवातास्त्वसङ्घयेयानि अधोऽधस्तु घनतरा विशेषेणेति ॥ और ये सब पृथिवी अधो अधो भागमें पृथुतर हैं अर्थात् छत्र अतिच्छत्रवत् अधिक २ विशाल होती गई हैं । तथा धर्मा १, वंशा २, शैला ३, अंजना ४, अरिष्टा ५, माधव्या ६, और माधवी ७ ये इनके यथासंख्य नाम हैं । रत्नप्रभा पृथिवी घनभावसे तो अस्सीलाख योजन है और शेष पृथिवीं क्रमसे बत्तीस, अट्ठाईस, वीस, अठारह, सोलह, और कुछ अधिक आठलाख योजन घनभावसे हैं । सब घनोदधि वीस योजन सहस्र हैं । और घनवात तथा तनुवात तो असंख्येय योजन हैं; और अधो अधोभागमें विशेषरूपसे घर हैं ॥ १ ॥ तासु नरकाः ॥ २ ॥ सूत्रार्थ::- उन रत्नप्रभादि भूमियोंमें नरक हैं । भाष्यम् – तासु रत्नप्रभाद्यासु भूषूर्ध्वमधश्चैकशो योजनसहस्रमेकैकं वर्जयित्वा मध्ये न - का भवन्ति । तद्यथा । उष्ट्रिकापिष्टपचनीलोही करकेन्द्र जानुकाजन्तोकायस्कुम्भायः कोष्ठादिसंस्थाना वज्रतलाः सीमन्तकोपक्रान्ता रौरवोच्युतो रौद्रो हाहारवो घातनः शोचन - स्तापनः क्रन्दनो विलपनश्छेदनो भेदनः खटाखटः कालपिञ्जर इत्येवमाद्या अशुभनामान: कालमहाकालरौरवमहारौरवाप्रतिष्ठानपर्यन्ताः । रत्नप्रभायां नरकाणां प्रस्तारास्त्रयोदश । द्विब्यूनाः शेषासु ॥ रत्नप्रभायां नरकवासानां त्रिंशच्छतसहस्राणि । शेषासु पञ्चविंशतिः For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पञ्चदश दश त्रीण्येकं पञ्चोनं नरकशतसहस्रमित्याषष्ठयाः । सप्तम्यां तु पञ्चैव महानरका इति ॥ विशेषव्याख्या—पूर्वोक्त रत्नप्रभादि भूमियोमें ऊपर और नीचे एकशः सहस्र २ योजन छोड़के मध्य २ में नरक हैं । जैसे; उष्ट्रिका, पिष्टपचनी, लोहीकर, केन्द्रजानुका, जन्तोक, आयस्कुम्भ, तथा अयःकोष्ठादि यंत्रोंके आकारसे रचित, वज्रतलवाले, सीमन्तक नाम नरक पर्यन्त रौरव, अच्युत, रौद्र, हाहारव, घातन, शोचन (शोधन वा पाचन) तापन, क्रन्दन, विलपन, छेदन, भेदन, खटाखट, और कालपिंजर इत्यादि अशुभ नामवाले काल, महाकाल, रौरव, तथा महारौरव अप्रतिष्ठान पर्यन्त हैं । रत्नप्रभा भूमिमें नरकोंके त्रयोदश अर्थात् तेरह प्रस्तार हैं। और शेष छै भूमियोंमें दो २ प्रस्तार कम होते गये हैं; अर्थात् शर्करा प्रभामें ग्यारह प्रस्तार, वालुका प्रभामें नौ, पङ्कप्रभामें सात, धूमप्रभामें पांच, तमःप्रभामें तीन, और महातमःप्रभामें एक ही प्रस्तार है । पुनः उनमेंसे रत्नप्रभाभूमिमें नरकके निवासस्थान तीस लाख हैं। और शेषमें पच्चीस, पन्द्रह, दश, तीन, पांचकम एक लाख, इस प्रकार छट्ठी भूमिपर्यन्त हैं, और सप्तमीमें केवल पांच ही नरकके आवास हैं । तात्पर्य यह है, कि रत्नप्रभामें तीसलाख नरकावास हैं, शर्कराप्रभामें पच्चीस लाख, वालुकाप्रभामें पन्द्रहलाख, पंकप्रभा दशलाख, धूमप्रभामें तीनलाख, और तमप्रभाग पांचकम एकलाख (९९९९५) और सातवीं महातमःप्रभामें केवल पांच ही हैं । सब मिलकर चौरासी लाख हैं ॥ २ ॥ नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥३॥ सूत्रार्थः-वे नरकावास अधो अधो भागमें नित्य ही अधिक अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम, अशुभतर देहोंकी पीडा, और अशुभतर विक्रियायुक्त होते हैं । भाष्यम् –ते नरका भूमिक्रमेणाधोऽधो निर्माणतोऽशुभतराः । अशुभा रत्नप्रभायां ततो. ऽशुभतराः शर्कराप्रभायां ततोऽप्यशुभतरा वालुकाप्रभायाम् । इत्येवमासप्तम्याः ॥ विशेषव्याख्या-वे नरकभूमि क्रमसे अधो अधो भागमें निर्माणकी रीतिसे अशुभतर हैं। तात्पर्य यह कि रत्नप्रभामें नरक अशुभ हैं, उससे अशुभतर शर्कराप्रभामें हैं, उससे भी अशुभतर वालुकाप्रभामें हैं, और उससे भी अशुभतर पङ्कप्रभामें हैं । इसीप्रकार और आगे सप्तमी अर्थात् महातमःप्रभातक जानने चाहिये। नित्यग्रहणं गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गकर्मनियमादेते लेश्यादयो भावा नरकगतौ नरकपञ्चेन्द्रियजातौ च नैरन्तर्येणाभवक्षयोद्वर्तनाद्भवन्ति न कदाचिदक्षिनिमेषमात्रमपि न भवन्ति शुभा वा भवन्त्यतो नित्या इत्युच्यन्ते ॥ “नित्याशुभतरलेश्या-" इत्यादि ऊपरके सूत्रमें 'नित्य' ग्रहण इस कारण है, कि गति (नरकगति), जाति (नारकी), शरीर (नारकशरीर), और अङ्गोपाङ्ग कर्मोंके नियमसे For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ये लेश्या आदि भाव नरकगतिमें तथा नरकके पंचेन्द्रियजातमें उस भवके क्षय पर्यन्त उद्वर्तनसे निरन्तर होते हैं, एक निमेषमात्रकेलिये भी उनका अभाव नहीं होता । और न वे कदाचित् शुभ होते हैं; इसी हेतुसे उनको नित्य कहते हैं। ___ अशुभतरलेश्याः । कापोतलेश्या रत्नप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कापोता शर्कराप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कापोतनीला वालुकाप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना नीला पङ्कप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना नीलकृष्णा धूमप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कृष्णा तमःप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कृष्णैव महातमःप्रभायामिति ॥ अशुभतरलेश्या-जैसे रत्नप्रभाग कापोतलेश्या होती है, और उससे भी अति तीव्र केश परिणामवाली कापोता शर्करा प्रभामें होती है । उससे भी तीव्रतर क्लेश परिणामवाली कापोतनीलालेश्या वालुकाप्रभामें होती है। उससे भी अति तीव्र क्लेश देनेवाली नीलालेश्या पङ्कप्रभामें होती है । उससे भी अति तीव्र क्लेश देनेवाली नीलकृष्णालेश्या धूमप्रभामें होती है। उससेभी अति तीव्र क्लेश देनेवाली कृष्णालेश्या तमःप्रभामें होती है; और सबसे अधिक क्लेशजनिका कृष्णालेश्या ही महातमःप्रभामें होती है । अशुभतरपरिणामः । बन्धनगतिसंस्थानभेदवर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघुशब्दाख्यो दशविधोऽशुभः पुद्गलपरिणामो नरकेषु । अशुभतरश्चाधोऽधः । तिर्यगूर्ध्वमधश्च सर्वतोऽनन्तेन भयानकेन नित्योत्तमकेन तमसा नित्यान्धकाराः श्लेष्ममूत्रपुरीषस्रोतोमलरुधिरवसामेदपूयानुलेपनतलाः श्मशानमिव पूतिमांसके शास्थिचर्मदन्तनखास्तीर्णभूमयः। श्वशृगालमार्जारनकुलसर्पमूषकहस्त्यश्वगोमानुषशवकोष्ठाशुभतरगन्धाः । हा मातर्धिगहो कष्टं बत मुञ्च तावद्धावत प्रसीद भर्तर्मा वधीः कृपणकमित्यनुबद्धरुदितैस्तीबकरुणैर्दीनविक्लवैर्विलापैरातस्वनैर्निनादैर्दीनकृपणकरुणैर्याचितैर्बाष्पसंनिरुद्धौर्नस्तनितैर्गाढवेदनैः कूजितैः सन्तापोष्णैश्च निश्वासैरनुपरतभयस्वनाः ॥ __ अशुभतरपरिणाम-बन्धन, गति, संस्थान (रचनाविशेष) भेद, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु और शब्द नामक दश प्रकारके अशुभ पुद्गल परिणाम नरकोंमें हैं। ये परिणाम नरककी भूमियोंके अधो २ भागोंमें अधिक २ अशुभतर हैं । तिरछे नीचे, ऊपर, और चारों ओरसे अनन्त, भयानक, नित्य तथा उत्तम अर्थात् प्रथम श्रेणीके अन्धकारसे निरन्तर अन्धकारमय, श्लेष्म (नाक तथा मुखसे गिरनेवाला कफ) मूत्र, तथा विष्टाओंके श्रोतसे अर्थात् प्रवाहसे, तथा मल, रुधिर, चर्वी तथा पीबसे लिप्त तल सहित, और स्मशानभूमिके समान अति दुर्गन्धयुक्त सड़ेमांस, केश, अस्थि ( हड्डियां ) चर्म, दांत और नखोंसे ढंकी हुई नरककी भूमियां हैं। तथा कुत्ते, शृगाल (गीदड), मार्जार (बिल्ली ), नकुल (नेवला ) सर्प, मूषक, हाथी, घोडे, गौ और मनुष्य इनके मृतकोंसे पूर्ण अतएव अशुभतर गन्धयुक्त वे नरक For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् स्थान हैं । तथा हा मातः! धिक्कार है ( मुझे )! अहो अतिकष्ट है! खेद है! मुझे छोड़ दो ! दोड़ो प्रसन्न होकर मुझे छुड़ा दो! हे स्वामिन् ! मुझ दीनको न मारो !! निरन्तर इस प्रकार रोदनोंसे, अति तीव्र करुणाजनक दीन आकुल भावोंसे, महाविलापोंसे, आर्तस्वरयुक्त शब्दोंसे, दीन कृपण और करुणाजनक याचनाओंसे, आँसुओंसे सन्निरुद्ध गर्जनाओंसे, महावेदनाओंसे कूजित शब्दोंसे, तथा सन्तापोंसे अति उष्ण श्वासोच्छासोंसे, और निरन्तर भययुक्त शब्दोंसे पूर्ण वे नरक भूमि हैं। __ अशुभतरदेहाः । देहाः शरीराणि । अशुभनामप्रत्ययादशुभान्यङ्गोपाङ्गनिर्माणसंस्थानस्पर्शरसगन्धवर्णस्वराणि । हुण्डानि निळूनाण्डजशरीराकृतीनि क्रूरकरुणबीभत्सप्रतिभयदर्शनानि दुःखभाज्यशुचीनि च तेषु शरीराणि भवन्ति । अतोऽशुभतराणि चाधोऽधः । सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षडङ्गुलमिति शरीरोच्छ्रायो नारकाणां रत्नप्रभायाम् । द्विद्धिः शेषासु । स्थितिवच्चोत्कृष्टजघन्यता वेदितव्या ॥ . अशुभतरदेह-देह अर्थात् शरीर, अशुभ नाम कर्मके कारणसे अशुभ अङ्गोपाङ्गरचना, संस्थान (अवयवोंकी स्थिति ) और अशुभ ही स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण स्वर सहित तथा हुंडक, छिन्न अण्डज शरीराकार, तथा क्रूर, करुणा, बीभत्स (घृणाजनक ), दर्शनसे भयकारक, दुःखभागी और अपवित्र शरीर उन नरकोंमें होते हैं। इस हेतुसे अधो २ (नीचे २) की भूमियोंमें अशुभतर ही शरीर होते हैं । रत्नप्रभा भूमिमें नारक जीवोंके शरीरकी उंचाई सातधनुष् तीनहाथ और छह अंगुल होती है । और शेष पृथिवी भागोंमें दूनी २ बढ़ती जाती है । और स्थितिके समान इनकी भी उत्कृष्टता जघन्यता जाननी चाहिये । अशुभतरवेदनाः । अशुभतराश्च वेदना भवन्ति नरकेष्वधोऽधः । तद्यथा । उष्णवेदनास्तीजास्तीव्रतरास्तीव्रतमाश्चातृतीयायाः । उष्णशीते चतुर्थ्याम् । शीतोष्णे पञ्चम्याम् । परयोः शीताः शीततराश्चेति । तद्यथा । प्रथमशरत्काले चरमनिदाघे वा पित्तव्याधिप्रको. पाभिभूतशरीरस्य सर्वतो दीप्ताग्निराशिपरिवृतस्य व्यभ्रे नभसि मध्याह्ने निवातेऽतिरस्कृतातपस्य यादृगुष्णजं दुःखं भवति ततोऽनन्तगुणं प्रकृष्टं कष्टमुष्णवेदनेषु नरकेषु भवति । पौषमाघयोश्च मासयोस्तुषारलिप्तगात्रस्य रात्रौ हृदयकरचरणाधरौष्ठदशनायासिनि प्रतिसमयप्रवृद्धे शीतमारुते निरन्याश्रयप्रावरणस्य यादृक्शीतसमुद्भवं दुःखमशुभं भवति ततोऽनन्तगुणं प्रकृष्टं कष्टं शीतवेदनेषु नरकेषु भवति । यदि किलोष्णवेदनान्नरकादुत्क्षिप्य नारकः सुमहत्यङ्गारराशावुद्दीप्ते प्रक्षिप्येत स किल सुशीतां मृदुमारुतं शीतलां छायामिव प्राप्तः सुखमनुपमं विन्द्यान्निद्रां चोपलभेत एवं कष्टतरं नारकमुष्णमाचक्षते । तथा किल यदि शीतवेदनान्नरकादुत्क्षिप्य नारकः कश्चिदाकाशे माघमासे निशि प्रवाते महति तुषारराशौ प्रक्षिप्येत सदन्तशब्दोत्तमकरप्रकम्पायासकरेऽपि तत्र सुखं विन्द्यादनुपमा निद्रां चोपलभेत एवं कष्टतरं नारकं शीतदुःखमाचक्षत इति । १ यहां नरकभूमि इसका अध्याहार है । इस प्रकारके अपार क्लेश नरकभूमियोंमें होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अशुभतरवेदना-नरकोंमें वेदना अर्थात् पीड़ा भी अधो २ भागमें अशुभतर होती जाती है । जैसे; तृतीयभूमि पर्यन्त उष्णवेदना तीव्र, तीव्रतर तथा तीव्रतम होती हैं । और चतुर्थ भूमिमें उष्ण तथा शीत दोनों वेदना होती हैं । पंचमी भूमिमें शीतोष्ण वेदना होती हैं । और आगेकी दो भूमियोंमें अर्थात् षष्ठी और सप्तमीभूमिमें शीत और शीततर वेदना होती हैं । प्रथम शरत्कालमें अथवा अन्तिम निदाघ (ग्रीष्म ) में पित्तकी व्याधिके प्रकोपसे ग्रसित शरीर, तथा चारों ओरसे प्रदीप्त अग्निकी राशिसे वेष्टित तथा मेघरहित आकाशमें मध्यान्हके समयमें आतप (धूप) के निवारणसे शून्य अर्थात् छायाशून्य निरावरण स्थानमें प्राप्त जीवको उष्णतासे उत्पन्न जैसा दुःख होता है, उससे अनन्तगुण अधिक कष्ट उष्णवेदनायुक्त नरकोंमें होता है । तथा पौष और माघके मासोंमें तुषार ( वर्फ ) से लिप्त शरीरवाले, और रात्रिमें हृदय, हस्त, चरण, अधर ओष्ट और दांतोंके खटखटानेवाले प्रतिक्षण शीतकालके पवनके बढनेपर अग्निके आश्रय तथा वस्त्रसे रहित मनुष्यको शीतसे उत्पन्न दुःख जैसा अशुभ होता है, उससे भी अनन्त गुण कष्ट शीतवेदनासहित नरकोंमें होता है । तथा नरककी उष्णतामें इतना कष्ट होता है कि, यदि उष्णवेदनावाले नरकसे नारक जीवको निकालकर अति प्रदीप्त बड़ी भारी अङ्गारकी राशिमें फेंक दें, तो वह मन्द पवनसे अति शीतल छायामें प्राप्तके समान अनुपम सुखको अनुभवन करेगा और निद्रायुक्त भी हो जावेगा । इस प्रकारकी उष्णता नरककी वर्णन की जाती है । ऐसे ही यदि शीतवेदनावाले नरकसे नारकजीवको निकालकर कोई रात्रिके समय माघ मासमें आकाशमें तुषारकी राशिपर फेंक दें, तो यद्यपि वह तुषार राशि दांतोंको खटखटानेवाली तथा शरीरकम्पा आदिका हेतु है; तथापि वहां पर वह नारकजीव सुखको अनुभवन करैगा और अनुपनिद्राको भी प्राप्त होगा। इसप्रकार अति कष्टदायक नरकके शीतजनित दुःखको वर्णन करते हैं । अशुभतरविक्रियाः । अशुभतराश्च विक्रिया नरकेषु नारकाणां भवन्ति । शुभं करिष्याम इत्यशुभतरमेव विकुर्वते । दुःखाभिभूतमनसश्च दुःखप्रतीकारं चिकीर्षवो गरीयस एव ते दुःखहेतून्विकुर्वत इति ॥ __ अशुभतरविक्रिया-नरकोंमें नारकजीवोंकी विक्रिया अशुभतर होती है । शुभकरेंगे ऐसे विचारयुक्त होने पर भी अशुभतर ही विकारको प्राप्त होते हैं । तथा दुःखोंसे अति ग्रस्तचित्त होकर दुःखोंके प्रतीकार अर्थात् मेटनेके उपाय करनेकी इच्छा करते हुए भी महान् दुःखोंहीको उत्पन्न करते हैं ॥ ३ ॥ परस्परोदीरितदुःखाः ॥४॥ सूत्रार्थः-नरकके जीव परस्पर एक दूसरेको दुःख उत्पन्न करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-परस्परोदीरितानि दुःखानि नरकेषु नारकाणां भवन्ति । क्षेत्रस्वभावजनिताचाशुभात्पुद्गलपरिणामादित्यर्थः ॥ विशेषव्याख्या-नरकके जीवोंको नरकमें परस्पर उदीरित दुःख होते हैं अर्थात् क्षेत्रके स्वभावसे तथा अशुभ पुद्गलपरिणामके कारण वे नारकी अन्योन्य एक दूसरेको दुःख ही उत्पन्न करते हैं। तत्र क्षेत्रस्वभावजनितपुद्गलपरिणामः शीतोष्णक्षुत्पिपासादिः। शीतोष्णे व्याख्याते क्षुत्पिपासे वक्ष्यामः । अनुपरतशुष्कन्धनोपादानेनैवाग्निना तीक्ष्णेन प्रततेन क्षुदग्निना दन्दह्यमानशरीरा अनुसमयमाहरयन्ति ते सर्वे पुद्गलानप्यास्तीव्रया च नित्यानुषक्तया पिपासया शुष्ककण्ठौष्ठतालुजिह्वाः सर्वोदधीनपि पिबेयुर्न च तृप्तिं समाप्नुयुर्वर्धयातामेव चैषां क्षुत्तृष्णे इत्येवमादीनि क्षेत्रप्रत्ययानि ॥ ___ वहां क्षेत्रके स्वभावसे उत्पन्न पुद्गलोंके परिणाम शीत, उष्ण, क्षुत् ( भूख ) तथा पिपासा आदि हैं । शीत तथा उष्णाका व्याख्यान तो कर चुके हैं; अब क्षुत् तथा पिपासा कहते हैं। निरन्तर शुष्क ईधनसे अति प्रज्वलित विस्तृत अग्निके तुल्य अति तीक्ष्ण और चारोंओरसे व्याप्त क्षुधारूप अग्निसे निरन्तर दन्दह्यमान् अर्थात् जलते हुए शरीरवाले, प्रतिक्षण भोजनकी ही इच्छा करते हैं, यदि पावें तो वे सब नारकी जीव पुद्गल अर्थात् मृत्तिका पाषाणादि भी खा जावें; और सदाकी तीव्र पिपासासे जिनके कंठ, ओष्ट, तालु तथा जिव्हादि शुष्क हो गये हैं, ऐसे नरकके जीव यदि पावें तो सम्पूर्ण समुद्रोंको भी पी जावें, तथापि तृप्त न हों ! किन्तु उनकी क्षुधा और पिपासा बढती ही जावे । इस प्रकार क्षेत्र अर्थात् नरकस्थानके कारणसे क्षुधा पिपासा आदि होते हैं। ___ परस्परोदीरितानि च । अपि चोक्तम् । भवप्रत्ययोऽवधि रकदेवानामिति तन्नारकेष्ववधिज्ञानमशुभभवहेतुकं मिथ्यादर्शनयोगाच्च विभङ्गज्ञानं भवति । भावदोषोपघातात्तु तेषां दुःखकारणमेव भवति । तेन हि ते सर्वतः तिर्यगूर्ध्वमधश्च दूरत एवाजलं दुःखहेतून्पश्यन्ति । यथा च काकोलूकमहिनकुलं चोत्पत्त्यैव बद्धवैरं तथा परस्परं प्रति नारकाः । यथा वापूर्वाञ् शुनो दृष्ट्वा श्वानो निर्दयं क्रुध्यन्यन्योन्यं प्रहरन्ति च तथा तेषां नारकाणामवधिविषयेण दूरत एवान्योन्यमालोक्य क्रोधस्तीबानुशयो जायते दुरन्तो भवहेतुकः । ततः प्रागेव दुःखसमुहातार्ताः क्रोधान्यादीपितमनसोऽतर्किता इव श्वानः समुद्धता वैक्रियं भयानकं रूपमास्थाय तत्रैव पृथिवीपरिणामजानि क्षेत्रानुभावजनितानि चायःशूलशिलामुसलमुद्गरकुन्ततोमरासिपट्टिशशक्त्ययोधनखड्गयष्टिपरशुभिण्डिमालादीन्यायुधान्यादाय करचरणदशनैश्चान्योन्यमभिघ्नन्ति । ततः परस्पराभिहता विकृताङ्गा निस्तनन्तो गाढवेदनाः शूनाघातनप्रविष्टा इव महिषसूकरोरभ्राः स्फुरन्तो रुधिरकर्दमे चेष्टन्ते । इत्येवमादीनि परस्परोदीरितानि नरकेषु नारकाणां दुःखानि भवन्तीति । __ परस्परोदीरितदुःख-नारकजीव परस्पर दुःखोंको उत्पन्न करते हैं। पूर्व प्रकरणमें कहा भी है कि, "भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्" अर्थात् "देव तथा नरकके For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । जीवोंको अवधिज्ञान भव ( जन्म ) रूप निमित्तसे ही होता है,, वह अवधिज्ञान नरकके जीवोंको अशुभका ही कारण होता है, और मिथ्यादर्शनके सम्बन्धसे वह ( अवधिज्ञान) विभङ्गज्ञान हो जाता है, अर्थात् क्ववधि ज्ञान हो जाता है । और उनके भावरूप दोषके उपघातसे दुःखका ही कारण वह विभङ्गज्ञान होता है; उस अवधिज्ञानसे वे चारोंओरसे अर्थात् तिर्यक् (तिरछा ) ऊपर नीचे और दूरसे निरन्तर दुःखोके हेतुओंको ही देखते हैं । और जैसे काक और उलूक, नकुल और सर्प उत्पत्तिहीसे बद्धवैर होते हैं । और भी जैसे कुत्ते अन्य अपरिचित कुत्तोंको देखकर निर्दयतापूर्वक क्रोध करते हैं, तथा परस्परदांतोंका प्रहार करते हैं; ऐसे ही नरकके जीव भी अवधिज्ञानसे पूर्वजन्मके वैर आदिको स्मरण करके दूरसे ही एक दूसरेको देखकर दुरन्त (बुरा है अन्त जिसका) तथा संसारके हेतुरूप तीव्र क्रोधयुक्त हो जाते हैं । इसके पश्चात् मिलनेसे पूर्व ही दुःखोंके समुद्धातसे अतिशय पीडित क्रोधरूप अग्निसे जाज्वल्यमान् चित्त, आकस्मिक विना विचारे कुत्तोंके समान समुद्धत होकर वैक्रियक भयानकरूप धारण करके वहां ही पृथिवीके परिणामसे उत्पन्न, अथवा क्षेत्रके प्रभावसे उत्पन्न, लोहमय शूल, शिला, मुशल, मुद्गर, कुन्त (भाला), तोमर (वी अथवा एक प्रकारके भाले), तलवार, असिपट्टिश (पट्टे वा ढाल), शक्ति, लोहके घन, खड्ग, यष्टि (लट्ठ) परशु, तथा बन्दूकादि अस्त्र शस्त्रोंको लेकर तथा कर चरण (घुस्से, लातें) और दांतोंसे परस्पर हनन करते है । तत्पश्चात् परस्पर अत्यन्त ताड़ित होनेसे छिन्न भिन्न शरीर होकर महावेदनासे चिल्लाते हुए पशुबद्ध स्थानमें प्रविष्ट महिष शूकर और भेड़ोंके समान उछलते हुए रुधिरके कीचड़में लोटते हैं । नरकोंमें परस्परसे उत्पन्न (किये हुए) इसी प्रकारके अनेक दुःख नारक जीवोंको होते हैं ॥ ४ ॥ संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥ सूत्रार्थः-नरकके जीवोंको संक्लिष्ट परिणामवाले असुरोंसे उदीरित ( उत्पादित) दुःख भी सहन करने पड़ते हैं, जो चौथी भूमिके पहिले २ होते हैं। भाष्यम्-संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च नारका भवन्ति । तिसृषु भूमिषु प्राक् चतुर्थ्याः । तद्यथा । अम्बाम्बरीषश्यामशबलरुद्रोपरुद्रकालमहाकालास्यासिपत्रवनकुम्भीवालुकावैतरणीखरस्वरमहाघोषाः पञ्चदश परमाधार्मिका मिथ्यादृष्टयः पूर्वजन्मसु संक्लिष्टकर्माणः पापाभिरतय आसुरी गतिमनुप्राप्ताः कर्मक्लेशजा एते ताच्छील्यान्नारकाणां वेदनाः समुदीरयन्ति चित्राभिरुपपत्तिभिः । तद्यथा । तप्तायोरसपायननिष्टप्तायःस्तम्भालिङ्गनकूटशाल्मल्यग्रारोपणावतारणायोधनाभिघातवासी क्षुरतक्षणक्षारतप्ततैलाभिषेचनायःकुम्भपाकाम्बरीषतर्जनयन्त्रपीडनायःशूलशलाकाभेदनक्रकचपाटनाङ्गारदहनवाहनासूचीशाद्वलापकर्षणैः तथा सिंहव्याघ्रद्वीपिश्वशृगालवृककोकमार्जारनकुलसर्पवायसगृध्रकाकोलूकश्येनादिखादनैः तथा तप्तवालुकावतरणासिपत्रवनप्रवेशनवैतरण्यवतारणपरस्परयोधनादिभिरिति ।। For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या - चतुर्थ भूमिके पूर्व अर्थात् तीन भूमियोंमें संक्लिष्टपरिणामविशिष्ट असुरोंके द्वारा भी नरकके जीवोंको दुःख होते हैं । सो इस प्रकार कि, अम्ब, अम्बरीष, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकालास्य, असिपत्रवन, कुम्भी, बालुका, वैतरणी, खर, स्वर, और महाघोष; ये पन्द्रह महा अधार्मिक (पापी) मिथ्यादृष्टि, पूर्वजन्मोंमें संक्लिष्ट काम करनेवाले, पापोंमें निरन्तर तत्पर, इसीसे आसुरी गतिको प्राप्त हुए, और कर्मक्लेशसे उत्पन्न होनेवाले असुर हैं । जो क्लेशदेनेहीके शील (स्वभाव) वाले होनेके कारणसे अनेक प्रकारकी चित्र विचित्र युक्तियोंकेद्वारा नरकके जीवोंको वेदना उत्पन्न करते हैं । यथा, अति संतप्त लोहके रसके पिलानेसे अति संतप्त लोहके खम्भे से आलिङ्गन करानेसे, मायारचित ( मिथ्याभूत ) शाल्मलीवृक्षके अग्रभाग में चढाने और उतारनेसे, लोहके घनसे ताडनादि द्वारा, वसूला तथा क्षुरे आदिसे अङ्गोंके काटनेसे, अतिक्षार और संतप्त ( अति उष्ण ) तैलसे स्नान करानेसे, लोहके घडोंमें पकानेसे, भुसीकी अग्निमें भूंजनेसे, अनेक प्रकारके ( कोल्हू आदि ) यंत्रों में पीड़नादिद्वारा, लोह रचित - शूल तथा शलाकाओं से, छेदनभेदनादिसे, आरोंसे अंगोंके चीड़ने फाड़नेसे, अङ्गाराग्निमें जलानेसे, तथा अग्नि लादनेसे और सूचीसदृश तीक्ष्ण कटीले घासों में घसीटने से, अनेक दुःख उत्पन्न करते हैं । तथा सिंह व्याघ्र, चीते, कुत्ते, शृगाल, भेड़िये, कोक, मार्जार, नकुल, सर्प, काक, गृध्र, काकोलूक ( घुग्घू वा उल्लू) और वाज आदि हिंसक जीवोंसे उनके मांस आदिको खिलानेसे, और अति संतप्त वालूमें चलानेसे, और तरवारके सदृश पत्रयुक्त वनोंमें प्रवेश करानेसे, वैतरणी (विष्टादि पूर्ण नदी) में तैरानेसे, तथा परस्पर युद्ध कराने आदिसे असुर नरकके जीवोंको दुःख देते हैं । 1 स्यादेतत्किमर्थं त एवं कुर्वन्तीति । अत्रोच्यते । पापकर्माभिरतय इत्युक्तम् । तद्यथा गोवृषभमहिषवराह मेषकुक्कुटवार्तकालावकान्मुष्टिमल्लांश्च युध्यमानान् परस्परं चाभिन्नतः पश्यतां रागद्वेषाभिभूतानामकुशलानुबन्धिपुण्यानां नराणां परा प्रीतिरुत्पद्यते तथा तेषामसुराणां नारकांस्तथा तानि कारयतामन्योन्यं नतश्च पश्यतां परा प्रीतिरुत्पद्यते । ते हि दुष्टकन्दर्पास्तथाभूतान् दृष्ट्वाट्टहासं मुञ्चन्ति चेलोत्क्षेपान्क्ष्वेडितास्फोटितावल्लिते तलतालनिपातनांश्च कुर्वन्ति महतश्च सिंहनादान्नदन्ति । तच्च तेषां सत्यपि देवत्वे सत्सु च कामिकेष्वन्येषु प्रीतिकारणेषु मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्य तीव्र कषायोपहतस्यानालोचितभावदोषस्याप्रत्यवमर्षस्याकुशलानुबन्धिपुण्यकर्मणो बालतपसश्च भावदोषानुकर्षिणः फलं यत्सत्स्वप्यन्येषु प्रीतिहेतुष्वशुभा एव प्रीतिहेतवः समुत्पद्यन्ते ॥ ७२ अस्तु, इस प्रकारकी वेदना संक्लिष्ट असुर देते हैं यह तो माना, परन्तु वे इस प्रकार क्यों करते हैं? ऐसा करनेसे उनका क्या प्रयोजन हैं ? इसपर कहते हैं कि; वे निरन्तर पाप कर्मोंमें ही तत्पर रहते हैं, यह वार्ता प्रथम कह आये हैं । इसलिये जैसे; गो, बैल, महिष, (भैंसा), शूकर, मेष ( भेड़), कुक्कुट ( मुर्ग), नट तथा मुष्टमल For Personal & Private Use Only ( मुष्टिका Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । प्रहारवाले) जब आपसमें लडते हैं, और एक दूसरेको मारते हैं, तब जैसे रागद्वेषसे पूर्ण तथा अकुशलपुण्यके बन्धन करनेवाले मनुष्योंको बड़ी भारी प्रीति होती है, ऐसे ही इस प्रकार कार्य करानेवाले उन असुरोंको भी जब नारक जीव परस्पर लड़ते हैं, तब उन्हें वैसा देखकर अतिशय प्रीति उत्पन्न होती है। और वे दुष्ट कामनायुक्त असुर इस प्रकार दुर्दशाग्रस्त नरकके जीवोंको देखकर अट्टहास ( महाहास्य) करते हैं, प्रसन्नताके मारे वस्त्र फेंकते हैं, तालियां बजाते हैं, और बड़े जोरसे सिंहवत् चिंग्घार मारते हैं । और उनका यह कार्य,—यद्यपि देवयोनिमें उत्पन्न होनेसे उनमें देवत्व है, तथा कामियोंके प्रीतिहेतुभूत अन्यकारण भी विद्यमान हैं, तथापि माया, निदान, और मिथ्यादर्शन इन शल्यों, तीव्रकषायोंके उदय, भावदोषकी आलोचनासे शून्य, विचार सहनशीलतासे रहित, अकुशलतासे सम्बन्ध रखनेवाले पुण्यकर्म, तथा भावदोष सहित बालतपस्याका फल है जो, अन्य अनेक प्रीतिके कारण होने पर भी उनके अशुभ ही प्रीतिके कारण उत्पन्न होते हैं । __इत्येवमप्रीतिकरं निरन्तरं सुतीनं दुःखमनुभवतां मरणमेव कासतां तेषां न विपत्तिरकाले विद्यते कर्मभिर्धारितायुषाम् । उक्तं हि । औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासङ्खयेयवर्षायुषोऽनपवायुष इति । नैव तत्र शरणं विद्यते नाप्यपक्रमणम् । ततः कर्मवशादेव दग्धपाटितभिन्नच्छिन्नक्षतानि च तेषां सद्य एव संरोहन्ति शरीराणि दण्डराजिरिवाम्भसीति । इसप्रकार अप्रीतिकारक परस्परसे तथा असुरोंके द्वारा उत्पन्न निरन्तर अति तीव्र दुःखोंको अनुभवन करते हुए और उस दुःखसे सदा मरणको ही चाहनेवाले नरकके जीवोंकी अकालमें मृत्यु भी नहीं होती । क्योंकि कर्मोकेद्वारा उनका आयुष् नियत है । और ऐसा कहा भी है-"औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासङ्खयेयवर्षायुपोऽनपवायुषः" अर्थात् “उपपातरूप जन्मवाले, चरम शरीरी, उत्तमपुरुष और असङ्ख्येय वर्ष आयुष्वालोंके आयुष्का अपवर्तन नहीं हो सकता।" न तो नरकके जीवोंको इन दुःखोंसे कोई शरण ही है और न वहांसे कहीं भागके जा सकते हैं। इस हेतुसे कर्मके वशसे ही उनके शरीर दग्ध होनेपर, फाडे जानेपर, छिन्न भिन्न और अत्यन्त क्षत (अनेक घावोंसे युक्त) होने पर भी पुनः ज्योंके त्यों ऐसे हो जाते हैं, जैसे जलमें दंडोंकी रेखा। एवमेतानि त्रिविधानि दुःखानि नरकेषु नारकाणां भवन्तीति ॥ इसप्रकार त्रिविध दुःख होते हैं अर्थात् अशुभतर लेश्या परिणामादिसे उत्पन्न, पर. स्पर कारणसे उत्पन्न, और असुरोंकेद्वारा उत्पन्न, ये तीन प्रकारके दुःख होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ सूत्रार्थः-उननरकोंमें जीवोंकी परा अर्थात् उत्कृष्टस्थिति एक, तीन, सात, दश, सत्रह, बावीस और तेतीस सागरोपमा होती है । भाष्यम्-तेषु नरकेषु नारकाणां पराः स्थितयो भवन्ति । तद्यथा। रत्नप्रभायामेकं सागरोपमम् । एवं त्रिसागरोपमा सप्तसागरोपमा दशसागरोपमा सप्तदशसागरोपमा द्वाविंशतिसागरोपमा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा । जघन्या तु पुरस्ताद्वक्ष्यते । नारकाणां च द्वितीयादिषु। दशवर्षसहस्राणि प्रथमायामिति । विशेषव्याख्या-उन पूर्वोक्त रत्नप्रभादि नरकोंमें जीवोंकी सबसे अधिक स्थिति क्रमसे एक, तीन, आदि सागरोपमा होती है । यथा,:-रत्नप्रभामें एक सागरोपमा, शर्कराप्रभामें तीन सागरोपमा, वालुकाप्रभामें सात सागरोपमा, पंकप्रभामेंदश सागरोपमा, धूमप्रभाग सत्रह सागरोपमा, तमःप्रभामें बावीस सागरोपमा, और महातमःप्रभामें तेवीस सागरोपमा परा अर्थात् सबसे उत्कृष्ट स्थिति होती है । यह वर्णन परास्थितिका है, और जघन्या स्थितिका वर्णन आगे करेंगे । यथा “नारकाणां च द्वितीयादिषु" "दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम्" अर्थात् "नरकके जीवोंकी द्वितायादिभूमियोंमें भी इसप्रकार जघन्यस्थिति है" तथा "प्रथम भूमिमें दशहजार वर्षकी स्थिति है" ( अध्याय ४, सूत्र ४३,४४) । __ तत्रास्रवैयक्तैिनारकसंवर्तनीयैः कर्मभिरसंज्ञिनः प्रथमायामुत्पद्यन्ते । सरीसृपा द्वयोरादितः प्रथमद्वितीययोः । एवं पक्षिणस्तिसृषु । सिंहाश्चतसृषु । उरगाः पञ्चसु । स्त्रियः षट्सु । मत्स्यमनुष्याः सप्तस्विति । न तु देवा नारका वा नरकेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । न हि तेषां बह्वारम्भपरिग्रहादयो नरकगतिनिर्वर्तका हेतवः सन्ति । नाप्युद्वर्त्य नारका देवेषूत्पद्यन्ते । न ह्येषां सरागसंयमादयो देवगतिनिर्वर्तका हेतवः सन्ति । उद्वतितास्तु तिर्यग्योनौ मनुष्येषु वोत्पद्यन्ते । मानुषत्वं प्राप्य केचित्तीर्थकरत्वमपि प्राप्नुयुरादितस्तिसृभ्यः निवार्ण चतसृभ्यः संयम पञ्चभ्यः संयमासंयम षड्भ्यः सम्यग्दर्शनं सप्तभ्योऽपीति ॥ उनमें आस्रवोंकेद्वारा नरकके जीवोंके संवर्तन ( व्यवहार ) के योग्य शास्त्रोक्त कर्मोंसे असंज्ञी जीव प्रथम भूमिमें उत्पन्न होते हैं। और सरीसृप (सर्प विशेष) प्रथम तथा द्वितीय भूमिमें उत्पन्न होते हैं। और पक्षी तीनों भूमियोमें उत्पन्न होते हैं। सिंह चारों भूमियोंमें होते हैं । विषधर सर्प पांचोंमें उत्पन्न होते हैं । स्त्रियां छहों भूमियोमें उत्पन्न होती हैं । और मनुष्य तथा मत्स्य सातों भूमियोंमें उत्पन्न होते हैं । किन्तु देव और नारकजीव १ नारकाणां च द्वितीयादिषु, इस सूत्रके पहिले 'परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा' कहा है । जिस का अर्थ यह है कि पूर्व २ खगोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है वह महेन्द्र कल्पके परे जघन्य स्थिति है।सो इस सूत्र की अनुवृति 'च' पदकेद्वारा ली गई है, अर्थात् जिस प्रकार महेन्द्रकल्पके परे स्थितिका क्रम है, उसी प्रकार द्वितीयादि भूमियोंमें भी पूर्व २ की जो उत्कृष्ट स्थिति है, वह पर २ की जघन्य स्थिति है । For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ७५ नरकों में उत्पन्न नहीं होते । क्योंकि नरक गतिके साधक अधिक आरंभ और अधिक परिग्रह आदि उन देव और नारकियोके नहीं हैं । और नरक गतिसे निकलकर नरक जीव देवताओं में भी उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि देवगतिके कारण सराग संयमादि हैं, वे भी उनके नहीं हैं । किन्तु नरकयोनि के नियतकालके पश्चात् छूटनेपर वे मनुष्यो में अथवा तिर्यग्योनिमें उत्पन्न होते हैं । और कोई २ आदिकी तीन भूमियोंमेंसे निकलने के पश्चात् मनुष्यत्व पाकर तीर्थंकर पदवीको भी प्राप्त हो सक्ते हैं । तथा चार भूमियोंसे निकलकर निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं । पांच भूमियोंसे संयम, छह भूमियोंसे संयमासंयम और सम्यग्दर्शन तो सातों नरक भूमियों से निकलकर प्राप्तकर सकते हैं । द्वीपसमुद्रपर्वतदतडागसरांसि ग्रामनगरपत्तनादयो विनिवेशा बादरो वनस्पतिकायो वृक्षतृणगुल्मादिः द्वीन्द्रियादयस्तिर्यग्योनिजा मनुष्या देवाश्चतुर्निकाया अपि न सन्ति । अन्यत्र समुद्घातोपपातविक्रियासाङ्गतिकनरकपालेभ्यः । उपपाततस्तु देवा रत्नप्रभायामेव सन्ति नान्यासु । गतिस्तृतीयां यावत् ॥ नरक भूमियों में द्वीप, समुद्र, पर्वत, हद, तड़ाग, सर ( छोटे तलाब ) ग्राम, नगर, और पत्तनादिकोंकी रचना तथा स्थूल वनस्पतिकाय, वृक्ष, तृण, लतादिक और द्वीन्द्रियादि जीव, तिर्यञ्च, मनुष्य और चतुर्निकायके देव, ये कोई भी नहीं होते' । परन्तु समुद्धातमें प्राप्त, उपपात जन्मवाले, वैक्रियकशरीरधारी, साङ्केतिक और नरकपाल अर्थात् महापापी इन सबको छोड़के । अर्थात् ये नरकभूमियों में जा सक्ते हैं । यहां इतना और भी जानना आवश्यक है, कि उपपातरूप जन्मसे जो देव होते हैं, वे रलप्रभा भूमिमें हैं, अन्य भूमियोंमें नहीं । और इनका गमन तृतीयभूमि पर्यन्त हो सक्ता है, अधिक नहीं । यच्च वायव आपो धारयन्ति न च विश्वग्गच्छन्त्यापश्च पृथिवीं धारयन्ति न च प्रस्पन्दन्ते पृथिव्यश्चाप्सु विलयं न गच्छन्ति तत्तस्यानादिपारिणामिकस्य नित्यसन्ततेर्लोक विनिवेशस्य लोकस्थितिरेव हेतुर्भवति ॥ और जो वायुर्जेलको धारण करते हैं, वे चारों ओर नहीं वहते अर्थात् साधारण वायुके समान इधर उधर नहीं जाते । और जल जो पृथिवीको धारण करते हैं, वे भी इधर उधर कहीं फिसल कर नहीं चलते । और पृथिवी भी जलमें नहीं डूबती, और ऐसा होनेमें अनादिकालसे पारिणामिक तथा नित्य प्रवाहरूपसे जो लोकोंकी रचना है, उसमें लोकस्थिति ही कारण है । १ रत्नप्रभाके तुल्य नीचेकी छह भूमियोंमें द्वीप समुद्रादि नहीं हैं । २ पूर्व जन्म के मित्र । ३ सप्तभूमियोंमें जो घनाम्बुवताकाश प्रतिष्ठा है उसकी व्यवस्था कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अत्राह । उक्तं भवता लोकाकाशेऽवगाहः । तदनन्तरं ऊर्ध्व गच्छत्यालोकान्तादिति । तत्र लोकः कः कतिविधो वा किंसंस्थितो वेति । अत्रोच्यते ॥ अब यहांपर कहते हैं, कि आपने यह कहा है कि धर्माधर्म तथा जीवादि द्रव्योंका लोकाकाश पर्यन्त अवगाह है, अर्थात् सब द्रव्योंकी लोकाकाश पर्यन्त गति है। और उसके पश्चात् यह भी कहा है कि, वे ऊपर लोकके अन्त तक जाते हैं । सो उक्त विषयमें प्रश्न है कि, लोक क्या है ? कै प्रकारका है ? और वह किस प्रकारसे स्थित है ? । अब यहां उत्तर कहते हैं, पञ्चास्तिकायसमुदायो लोकः । ते चास्तिकायाः स्वतत्त्वतो विधानतो लक्षणतश्चोक्ता वक्ष्यन्ते च । स लोकः क्षेत्रविभागेन त्रिविधोऽधस्तिर्यगूर्व चेति । धर्माधर्मास्तिकायौ लोकव्यवस्थाहेतू । तयोरवगाहविशेषाल्लोकानुभावनियमात् सुप्रतिष्ठकवज्राकृतिर्लोकः । अधोलोको गोकन्धराधरार्धाकृतिः । उक्तं ह्येतत् । भूमयः सप्ताधोऽधः पृथुतराच्छनातिच्छत्रसंस्थिता इति ता यथोक्ताः । तिर्यग्लोको झल्लाकृतिः । ऊर्ध्वलोको मृदङ्गाकृतिरिति । तत्र तिर्यग्लोकप्रसिद्ध्यर्थमिदमाकृतिमात्रमुच्यते ॥ पंचास्तिकायोंका जो समुदाय अर्थात् समूह है, वही लोक है । और वे पंचास्तिकाय निजतत्त्वरूपसे, विधानसे और लक्षणसे कुछ कहे हैं, और आगे भी कहेंगे । वह पंचास्तिकायसमूहरूप लोक क्षेत्रविभागसे तीन प्रकारका है; अर्थात् अधोलोक, तिर्यक्लोक, और ऊर्ध्वलोक । पंचास्तिकायोंमेंसे धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय ये दोनों लोकोंकीव्यवस्थाके कारण हैं । और इन दोनोंके अवगाहन (गमन व्याप्ति) विशेषसे, लोकके अनुभावके नियमसे सुप्रतिष्टक वज्राकार लोक है, अर्थात् यह आकार सब लोकका है। अधोलोक गौकन्धराधरार्ध(?)के आकार है। यह कहा भी है। “सातों भूमि अधो २ भागमें विशाल और छत्र तथा अतिच्छत्राकार स्थित हैं"। इसप्रकार सातों भूमियोंकी स्थिति जैसी है वैसी कही । और तिर्यगलोक झल्लरीके आकार है । और ऊर्ध्वलोक मृदङ्गके आकार है । उनमें तिर्यग्लोकका केवल आकार मात्र उसकी (तिर्यग्लोककी) प्रसिद्धिके अर्थ संक्षेपसे कहते हैं ॥ ६॥ जम्बूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥७॥ सूत्रार्थः-जम्बूद्वीपादि शुभनामवाले द्वीप और लवणसमुद्रादि शुभनामवाले समुद्र हैं । भाष्यम्-जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लवणादयश्च समुद्राः शुभनामान इति । यावन्ति लोके शुभानि नामानि तन्नामान इत्यर्थः । शुभान्येव वा नामान्येषामिति ते शुभनामानः । द्वीपा. दनन्तरः समुद्रः समुद्रादनन्तरो द्वीपो यथासङ्खयम् । तद्यथा । जम्बूद्वीपो द्वीपो लवणोदः समुद्रः धातकीखण्डो द्वीपः कालोदः समुद्रः पुष्करवरो द्वीपः पुष्करोदः समुद्रः वरुणवरो द्वीपो वरुणोदः समुद्रः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्रो घृतवरो द्वीपो घृतोदः समुद्रः इक्षुवरो For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । द्वीप इक्षुवरोदः समुद्रः नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरवरोदः समुद्रः अरुणवरो द्वीपोऽरुणवरोदः समुद्र इत्येवमसङ्खयेया द्वीपसमुद्राः स्वयम्भूरमणपर्यन्ता वेदितव्या इति ॥ विशेषव्याख्या-जम्बूद्वीपसे आदि लेके द्वीप और लवणसमुद्रसे आदि लेके समुद्र ये शुभनामवाले हैं । इसका यह तात्पर्य है कि लोकमें जितने शुभनाम हैं, उन नामोंसे ये युक्त हैं । शुभ नामवाले, इसका यह तात्पर्य है कि इनके शुभ ही नाम हैं अशुभ नहीं । द्वीपके अनन्तर समुद्र और समुद्रके अनन्तर द्वीपसमुद्र हैं, इसप्रकार यथासंख्य समझना चाहिये । यथा, -जम्बूद्वीप नामक द्वीप है, और उसके अनन्तर लवणोद नामक समुद्र है; उसके पश्चात् पुनः धातकीखण्ड नामक द्वीप है, उसके अनन्तर पुनः कालोद नामक समुद्र है; पुनः पुष्करवरद्वीप है, पुनः पुष्करोदनामक समुद्र है; पुनः वरुणवरद्वीप है, पुनः वरुणोद नामक समुद्र है; पुनः क्षीरवर नामक द्वीप है और क्षीरोद समुद्र है; पुनः घृतवर नामक द्वीप है, पुनः घृतोद नामक समुद्र है; पुनः इक्षुवर नामक द्वीप है, पुनः इक्षुवरोद नामक समुद्र है; पुनः नन्दीश्वर नामक द्वीप है, पुनः नन्दीश्वरवरोद समुद्र है; पुनः अरुणवर नामक द्वीप है, और पुनः उसके अनन्तर अरुणवरोद नामक समुद्र है; इस प्रकार असंख्येय द्वीप समुद्र स्वयम्भूरमण पर्यन्त जानने चाहिये ॥ ७ ॥ द्विर्दिर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः ॥ ८॥ सूत्रार्थ—ये द्वीप समुद्र द्विगुण २ विष्कंभके धारण करनेवाले हैं, तथा पूर्व पूर्व द्वीप समुद्रको पर २ के द्वीपसमुद्र चारों ओरसे घेरे हैं, और सब ही वलयाकार (वृत्ताकार ) हैं। भाष्यम्-सर्वे चैते द्वीपसमुद्रा यथाक्रममादितो द्विद्धिर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः प्रत्येतव्याः । तद्यथा। योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य वक्ष्यते । तद्विगुणो लवणजलसमुद्रस्य । लवणजलसमुद्रविष्कम्भाहिगुणो धातकीखण्डद्वीपस्य । इत्येवमास्वयम्भूरमणसमुद्रादिति ॥ विशेषव्याख्या-प्रथम जम्बूद्वीपसे आदि लेके द्वीप और समुद्र सब यथाक्रमसे द्विगुण २ व्यास प्रमाण होते गये हैं, और पर २ के द्वीप समुद्र पूर्व २ द्वीप समुद्रको चारों ओरसे घेरे हैं । और वलय (कटक अर्थात् कडे ) के आकारके हैं, ऐसा जानना चाहिये । जैसे; एक सहस्रयोजन अर्थात् एकलक्ष योजन विष्कंभ ( विस्तार ) जम्बूद्वीपका कहेंगे। और जम्बूद्वीपसे द्विगुण विष्कंभ लवणसमुद्रका है; और लवणसमुद्रके विष्कंभसे द्विगुण विष्कंभ धातकीखंडका है । इस प्रकार पूर्व २ से पर २ द्विगुण विष्कंभवाले द्वीप समुद्र स्वयंभूरमण पर्यन्त जानने चाहिये । पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणः । सर्वे पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणः प्रत्येतव्याः । जम्बूद्वीपो लवणसमुद्रेण परिक्षिप्तः । लवणजलसमुद्रो धातकीखण्डेन परिक्षिप्तः । धातकीखण्डद्वीपः कालोदसमुद्रेण परि For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् क्षितः । कालोदसमुद्रः पुष्करवरद्वीपार्धेन परिक्षिप्तः । पुष्करद्वीपार्थं मानुषोत्तरेण पर्वतेन परिक्षिप्तम् । पुष्करवरद्वीपः पुस्करवरोदेन समुद्रेण परिक्षिप्तः । एवमास्वयम्भूरमणात्समुद्रादिति ॥ पूर्व २ का परिक्षेप करनेवाले हैं, इसका तात्पर्य यह है, कि सब द्वीप समुद्र अपनेसे पूर्व २ को चारों ओर से घेरे हैं । जैसे; प्रथम जम्बूद्वीप अपनेसे द्विगुण विष्कंभवाले लवणोदसमुद्रसे चारों ओरसे घिरा है, और लवणोदसमुद्र अपनेसे द्विगुण परिमाणवाले धातकीखंड से घिरा है । ऐसे ही धातकीखंडद्वीप कालोदसमुद्र से घिरा है । कालोदसमुद्र पुष्करवरद्वीपसे घिरा है । पुष्करार्द्ध मानुषोत्तरपर्वत से घिरा है । और पुष्करवर द्वीप पुष्करवरसमुद्र से घिरा है । इसी प्रकार स्वयंभूरमण पर्यन्त द्वीप समुद्र पूर्व २ पर २ से घिरे हैं । वलयाकृतयः । सर्वे च ते वलयाकृतयः सह मानुषोत्तरणेति ॥ ‘वलयाकृतयः’ इसका यह अभिप्राय है, कि सब द्वीप समुद्र मानुषोत्तरपर्वत सहित वलय आकार हैं ॥ ८ ॥ तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविकम्भो जम्बूद्वीपः ॥ ९ ॥ सूत्रार्थः:- उन द्वीपसमुद्रोंके मध्य में मेरुपर्वत ही है नाभि जिसकी ऐसा, तथा वृत्ताकार एकलक्ष योजन विष्कंभवाला जम्बूद्वीप है । भाष्य - तेषां द्वीपसमुद्राणां मध्ये तन्मध्ये || मेरुनाभिः । मेरुरस्य नाभ्यामिति मेरुर्वास्य नाभिरिति मेरुनाभिः । मेरुरस्य मध्य इत्यर्थः ॥ सर्वद्वीपसमुद्राभ्यन्तरो वृत्तः कुलालचक्राकृतिर्योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः । वृत्तग्रहणं नियमार्थम् । लवणादयो वलयवृत्ता जम्बूद्वीपस्तु प्रतरवृत्त इति । यथा गम्येत वलयाकृतिभिश्चतुरस्रत्र्य त्रयोरपि परिक्षेपो विद्यते तथा च माभूदिति ॥ विशेषव्याख्या - पूर्वोक्त असंख्य द्वीप और समुद्रों के मध्य में मेरुपर्वतरूप नाभियुक्त, प्रतरवृत्त एकलाख योजन विष्कंभयुक्त जम्बूद्वीप है | वहां पर 'मेरुनाभि' इस पदसे मेरु जिसकी नाभिमें है, अथवा मेरु जिसकी नाभि है, यह आशय है । दोनों प्रकारके समास से मेरु जिसके मध्य में है, यह अभिप्राय है । सब द्वीप और समुद्रोंके आभ्यन्तर वृत्ताकार अर्थात् कुलालके चक्रसदृश आकारवान् शतसहस्र ( लाख ) योजन विष्कंभ सहित जम्बूद्वीप है । यहां पर वृत्त कहना इस नियम के अर्थ है कि, लवणसे आदि लेके द्वीप समुद्र वलयाकार वृत्त हैं । और जम्बूद्वीप प्रतरवृत्त है । यह कथन इसलिये है कि, कदाचित् ऐसा ज्ञान न हो जावे कि वलयाकार पदार्थोंको चतुष्कोण और त्रिकोणों का भी परिवेष्टन ( घिराव ) होता है, जो कि न होना चाहिये । मेरुरपि काञ्चनस्थालनाभिरिव वृत्तो योजन सहस्रमधोधरणितलमवगाढो नवनवत्यु For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । च्छ्रितो दशाधो विस्तृतः सहस्रमुपरीति । त्रिकाण्डस्त्रिलोकप्रविभक्तमूर्तिश्चतुर्भिर्वनैर्भद्रशालनन्दनसौमनसपाण्डकैः परिवृत्तः । तत्र शुद्धपृथिव्युपलवज्रशर्कराबहुलं योजनसहस्रमेकं प्रथमं काण्डम् । द्वितीयं त्रिषष्टिसहस्राणि रजतजातरूपाङ्कस्फटिकबहुलम् । तृतीयं षट्त्रिंशत्सहस्राणि जम्बूनदबहुलम् । वैडूर्यबहुला चास्य चूलिका चत्वारिंशद्योजनान्युच्छ्रायेण मूले द्वादशविष्कम्भेण मध्येऽष्टावुपरि चत्वारीति । मूले वलयपरिक्षेपि भद्रशालवनम् । भद्रशालवनात्पञ्च योजनशतान्यारुह्य तावत्प्रतिक्रान्तिविस्तृत नन्दनम् । ततो ऽर्धत्रिषष्टिसहस्राण्यारुह्य पञ्चयोजनशतप्रतिक्रान्तिविस्तृतमेव सौमनसम् । ततोऽपि षत्रिंशत्सहस्राण्यारुह्य चतुर्नवतिचतुःशतप्रतिक्रान्तिविस्तृतं पाण्डकवनमिति । नन्दनसौमनसाभ्यामेकादशैकादशसहस्राण्यारुह्य प्रदेशपरिहाणिर्विष्कम्भस्येति ॥ मेरु भी काञ्चन ( सुवर्ण) के थारकी नाभिके समान वृत्ताकार सहस्र योजन पृथिवीमें प्रविष्ट, निन्नानवे सहस्र योजन उंचा, दश सहस्र योजन अधोभागमें विस्तृत, और सहस्र योजन ऊपर विस्तारयुक्त है। तथा तीन कांड सहित, तीनों लोकोंको प्रविभक्तमूर्ति अर्थात् विभाग करनेवाला और भद्रशाल, नन्दन, सौमनस, तथा पाण्डुक नामक चार वनोंसे घिरा है । उन तीनों कांडो (विभागों) मेंसे प्रथमकांड शुद्धपृथिवी, पाषाण (बहुमूल्य पाषाण), वज्र (हीरकादि) तथा शर्करा (वालू ) से प्रायः पूर्ण और एक सहस्र योजन प्रमाण सहित है । और द्वितीयकांड प्रायः रौप्य, सुवर्ण तथा स्फटिक मणिसे पूर्ण त्रेसठसहस्र योजन प्रमाण सहित है। तथा तृतीयकांड प्रायः जम्बूनदनामक उत्तम सुवर्णसे पूर्ण और छत्तीससहस्र योजन प्रमाण सहित है । और चवालीस योजन ऊंची, मूलभागमें बारह योजन विस्तारसहित, मध्यभागमें आठ और ऊपर चार योजन विष्कंभसहित इस मेरुकी चूलिका है । और मूल भागमें भद्रशालवन उसको वेष्टित किये (घेरे) है । और भद्रशालसे पांचसौ योजन और चढके वहां तकप्रतिक्रान्ति (प्रतिव्याप्ति वा प्रतिबिम्ब) से विस्तृत नन्दनवन है । और उसके पश्चात् साढे त्रेसठ सहस्र योजन आगे चढके पांच ही सौ योजन प्रतिक्रान्तिसे विस्तृत सौमनस वन है। और उस सौमनससे भी छत्तीस सहस्र योजन और आगे चढके चारसौ चौरानवे योजन पर्यन्त प्रतिक्रान्तिसे विस्तृत पाण्डकवन है । और नन्दन तथा सौमनस इन दोनोंसे ग्यारह २ सहस्र योजन चढके विष्कंभके प्रमाणकी परिहाणि अर्थात् न्यूनता है ॥९॥ १ यह मेरु सर्वत्र सम प्रमाणसे नहीं है, किन्तु प्रदेशप्रमाणकी परिहाणिसे न्यून होता गया हैं; इस विषयको दर्शाते हैं x x x x x x नन्दनवनसे ऊपर और सौमनसके नीचे मध्यमें ग्यारह २ सहस्र योजन चढके एक सहस्र योजन विष्कंभकी न्यूनता होती जाती है । और सौमनसके ऊपर तथा नन्दनके नीचे इन आचार्य(सूरि )ने नहीं कहीं। x x x और यह परिहाणि (न्यूनता ) जो आचार्यने कही है, वह गणितके अनुसार किञ्चित भी विश्वासके योग्य नहीं है । क्योंकि सौमनस वनमें अभ्यन्तरका विष्कंभ तीन सहस्र दो सौ बहत्तर योजन तथा ग्यारहके आठ भाग है। ३२७२ । और बाह्यविष्कंभ चार हजार दो सौ बहत्तर योजन तथा ग्यारहके आठ भाग है । ४२७२ । और आचार्य कथित परिहाणिसे For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तत्र भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतैरा वतवर्षाः क्षेत्राणि ॥ १०॥ सूत्रार्थ:-उस जम्बूद्वीपमें भरत हैमवतादि सात वर्षधर क्षेत्र हैं। भाष्यम्-तत्र जम्बूद्वीपे भरतं हैमवतं हरयो(?)विदेहा रम्यक हैरण्यवतमैरावतमिति सप्त वंशाः क्षेत्राणि भवन्ति । भरतस्योत्तरतो हैमवतं हैमवतस्योत्तरतो हरय इत्येवं शेषाः । वंशा वर्षा वास्या इति चैषां गुणतः पर्यायनामानि भवन्ति । सर्वेषां चैषां व्यवहारनयापेक्षादादित्यकृताद्दिगनियमादुत्तरतो मेरुर्भवति । लोकमध्यावस्थितं चाष्टप्रदेशं रुचकं दिग्नियमहेतुं प्रतीत्य यथासम्भवं भवतीति । विशेषव्याख्या-जम्बूद्वीपमें भरत १, हैमवत २, हरि ३, विदेह ४, रम्यक् ५, हरण्यवत ६, और ऐरावत ७; ये सात वंशधर क्षेत्र हैं । भरतके उत्तर हैमवत है, और हैमवतके उत्तर हरिनामक क्षेत्र है। इस प्रकार रम्यकादि भी पूर्व २ के उत्तर समझ लेना चाहिये । वंश, वर्ष, तथा वास्य ये इन क्षेत्रोंके गुणसे पर्याय नाम हैं, अर्थात् ये सात वंशधरपर्वत, वर्षधरपर्वत अथवा वास्यधरपर्वत कहे जा सकते हैं । और व्यवहार नयकी अपेक्षासे, सूर्यकृत दिशाके नियमसे, इन भरत हैमवत आदि सब क्षेत्रोंमें मेरु उत्तर दिशामें है । परन्तु लोकके मध्यमें स्थित रुचकाष्ट प्रदेशोंको दिशाओंका हेतु मानकर यथासम्भव निश्चय दिग्विभाग होता है ॥ १० ॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषध नीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥११॥ सूत्रार्थ:-उन भरतादि क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले पूर्व पश्चिम चौडे हिमवत् आदि छह वर्षधरपर्वत हैं। ___ भाष्यम्-तेषां वर्षाणां विभक्तारो हिमवान् महाहिमवान् निषधो नीलो रुक्मी शिखरी इत्येते षडर्षधराः पर्वताः । भरतस्य हैमवतस्य च विभक्ता हिमवान् हैमवतस्य हरिवर्षस्य च विभक्ता महाहिमवानित्येवं शेषाः ॥ विशेषव्याख्या-पूर्वमें जो भरत, हैमवत, आदि क्षेत्र कहे हैं, उनको विभक्त अर्थात् पृथक् २ करनेवाले हिमवान् , महा हिमवान् , निषध, नील, रुक्मी, और शिखरी ये छह वर्षधर पर्वत हैं। उनमें भरत तथा हैमवतको पृथक् करनेवाला हिमवान् पर्वत है । और हैमवत तथा हरिका विभाग करनेवाला महाहिमवान् । ऐसे ही शेष भी कोई भी विष्कंभ नहीं आता । और वह बाह्य तथा आभ्यन्तरके विष्कंभ प्रमाण असत्य नहीं हो सक्ते, क्योंकि शास्त्रमें पढा है । और आर्षानुसारी गणितशास्त्रवेत्ता परिहाणिको और प्रकारसे वर्णन करते हैं। मेरु ऊपर एकलक्ष योजन ऊंचा है । अपचयन्यूनतादिसे रहित सहस्र योजन भूमिमें गड़ा हुआ अदृश्य है। For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ८.१ जान लेना । अर्थात् हरि तथा विदेहका विभाजक निषध है, विदेह तथा रम्यकका विभाजक नील है । रम्यक हैरण्यवतका रुक्मी है, और हैरण्यवत तथा ऐरावत वर्षका विभाजक शिखरी पर्वत है ॥ ११ ॥ तत्र पञ्च योजनशतानि षड्विंशानि षट् चैकोनविंशतिभागा भरतविष्कम्भः । स द्विद्विहिमवद्वैमवतादीनामा विदेहेभ्यः । परतो विदेहेभ्योऽर्धार्धहीनाः ॥ पञ्चविंशतियोजनान्यवगाढो योजनशतोच्छ्रायो हिमवान् । तद्विर्महाहिमवान् । तद्विर्निषध इति ॥ उनमें से पांचसौ छब्बीस योजन और छहके उन्नीसवें भाग ( ५२६९ ) विष्कंभ प्रमाण सहित भरतवर्ष है । आगे हिमवत आदि पर्वत तथा हेमवत आदि क्षेत्रोंके विकंभ विदेहक्षेत्र पर्यन्त दूने २ होते चले गये हैं, और विदेहसे परे (आगे) अर्ध अर्ध न्यून होते गये हैं । उनमें पच्चीस योजन विस्तृत और शतयोजन ऊंचा हिमवान है, और उसका भी दूना निषध है । 1 भरतवर्षस्य योजनानां चतुर्दशसहस्राणि चत्वारि शतान्येकसप्ततानि षट् च भागा विशेषतो ज्या । इषुर्यथोक्तो विष्कम्भः । धनुःकाष्ठं चतुर्दशसहस्राणि शतानि पञ्चाष्टाविंशान्येकादश च भागाः साधिकाः ॥ और चौदह सहस्र चार सौ योजन तथा इकहत्तर में छह भाग ( १४४००१ योजन ) भरतवर्षकी ज्यो प्रत्यञ्चा अथवा जीवा है । इषु अर्थात् वाणका विष्कंभ ५२६६ योजन कहा है । और धनुष्काष्ठ अर्थात् चापकी परिधि चौदह सहस्र पांचसौ और कुछ अधिक अठ्ठाईसमें ग्यारह भाग योजन विष्कंभ ( १४५०० ) है । 1 ११ भरतक्षेत्रमध्ये पूर्वापरायत उभयतः समुद्रमवगाढो वैतान्यपर्वतः षड् योजनानि सक्रोशानि धरणिमवगाढः पञ्चाशद्विस्तरतः पञ्चविंशत्युच्छ्रितः ॥ भरतवर्ष में पूर्व से पश्चिम की ओर लम्बा पड़ा हुआ दो ओरके समुद्र में प्रविष्ट बैताढ्य (बैताद्या विजयार्ध) पर्वत है; जो कि कुछ कोश अधिक छह योजन पृथिवीमें प्रविष्ट है । पचास योजन विस्तृत और पच्चीस योजन ऊंचा है । विदेहेषु निषधस्योत्तरतो मन्दरस्य दक्षिणतः काञ्चनपर्वतशतेन चित्रकूटेन विचित्रकूटेन चोपशोभिता देवकुरवो विष्कम्भेणैकादश योजन सहस्राण्यष्टौ च शतानि द्विचत्वारिंशानि द्वौ च भागौ । एवमेवोत्तरेणोत्तराः कुरवश्चित्रकूटविचित्रकूटहीना द्वाभ्यां च काञ्चनाभ्यामेव यमकपर्वताभ्यां विराजिताः ॥ विदेहवर्ष में निषध पर्वतके उत्तर, मन्दरके दक्षिण काञ्चनमय शतपर्वत सहित चित्र - कूट तथा विचित्रकूटसे उपशोभित देवकुरु भोगभूमि हैं । जो कि ग्यारह हजार आठसौ और वियालीसमें दो भाग (११८००४२) योजन विष्कंभ प्रमाण सहित है । इसी प्रकार १ धनुष्की डोरी के तुल्य रेखा. For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उत्तरकी ओर उत्तरकुरु हैं, किन्तु वे चित्रकूट तथा विचित्रकूटोंसे हीन हैं, परन्तु काश्चनमय यमक नाम दो पर्वतोंसे वे उत्तरकुरु शोभित हैं। विदेहा मन्दरदेवकुरूत्तरकुरुभिर्विभक्ताः क्षेत्रान्तरवद्भवन्ति । पूर्वे चापरे च । पूर्वेषु षोडश चक्रवर्तिविजया नदीपर्वतविभक्ताः परस्परागमाः अपरेऽप्येवलक्षणाः षोडशैव ॥ मन्दर, देवकुरु, तथा उत्तर कुरुओंसे अन्य क्षेत्रोंके सदृश विदेह भी विभक्त ( पृथक् किये हुए ) हैं । और उनकी पूर्वविदेह तथा अपरविदेह ऐसी संज्ञा हैं । पूर्वमें सोलह विदेह हैं, जो कि चक्रवर्तीविजय तथा नदी और पवतोंसे विभक्त परस्पर हैं । और अपर विदेह भी इसीप्रकार लक्षणयुक्त सोलह ही हैं। तुल्यायामविष्कम्भावगाहोच्छ्रायौ दक्षिणोत्तरौ वैताढ्यौ तथा हिमवच्छिखरिणौ महाहिमवद्रुक्मिणौ निषधनीलौ चेति ॥ दक्षिण तथा उत्तरके वैताढ्य विस्तार, विष्कंभ, अवगाह तथा उंचाईमें समान हैं। ऐसे ही हिमवत् और शिखरी समान हैं । महाहिमवत् और रुक्मी समान हैं, तथा निषध और नील समान हैं। क्षुद्रमन्दरास्तु चत्वारोऽपि धातकीखण्डकपुष्कराधका महामन्दरात्पञ्चदशभिर्योजनसहनैीनोच्छ्रायाः । षनिर्योजनशतैर्धरणितले हीनविष्कम्भाः । तेषां प्रथमं काण्डं महामन्दरतुल्यम् । द्वितीय सप्तभित्नम् । तृतीयमष्टाभिः। भद्रशालनन्दनवने महामन्दरवत् । ततो अर्धषटूपञ्चाशद्योजनसहस्राणि सौमनसं पञ्चशतं विस्तृतम् । ततोऽष्टाविंशतिसहस्राणिचतुनवति चतुःशत विस्तृतमेव पाण्डकं भवति । उपरि चाधश्च विष्कम्भोऽवगाहश्च तुल्यो महामन्दरेण । चूलिका चेति ॥ __ और चारों क्षुद्रमन्दर, धातकीखण्डक और पुष्करार्धक अर्थात् धातकीखण्ड तथा पुष्करार्धमे होनेवाले, महामन्दरसे पन्द्रहसहस्र योजन न्यून ऊंचे हैं । और छहसौ योजन धरणीतलमें भी न्यून विष्कंभ हैं । उन क्षुद्रमन्दरोंका प्रथमकांड महामंदरके तुल्य है । द्वितीयकांड सातसे न्यून है । और तृतीयकांड आठसे हीन है । भद्रशाल तथा नन्दनवन महामन्दरके समान हैं । उसके पश्चात् साढ़े छप्पन हजार योजन लम्बा तथा पांचसौ योजन विस्तृत सौमनसवन है । और उसके अनन्तर अट्ठाईस हजार योजन लम्बा और चारसौ चौरानवे योजन विस्तृत (चौड़ा) पाण्डकवन है । इसका ऊपर तथा नीचेका विष्कंभ और अवगाह भी महामन्दरके तुल्य है । और चूलिका भी उसीके समान है। __विष्कम्भकृतेर्दशगुणाया मूलं वृत्तपरिक्षेपः । स विष्कम्भपादाभ्यस्तो गणितम् । इच्छावगाहोनावगाहाभ्यस्तस्य विष्कम्भस्य चतुर्गुणस्य मूलं ज्या । ज्याविष्कम्भयोर्वर्गविशेषमूलं विष्कम्भाच्छोध्यं शेषार्धमिषुः । इषुवर्गस्य षड्गुणस्य ज्यावर्गयुतस्य कृतस्य मूलं धनुःकाष्ठम् । ज्यावर्गचतुर्भागयुक्तमिषुवर्गमिषुविभक्तं तत्प्रकृतिवृत्तविष्कम्भः । उदग्धनुःकाष्ठादक्षिणं शोध्यं शेषाधै बाहुरिति ॥ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विष्कंभकृत दशगुणका मूल वृत्तपरिक्षेप है; और वह वृत्तपरिक्षेप विष्कंभपादाभ्यस्त गणित है । इच्छावगाह ऊनावगाहाभ्यस्त चतुर्गुण विष्कंभका मूल ज्या है । ज्या और विष्कंभका वर्ग विशेष मूल विष्कंभसे शोधनीय है । शेषार्ध इषु है । षड्गुण ज्या वर्गयुक्त इषु वर्गकृतका षड्गुणमूल धनुःकाष्ठ है । और ज्या वर्गका चतुर्भागयुक्त और इषुसे विभक्त जो इषु वर्ग है, वह प्रकृतिवृत्त विष्कंभ है । और उदग्धनुःकाष्ठसे दक्षिण शोधनीय है । और शेषार्थ बाहु है । अनेन करणाभ्युपायेन सर्वक्षेत्राणां सर्वपर्वतानामायामविष्कम्भज्येषुधनुःकाष्ठपरिमाणानि ज्ञातव्यानि ॥ इस कारणरूप उपायसे सब क्षेत्रोंके तथा सब पर्वतोंके आयाम, विष्कंभ, ज्या, इषु, और धनुःकाष्ठ रूप परिमाण जानने चाहिये। द्विर्धातकीखण्डे ॥१२॥ सूत्रार्थ:-जम्बूद्वीपमें जो मन्दर तथा वंशधर पर्वतादि कहे हैं, वे सब धातकी खण्डमें द्विगुण २ हैं। भाष्यम्-एते मन्दरवंशवर्षधरा जम्बूद्वीपेऽभिहिता एते द्विगुणा धातकीखण्डे द्वाभ्यामिष्वाकरपर्वताभ्यां दक्षिणोत्तरायताभ्यां विभक्ताः । एभिरेव नामभिर्जम्बूद्वीपकसमसङ्ख्याः पूर्वार्धे चापरार्धे च चक्रारकसंस्थिता निषधसमोछायाः कालोदलवणजलस्पर्शिनो वंशधराः सेष्वाकाराः । अरविवरसंस्थिता वंशा इति ॥ विशेषव्याख्या-जम्बूद्वीपमें जो मन्दर तथा वर्षधरपर्वतादि कथन किये हैं, वे सब धातकीखण्डमें दक्षिणसे उत्तरकी ओर लम्बायमान् दो इषुके आकारवाले इष्वाकार पर्वतोंसे विभक्त द्विगुण हैं । तथा धातकीखण्डके पूर्वार्द्ध और अपरार्द्धमें भी इन्हीं पूर्वोक्त नामोंसे संयुक्त, जम्बूद्वीपके समान संख्यायुक्त, चक्रमें (पहियेमें) आरकके समान स्थित, निषधपर्वतके तुल्य ऊंचे, कालोद और लवणसमुद्रके जलको स्पर्श करनेवाले, अर्थात् कालोदसे लवणसमुद्र तक विस्तृत, और इष्वाकार ये वंशधरपर्वत हैं। अरोके विवरोंमें (छिद्रोंमें) स्थितके समान हैं, इस कारणसे ये वंश कहे जाते हैं ॥१२॥ १ ये गणितके पारिभाषिक शब्द हैं, हमारी समझमें पूर्णरूपसे नहीं आये।। २ इस विषयमें बहुतसे विद्वान् स्वयं और भी अनेक सूत्रोंकी रचना करके उनका व्याख्यान करते हैं। विस्तार न हो, इसलिये आचार्यने संक्षेपसे यह तत्त्व संग्रह किया है, और इसी हेतुसे शास्त्रनिपुण जन विस्ताररूपसे जो सूत्रोंका कथन है। वह प्राचीन नहीं है, ऐसा कहते हैं । और विस्तार ही इष्ट है, तो लक्ष ग्रन्थकी, परिभाषारूपसे जम्बूद्वीपका विस्तार करें, तो भी क्या विस्तार हुआ? अर्थात् कुछ नहीं । अथवा विस्तारार्थीको उन आचार्योंके रचित सूत्रोंसे बहुत गुणयुक्त सिद्धान्त क्या निकल आता है ? इस हेतु उनका अभिप्राय उपेक्षाके योग्य है। For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पुष्करार्धे च ॥१३॥ सूत्रार्थ:-जैसे धातकीखण्डमें मन्दरादिकोंकी संख्यादि विषय कहे, वैसे ही पुष्करार्धमें भी समझना चाहिये। भाष्यम् –यश्च धातकीखण्डे मन्दरादीनां सेष्वाकारपर्वतानां सङ्खयाविषयनियमः स एव पुष्करार्धे वेदितव्यः॥ विशेषव्याख्या-मन्दरादि तथा इषुके आकारसहित वर्षधरपर्वतोंका जो द्विगुण संख्यादिका नियम वर्णन किया है, वही नियम पुष्करार्द्ध द्वीपमें जानना चाहिये। ततः परं मानुषोत्तरो नाम पर्वतो मानुषलोकपरिक्षेपी सुनगरप्राकारवृत्तः पुष्करवरद्वीपार्धविनिविष्टः काञ्चनमयः सप्तदशैकविंशतियोजनशतान्युच्छ्रितश्चत्वारि त्रिंशानि क्रोशं चाधो धरणीतलमवगाढो योजनसहस्रं द्वाविंशमधस्ताद्विस्तृतः सप्तशतानि त्रयोविंशानि मध्ये चत्वारि चतुर्विशान्युपरीति ॥ __उसके अनन्तर मानुषोत्तर पर्वत है, जो कि मनुष्य लोकको घेरे हुए है, तथा उत्तम नगरके प्राकार (कोट )के सदृश वृत्ताकार, पुष्कराध द्वीपमें प्रविष्ट, सुवर्णमय, सत्रह सौ इक्कीस योजन उंचा, एक कोस अधिक चारसौ तीस (तेतीस) योजन पृथ्वीके अधो भागमें नीचा, एक हजार बाईस योजन नीचेके अर्थात् मूलके विस्तारसहित और सातसौ तेईस योजन मध्यभागमें और चारसौ चोवीस योजन उपरिभागमें ऐसा मानुषोत्तर पर्वत है। न कदाचिदस्मात्परतो जन्मतः संहरणतो वा चारणविद्याधरर्द्धिप्राप्ता अपि मनुष्या भूतपूर्वा भवन्ति भविष्यन्ति च । अन्यत्र समुद्धातोपपाताभ्याम् । अत एव च मानुषोत्तर इत्युच्यते ॥ __ इस मानुषोत्तर पर्वतसे परे कदाचित् भी जन्मसे अथवा संहरणसे चारण विद्याधर, और ऋद्धि प्राप्त मनुष्य पूर्वकालमें न हुए और न होंगे, अर्थात्, इस पर्वतके आगे चारणादि न कभी जन्में न मरे और न जन्मेंगे न मरेंगे । किन्तु यह नियम समुद्धात और उपपातको छोड़के है, अर्थात् समुद्धात और उपपात वाले मानुषोत्तरपर्वतके आगे भी जा सक्ते हैं । इस कारण इसका नाम मानुषोत्तर है । तदेवमड्मिानुषोत्तरस्यार्धतृतीया द्वीपाः समुद्रद्वयं पञ्चमन्दराः पञ्चत्रिंशत्क्षेत्राणि त्रिंशद्वर्षधरपर्वताः पञ्च देवकुरवः पञ्चोत्तराः कुरवः शतं षष्टयधिकं चक्रवार्तविजयानां द्वे शते पञ्चपञ्चाशदधिके जनपदानामन्तरद्वीपाः षट्पञ्चाशदिति ॥ इस रीतिसे मानुषोत्तरपर्वतके पूर्व ढाई द्वीप, दो समुद्र, पांच मन्दर, पैंतीस क्षेत्र, १ जो इस भाष्यको विद्याधर ऋद्धिप्राप्तोंके गमनके निषेधमें लगाते हैं, उनको आगमका विरोध है, क्योंकि सब चारणादि तथा ऋद्धिप्राप्तोंका गमन मानुषोत्तरके आगे भी शास्त्रोंमें कहा है, परन्तु जन्ममरण बाहिर नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __८५ ___सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । तीस वर्षधरपर्वत, पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु, एक सौ साठ चक्रवर्तिविजय, दो सौ पचपन जनपद और छप्पन अन्तरद्वीप हैं ॥ १३ ॥ ___ अत्राह । उक्तं भवता मानुषस्य स्वभावमार्दवार्जवत्वं चेति तत्र के मनुष्याः क चेति । अत्रोच्यते__ अब यहां पर कहते हैं कि, अपने मानुषके स्वभाव मार्दव (मृदुता) आर्जव (सरलता) तो कहे, परन्तु वहां मनुष्य कौन हैं और कहां रहते हैं ? इसके उत्तरकेलिये यहां अग्रिम सूत्र कहते हैं, प्राग्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥ १४ ॥ सूत्रार्थः-मानुषोत्तरपर्वतके पूर्व ही अन्तरद्वीपोंमें तथा पैंतीस क्षेत्रोंमें जन्मसे मनुष्य होते हैं। भाष्यम्-प्राग्मानुषोत्तरात्पर्वतात्पञ्चत्रिंशत्सु क्षेत्रेषु सान्तरद्वीपेषु जन्मतो मनुष्या भवन्ति । संहरणविद्यर्द्धियोगात्तु सर्वेष्वर्धतृतीयेषु द्वीपेषु समुद्रद्वये च समन्दरशिखरेष्विति ॥ विशेषव्याख्या-पूर्वमें जिस मानुषोत्तर पर्वतका वर्णन किया है, उसके पूर्व ही अन्तर द्वीपों सहित पैंतीस क्षेत्रोंमें जन्म धारण करके मनुष्य होते हैं, अर्थात् मनुष्योंका जन्म मानुषोत्तर पर्वतके पूर्व ही होता है । और संहरण तथा विद्या ऋद्धिके योगसे तो मन्दरके शिखरोंसहित ढाई द्वीपोंमें और दोनों समुद्रोंमें भी मनुष्योंके गमनादि होते हैं । भारतका हैमवतका इत्येवमादयः क्षेत्रविभागेन । जम्बूद्वीपका लवणका इत्येवमादयो द्वीपसमुद्रविभागेनेति ॥ __ और उन क्षेत्रोंके विभागसे भारतक, हैमवतक, अर्थात् भरत वा हेमवत आदि क्षेत्रोंमें होनेवाले इत्यादि संज्ञा होती हैं । और जम्बूद्वीपक तथा लवणक इत्यादि संज्ञा द्वीप तथा समुद्रके विभागसे होती हैं ॥ १४ ॥ आर्या म्लिशश्च ॥ १५॥ सूत्रार्थ:-मनुष्योंके आर्य और म्लिश अथवा म्लेच्छ ये दो भेद हैं। भाष्यम्-द्विविधा मनुष्या भवन्ति । आर्या म्लिशश्च ॥ तत्रार्याः षडिधाः । क्षेत्रार्या जात्यायोः कुलार्याः कर्मायोः शिल्पायों भाषायों इति । तत्र क्षेत्रायोः पञ्चदशसु कर्मभूमिषु जाताः । तद्यथा । भरतेष्वर्धषडिशतिषु जनपदेषु जाताः शेषेषु च चक्रवर्तिविजयेषु । जात्यार्या इक्ष्वाकवो विदेहा हरयोऽम्बष्ठाः ज्ञाताः कुरवो वुवुनाला उग्रा भोगा राजन्या इत्येवमादयः । कुलार्याः कुलकराश्चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवा ये चान्ये आतृतीयादापञ्चमादासप्तमाद्वा कुलकरेभ्यो वा विशुद्धान्वयप्रकृतयः । कार्या यजनयाजनाध्ययनाध्यापनप्रयोगकृषिलिपिवाणिज्ययोनिपोषणवृत्तयः । शिल्पार्यास्तन्तुवायकुलालनापिततुम्नवायदेवटादयोऽल्पसावद्या १ म्लेंच्छाश्चेत्यपि पाठः । For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आगर्हिता जीवाः । भापायर्या नाम ये शिष्टभाषानियतवर्ण लोकरूढस्पष्टशब्दं पञ्चविधानामप्यार्याणां संव्यवहारं भाषन्ते ।। विशेषव्याख्या-मनुष्य दो प्रकारके हैं, आर्य और म्लिश । उनमेंसे आर्य छह प्रकारके हैं, क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, कर्मार्य, शिल्पार्य, तथा भाषार्य । इनमेंसे क्षेत्रार्य वे हैं, जो पन्द्रह प्रकारकी कर्म भूमियोंमें उत्पन्न हैं, जैसे भारतवर्षके साढ़े छब्बीस जनपदोंमें तथा शेष चक्रवर्तीविजयोंमें उत्पन्न हुए मनुष्य । अर्थात् आर्यक्षेत्रोंमें उत्पन्न होनेसे उनकी आर्य संज्ञा हुई है । और जात्यार्य अर्थात् जातिसे आर्य; जैसे इक्ष्वाकु, विदेह, हरि, अम्बष्ठ, ज्ञात, कुरु, वुवुनाल, उग्र, भोग, तथा राजन्य इत्यादि । कुलसे आर्य; जैसे कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव, अथवा और जो कुलकरोंके तीसरेसे आरंभ करके पंचमसे आदिलेके अथवा सप्तमकुलसे जो उत्पन्न हुए हैं, जिनका विशुद्धकुल और प्रकृति है, वे सब कुलार्य हैं। तथा कार्य अर्थात् कर्मसे आर्य, जैसे; यजन (यज्ञकरना) याजन (यज्ञकराना), अध्ययन, अध्यापन आदि प्रयोग करनेवाले तथा कृषि (खेती), लिपि (लेखन), वाणिज्य (व्यापार), आदि योनि पोषणकी वृत्ति करनेवाले सब कार्य हैं । और तन्तुवाय (कपड़े बुननेवाले), कुलाल (कुंभार), नापित (नाई), तुन्नवाय (सूत कातनेवाले), और देवट आदि जो अल्पपापयुक्त अथवा अनिन्दित जीविका करनेवाले हैं, वे शिल्पार्य हैं । और भाषार्य वे हैं, जो शिष्टभाषाके नियत वर्णोसे बने हुए और लोकमें प्रसिद्ध स्पष्ट शब्दोंको जिनको कि पूर्वोक्त पांच प्रकारके आर्य व्यवहार में लाते हैं, भाषण करते हैं। ___ अतो विपरीता म्लिशः । तद्यथा । हिमवतश्चतसृषु विदिक्षु त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य चतसृणां मनुष्यविजातीनां चत्वारोऽन्तरद्वीपा भवन्ति त्रियोजनशतविकम्भायामाः । तद्यथा । एकोरुकाणामाभाषकाणां लाङ्गलिकानां वैषाणिकानामिति ॥ चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा । हयकर्णानां गजकर्णानां गोकर्णानां शष्कुलिकानामिति ॥ पञ्चशतान्यवगाह्य पञ्चयोजनशतायामविकम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा । गजमुखानां व्याघ्रमुखानामादर्शमुखानां गोमुखानामिति ॥ षडूयोजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा । अश्वमुखानां हस्तिमुखानां सिंहमुखानां व्याघ्रमुखानामिति ॥ सप्त योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा । अश्वकर्णसिंहकर्णहस्तिकर्णकर्णप्रावरणनामानः ॥ अष्टौ योजनशतान्यवगाह्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः । तद्यथा । उल्कामुखविद्युजिह्वमेषमुखविद्युदन्तनामानः ॥ नवयोजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपा भवन्ति । तद्यथा । घनदन्तगूढदन्तविशिष्टदन्तशुद्धदन्तनामानः ॥ एकोरुकाणामेकोरुकद्वीपः । एवं शेषाणा मपि स्वनामभिस्तुल्यनामानो वेदितव्याः ॥ शिखरिणोऽप्येवमेवेत्येवं षट्पञ्चाशदिति ॥ और इनके विरुद्ध म्लिश अर्थात् म्लेच्छ हैं । जैसे; हिमवानपर्वतकी चारों विदिशाओंमें तीनसौ योजन लवणसमुद्रमें प्रवेश करके, चार मनुष्योंकी विजातियों (निंद्य For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । 1 जातियों)के निवासार्थ तीनसौ योजन लम्बे चौड़े चार ही अन्तरद्वीप हैं । जैसे; एकोरुक अर्थात् एकजंघावालोंका अभाषकोंका, लाङ्गूलिकों अर्थात् पुच्छवालोंका तथा वैषाfrat अर्थात् सींगवालोंका अन्तरद्वीप । और चार सौ योजन प्रवेशकर के चार सौ योजन ही आयाम तथा विष्कंभसहित चार अन्तरद्वीप हैं । जैसे; हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण, शष्कुलिकर्णवालोंके । तथा पांचसौ योजन प्रवेश करके पांचसौ ही योजन आयाम तथा विष्कंभसहित अन्तरद्वीप हैं । जैसे; गजमुख, व्याघ्रमुख, आदर्शमुख तथा गोमुखवालोंके । और छहसौ योजन प्रवेश करके छहसौ योजन ही आयाम तथा विष्कंभ प्रमाणवाले अन्तरद्वीप है । जैसे; अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख तथा व्याघ्रमुखवालोंके । और ऐसे ही सातसौ योजन प्रवेश करके सात ही सौ योजन आयाम 1 विष्कंभ प्रमाण अन्तरद्वीप हैं; जैसे; अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, हस्तिकर्ण, और कर्णप्रावरणोंके । और ऐसे ही आठसौ योजन प्रवेश करके आठसौ योजन आयाम तथा विष्कंभप्रमाणसहित ही अन्तरद्वीप हैं । जैसे; उल्कामुख, विद्युज्जिव्ह, मेषमुख, और विद्युद्दन्तोंके । तथा नव सौ योजन प्रवेश करके नव सौ योजन विस्तार विष्कंभसहित अन्तर द्वीप हैं । जैसे; घनदन्त, गूढ़दन्त, विशिष्टदन्त, तथा शुद्धदन्तोंके | अब यहां यह जानना आवश्यक है कि, एकोरुक संज्ञक म्लेच्छोंका एकोरुक नाम अन्तरद्वीप है, आभाषकोंका आभाषक; इसी प्रकार शेष अन्य म्लेच्छोंके उसी २ नामके अर्थात् जो उनके नाम हैं, उसी नामके अन्तरद्वीप जानने चाहिये । इसी प्रकार छप्पन अन्तरद्वीप शिखरीपर्वत सम्बन्धी भी जानने चाहिये ॥ १५ ॥ I " ८७ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥ १६ ॥ सूत्रार्थः - मनुष्यक्षेत्रोंमें भरत, ऐरावत तथा विदेह ये कर्म भूमियां हैं, देवकुरु तथा उत्तरकुरुको छोड़ करके । भाष्यम् - मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतविदेहाः पञ्चदश कर्मभूमयो भवन्ति । अन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः । संसारदुर्गान्तिगमकस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य ज्ञातारः कर्त्तार उपदेष्टारश्च भगवन्तः परमर्षयस्तीर्थकरा अत्रोत्पद्यन्ते । अत्रैव जाताः सिद्धयन्ति नान्यत्र । अतो निर्वाणाय कर्मणः सिद्धिभूमयः कर्मभूमय इति । शेषासु विंशतिर्वशाः सान्तरद्वीपा अकर्मभूमयो भवन्ति । देवकुरूत्तर कुरवस्तु कर्मभूम्यभ्यन्तरा अप्यकर्मभूमय इति ॥ विशेषव्याख्या – मानुषोत्तर पर्वतके पूर्व जो मनुष्यक्षेत्र वर्णन किया है, उसमें भरत, ऐरावत तथा विदेहमें पंचदश कर्मभूमि हैं, किन्तु इनके अभ्यन्तर जो देवकुरु तथा उत्त १ यह अन्तर द्वीपका भाष्य प्रायः नष्ट होगया है, कई दुर्विदग्ध छयानवें अन्तर द्वीप भाष्य में लिखते हैं, परन्तु यह अनार्ष है, क्योंकि आर्ष जीवागमादि ५६ ही मिलता है । वाचक परंपरा से यह भेद नहीं है, क्योंकि सूत्रका उल्लंघन नहीं होता । इस लिये इष्ट सिद्धांत भाष्यको नष्ट किया है । For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् रकुरु भोगभूमियां हैं, उन्हें छोड़ करके । अर्थात् ये दोनों कर्मभूमि नहीं हैं । संसाररूपी अति भयंकर दुर्गके अन्तको प्राप्त करनेवाला सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र स्वरूप जो मोक्षमार्ग है, उसके जाननेवाले, करनेवाले तथा उपदेशदाता भगवान् परमर्षि तीर्थकर इन्हीं कर्मभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं। और इन्हीं कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए जीव सिद्धि अर्थात् मोक्षसिद्धिको प्राप्त होते हैं, दूसरी भूमियोंसे नहीं । अतएव कर्मभूमि, निर्वाणकेलिये जो कर्म हैं, उनकी सिद्धिकी भूमि हैं । और इनसे शेष जो अन्तरद्वीप सहित बीस वंश अर्थात् क्षेत्र हैं, वे अकर्मभूमि हैं । और देवकुरु तथा उत्तरकुरु कर्मभूमियोंके अभ्यन्तर प्रविष्ट होने पर भी अकर्मभूमि हैं ॥ १६ ॥ - नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥ १७ ॥ भाष्यम्-नरो नरा मनुष्या मानुषा इत्यनर्थान्तरम् । मनुष्याणां परा स्थितिस्त्रीणिपल्योपमान्यपरान्तर्मुहूर्तेति ॥ सूत्रार्थ:-नृ, नर, तथा मनुष्य, मानुष इन शब्दोंका एक ही अर्थ है । मनुष्योंकी परा अर्थात् उत्कृष्टस्थिति तीनपल्यकी है, और अपरा अर्थात् जघन्यस्थिति अन्तमुहूर्त पर्यन्त है ॥ १७ ॥ तिर्यग्योनीनां च ॥१८॥ सूत्रार्थ:-जो तिर्यग्योनिसे उत्पन्न होते हैं, उनकी भी उत्कृष्टस्थिति तीनपल्य और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। भाष्यम्-तिर्यग्योनिजानां च परापरे स्थिती त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते भवतो यथासङ्ख्यमेव । पृथक्करणं यथासङ्ख्यदोषविनिवृत्त्यर्थम् । इतरथा इदमेकमेव सूत्रमभविष्यदुभत्रय चोभे यथासङ्ख्यं स्यातामिति ॥ विशेषव्याख्या-तिर्यग्योनिसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी भी परास्थिति तीन पल्योपम है, और अपरास्थिति अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त है । परा तथा अपराका, और त्रिपल्योपम तथा अन्तर्मुहूर्तका यथासांख्य है । अर्थात् परास्थिति त्रिपल्योपम है, और अपरा अन्तर्मुहूर्त है। और "नृस्थिती,, इत्यादिसूत्र तथा "तिर्यग्योनिजानां च' इस सूत्रको यथासंख्य दोषकी निवृतिकेलिये पृथक् २ किया है । अन्यथा एक सूत्र होता, और मनुष्योंकी परास्थिति त्रिपल्योपम होती है, और तिर्यग्योनिजोंकी अपरा अन्तर्मुहूर्त कालतककी स्थिति है; ऐसा यथासंख्य बोध हो जाता। द्विविधा चैषां मनुष्यतिर्यग्योनिजानां स्थितिः। भवस्थितिः कायस्थितिश्च । मनुष्याणां यथोक्ते त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते परापरे भवस्थिती । कायस्थितिस्तु परा सप्ताष्टौ वा भवग्रहणानि ॥ तिर्यग्योनिजानां च यथोक्ते समासतः परापरे भवस्थिती । व्यासतस्तु शुद्धपृथि१ तिर्यग्योनिजानां चेत्यपि पाठः । For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ८९ वीकायस्य परा द्वादशवर्षसहस्राणि । खरपृथिवीकायस्य द्वाविंशतिः। अप्कायस्य सप्त । वायुकायस्य त्रीणि । तेजःकायस्य त्रीणि रात्रिंदिनानि । वनस्पतिकायस्य दशवर्षसहस्राणि । एषां कायस्थितिरसङ्खयेया अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यो वनस्पतिकायस्यानन्ताः। द्वीन्द्रियाणां भवस्थितिर्द्वादशवर्षाणि । त्रीन्द्रियाणामेकोनपञ्चाशद्रात्रिंदिनानि । चतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः। एषां कायस्थितिः सङ्खयेयानि वर्षसहस्राणि । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजाः पञ्चविधाः । तद्यथा। मत्स्या उरगाः परिसर्पाः पक्षिणश्चतुष्पदा इति । तत्र मत्स्यानामुरगाणां भुजगानां च पूर्वकोट्येव पक्षिणां पल्योपमासङ्खयेयभागश्चतुष्पदानां त्रीणि पल्योपमानि गर्भजानां स्थितिः । तत्र मत्स्यानां भवस्थितिः पूर्वकोटित्रिपञ्चाशदुरगाणां द्विचत्वारिंशद्भुजगानां द्विसप्ततिः पक्षिणां स्थलचराणां चतुरशीतिवर्षसहस्राणि सम्मूर्छिनानां भवस्थितिः । एषां कायस्थितिः सप्ताष्टौ भवग्रहणानि । सर्वेषां मनुष्यतिर्यग्योनिजानां कायस्थितिरप्यपरान्तर्मुहूतैवेति ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे लोकप्रज्ञप्तिामा तृतीयोध्यायः समाप्तः ॥ __ और मनुष्य तथा तिर्यग्योनिवालोंकी स्थितिके पुनः दो भेद होते हैं, एक भवस्थिति दूसरी कायस्थिति । सो मनुष्योंकी परा तथा अपरा भवस्थिति पूर्वोक्त रीतिसे ही होती है। जैसे परा भवस्थिति त्रिपल्योपम होती है, अपरा भवस्थिति अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त होती है । और कायस्थिति जो परा है, वह सात व आठ भवग्रहण पर्यन्त रहती है। और तिर्यग्योनिजोंकी समास व समृष्टिरूपसे परापर भवस्थिति पूर्वोक्त रूपसे है । और पृथक् २ रूपसे तो शुद्ध पृथिवीकायकी परास्थिति बारहहजार वर्ष पर्यन्त है, और खर पृथिवीकायकी परास्थिति बावीसहजार वर्ष पर्यन्त है । तथा अप्कायकी सात, वायुकायकी तीन तथा तैजसकायकी तीन रात दिनकी स्थिति है । और वनस्पतिकायकी दशहजार वर्ष है । तथा इनकी कायस्थिति भी असंखेय है । और वनस्पतिकायकी अनन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी हैं । दो इन्द्रियवालोंकी भवस्थिति बारहवर्ष पर्यन्त है । तीन इन्द्रियवालोंकी एक कम पचास अर्थात् उनचास रातदिन है । चार इन्द्रियवालोंकी छह महिना है, और इनकी कायस्थिति संख्येय सहस्रवर्ष पर्यन्त है। पांच इन्द्रियवाले तिर्यग्योनिजोंके पांच भेद हैं, यथा; मत्स्य, उरग, परिसर्प ( चारों ओर फिसलके चलनेवाले ), पक्षी और चतुष्पद (चौपाये ) । इनमेंसे मत्स्य, उरग और भुजगोंकी एकपूर्वकोटि ही स्थिति है । पक्षियोंकी पल्योपम असंख्येयभाग, और गर्भज चतुष्पदोंकी तीन पल्योपम स्थिति है। उनमें मत्स्योंकी भवस्थिति पूर्वकोटि है, उरगोंकी तिरपन, भुजगोंकी व्यालीस, पक्षियोंकी बहत्तर है । और स्थलचारी संमूर्छनजन्मवालोंकी चौरासी सहस्र वर्ष भवस्थिति है। और इन सबकी कायस्थिति सात वा आठ भवग्रहण पर्यन्त है । और सम्पूर्ण मनुष्य तथा तिर्यग्योनिजोंकी अपरा कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त ही है। इति द्विवेद्युपनामकाचार्य्यपदवीधारिठाकुरप्रसादशर्मविरचितभाषाटीकासमलते तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्ये तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ Jain Education Internatif For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ चतुर्थोध्यायः। अत्राह । उक्तं भवता भवप्रत्ययोऽवधि रकदेवानामिति । तथौदयिकेषु भावेषु देवगतिरिति । केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य । सरागसंयमादयो देवस्य । नारकसम्मृर्छिनो नपुंसकानि । न देवाः । तत्र के देवाः । कतिविधा वेति । अत्रोच्यते अब यहांपर कहते हैं कि "भवप्रत्यय अर्थात् भव वा जन्मनिमित्तक अवधिज्ञान देव तथा नारक जीवोंको होता है" (अ० १ सू० २२)। "औदयिक भावोंमें देवगति है अर्थात् इक्कीस प्रकारके औदयिक भावोंमें देवगति भी एक है" (अ०२ सू० ६ )। "केवली भगवान् , शास्त्र, चार प्रकारके संघ, धर्म और भवनवासी आदि देवोंका अवर्णवाद दर्शनमोहके आस्रवका हेतु है" (अ० ६ सू० १४)। “सराग संयमादि देवायुके कारण हैं" (अ० ६ सू० २०)। "नारकजीव तथा सम्मूर्च्छन जन्मवाले नपुंसक होते हैं । देव नहीं होते" (अ० २ सू० ५०-५१ ) । इत्यादि स्थलोंमें आपने देव शब्दका प्रयोग किया । अब प्रश्न यह है कि, देव कौन हैं ? और उनके भेद कितने हैं ? उत्तरमें यहां सूत्र कहते हैं: देवाश्चतुर्निकायाः ॥१॥ सूत्रार्थः-देव चार निकायोंसे संयुक्त हैं । भाष्यम्-देवाश्चतुर्निकाया भवन्ति । तान्परस्ताद्वक्ष्यामः ।। विशेषव्याख्या--देवोंके चार निकाय हैं, उन चारोंको हम आगे कहेंगे । यहां पर निकाय शब्दका अर्थ समानधर्मवाले प्राणियोंका समूह वा संघ है। तृतीयः पीतलेश्यः ॥२॥ . सूत्रार्थः-तृतीय निकाय पीतलेश्यावाला है। भाष्यम्-तेषां चतुर्णा देवनिकायानां तृतीयो देवनिकायः पीतलेश्य एव भवति । कश्वासौ । ज्योतिष्क इति ॥ विशेषव्याख्या-देवोंके जो चार निकाय अर्थात् समुदाय हैं, उनमेंसे जो तीसरा समुदाय है, उसके पीतलेश्या ही है । वह तीसरा निकाय ज्योतिष्कदेवोंका है, अर्थात् तीसरे निकायवाले जो ज्योतिष्कदेव हैं, वे पीतलेश्यावाले होते हैं । __ दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥ ३ ॥ सूत्रार्थः-वे देवनिकाय कल्पोपपन्नपर्यन्त क्रमसे दश, आठ, पांच और बारह भेद युक्त हैं। __ भाष्यम्-ते च देवनिकाया यथासङ्खयमेवं विकल्पा भवन्ति । तद्यथा। दशविकल्पा भवनवासिनोऽसुरादयो वक्ष्यन्ते । अष्टविकल्पा व्यन्तराः किन्नरादयः । पञ्चविकल्पा ज्योतिष्काः सूर्यादयः । द्वादशविकल्पा वैमानिकाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः सौधर्मादिष्विति ॥ For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विशेषव्याख्या-पूर्वमें जो चार निकाय देवोंके कहे हैं, वे यथासंख्य नियमसे इस प्रकार विकल्प अर्थात् भेदयुक्त हैं । यथा; प्रथम भवनवासीदेवोंके दश भेद हैं; वे दशभेद असुरादिक आगे कहे जावेंगे। द्वितीय व्यन्तरदेवोंके किन्नरादि आठ भेद हैं। तृतीय ज्योतिष्कदेवोंके सूर्यादि पांच भेद हैं । और चतुर्थ वैमानिकदेवोंके सौधर्मादि बारह भेद हैं । इस प्रकार कल्पोपपन्न अर्थात् स्वर्गवासी देवों पर्यन्त ही भेद हैं । इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्ण काभियोग्यकिल्बिषिकाश्चैकशः ॥४॥ सूत्रार्थ:-पूर्वोक्त निकायोंमें प्रत्येकके इन्द्र सामानिकादि दश २ भेद हैं । __ भाष्यम्-एकैकशश्चैतेषु देवनिकायेषु देवा दशविधा भवन्ति । तद्यथा । इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशाः पारिषद्याः आत्मरक्षाः लोकपालाः अनीकानि अनीकाधिपतयः प्रकीर्णकाः आभियोग्याः किल्बिषिकाश्चेति । तत्रेन्द्राः भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कविमानाधिपतयः । इन्द्रसमानाः सामानिका अमात्यपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत् केवलमिन्द्रत्वहीनाः । त्रायस्त्रिंशा मत्रिपुरोहितस्थानीयाः । पारिषद्या वयस्यस्थानीयाः । आत्मरक्षाः शिरोरक्षस्थानीयाः । लोकपाला आरक्षिकार्थचरस्थानीयाः । अनीकाधिपतयो दण्डनायकस्थानीयाः । अनीकान्यनीकस्थानीयान्येव । प्रकीर्णकाः पौरजनपदस्थानीयाः । आभियोग्या दासस्थानीयाः । किल्बिषिका अन्तस्थस्थानीया इति ॥ विशेषव्याख्या-उन देव निकायोंमें एक २ में दश २ भेद सहित देव होते हैं । यथा;-इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीकं वा अनीकाधिपति, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्बिषिक । ये इन दश भेदोंमें जो इन्द्र हैं, वे भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और विमान प्रत्येकके अधिपति हैं, अर्थात् प्रत्येक समुदायके अधि- . पति वा स्वामीको इन्द्र कहते हैं । सामानिक इन्द्रके समान होते हैं, अर्थात् जो अमात्य पिता, गुरु, उपाध्यायोंके सदृश महत्व वा महिमायुक्त होते हैं, केवल इन्द्रत्व उनमें नहीं होता, वे सामानिक हैं । मंत्री पुरोहितादिकों के स्थानापन्न त्रायस्त्रिंश हैं । वयस्य अर्थात् मित्रोंके स्थानापन्न पारिषद्य हैं । शिरकी रक्षा करनेवालोंके स्थानापन्न आत्मरक्ष हैं । जैसे राजाओंके यहां आरक्षक अर्थचर कोतवालादि हैं, वैसे ही लोकपाल हैं। १ जो निज विषयमें संधि तथा रक्षामें नियत हैं, चौरादिको जो पकड़ते हैं, जैसे राजाओंके यहां कोतवालादिक होते हैं, उन्हींके स्थानापन्न लोकपाल हैं। २ सूत्रमें केवल 'अनीक' ही का ग्रहण किया है, और भाष्यमें 'अनीकानि' लिखके 'अनीकाधिप. तयः' (अनीकके अधिपत) ऐसा भी लिखा है, परन्तु यहां 'अनीक' तथा 'अनीकाधिपति' इन दोनोंसे एक ही तात्पर्य है । इसी विचारसे भाष्यकारने 'अनीकानि' इसका विवरण (टीका) 'अनीकाधिपतयः' यह किया है, न कि 'अनीक' और 'अनीकाधिपत' दो भेद कहे हैं । और ऐसा न माननेसे दश भेद जो कहे हैं, उनका विरोध होगा, क्योंकि अनीकाधिपतिको भिन्न माननेसे ११ भेद होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अनीकाधिपति दण्डनायक अर्थात् माजिष्ट्रेट के स्थानापन्न हैं, और अनीक अर्थात् सेनाके स्थानापन्न अनीक हैं । प्रकीर्णक पुरवासी तथा जनपद (राज्यकी प्रजा) के स्थानापन्न हैं । आभियोग्य दासोंके स्थानापन्न हैं । और किल्विषिक अन्तस्थ अर्थात् शूद्र व नीच जातिके स्थानापन्न हैं। ब्रायस्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः ॥५॥ सूत्रार्थ:--व्यन्तर और ज्योतिष्कदेव त्रायस्त्रिंश और लोकपाल वर्जित हैं । भाष्यम्-व्यन्तरा ज्योतिष्काश्चाष्टविधा भवन्ति त्रायस्त्रिंशलोकपालवा इति ॥ विशेषव्याख्या-चार निकायोंमेंसे व्यन्तर तथा ज्योतिष्क इन दो निकायोंमें त्रायस्त्रिंश और लोकपालवर्जित आठ ही भेद हैं । अर्थात् व्यन्तर ज्योतिष्कोंमें त्रायस्त्रिंश लोकपाल नहीं होते। पूर्वयोर्दीन्द्राः॥ ६॥ सूत्रार्थः-पूर्वके दो निकायोंमें दो २ इन्द्र हैं। भाष्यम्-पूर्वयोर्देवनिकाययोर्भवनवासिव्यन्तरयोदेवविकल्पानां द्वौ द्वाविन्द्रौ भवतः । तद्यथा । भवनवासिषु तावद्वौ असुरकुमाराणामिन्द्रौ भवतश्चमरो बलिश्च । नागकुमाराणां धरणो भूतानन्दश्च । विद्युत्कुमाराणां हरिहरिसहश्च । सुपर्णकुमाराणां वेणुदेवो वेणुदारी च । अग्निकुमाराणामग्निशिखोऽग्निमाणवश्च । वातकुमाराणां वेलम्बः प्रभजनश्च । स्तनितकुमाराणां सुघोषो महाघोषश्च । उदधिकुमाराणां जलकान्तो जलप्रभश्च । द्वीपकुमाराणां पूर्णोsवशिष्टश्च । दिकुमाराणाममितोऽमितवाहनश्चेति ॥ व्यन्तरेष्वपि द्वौ किन्नराणामिन्द्रौ किन्नरः किम्पुरुषश्च । किम्पुरुषाणां सत्पुरुषो महापुरुषश्च । महोरगाणामतिकायो महाकायश्च । गन्धर्वाणां गीतरतिर्गीतयशाश्च । यक्षाणां पूर्णभद्रो मणिभद्रश्च । राक्षसानां भीमो महाभीमश्च । भूतानां प्रतिरूपोऽतिरूपश्च । पिशाचानां कालो महाकालश्चेति ॥ ज्योतिष्काणां तु बहवः सूर्याश्चन्द्रमसश्च ॥ वैमानिकानामेकैक एव । तद्यथा । सौधर्मे शक्रः । ऐशाने ईशानः । सनत्कुमारे सनत्कुमार इति । एवं सर्वकल्पेषु स्वकल्पाह्वाः । परतस्त्विन्द्रादयो दश विशेषा न सन्ति । सर्वे एव स्वतन्त्रा इति ॥ विशेषव्याख्या-पूर्वकथित चार निकायोंमेंसे पूर्वके जो दो निकाय भवनवासी और व्यन्तर हैं, उनमें दो २ इन्द्र हैं । यथा; भवनवासियोंमें असुरकुमारोके दो इन्द्र हैं, एक चमर और दूसरा बलि । नागकुमारोंके धरण और भूतानन्द । विद्युतकुमारोंके हरि और हरिसह । सुपर्णकुमारोंके वेणुदेव और वेणुदारी । अग्निकुमारोंके अग्निशिख और अग्निमाणव । वातकुमारोंके वेलम्ब और प्रभंजन । स्तनितकुमारोंके सुघोष और महाघोष । उदधिकुमारोंके जलकान्त और जलप्रभ । द्वीपकुमारोंके पूर्ण तथा अवशिष्ट । दिक्कुमारोंके अमित और वाहन । और व्यन्तरों में भी किन्नरोंके दो इन्द्र हैं, एक किन्नर और दूसरा किम्पुरुष । किम्पुरुषोंके सत्पुरुष और महापुरुष । महोरगोंके .. For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ९३ अतिकाय और महाकाय । गन्धर्वोके गीतिरति और गीतियश । यज्ञोंके पूर्णभद्र और महाभद्र और राक्षसों के भीम और महाभीम । भूतोंके प्रतिरूप और अतिरूप | और पिशाचोंके काल महाकाल नामके दो इन्द्र हैं । इस प्रकार भवनवासी और व्यन्तरोंके भेदोमें प्रत्येकके दो २ इन्द्र बतलाये । शेष दो निकायोंमेंसे ज्योंतिष्कों में अनेक सूर्य तथा चन्द्रमा इन्द्र हैं । और वैमानिकोंमें एक एक ही इन्द्र है । यथा; सौधर्म में श इन्द्र है । ऐशानस्वर्ग में ईशान इन्द्र है । सनत्कुमारस्वर्ग में सनत्कुमार इन्द्र है । इसी प्रकार सर्व कल्पोंमें उसी २ कल्पके स्वनामके इन्द्र हैं । परन्तु कल्पोंके आगे इन्द्रादि दश भेद नहीं हैं, वहां तो सब ही स्वतंत्र हैं । 1 पीतान्तलेश्याः ॥ ७॥ सूत्रार्थः - पूर्वके दो निकायोंमें पीतान्त लेश्या होती हैं। भाष्यम् – पूर्वयोर्निकाययोर्देवानां पीतान्ताश्चतस्रो लेश्या भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या – पूर्वके जो भवनवासी और व्यन्तर ये दो निकाय हैं, उन निकायके देवोंको आरंभसे लेकर पीतपर्यन्त चार लेश्या होती हैं । अर्थात् उनको कृष्णा, नीला, कापोता और पीता ये चार लेश्या होती हैं ॥ ७ ॥ कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ८ ॥ सूत्रार्थः - ऐशान स्वर्गपर्यन्त देवों के कायप्रवीचार है । भाष्यम् – भवनवास्यादयो देवा आ ऐशानात्कायप्रवीचारा भवन्ति । कायेन प्रवीचार एषामिति कायप्रवीचाराः । प्रवीचारो नाम मैथुनविषयोपसेवनम् । ते हि संक्लिष्टकर्माणो मनुष्यवन्मैथुन सुखमनुप्रलीयमानास्तीत्रानुशयाः कायसंक्लेशजं सर्वाङ्गीणं स्पर्शसुखमवाप्य प्रीतिमुपलभन्त इति ॥ विशेषव्याख्या - भवनवासी देवोंसे आदि लेकर ऐशानस्वर्ग तकके देव कायप्रवीचार हैं । काय अर्थात शरीरसे जिनका प्रवीचार है, वे कायप्रवीचार । और मैथुन विषयका जो उपसेवन सो प्रवीचार, यह कायप्रवीचारका अर्थ है । सारांश शरीरकेद्वारा मैथुनविषयका जो उपभोग, संभोग अथवा उपसेवन करते हैं, वे कायप्रवीचार हैं । ये अर्थात् भवनवासीयोंसे लेकर ऐशानकल्प तकके देव निश्चयकरके संक्लिष्टकर्मवाले हैं; अतएव मनुष्यों के समान मैथुनके सुखको अनुभवन करते हुए तीव्रकामनासे युक्त होकर कायसम्बन्धी क्लेशजन्य सम्पूर्ण अंगोका जो स्पर्श है, उस स्पर्शजनितसुखको प्राप्त होकर प्रीतिको प्राप्त होते हैं । शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः ॥ ९ ॥ सूत्रार्थः - शेष आठ कल्पोंके देवोंमेंसे दो २ कल्पों के देव यथासंख्य करके क्रमसे स्पर्श, रूप, शब्द तथा मनसे प्रवीचार करनेवाले हैं । For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-ऐशानादूर्ध्व शेषाः कल्पोपपन्ना देवा द्वयोर्द्वयोः कल्पयोः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा भवन्ति यथासङ्खयम् । तद्यथा । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोर्दैवान्मैथुनसुखप्रेप्सूनुत्पन्नास्थान्विदित्वा देव्य उपतिष्ठन्ते । ताः स्पृष्टदैव च ते प्रीतिमुपलभन्ते विनिवृत्तास्थाश्च भवन्ति । तथा ब्रह्मलोकलान्तकयोर्देवानेवंभूतोत्पन्नास्थान्विदित्वा देव्यो दिव्यानि स्वभावभावस्वराणि सर्वाङ्गमनोहराणि शृङ्गारोदाराभिजाताकारविलासान्युज्वलचारुवेषाभरणानि स्वानि रूपाणि दर्शयन्ति । तानि दृष्ट्वैव ते प्रीतिमुपलभन्ते निवृत्तास्थाश्च भवन्ति ॥ तथा महाशुक्रसहस्रा. रयोर्देवानुत्पन्नप्रवीचारास्थान्विदित्वा देव्यः श्रुतिविषयसुखानत्यन्तमनोहराञ् शृङ्गारोदाराभिजातविलासाभिलापच्छेदतलतालाभरणरवमिश्रान्हसितकथितगीतशब्दानुदीरयन्ति । ताञ्श्रुत्वैव ते प्रीतिमुपलभन्ते निवृत्तास्थाश्च भवन्ति ॥ आनतप्राणतारणाच्युतकल्पवासिनो देवाः प्रवीचारायोत्पन्नास्था देवीः संकल्पयन्ति संकल्पमात्रेणैव ते परां प्रीतिमुपलभन्ते विनिवृ. त्तास्थाश्च भवन्ति ॥ एभिश्च प्रवीचारैः परतः परतः प्रीतिप्रकर्षविशेषोऽनुपमगुणो भवति प्रवीचारिणामल्पसंक्लेशत्वात् । स्थितिप्रभावाभिरधिका इति वक्ष्यते ॥ विशेषव्याख्या-ऊपर कहे हुए ईशानस्वर्गसे ऊपर शेष जो कल्पोपपन्न देव हैं । वे दो २ कल्पोंके क्रमसे स्पर्श, रूप, शब्द तथा मनसे प्रवीचार अर्थात् मैथुन सेवन करनेवाले हैं । सो इस प्रकार कि, सनत्कुमार तथा माहेन्द्र कल्पोंके देवोंको मैथुन सुखके अभिलाषी तथा उत्पन्न आस्था ( आशा वा कामना) सहित जानकर देवी अर्थात् देवाङ्गना उनके निकट आकर उपस्थित होती हैं । उन देवियोंको स्पर्श करनेसे ही वे देव प्रीतिको प्राप्त होते हैं और कामनानिवृत भी हो जाते हैं। ऐसे ही ब्रह्मलोक तथा लोकान्तकके देवोंको देवाङ्गनायें दिव्य, स्वभावसे ही प्रकाशशील, सर्वांङ्गमनोहर, शृंगारके उत्तम आकार विलासोंसे पूर्ण, तथा उज्ज्वल और रमणीय वेष (वस्त्रादि) और भूषणादि युक्त अपने रूपोंको दिखाती हैं । वे देव उनके अति मनोहर रूपको देखते ही प्रीतिको प्राप्त होते हैं, तथा कामनासे भी निवृत हो जाते हैं । इसी प्रकार महाशुक्र तथा सहस्रार स्वर्गके देवोंको उत्पन्न मैथुनकी कामनासहित जानकर देवियां उनके निकट आकर उपस्थित होती हैं, और उनके सम्मुख श्रवण विषयको सुखदायक, अत्यन्त मनोहर शृंगार, उदार ( उत्कृष्ट ) अभिजात विलास अभिलाप छेद तलतालयुक्त, आभूषणोंके शब्द सहित, हसित कथित गीतके शब्दोंको उच्चारण करती हैं। उन्हीं शब्दोंके श्रवणमात्रसे वे प्रीतिको प्राप्त होते हैं और कामनासे भी रहित हो जाते हैं । और आनत, प्राणत तथा आरण, अच्युत कल्पोंके जो देव हैं, उन्हें जिस समय मैथुन सेवनकी कामना होती है, उसी समय वे देवियोंका संकल्प करते हैं, और केवल अपने मनके संकल्पमात्रसे ही परमप्रीतिको प्राप्त होते हैं, और मैथुनकी कामनासे भी निवृत हो जाते हैं । इन शरीर, स्पर्श, रूप, शब्द तथा मनकेद्वारा मैथुनके उपसेवनोंसे आगे २ के देवोंके प्रीतिका प्रकर्ष विशेष अनुपम गुण है । क्योंकि आगे २ के मैथुनसेवि For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ९५ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । योंके अल्पसंक्लेश है । और स्थितिप्रभावादिसे भी अधिक अधिक हैं, ऐसा आगे कहेंगे (अ० ४ सू० २१)। परेऽप्रवीचाराः॥१०॥ सूत्रार्थ:-कल्पोपपन्नसे परे जो देव हैं, वे अप्रवीचार हैं। . भाष्यम्-कल्पोपपन्नेभ्यः परे देवा अप्रवीचारा भवन्ति । अल्पसंक्लेशत्वात् स्वस्थाः शीतीभूताः । पञ्चविधप्रवीचारोद्भवादपि प्रीतिविशेषादपरिमितगुणप्रीतिप्रकर्षाः परमसुखतृप्ता एव भवन्ति ॥ अत्राह । उक्तं भवता देवाश्चतुनिकाया दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पा इत्युक्ते निकायाः के के चैषां विकल्पा इति । अत्रोच्यते । चत्वारो देवनिकायाः । तद्यथा । भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिका इति ॥ तत्र विशेषव्याख्या-यहां पर्यन्त तो आरंभसे लेके कल्पोपपन्नपर्यन्त देवोंके प्रवीचारका वर्णन किया, अब इसके पश्चात् कल्पसे परे अर्थात् कल्पातीतकी व्यवस्था कहते हैं कि-कल्पोपपन्नोंसे परे जो देव हैं वे अप्रवीचार होते हैं, अर्थात् उनके मैथुन सेवन नहीं होता । क्योंकि इन देवोंके संक्लेश अथवा संक्लिष्टकर्म अल्प होते हैं, अतएव वे स्वस्थ, शान्त और सदा शीतलभूत रहते हैं। पांच प्रकारके प्रवीचारद्वारा अर्थात् काय, स्पर्श, रूप, शब्द तथा मनोजन्य मैथुन सेवनकेद्वारा उत्पन्न जो प्रीतिविशेष है, उससे भी अपरिमितगुण अर्थात् पूर्वोक्त पंचविध मैथुनोंसे जो आनन्द होता है, उससे अपरिमित-अनन्तगुण प्रीति वा आनन्दकी अधिकतायुक्त ये देवगण होते हैं, अतएव परमसुखतृप्त ही रहते हैं ॥ १० ॥ __ अब यहां कहते हैं कि, आपने देवोंके चार निकाय कहे और क्रमसे प्रथम निकाय दश भेद, द्वितीय आठ भेद, तृतीय पांच भेद और चतुर्थ बारह भेदसहित हैं, यह भी कहा, तब चारों निकाय कौन २ हैं ? तथा उनके दश, आठ, पांच तथा बारह विकल्प भी कौन २ हैं । इसका समाधान यहां कहते हैं । चार देव निकाय हैं । सो इस प्रकार कि, १ भवनवासी, २ व्यन्तर, ३ ज्योतिष्क और ४ वैमानिक । इनमें--- भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि द्वीपदिक्कुमाराः ॥११॥ सूत्रार्थ:--भवनवासियों के असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमारादि दश भेद हैं । भाष्यम् –प्रथमो देवनिकायो भवनवासिनः । इमानि चैषां विधानानि भवन्ति । तद्यथा असुरकुमारा नागकुमारा विद्युत्कुमाराः सुपर्णकुमारा अग्निकुमारा वातकुमाराः स्तनितकुमारा उदधिकुमारा द्वीपकुमारा दिक्कुमारा इति । कुमारवदेते कान्तदर्शनाः सुकुमारा मृदुमधुरललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवचोद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणा For Personal & Private Use Only . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् वरणयानवाहनाः कुमारवच्चोल्बणरागाः क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते । असुरकुमारावासेष्वसुरकुमाराः प्रतिवसन्ति शेषास्तु भवनेषु । महामन्दरस्य दक्षिणोत्तरयोर्दिग्विभागयोर्बह्वीषु योजनशतसहस्रकोटीकोटीष्वावासा भवनानि च दक्षिणार्धाधिपतीनामुत्तरार्धाधिपतीनां च यथास्वं भवन्ति । तत्र भवनानि रत्नप्रभायां बाहल्यार्धमवगाह्य मध्ये भवन्ति । भवनेषु वसन्तीति भवनवासिनः ॥ विशेषव्याख्या-चारों निकायोंमेंसे प्रथम निकाय भवनवासी हैं । उनके भेद ये हैं। यथा; असुरकुमार १, नागकुमार २, विद्युत्कुमार ३, सुपर्णकुमार ४, अग्निकुमार ५, वातकुमार ६, स्तनितकुमार ७, उदधिकुमार ८, द्वीपकुमार ९ और दिक्कुमार १० । ये सब कुमारोंके समान रमणीयदर्शन, सुकुमार, मृदु, मधुर तथा ललित गतिवाले, शृंगार सहित सुन्दर रूप विक्रियायुक्त होते हैं । और कुमारोंके तुल्य उद्धत रूप, वेष, भाषा, आभरण, अस्त्रशस्त्रादि प्रहरण, वस्त्र तथा यान वाहनादि युक्त होते हैं । और कुमारोंके ही समान इनका व्यक्त अर्थात् स्पष्टराग क्रीड़ामें तत्पर रहता है; अतएव इन्हें कुमार कहते हैं । इनमें असुरकुमार, असुरकुमारोंके आवासमें रहते हैं, और शेष भवनोंमें निवास करते हैं। महामन्दरके दक्षिण और उत्तर दिग्विभागोंमें अनेक लाखयोजन कोटी कोटीयोंमें असुरकुमारोंके आवास हैं, और भवन भी दक्षिणार्धाधिपतियोंके और उत्तरार्धाधिपतियोंके यथास्वं हैं । वहां रत्नप्रभामें वहलभागके अर्ध मध्यमें प्रवेशकरके मध्यमें भवन हैं । भवनोंमें जो रहते हैं, उन्हें भवनवासी कहते हैं । भवप्रत्ययाश्चैषामिमा नामकर्मनियमात्स्वजातिविशेषनियता विक्रिया भवन्ति । तद्यथा । गम्भीराः श्रीमन्तः काला महाकाया रत्नोत्कटमुकुटभास्वराश्चूडामणिचिह्ना असुरकुमारा भवन्ति । शिरोमुखेष्वधिकप्रतिरूपाः कृष्णश्यामा मृदुललितगतयः शिरस्सु फणिचिह्ना नागकुमाराः । स्निग्धा भ्राजिष्णवोऽवदाता वज्रचिह्ना विद्युत्कुमाराः । अधिकरूपग्रीवोरस्काः श्यामावदाता गरुडचिह्नाः सुपर्णकुमाराः । मानोन्मानप्रमाणयुक्ता भास्वन्तोऽवदाता घटचिह्ना अग्निकुमारा भवन्ति । स्थिरपीनवृत्तगात्रा निमग्नोदरा अश्वचिह्ना अवदाता वातकुमाराः । स्निग्धाः स्निग्धगम्भीरानुनादमहास्वनाः कृष्णा वर्धमानचिह्नाः स्तनितकुमाराः । ऊरुकटिष्वधिकप्रतिरूपाः कृष्णश्यामा मकरचिह्ना । उदधिकुमाराः। उरःस्कन्धबाह्वग्रहस्तेष्वधिकप्रतिरूपाः श्यामावदाताः सिंहचिह्ना द्वीपकुमाराः । जङ्घाग्रपादेष्वधिकप्रतिरूपाः श्यामा हस्तिचिह्ना दिक्कुमाराः । सर्वे विविधवस्त्राभरणप्रहरणावरणा भवन्तीति ॥ भवप्रत्ययसे अर्थात् देवयोनिमें जन्म लेनेके कारणसे तथा नामकर्मके नियमसे निज जाति विशेषमें नियत ऐसी विक्रिया इन देवोंके होती हैं । सो इस प्रकार कि,-गंभीर, श्रीमन्त अर्थात् शोभादि ऐश्वर्ययुक्त, काले, महाकाय, रत्नजटित मुकुटोंसे प्रकाशशील चूडामणिसे चिह्नित असुरकुमार होते हैं । शिर और मुखोंमें प्रतिरूप कृष्ण, श्याम, मृदु तथा ललित गतिवाले शिरमें नागसे चिह्नित नागकुमार होते हैं। चिक्कण, प्रकाशशील, For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ९७ भास्वर शुक्लवर्ण, तथा वज्रोंसे चिह्नित विद्युत्कुमार होते हैं । अतिसुन्दर ग्रीवा (गला) तथा वक्षस्थल ( छाती ) से भूषित, श्याम तथा शुद्ध वर्ण, तथा गरुडसे चिह्नित सुपर्णकुमार होते हैं । मान-ऊर्ध्वमान और प्रमाण-युक्त, प्रकाशशील, शुद्ध शुक्लवर्ण, और घटसे चिह्नित अग्निकुमार होते हैं । स्थिर - स्थूल तथा वर्तुलाकार शरीरधारी, निमग्न अर्थात् नमित उदरसहित, शुद्ध वर्ण, और अश्वसे चिह्नित बालकुमार होते हैं । चिक्कण, स्निग्ध, गम्भीर, प्रतिध्वनि और महानाद - संयुक्त, कृष्णवर्ण, और वर्धमानचिह्नयुक्त स्तनितकुमार होते हैं । जंघा तथा कटिप्रदेशमें अधिक सुन्दर, कृष्ण श्यामवर्ण, तथा मकरसे चिह्नित उदधिकुमार होते हैं । वक्षस्थल, कन्धा, बाहू, और अग्र हस्तों के विषे अधिक सुन्दर, श्याम शुद्ध वर्ण, तथा सिंहसे चिह्नित द्वीपकुमार होते हैं । और जंघा, और अग्रपादों में अधिक सौन्दर्य - सहित, श्यामवर्ण और हस्तियों से चिह्नित दिकुमार होते हैं । सब ए दशो कुमार अनेक प्रकारके वस्त्र, आभूषण तथा शस्त्र - अस्त्र- आदिसे सम्पन्न होते हैं | 1 व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः॥१२॥ सूत्रार्थः—– द्वितीय व्यन्तरनिकाय है और उसके किन्नर आदि आठ भेद हैं । भाष्यम् – अष्टविधो द्वितीयो देवनिकायः । एतानि चास्य विधानानि भवन्ति । अस्तिगूर्ध्व च त्रिष्वपि लोकेषु भवननगरेष्वावासेषु च प्रतिवसन्ति । यस्माच्चाधस्तिर्यगूर्ध्व च त्रीनपि लोकान् स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात्पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपतन्त्यनियतगतिप्रचारा मनुष्यानपि केचित्यवदुपचरन्ति विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्त्यतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते । - 1 विशेषव्याख्या – अब द्वितीय जो निकाय है वह व्यन्तर है । और उसके भेद आठ ये हैं । जैसे- किन्नर १ किम्पुरुष २ महोरग ३ गन्धर्व ४ यक्ष ५ राक्षस ६ भूत ७ और पिशाच ८ । ये' अधोभागमें तिर्य्यग्भागमें, तथा ऊर्ध्वभाग में, तीनो लोकों में, भवनोंमें, नगरोंमें, तथा आवासोंमें ये व्यन्तर देव निवास करते हैं । इस हेतुसे कि अधोभागमें, तिर्य्यग्भागमें, और ऊर्ध्वभाग में तीनो लोकों को स्पर्श करते हुए स्वतंत्रतासे, और दूसरेके अभियोगसे प्रायः अनियत गतिके प्रचारसे चारों ओर गिरते घूमते रहते हैं, और कोई २ मनुष्योंकी भी भृत्यके समान सेवा करते हैं; तथा विविध ( अनेक ) प्रकारके पर्वत, कन्दरा, अन्तर्वन और विवर आदिमें निवास करते रहते हैं, इस हेतुसे ये व्यन्तर कहे जाते हैं ॥ तत्र किन्नरा दशविधाः । तद्यथा - किन्नराः किम्पुरुषाः किंपुरुषोत्तमाः किन्नरोत्तमा हृदयंगमा रूपशालिनोऽनिन्दिता मनोरमा रतिप्रिया रतिश्रेष्ठा इति ॥ किम्पुरुषा दशविधाः । १ रत्नप्रभा भूमिका सहस्र योजन अवगाढ जो प्रथमकाण्ड उसके नीचे ऊपर शत २ ( सौ २) योजन छोड़के मध्यमें असंख्येय लक्ष भूमिनगर तथा आवास हैं । जो व्यन्तरोंके निवासस्थान हैं । Jain Education InternaЯal For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तद्यथा - पुरुषाः सत्पुरुषा महापुरुषाः पुरुषवृषभाः पुरुषोत्तमा अतिपुरुषा मरुदेवा मरुतो प्रभा यशस्वन्त इति ।। महोरगा दशविधाः । तद्यथा - भुजगा भोगशालिनो महाकाया अतिकायाः स्कन्धशालिनो मनोरमा महावेगा महेष्वक्षा मेरुकान्ता भास्वन्त इति । गान्धर्वा द्वादशविधाः । तद्यथा — हाहा - हूहू - तुम्बुरवो नारदा ऋषिवादिका भूतवादिकाः कादम्बा महाकादम्बा रैवता विश्वावसवो गीतरतयो गीतयशस इति ॥ यक्षास्त्रयोदशविधाः । तद्यथापूर्णभद्रा माणिभद्राः श्वेतभद्रा हरिभद्राः सुमनोभद्रा व्यतिपातिकभद्राः सुभद्राः सर्वतोभद्रा मनुष्ययक्षा वनाधिपतयो वनाहारा रूपयक्षा यक्षोत्तमा इति ॥ सप्तविधा राक्षसाः । तद्यथाभीमा महाभीमा विना विनायका जलराक्षसा राक्षसराक्षसा ब्रह्मराक्षसा इति ॥ भूता नवविधाः । तद्यथा - सुरूपाः प्रतिरूपा अतिरूपा भूतोत्तमा स्कन्दिका महास्कन्दिका महावेगाः प्रतिच्छन्ना आकाशगा इति । पिशाचाः पञ्चदशविधाः । तद्यथा - कूष्माण्डाः पटका जोषा आह्नकाः काला महाकालाचौक्षा अचौक्षास्तालपिशाचा मुखरपिशाचा अधस्तारका देहा महाविदेहास्तूष्णीका वनपिशाचा इति ॥ इनमें किन्नर दश प्रकार के होते हैं। जैसे- किन्नर, किम्पुरुष, किंपुरुषोत्तम, किन्नरोत्तम, हृदयंगम, रूपशाली, अनिन्दित, मनोरम, रतिप्रिय, और रतिश्रेष्ठ । किम्पुरुष भी दश प्रकार के हैं । जैसे - पुरुष, सत्पुरुष, महापुरुष, पुरुषवृषभ, पुरुषोत्तम, अतिपुरुष, मरुदेव, 1 मरुत, मेरुप्रभ, तथा यशस्वत् । महोरगभी दश प्रकारके हैं । जैसे-भुजग, भोगशाली, महाकाय, अतिकाय, स्कन्धशाली, मनोरम, महावेग, महेष्वक्ष, मेरुकान्त और भाखान् । और गन्धर्व बारह प्रकारके हैं । जैसे- हाहा, हूहू, तुम्बुरु, नारद, ऋषिवादिक, भूतवादिक, कादम्ब, महाकादम्ब, रैवत, विश्वावसु, गीतरति, और गीतयशस् । यक्ष तेरह प्रकारके हैं । जैसे- पूर्णभद्र, मणिभद्र, श्वेतभद्र, हरिभद्र, सुमनोभद्र, व्यतिपातिकभद्र, सुभद्र, सर्वतोभद्र, मनुष्ययक्ष, वनाधिपति, वनाहार, रूपयक्ष और यक्षोत्तम । ब्रह्म - राक्षस सात प्रकार के हैं । जैसे- भीम, महाभीम, विघ्न, विनायक, जलराक्षस, राक्षसराक्षस, और ब्रह्मराक्षस । भूत नौ प्रकारके हैं । जैसे- सुरूप, प्रतिरूप, अतिरूप, भूतोत्तम, स्कन्दिक, महास्कन्दिक, महावेग, प्रतिच्छन्न, और आकाशग । पिशाच १५ पन्द्रह प्रकारके हैं । जैसेसे - कूष्माण्ड, पटक, जोष, आह्नक, काल, महाकाल, उक्षा, अचौक्ष, तालपिशाच, मुखरपिशाच, अधस्तारक, देह, महाविदेह, तूष्णीक और वनपिशाच । 1 1 तत्र किन्नराः प्रियङ्गुश्यामाः सौम्याः सौम्यदर्शना मुखेष्वधिकरूपशोभा मुकुटमौलिभूषणा अशोकवृक्षध्वज अवदाताः । किम्पुरुषा ऊरुबाहुष्वधिकशोभा मुखेष्वधिकभास्वरा विविधाभरणभूषणाश्चित्रस्रगनुलेपनाचम्पकवृक्षध्वजाः ॥ महोरगाः श्यामावदाता महावेगाः सौम्याः सौम्यदर्शना महाकायाः पृथुपीनस्कन्धग्रीवा विविधानुविलेपना विचित्राभरणभूषणा नागवृक्षध्वजाः । गान्धर्वा रक्तावदाता गम्भीराः प्रियदर्शनाः सुरूपाः सुमुखाकाराः सुखरा मौलिधरा हारविभूषणास्तुम्बुरुवृक्षध्वजाः । यक्षाः श्यामावदाता गम्भीरा तुन्दिला वृन्दारकाः प्रियदर्शना मानोन्मानप्रमाणयुक्ता रक्तपाणिपादतलनखतालुजिहौष्ठा भाखरमुकुटधरा For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । नानारत्नविभूषणा वटवृक्षध्वजाः । राक्षसा अवदाता भीमा भीमदर्शनाः शिरःकराला रक्तलम्बौष्ठास्तपनीयविभूषणा नानाभक्तिविलेपनाः खदाङ्गध्वजाः। भूताः श्यामाः सुरूपाः सौम्या आपीवरा नानाभक्तिविलेपनाः सुलसध्वजाः कालाः । पिशाचाः सुरूपाः सौम्यदर्शना हस्तग्रीवासु मणिरत्नविभूषणाः कदम्बवृक्षध्वजाः । इत्येवंप्रकारस्वभावानि वैक्रियाणि रूपचिह्नानि व्यन्तराणां भवन्तीति ॥ इन दश प्रकारके व्यन्तरोंमें किन्नर प्रियङ्गुके सदृश श्याम, सौम्यस्वभाव, सौम्यदर्शन, मुखोंमें अधिक रूपशोभायुक्त, मुकुटोंसे शिरोंमें विभूषित, अशोक वृक्षकी ध्वजाधारी और शुद्ध गौर वर्ण होते हैं । तथा किम्पुरुष जंघा और भुजाओंमें अधिक शोभायुक्त, मुखदेशमें अधिक प्रकाशसहित, विविध प्रकारके वस्त्राभूषणोंसे शोभित, चित्र विचित्र माला तथा अनुलेपनोंसे सज्जित और चम्पकवृक्षकी ध्वजा धारण किये होते हैं । तथा महोरग श्याम-शुद्धरूप, महावेग, सौम्यस्वभाव, सौम्यदर्शन, महाकाय, विशाल तथा स्थूल स्कंध और ग्रीवासहित, अनेक प्रकारके अनुविलेपन (उबटन आदि) सहित, विचित्र भूषण-वस्त्रोंसे शोभित और नागवृक्षकी ध्वजासे शोभित होते हैं। गन्धर्व रक्त-शुक्लवर्ण, गंभीर, प्रियदर्शन, सुरूप, उत्तम मुखवाले, उत्तमस्वर (शब्दके स्वर) युक्त, मुकुटधारी, हारोंसे भूषित और तुम्बुरु वृक्षकी ध्वजा धारण किये हुए होते हैं। यक्ष श्याम-शुद्धवर्ण, गंभीर, तुंदिल (तोंदवाले), मनोहर, प्रियदर्शन, मानोन्मानप्रमाण-सहित, हाथ तथा पावोंके तलभाग, नख, तालु, जिह्वा और ओष्ठ प्रदेशोंमें रक्तवर्ण, प्रकाशमान मुकटोंको धारण किये हुए, अनेक प्रकारके रत्नमय भूषणोंसे शोभित और वटवृक्षकी ध्वजा धारण किये हुए होते हैं । राक्षस शुद्धवर्ण, भीम, भीम (भयंकर) दर्शनवाले, शिरोदेशमें अतिकराल, रक्तवर्णके लम्बे २ ओठोंको धारण किये हुए, सुवर्णके आभूषणोंसे शोभित, नानाप्रकारके विलेपनोंसे युक्त और खटांगध्वजाधारी होते हैं । भूत कृष्णवर्ण, अतिसुन्दर, सौम्य, अतिस्थूल, नानाप्रकारके अनुलेपधारी, और सुलस ध्वजाधारी होते हैं। और पिशाच अतिसुन्दर, सौम्यदर्शन, हाथ तथा गलेमें मणियों और रनोंके आभूषणोंसे शोभित तथा कदम्बके वृक्षोंकी ध्वजाओंसे चिह्नित होते हैं । इस प्रकारके वैक्रियक स्वभाव, तथा रूप और चिह्न व्यन्तर देवोंके हैं। तृतीयो देवनिकायः। अब तृतीय देवनिकायका वर्णन करते हैं ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णतारकाश्च ॥ १३ ॥ सूत्रार्थ:-तीसरे ज्योतिष्क निकायमें सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, और प्रकीर्णक तारा इस प्रकार पांच भेद हैं। भाष्यम्-ज्योतिष्काः पञ्चविधा भवन्ति । तद्यथा-सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहा नक्षत्राणि प्रकी For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् र्णतारका इति पञ्चविधा ज्योतिष्का इति । असमासकरणमार्षाच्च सूर्याचन्द्रमसोः क्रमभेदः कृतः यथा गम्यतैतदेवैषामूर्ध्वनिवेश आनुपूर्व्यमिति । तद्यथा-सर्वाधस्तात्सूर्यास्ततश्चन्द्रमसस्ततो ग्रहास्ततो नक्षत्राणि ततोऽपि प्रकीर्णताराः । ताराग्रहास्त्वनियतचारित्वात्सूर्यचन्द्रमसामूर्ध्वमधश्च चरन्ति । सूर्येभ्यो दशयोजनावलम्बिनो भवन्तीति । समामिभागादष्टसु योजनशतेषु सूर्यास्ततो योजनानामशीत्यां चन्द्रमसस्ततो विंशत्यां तारा इति । द्योतयन्त इति द्योतींषि विमानानि तेषु भवा ज्योतिष्का ज्योतिषो वा देवा ज्योतिरेव वा ज्योतिष्काः । मुकुटेषु शिरोमुकुटोपगृहितैः प्रभामण्डलकल्पैरुज्ज्वलैः सूर्यचन्द्रतारामण्डलैयथास्वं चिट्ठविराजमाना द्युतिमन्तो ज्योतिष्का भवन्तीति ॥ विशेषव्याख्या-ज्योतिष्क देव पांच प्रकारके हैं । यथाः-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, और प्रकीर्णक तारका ये पांच प्रकारके ज्योतिष्क देव हैं । इस सूत्रमें समास न करनेका और आर्ष प्रमाणसे सूर्य तथा चन्द्रमाका क्रमभेद करनेका कारण यह है कि, जिससे यह सूचित होजाय कि इनकी यथाक्रम ऊर्ध्व स्थिति है । अर्थात् आर्ष ग्रन्थोंमें चन्द्रमा पूर्व पठित है और सूर्य पश्चात्, वह यहाँपर इष्ट नहीं है। यहाँपर सूर्यको ही प्रथम कहना है । क्योंकि पाठक्रमानुसार ऊपर इनकी स्थिति नहीं है। किंतु इनकी एकके पश्चात् दूसरेकी ऊपर २ स्थिति है । जैसे-सबके नीचे प्रथम सूर्य हैं, पश्चात् चन्द्रमा हैं, चन्द्रमाओंके ऊपर ग्रह हैं, उनके ऊपर नक्षत्र हैं और नक्षत्रोंके ऊपर प्रकीर्णकतारका हैं । और ताराग्रह तो अनियतचारी अर्थात् जिनकी गति नियत नहीं ऐसे होनेसे सूर्य तथा चन्द्रमाके ऊपर तथा नीचे भी भ्रमण करते हैं. और सूर्यसे दश योजन अवलम्ब होते हैं अर्थात् सूर्यसे दश योजन दूर रहते हैं । समान भूमिभागसे आठसौ (८००) योजनपर सूर्य हैं, सूर्यसे अस्सी (८०) योजनपर चन्द्रमा हैं, और चन्द्रमासे बीस (२०) योजनपर तारा हैं। प्रकाशशील विमानोंमें जो हैं, उनको ज्योतिप्क कहते हैं । ज्योतिष् (प्रकाश)से होनेवाले देव अथवा ज्योतिष् (प्रकाश ) रूप ही जो देव उनको ज्योतिष्क कहते हैं। उन ज्योतिष्कोंके मुकुटोंमें शिरोमुकुटोंसे आच्छादित और प्रभामण्डलोंके समान उज्वल ऐसे सूर्य, चन्द्र तथा ताराओंके मण्डलरूप अपने २ चिह्न यथाक्रमसे विराजमान हैं । अर्थात् सूर्य सूर्यमण्डलोंसे, चन्द्रमा चन्द्रमण्डलोंसे तथा तारागण तारामण्डलोंसे चिह्नित हैं । और वे ज्योतिष्क देव प्रकाशमय हैं। मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयो नृलोके ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ:-ज्योतिष्क देव मनुष्यलोकमें नित्यगतिरूप होकर मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं। भाष्यम्-मानुषोत्तरपर्यन्तो मनुष्यलोक इत्युक्तम् । तस्मिज्योतिष्का मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयो भ्रमन्ति । मेरोः प्रदक्षिणा नित्या गतिरेषामिति मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयः । एका. दशवेकविशेषु योजनशतेषु मेरोश्चतुर्दिशं प्रदक्षिणं चरन्ति । तत्र द्वौ सूर्यौ जम्बूद्वीपे, लवण For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १०१ जले चत्वारो, धातकीखण्डे द्वादश, कालोदे द्वाचत्वारिंशत्पुष्करार्धे द्विसप्ततिरित्येवं मनुष्यलोके द्वात्रिंशत्सूर्यशतं भवति । चन्द्रमसामप्येष एव विधिः । अष्टाविंशतिनक्षत्राणि, अष्टाशीतिम्रहाः, षट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्ततानि तारा कोटाकोटीनामेकैकस्य चन्द्रमसः परिग्रहः । सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहा नक्षत्राणि च तिर्यग्लोके, शेषास्तूर्ध्वलोके ज्योतिष्का भवन्ति । अष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः, चन्द्रमसः षट्पञ्चाशद् , ग्रहाणामधयोजनं, गव्यूतं नक्षत्राणां, सर्वोत्कृष्टायास्ताराया अर्धक्रोशो, जघन्यायाः पञ्चधनुःशतानि । विष्कम्भार्धबाहल्याश्च भवन्ति । सर्वे सूर्यादयो नृलोक इति वर्तते । बहिस्तु विष्कम्भबाहल्याभ्यामतोऽध भवंति ॥ एतानि च ज्योतिष्कविमानानि लोकस्थित्या प्रसक्तावस्थितगतीन्यपि ऋद्धिविशेषार्थमाभियोग्यनामकर्मोदयाच्च नित्यं गतिरतयो देवा वहन्ति । तद्यथा-पुरस्तात्केसरिणो, दक्षिणतः कुञ्जरा, अपरतो वृषभा, उत्तरतो जविनोऽश्वा इति ॥ विशेषव्याख्या-मानुषोत्तरपर्वतपर्यन्त मनुष्यलोक है ऐसा पूर्वप्रकरण अ० ३, सू० १४ में कहा है । उस मनुष्यलोकमें ज्योतिप्क देव नित्यगतिवाले होकर मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करते हुए भ्रमण करते हैं । मेरुकी प्रदक्षिणारूप जिनकी नित्य गति है उनको मेरुप्रदक्षिणानित्यगतिवाले कहते हैं । ए ज्योतिष्क देव मेरुसे गेरासौ इक्कीस (११२१) योजन दूर चारों दिशाओंमें प्रदक्षिणा करतेहुए भ्रमण करते हैं । तहां जम्बूद्वीपमें दो, लवणजल (क्षारसमुद्र)में चार, धातकीखण्डमें बारह (१२), कालोद समुद्र में बयालीस (४२.) और पुष्करार्द्धमें बहत्तर (७२) सूर्य हैं; इस प्रकार मनुष्यलोकमें एकसौ बत्तीस (१३२) सूर्य होते हैं । चन्द्रमाओंकी भी यही विधि है । इन सब (चन्द्रमाओं)में अट्ठाईस (२८) नक्षत्र, अठासी (८८) ग्रह, तथा छासठ हजार नौसै पछत्तर (६६९७५) कोटाकोटी एक २ चन्द्रमाके ताराओंका परिग्रह है । अर्थात् प्रत्येक चन्द्रमाके (६६९७५) कोटाकोटी तारे हैं। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्र ए तो तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोकमें हैं, और शेष ज्योतिष्क अर्थात् प्रकीर्णक तारा ऊर्ध्वलोकमें रहते हैं । अड़तालीस (४८) योजन तथा साठमें एक भाग ६० योजन सूर्यमण्डलका विष्कम्भ है; चन्द्रमाका छप्पन (५६) योजन, ग्रहोंका आधा योजन, नक्षत्रोंका दो कोश और ताराओं में सबसे बड़ी ताराका अर्ध कोश और सबसे छोटीका पांचसौ १ शेषपदसे यहां प्रकीर्णताराओंसे तात्पर्य है । क्योंकि जो सूर्य, चन्द्र, ग्रह, और नक्षत्र यह चार गिनादिये तो शेष प्रकीर्णतारा रहे; वेही ऊर्ध्वलोकमें रहते हैं. यही अभिप्राय आचार्यका है। परंतु आर्षग्रन्थोमें ऐसा लेख नहीं है। क्योंकि वहां तो समस्त ज्योतिष्कोंकी स्थिति तिर्यग्लोकमे ही कही है। और "शेष तारारूप ज्योतिष्क ऊर्ध्वलोकमें होते हैं" यह वृत्तिकारका आशय उनके (वृत्तिकारके) बहुश्रुत होनेसे अविरुद्धंही है, क्योंकि अठारहसौ (१४००) योजन ऊंचा तिर्यग्लोक मानसे तिर्यग्लोकके अधोभागकी अपेक्षासे ऊर्ध्व दिग्भाव होताही है, इसमें कुछ विरोध नहीं है. अर्थात् ऊर्ध्वलोकका अर्थ ऊर्ध्वदिशा करनेसे सब विरोध मिटता है. For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् धनुष् है । विष्कम्भसे अर्द्धबाहल्य उँचाई होती है । सूर्य आदि सब ज्योतिष्क मनुष्यलोकमें होते हैं । और मनुष्यलोकके बाहर तो विष्कम्भ तथा बाहल्यसे अर्द्धभाग होते हैं । ये ज्योतिष्कदेवों के विमान लोककी स्थितिसे यद्यपि प्रसक्त अवस्थित गति अर्थात् गतिमें तत्पर तथा निवृत्त गतिवाले हैं तथापि ऋद्धिविशेषके लिये, आभियोग्य नाम कर्मके उदयसे नित्यगतिसे प्रीति करनेवाले देवता इनको भ्रमण कराते हैं । जैसे—इनके विमानोंके अग्रभागमें सिंह रहते हैं, दक्षिणभागमें गजेन्द्र, पृष्ठभागमें वृषभ (बैल) और उत्तरभागमें अतिवेगशाली तुरङ्ग (घोड़े) रहते हैं । तत्कृतः कालविभागः ॥१५॥ सूत्रार्थ:-नित्यगतिवाले ज्योतिष्क देवोंसे कालका विभाग होता है। भाष्यम्-कालोऽनन्तसमयो वर्तनादिलक्षण इत्युक्तम् । तस्य विभागो ज्योतिष्काणां गतिविशेषकृतश्चारविशेषेण हेतुना । तैः कृतस्तत्कृतः । तद्यथा-अणुभागाश्चारा अंशाः कला लवा नालिका मुहूर्ता दिवसरात्रयः पक्षा मासा ऋतवोऽयनानि संवत्सरा युगमिति लौकिकसमो विभागः ।। पुनरन्यो विकल्पः प्रत्युत्पन्नोऽतीतोऽनागत इति त्रिविधः ॥ पुनत्रिविधः परिभाष्यते सङ्खयोऽसङ्खथेयोऽनन्त इति ।। विशेषव्याख्याः —'अनन्त समययुक्त, वर्तना आदिलक्षणसहित काल है' ऐसा कहा है (अध्या. ५ सू. २२,३९)। उस अनन्तसमययुक्त तथा वर्तना-आदिलक्षणसहित कालका विभाग ज्योतिष्क देवोंकी गतिविशेषकृत है । अर्थात् ज्योतिष्कदेवोंकी जो संचरण वा भ्रमण विशेषगति है वही कालके विभागों हेतु है । 'तत्कृतः' यहांपर समास 'तैः कृतः उनके गतिविशेषोंसे कृत, ऐसा समझना चाहिये । कालके विभाग, जैसे-अणुभाग (अति सूक्ष्मभाग), चार, अंश, कला, लव, नालिका, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन (दक्षिणायन वा उत्तरायण) 'छ: महीनेका अयन होता है' वर्ष और युग, यह सब लौकिकके समान कालका विभाग है। पुनः कालका अन्य विकल्प (भाग) भी है । जैसे-प्रत्युत्पन्न (वर्तमान), अतीत (भूत) और अनागत अर्थात् भविष्य । यह तीन प्रकारका कालका भेद है । वही काल पुनः तीन प्रकारका निर्धारित होता है। जैसे-संख्येय, असंख्येय और अनंत । तत्र परमसूक्ष्मक्रियस्य सर्वजघन्यगतिपरिणतस्य परमाणोः स्वावगाहनक्षेत्रव्यतिक्रमकालः समय इत्युच्यते परमदुरधिगमोऽनिर्देश्यः । तं हि भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति न तु निर्दिशन्ति परमनिरुद्धत्वात् । परमनिरुद्धे हि तस्मिन् भाषाद्रव्याणां ग्रहणनिसर्गयोः करणप्रयोगासम्भव इति । ते त्वसङ्ख्या आवलिका । ताः सङ्ख्या उछासस्तथा निःश्वासः । तौ बलवतः पद्विन्द्रियस्य कल्यस्य मध्यमवयसः स्वस्थमनसः पुंसः प्राणः । ते सप्त स्तोकः। १ एक प्रकारके ज्योतिष्क देवही सिंहादिककी आकृति धारण किये होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १०३ ते सप्त लवः । तेऽष्टात्रिंशदधै च नालिका । ते द्वे मुहूर्तः । ते त्रिंशदहोरात्रम् । तानि पञ्चदश पक्षः । तौ द्वौ शुक्लकृष्णौ मासः । तौ द्वौ मासावृतुः । ते त्रयोऽयनम् । ते द्वे संवत्सरः । ते पञ्च चन्द्रचन्द्राभिवर्धितचन्द्राभिवधिताख्या युगम् । तन्मध्येऽन्ते चाधिकमासको । सूर्यसवनचन्द्रनक्षत्राभिवर्धितानि युगनामानि । वर्षशतसहस्रं चतुरशीतिगुणितं पूर्वाङ्गम् । पूर्वाङ्गशतसहस्रं चतुरशीतिगुणितं पूर्व । एवं तान्ययुतकमलनलिनकुमुदतुद्यटटाववा हाहाहूहूचतुरशीतिशतसहस्रगुणाः सङ्खथेयः कालः । अत ऊर्ध्वमुपमानियतं वक्ष्यामः । तद्यथा हि नाम योजनविस्तीर्ण योजनोच्छ्रायं वृत्तं पल्यमेकरात्रागुत्कृष्टसप्तरात्रजातानामङ्गलोम्नां गाढं पूर्ण स्याद्वर्षशताद्वर्षशतादेकैकस्मिन्नुद्भियमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं स्यादेतत्पल्योपमम् । तद्दशभिः कोटाकोटिभिर्गुणितं सागरोपमम् । तेषां कोटाकोट्यश्चतस्रः सुषमसुषमा । तिस्रः सुषमा । द्वे सुषमदुःषमा । द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्राणि हित्वा एका दुःषमसुषमा । वर्षसहस्राणि एकविंशतिर्दुःषमा । तावत्येव दुःषमदुःषमा। ता अनुलोमप्रतिलोमा अवसर्पिण्युत्सपिण्यौ भरतैरावतेष्वनाद्यनन्तं परिवर्तेतेऽहोरात्रवत् । तयोः शरीरायुःशुभपरिणामानामनन्तगुणहानिवृद्धी अशुभपरिणामवृद्धिहानी । अवस्थितावस्थितगुणा चैकैकान्यत्र । तद्यथाकुरुषु सुषमसुषमा, हरिरम्यकवासेषु सुषमा, हैमवतहैरण्यवतेषु सुषमदुःषमा, विदेहेषु सान्तरद्वीपेषु दुःषमसुषमा, इत्येवमादिमनुष्यक्षेत्रे पर्यापन्नः कालविभागो ज्ञेय इति ॥ उन कालके विभागोंमेंसे परम सूक्ष्म क्रियावान् , सबसे जघन्य गतिमें परिणत जो परमाणु है उस परमाणुके बीजके अवगाहनक्षेत्रके व्यतिक्रमका जो काल है, अर्थात् जितनें कालमें अपने क्षेत्रसे दूसरेमें पलटा खाके स्थित होता है वा केवल पलटा खाता है वह काल समय कहलाता है और वह समयरूप काल सूक्ष्म होनेसे अत्यन्त दुष्प्राप्य है अर्थात् बुद्धिमानोंसे भी दुःखसे जाना जाता है, और “यह ऐसा है," इस प्रकार निर्देश करने योग्य (दूसरेको दर्शानेयोग्य) नही है । उस समयरूप कालको भगवान् परमर्षि केवली (केवल ज्ञानसम्पन्न) जनही जानते हैं, न कि उसको निर्देशकरके अन्यको दर्शाते हैं; क्योंकि वह अति सूक्ष्म होनेसे परम निरुद्ध है। परम निरुद्ध उस समयरूप कालमें भाषाद्रव्योंके वाणी वा शब्दादिके ग्रहण तथा त्यागमें करणोंके (इन्द्रियोंके) प्रयोगका असंभव है । और वे असंख्येयसमय मिलके एक आवलिका होती है। और वे संख्येय आवलिकायें मिलकर एक उच्छ्रास तथा निश्वास होता है। और वे उच्छास तथा निश्वास मिलकर बलवान्, समर्थ इन्द्रियसहित, नीरोग, युवा, और स्वस्थ मनवाले पुरुषका एक प्राण है। सप्तप्राण मिलके एक स्तोक होता है । सप्त (सात) स्तोकका एक लव होता है । अड़तीस तथा अर्द्ध अर्थात् साढ़े अड़तीस लवकी एक नालिका होती है । दो नालिकाका एक मुहूर्त होता है । और तीस मुहूर्तका एक रात्रिदिन होता है। पन्द्रह (१५) रात्रिदिनका एक पक्ष होता है । और दो पक्ष शुक्ल १ परम अर्थात् साधारण मनुष्योंकी अपेक्षा अतिशयसहित जनोंसेभी दुर्जेय है। For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तथा कृष्णपक्ष मिलके एक मास होता है । दो मासका एक ऋतु होता है । तीनऋतुका एक अयन होता है। और दो अयनका एक वर्ष होता है । और वे पांच वर्ष चन्द्रचन्द्राभिवर्धित तथा चन्द्राभिवर्धित नामवाले मिलकर एक युग होता है। और उस पंच वर्षरूप युगके मध्य और अन्तमें अधिक-मास ( दो अधिक-मास ) होते हैं । सूर्य, सवन, चन्द्र, नक्षत्र तथा अभिवर्धित ये युगोंके नाम हैं । और चौरासीसे गुणित शतसहस्र वर्ष, अर्थात् एक लक्षको चौरासीसे गुणा करनेसे चौरासी लक्ष वर्ष हुए, और वे चौरासी लक्ष वर्ष मिलके एक पूर्वाङ्ग होता है । और शतसहस्र पूर्वाङ्ग अर्थात् एक लक्ष पूर्वाङ्ग चौरासीसे गुणित होनेसे चौरासी लक्ष पूर्वाङ्गका एक पूर्व होता है । और वे पूर्व अयुत, कमल, नलिन, कुमुद, तुद्य, टटा, ववा, हाहा हूहूसंज्ञक चौरासी शतसहस्र ( चौरासी लक्ष ) से गुणित होनेसे एक संख्येय काल होता है । और अब इसके आगे उपमासे नियत काल करेंगे। जैसे-एक योजन चौड़ा तथा एक योजन ऊंचा वृत्ताकार एक पल्य (रोमगर्तगढ़ा) हो जो कि एक रात्रिसे लेके सप्त रात्रिपर्यन्त उत्पन्न मेषादि पशुओंके लोमों(रोमों) से गाढरूपसे अर्थात् खूब ठासके पूर्ण किया जाय तत् पश्चात् सौ सौ वर्षके अनन्तर एक २ रोम उस गढ़े से निकाला जाय तो जितने कालमें वह गढ़ा सर्वथा रिक्त अर्थात् खाली होजाय उसको एक पल्योपमकाल कहते हैं । और वह पल्योपम दशकोटाकोटिसे गुणा करनेसे एक सागरोपम काल होता है । और चार कोटाकोटी सागरोपमकी एक सुषमसुषमा होती है । तीन कोटाकोटी सागरोपमकी सुषमा है। दो कोटाकोटी सागरोपमकी सुषमदुःषमा होती है । बयालीससहस्र वर्ष कम एक सागरोपमकी एक दुःषमसुषमा होती है । इक्कीससहस्रवर्षकी दुःषमा होती है। और उतनेहीकी दुःषमदुःषमाभी होती है । और इन्ही सुषमसुषमा आदि छहों कालोंकी अनुलोम प्रतिलोमभावसे अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी होती हैं । अर्थात् अनुलोम (जिस क्रमसे लिखा) वह तो अवसर्पिणी, और इसके विपरीत क्रमसे अर्थात् प्रथम दुःषमदुःषमा १ पुनः दुःषमा २ दुःषमसुषमा ३ सुषमदुःषमा ४ सुषमा ५ और षष्ठ सुषमसुषमा यह उत्सर्पिणी है। ये अनादि अनन्त अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी रात्रिदिनके सदृश भरत तथा ऐरावत वर्षों में परिवर्तित होती रहती हैं । अर्थात् एकके अनन्तर द्वितीय निरन्तर चक्र लगाया करती हैं । जैसे-अवसर्पिणीके पीछे उत्सर्पिणी, और उत्सर्पिणीके पीछे पुनः अवसर्पिणी, यह चक्र घूमा करता है । और इन दोनोंमें शरीर, आयु, तथा शुभ परिणामोंकी अनन्त गुण हानि और वृद्धिभी होती चली जाती है । तात्पर्य यह कि अवसर्पिणी कालमें ज्यों २ दुष्ट कालकी ओर उतरेंगे त्यों २ शरीर, आयु और शुभपरिणामोंकी हानि होती जायगी और उत्सर्पिणीमें इनकी वृद्धि होती जायगी । तथा अशुभ परिणामोंकीभी वृद्धि तथा हानि होती जाती है। अर्थात् अवसर्पिणीमें आगे २ के कालमें अशुभ For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १०५ 1 1 परिणामोंकी वृद्धि होती जायगी और उत्सर्पिणीमें इनकी अनन्तगुण हानि होती जायगी । और भरत तथा ऐरावत वर्षके सिवाय अन्यत्र अन्य वर्षो में एक एक गुण अवस्थित रहते हैं । जैसे कुरुवर्ष में सुषमसुषमाही सदा रहती है, हरिवर्ष तथा रम्यकमें सदा सुषमा रहती है; हैमवत और हैरण्यवत वर्षोंमें सुषमदुःषमा रहती है; अन्तरद्वीपसहित विदेहों में दुःषमसुषमा रहती हैं; इसी प्रकार मनुष्यक्षेत्रों में कालविभाग सर्वत्र प्राप्त समझना चाहिये । बहिरवस्थिताः ॥ १६ ॥ सूत्रार्थः – मनुष्यलोकके बाहर ज्योतिष्कदेव अवस्थित रहते हैं । भाष्यम् – नृलोकाद्वहिज्र्ज्योतिष्का अवस्थिताः । अवस्थिता इत्यविचारिणोऽवस्थितविमानप्रदेशा अवस्थितलेश्याप्रकाशा इत्यर्थः । सुखशीतोष्णरश्मयश्चेति ॥ विशेषव्याख्या –“ज्योतिष्कदेव मनुष्यलोक में मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुये नित्यगतिशील रहते हैं” यह विषय ज्योतिष्कदेवोंके विषयमें पूर्व ( अ. ४ सू. १४ ) है । अब कहते हैं कि मनुष्यलोकके बाह्य ये विषय स्थित रहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि संचरण वा विचरणशील न होकर विमानप्रदेशमें अवस्थित रहते हैं । अर्थात् इनकी लेश्या तथा प्रकाश अवस्थित रहता है । और मनुष्यलोकके बाहर ज्योतिष्कदेवोंकी शीत और उष्ण किरणें सुखदायक होती हैं । I वैमानिकाः ॥ १७ ॥ सूत्रार्थ :- वैमानिक चतुर्थ देवनिकाय है । भाष्यम् – चतुर्थो देवनिकायो वैमानिकाः । तेऽत ऊर्ध्वं वक्ष्यन्ते । विमानेषु भवा वैमानिकाः । विशेषव्याख्या -- चतुर्थ तथा अन्तिम देवोंका निकाय वैमानिक है । अब आगे उनका वर्णन करेंगे । वैमानिक शब्दका अर्थ यह है कि विमानों में होनेवाले, अर्थात् जो विमानोंमे हों वे वैमानिक कहलाते हैं । 1 कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १८ ॥ सूत्रार्थः – कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत ये दो भेद वैमानिक देवोंके हैं। भाष्यम् – द्विविधा वैमानिका देवाः । कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । तान् परस्ताद्वक्ष्याम इति ।। विशेषव्याख्या - वैमानिक देवोंके जो कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत दो भेद हैं, उनको हम आगे वर्णन करेंगे । उपर्युपरि ॥ १९ ॥ सूत्रार्थः - वैमानिक देव ऊपर २ स्थित हैं । १४ For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम् — उपर्युपरि च यथानिर्देशं वेदितव्याः । नैकक्षेत्रे नापि तिर्यगधो वेति ॥ विशेषव्याख्या– उपरि उपरि यथानिर्देश समझना चाहिये । अर्थात् जिस क्रमसे वैमानिकदेव सूत्रमें निर्दिष्ट ( दर्शाये गये ) हैं उसी क्रमसे वे ऊपर २ एकके ऊपर दूसरे स्थित हैं। न तो वैमानिक देव एक क्षेत्र में हैं और न तिर्यग् भागमें हैं और न अधोभाग में हैं; किन्तु ऊपर २ स्थित हैं । सौधर्मेशान सानत्कुमारमाहेन्द्र ब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धे च ॥ २० ॥ सूत्रार्थः - सौधर्म आदि जो विमान हैं, उनमें चतुर्थ निकाय वैमानिक देव होते हैं, और वे ऊपर २ होते हैं ऐसा कभी चुके हैं । भाष्यम् – एतेषु सौधर्मादिषु कल्पविमानेषु वैमानिका देवा भवन्ति । तद्यथा-से -सौधर्मस्य कल्पस्योपर्यैशानः कल्पः । ऐशानस्योपरि सानत्कुमारः । सानत्कुमारस्योपरि माहेन्द्र इत्येवमासर्वार्थसिद्धादिति । सुधर्मा नाम शक्रस्य देवेन्द्रस्य सभा । सा तस्मिन्नस्तीति सौधर्मः कल्पः । ईशानस्य देवराजस्य निवास ऐशान इत्येवमिन्द्राणां निवासयोग्याभिख्याः सर्वे कल्पाः ॥ ग्रैवेयास्तु लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेशविनिविष्टा ग्रीवाभरणभूता ग्रैवा ग्रीव्या ग्रैवेया ग्रैवेयका इति ॥ अनुत्तराः पञ्च देवनामान एव । विजिता अभ्युदयविघ्नहेतव एभिरिति विजयवैजयन्तजयन्ताः । तैरेव विघ्नहेतुभिर्न पराजिता अपराजिताः । सर्वेष्वभ्युदयार्थेषु सिद्धाः सर्वार्थैश्च सिद्धाः सर्वे चैषामभ्युदयार्थाः सिद्धा इति सर्वार्थसिद्धाः । विजितप्रायाणि वा कर्माण्येभिरुपस्थितभद्राः परीषहैरपराजिताः सर्वार्थेषु सिद्धाः सिद्धप्रायोत्तमार्था इति, विजयादय इति ॥ विशेषव्याख्या - जिनके विषय में उपरि उपरि स्थिति कही गई है इन सौधर्मादिकल्पविमानोंमें रहनेवाले ये वैमानिक देव हैं । जैसे- प्रथमसौधर्मकल्प है, उसके ऊपर ऐशाI नकल्प है । ऐशानके ऊपर सानत्कुमारकल्प है । और सानत्कुमारकल्पके ऊपर माहेन्द्रकल्प है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धपर्यन्त एकके ऊपर दूसरे विमान हैं । सुधर्मानामिका शक्र अर्थात् इन्द्रजीकी सभा है। वह सुधर्मानामिका सभा जिस स्वर्गमें है उसको सौधर्मकल्प कहते हैं । इसी रीति से ईशान जो देवराज वा इन्द्र हैं उनका जो निवासस्थान है वह ऐशानकल्प है ऐसेही सब इन्द्रोंके निवासयोग्य अन्वर्थ ( सार्थक ) नामवाले ये सब कल्प हैं । और ग्रैवेय तो लोकपुरुष (पुरुषाकाररूप लोक ) के ग्रीवाप्रदेशमें अर्थात् गलस्थानमें निविष्ट ( स्थित ) हैं, अर्थात् ग्रीवाके आभूषणके समान हैं; ग्रैव, ग्रीव्य, ग्रैवेय, तथा ग्रैवेयक ये सब एकार्थवाचक हैं | अनुत्तर पंचदेवोंके नाम हैं । और जिन्होंनें अभ्युदयमें होनेवाले विघ्नोंको जीत लिया है; वे विजय, वैजयन्त और जयन्त हैं । और उन्ही विघ्नोंके हेतुओंसे जो पराजित नहीं हुए, वे अपराजित हैं । तथा संपूर्ण अभ्युदयके अर्थोंमें जो सिद्ध हैं वा संपूर्ण For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । - १०७ अर्थोंसे जो सिद्ध हैं, अथवा जिनके संपूर्ण अभ्युदयके अर्थ सिद्ध होगये हैं वे सर्वार्थसिद्ध हैं । जिन्होंने संपूर्ण कर्मोको प्रायः जीतलिया है, अर्थात् जिनका भद्र (उत्तम) समय उपस्थित है वे विजय, वैजयन्त और जयंत हैं, २२ परीषहोंसे जो पराजित नहीं हुए वे अपराजित हैं; तथा संपूर्ण अर्थों में जो सिद्ध हैं अर्थात् जिनके उत्तम अर्थ सिद्धप्राय हैं, वे सर्वार्थसिद्ध हैं. इस रीतिसे विजय आदि शब्दोंके समासविग्रहार्थ समझलेने । स्थितिप्रभावसुखातिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥२१॥ सूत्रार्थ:-ये जो सौधर्मादिकल्पोंके देव कहे हैं, वे पूर्व २ की अपेक्षासे पर २ इन स्थिति-प्रभाव आदि-पदार्थों में अधिक २ हैं। भाष्यम्-यथाक्रमं चैतेषु सौधर्मादिषूपर्युपरि देवाः पूर्वतः पूर्वत एभिः स्थित्यादिभिरथैरधिका भवन्ति ॥ तत्र स्थितिरुत्कृष्टा जघन्या च परस्ताद्वक्ष्यते । इह तु वचने प्रयोजनं येषामपि समा भवति तेषामप्युपर्युपरि गुणाधिका भवतीति यथा प्रतीयेत।प्रभावतोऽधिकाः । यः प्रभावो निग्रहानुग्रहविक्रियापराभियोगादिषु सौधर्मकाणां सोऽनन्तगुणाधिक उपर्युपरि । मन्दाभिमानतया त्वल्पतरसंक्लिष्टत्वादेते न प्रवर्तन्त इति ॥ क्षेत्रस्वभावजनिताच शुभपुद्गलपरिणामात्सुखतो द्युतितश्चानन्तगुणप्रकर्षणाधिकाः ॥ लेश्याविशुद्धयाधिकाः । लेश्यानियमः परस्तादेषां वक्ष्यते । इह तु वचने प्रयोजनं यथा गम्येत यत्रापि विधानतस्तुल्यास्तत्रापि विशुद्वितोऽधिका भवन्तीति । कर्मविशुद्धित एव वाधिका भवन्तीति ॥ इन्द्रियविषयतोऽधिकाः । यदिन्द्रियपाटवं दूरादिष्टविषयोपलब्धौ सौधर्मदेवानां तत्प्रकृष्टतरगुणत्वादल्पतरसंक्लेशत्वाचाधिकमुपर्युपरीति ॥ अवधिविषयतोऽधिकाः सौधर्मैशानयोर्देवा अवधिविषयेणाधो रत्नप्रभां पश्यन्ति तिर्यगसङ्घयेयानि योजनसहस्राण्यूर्ध्वमास्वभवनात् । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः शर्कराप्रभां पश्यन्ति तिर्यगसङ्खयेयानि योजनशतसहस्राण्यूर्ध्वमास्वभवनात् । इत्येवं शेषाः क्रमशः। अनुत्तरविमानवासिनस्तु कृत्स्ना लोकनालिं पश्यन्ति । येषामपि क्षेत्रतस्तुल्योऽवधिविषयः तेषामप्युपर्युपरि विशुद्धितोऽधिको भवतीति ॥ विशेषव्याख्या—सौधर्म ऐशान आदि कल्पोंके जो ऊपर २ कल्पोंके तथा जो नव अवेयक आदिक हैं उन सबमें ऊपर २ के देव पूर्व २ देवोंकी अपेक्षासे स्थिति-प्रभावआदिक पदार्थोंमें अधिक २ होते गये हैं । अर्थात् पूर्व २ देवोंकी अपेक्षा पर २ के देवोंकी स्थिति अधिक कालपर्यन्त है, उनके प्रभाव (महिमा) और सुख आदिभी अधिक हैं। उनमें स्थिति उत्कृष्ट तथा जघन्य दो प्रकारकी आगे कहेंगे। यहां तो इस कथनमें तात्पर्य केवल यह है कि जिनकी समान स्थिति है उनमेंभी ऊपर २ पूर्व २की अपेक्षा गुणसे अधिक हैं ऐसा भान हो । अब प्रभावसे अधिक वर्णन करते हैं। जैसे-निग्रह तथा अनुग्रह अर्थात् वशमें लाकर दण्ड देने वा कृपा करनेका सामर्थ्य, विक्रिया (रूपादिधारणशक्ति) अन्यके ऊपर अभियोग अर्थात् आक्रमण करके पराजय करनेकी शक्ति इत्यादि प्रभाव जैसा सौधर्मकल्पनिवासी देवी देवोंका है, उससे अनन्तगुण अधिक ऊपर २ के For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् देवोंमें है। किन्तु पूर्वकी अपेक्षासे इनमें मन्द अभिमान होनेसे तथा अति अल्प संक्लिष्ट कर्म होनेसे ये निग्रहानुग्रहादिमें प्रवृत्त नहीं होते । तथा क्षेत्रके स्वभावसे उत्पन्न और शुभ पुद्गलोंके परिणामोंसेभी सुखसे तथा युति (शरीरादिकान्ति वा प्रकाश )सेभी सौधर्मकल्पनिवासी देवोंकी अपेक्षा ऊपरके अनन्तगुण अधिक हैं, अर्थात् उनका सुख और द्युति इनसे अनन्तगुण प्रकर्षतामें अधिक है । और ऐसेही लेश्याकी विशुद्धिसेभी पूर्व २ की अपेक्षासे ऊपरके देवोंकी लेश्या विशुद्ध हैं। इनकी लेश्याओंके नियम आगे कहेंगे। यहां तो इतने कथनमें तात्पर्य है कि जिसमें यह प्रतीत होजाय कि जहांपर विधानसे तुल्य हैं वहांपरभी लेश्याकी विशुद्धिसे अधिक हैं । अथवा कर्मकी विशुद्धिसेभी अधिक होते हैं । अब इन्द्रियोंके विषयद्वाराभी पूर्व २ की अपेक्षा ऊपर २ के अधिक हैं, ऐसा कहते हैं । जैसे-जो इन्द्रियोंका पाटव (सामर्थ्यविशेष) दूरसे इष्ट विषयोंकी प्राप्तिमें सौधर्मकल्पनिवासी देवोंका है उससे प्रकृष्टतर गुण होनेसे, और अल्पतर संक्लेश होनेसे ऊपर २ के देवोंका अधिक है । अवधिज्ञानके विषयसेभी ऊपर २ के अधिक हैं। जैसेसौधर्म तथा ऐशानकल्पके देव अवधिविषयसे अधोभागमें तो रत्नप्रभा भूमिको देखते हैं, तिर्यग् भागमें असंख्यात योजन शत-सहस्र, और ऊर्ध्व भागमें अपने भवनपर्यन्त देखते हैं । तथा सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्पके देव अधोभागमें शर्कराप्रभाको तिर्यक् भागमें असंख्येय योजन सहस्र और ऊर्ध्वभागमें अपने भवनोंतक देखते हैं। इसी रीतिसे क्रमसे शेष देवोंको अधिक २ अवधिविषयमें समझलेना । और अनुत्तरविमानवासी देव तो अवधिज्ञानसे संपूर्ण इस लोकनाडीको देखते हैं । और जिनका क्षेत्रसे अवधिका विषय समान है, उनका ऊपर २ बिशुद्धिसे अधिक है, अर्थात् क्षेत्रमें समानता होनेपरभी ऊपर २ के देवोंका अवधि विषय अधिक विशुद्ध है, ऐसा जानना चाहिये । गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २२ ॥ सूत्रार्थः-गति, शरीर, परिग्रह तथा अभिमानसे पूर्व २ की अपेक्षा ऊपर २ के देव हीन अर्थात् न्यून हैं। __ भाष्यम्-गतिविषयेण शरीरमहत्त्वेन महापरिग्रहत्वेनाभिमानेन चोपर्युपरि हीनाः । तद्यथा-द्विसागरोपमजघन्यस्थितीनां देवानामासप्तम्यां गतिविषयस्तिर्यगसङ्खयेयानि योजनकोटीकोटीसहस्राणि । ततः परतो जघन्यस्थितीनामेकैकहीना भूमयो यावत्तृतीयेति । गत. पूर्वाश्च गमिष्यन्ति च तृतीयां देवाः परतस्तु सत्यपि गतिविषये न गतपूर्वा नापि गमिष्यन्ति । महानुभावक्रियातः औदासीन्याञ्चोपर्युपरि देवा न गतिरतयो भवन्ति ॥ सौधर्मेशानयोः कल्पयोर्देवानां शरीरोच्छ्रायः सप्तारत्नयः । उपर्युपरि द्वयोयोरेकारनिहींना आसहस्रारात् । आनतादिषु तिस्रः । अवेयकेषु द्वे । अनुत्तरे एका इति ॥ सौधर्मे विमानानां द्वात्रिंशच्छतसहस्राणि । ऐशानेऽष्टाविंशतिः । सानत्कुमारे द्वादश । माहेन्द्रेऽष्टौ । ब्रह्मलोके चत्वारि शतस For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १०९ 1 हस्राणि । लान्तके पञ्चाशत्सहस्राणि । महाशुक्रे चत्वारिंशत् । सहस्रारे षट् । आनतप्राणतारणाच्युतेषु सप्तशतानि । अधोग्रैवेयकाणां शतमेकादशोत्तरम् । मध्ये सप्तोत्तरम् । उपर्येकमेव शतम् । अनुत्तराः पञ्चैवेति । एवमूर्ध्वलोके वैमानिकानां सर्वविमानपरिसङ्ख्या चतुरशीतिः शतसहस्राणि सप्तनवतिश्च सहस्राणि त्रयोविंशानीति ।। स्थानपरिवारशक्तिविषयसंपत्स्थितिष्वल्पाभिमानाः परमसुखभागिन उपर्युपरीति ॥ 1 1 विशेषव्याख्या—गतिके विषयसे, शरीरके महत्वसे, महापरिग्रहसे, और अभिमानसे ऊपर २ के देव नीचेके विमानवाले देवोंसे न्यून हैं । जैसे- दो सागरोपम जघन्य स्थितिवाले देवोंकी गतिका विषय सप्तम भूमिपर्यन्त है; और तिर्यक् भागमें असंख्येय योजन कोटी कोटी सहस्र है । और उससे पर जिनकी जघन्य स्थिति है, अर्थात् तीन चार आदि सागरोपम जिनकी जघन्यस्थिति है उनके गतिका विषय एक २ भूमि न्यून होता जाता है, और यह न्यूनता तृतीय भूमिपर्यन्त होती है । वे देव तृतीय भूमिमें गयेभी हैं और आगेभी जांयगे । और इसके आगे यद्यपि इनकी गतिका विषय है तथापि वे ऊपरके देव न तो पूर्वमेही उन भूमियों में गये और न आगे जायगे । क्योंकि ऊपर के देव महानुभावोंकी क्रियाओंसे और औदासीन्यभावसे गतिमें (निजस्थानसे इधर उधर जानेमें) प्रीति नहीं करते । तथा सौधर्म और ऐशानकल्पके देवोंके शरीरकी उँचाई सात अरत्नि होती है । और ऊपरके सहस्रार कल्पपर्यन्त दो दो कल्पोंके पीछे एक २ अरत्नि न्यून होती जाती है । और आनतादि विमानोंके देवोंके शरीरकी उँचाई तीन अरत्नि होती है । ग्रैवेयक देवोंकी दो अरत्नि होती है । और अनुत्तर विमानोंके देवोंकी शरीरकी उच्चता केवल एकही अरत्नि रहजाती है । तथा परिग्रहके विषय में भी प्रथम सौधर्मकल्पमें बत्तीस (३२) शत सहस्र अर्थात् बत्तीस लाख विमान हैं । ऐशानकल्पमें अट्ठावीस लक्ष हैं । सानत्कुमारकल्पमें बारह लक्ष हैं, माहेन्द्र में आठ लक्ष हैं । ब्रह्मलोक में चार लक्ष हैं । लान्तकमें पचास सहस्रही हैं । महाशुक्र में चालीस सहस्र विमान हैं । सहस्रारमें छ सहस्र हैं । आनत, प्राणत, आरण तथा अच्युतकल्पों में केवल सातसौ विमान हैं । और ग्रैवेयकों अधोभागमें एकसो ग्यारह (१११ ) विमान हैं । मध्यभागमें एकसो सात (१०७) और ऊपर केवल शत (१००) विमान हैं । और अनुत्तर देवोंके केवल पांच (५) ही विमान हैं | इस प्रकार ऊर्ध्वलोक में चौरासी लक्ष सत्तानबे सहस्र तेवीस (८४९७०२३) विमानोंकी संख्या है । ऊपर के देव स्थान, परिवारशक्ति, विषय, सम्पत्ति सथा स्थितिके विषयमें अल्प अभिमान रखते हैं; अतएव ऊपर २ परम सुखके भागी हैं । 1 १ कोहनी से लेकर कनिष्टिकापर्यन्त हाथकी लम्बाईको अरत्नि कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उच्छासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्याः।। उच्छासः सर्वजघन्यस्थितीनां देवानां सप्तसु स्तोकेषु आहारश्चतुर्थकालः । पल्योपमस्थितीनामन्तर्दिवसस्योच्छासो दिवसपृथक्त्वस्याहारः । यस्य यावन्ति सागरोपमानि स्थितिस्तस्य तावत्स्वर्धमासेषूच्छासस्तावत्स्वेव वर्षसहस्रेष्वाहारः ॥ देवानां सद्वेदनाः प्रायेण भवन्ति न कदाचिदसवेदनाः । यदि चासद्वेदना भवन्ति ततोऽन्तर्मुहूर्तमेव भवन्ति न परतोऽनुबद्धाः सद्वेदनास्तूत्कृष्टेन षण्मासान् भवन्ति ॥ उपपातः । आरणाच्युतादूर्ध्वमन्यतीर्थानामुपपातो न भवति । स्वलिङ्गिनां भिन्नदर्शनानामात्रैवेयकेभ्य उपपातः । अन्यस्य सम्यग्दृष्टेः संयतस्य भजनीयं आसर्वार्थसिद्धात् । ब्रह्मलोकादूर्ध्वमासर्वार्थसिद्धाच्चतुर्दशपूर्वधराणामिति ॥ अनुभावो विमानानां सिद्धिक्षेत्रस्य चाकाशे निरालम्बस्थितौ लोकस्थितिरेव हेतुः । लोकस्थितिलॊकानुभावो लोकस्वभावो जगद्धर्मोऽनादिपरिणामसन्ततिरित्यर्थः । सर्वे च देवेन्द्रा त्रैवेयादिषु च देवा भगवतां परमर्षीणामहतां जन्माभिषेकनिःक्रमणज्ञानोत्पत्तिमहासमवसरणनिर्वाणकालेष्वासीनाः शयिताः स्थिता वा सहसैवासनशयनस्थानाश्रयैः प्रचलन्ति । शुभकर्मफलोदयाल्लोकानुभावत एव वा । ततो जनितोपयोगास्तां भगवतामनन्यसदृशीं तीर्थकरनामकमर्मोद्भवां धर्मविभूतिमवधिनालोच्य संजातसंवेगाः सद्धर्मबहुमानात्केचिदागत्य भगवत्पादमूलं स्तुतिवन्दनोपासनहितश्रवणैरात्मानुग्रहमाप्नुवन्ति । केचिदपि तत्रस्था एव प्रत्युपस्थापनाजलिप्रणिपातनमस्कारोपहारैः परमसंविनाः सद्धर्मानुरागोत्फुल्लनयनवदनाः समभ्यर्चयन्ति ॥ __उच्छ्रास, आहार, वेदना, उपपात, और अनुभाव (प्रभाव) सेभी ऊपर २ के देवोंमें महत्व साध्य है। सबसे जघन्यस्थितिवाले देवोंमें सात २ स्तोकोंमें (कालविशेष) में उच्छ्रास (प्राणक्रिया) होता है, और आहार चौथे कालमें होता है । और पल्योपम स्थितिवालोंका दिनके मध्यमें उच्छ्रास होता है और दिवसके पृथक्त्वका आहार होता है । अर्थात् एक दिन पृथक् करके आहार होता है । तथा जिस देवकी जितनी सागरोपमस्थिति है उसका उतनेही पक्षमें उच्छास होता है । जैसे-दो सागरोपमस्थितिवालोंका एक मासमें, चार सागरोपमस्थितिवालोंका दो मासमें, इत्यादि । और जितने सागरोपम जिसकी स्थिति है, उसका आहार उतनेही सहस्र वर्षों में होता है । देवता ओंको प्रायः सद्वेदना होती हैं न कि कदाचित् असत् वेदना (अनुभव) । यदि कदाचित् किसी समयमें असद्वेदनायें होंभी तो केवल अन्तर्मुहूर्तकालपर्यन्तही होती हैं न कि उससे अधिक, और अनुबद्ध (संबद्ध वा लगातार) सद्वेदनाभी अधिकसे अधिक छ मासपर्यन्त होती हैं। और उपपात आरण अच्युतके ऊपर अन्यतीर्थों (अन्यमतवालोंका) उपपात नहीं होता है । स्वलिङ्गधारी भिन्न दर्शनवालोंका ग्रैवेयकपर्यन्त उपपात होता है। और अन्य संयत सम्यग्दृष्टिका सर्वार्थसिद्धतक उपपात-होना संभव है। ब्रह्मलोकसे ऊर्ध्व और सर्वार्थसिद्धपर्यन्त केवल चतुर्दश पूर्वधरोंहीका उपपात होता है । अनुभाव १ अर्थात् इनका महत्व उच्छास आहार आदिके द्वाराभी सिद्ध करना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । जैसे विमान तथा सिद्धिक्षेत्रकी आकाशप्रदेशमें निरालम्बस्थिति होनेंमें लोककी स्थितिही हेतु (कारण) है । लोकस्थिति, लोकानुभाव, लोकस्वभाव, जगद्धर्म और अनादि परिणामसन्तति, इन सबका एकही तात्पर्य है। सब देवेन्द्र, और ग्रैवेयकके सब देव भगवान् परमर्षि अर्हत्के जन्म, अभिषेक, निष्क्रमण, ज्ञानोत्पत्ति और महासमवसरणमें अथवा निर्वाणकालमें चाहै आसीन (बैठे) हों, सोते हों, वा खड़े हों अथवा अन्य किसी दशामें हों, सहसा अर्थात् अकस्मात् शीघ्रही आसन, शयन, तथा स्थानके आश्रयसहित चलायमान होते हैं। तात्पर्य यह कि भगवान्के जन्मादि पंच कल्याणोंके समयमें इनके आसनशयनादिके आश्रय कम्पायमान होते हैं । अथवा शुभ कर्मोंके उदयसे, वा लोकके प्रभावसेही चलायमान होते हैं । उसके पश्चात् उपयोग अर्थात् ज्ञान उत्पन्न होनेसे भगवान्की अन्यके सदृश अर्थात् अन्य साधारण जनोंको अलभ्य तीर्थकर नामकर्मसे उत्पन्न विभूति (ऐश्वर्य)को अवधिज्ञानसे देखकर संवेग (भक्तिसहित वैराग्य) उत्पन्न होनेसे सत् धर्मके बहुमानसे कोई देव तो आकर भगवान्के चरणमूलके निकट स्तुति, वन्दना, उपासना तथा हितापदेशके श्रवणोंसे अपने आत्माका अनुग्रह प्राप्त करते हैं । और कोई वहां ही खड़े होकर प्रत्युपस्थापन अर्थात् हाथ जोड़के दण्डवत् प्रणाम, नमस्कार और भेट आदिके समर्पणसे परमभक्ति आदि सम्पन्न होकर सद्धर्मके अनुरागसे विकसितनेत्रवदनयुक्त भगवान्की अनेक प्रकारसे पूजा करते हैं । ___ अत्राह । त्रयाणां देवनिकायानां लेश्यानियमोऽभिहितः । अथ वैमानिकानां केषां का लेश्या इति । अत्रोच्यते अब यहां कहते हैं कि भवन, व्यन्तर तथा ज्योतिष्क इन तीन निकायोंके लेश्याका नियम तो आपने कहा । अब वैमानिक देवोंमेंसे किनकी कौनसी लेश्या होती हैं इसपर कहते हैं पीतपद्मशुक्ललेश्या हि विशेषेषु ॥ २३ ॥ सूत्रार्थ:-सौधर्मादि कल्पोंमें प्रथम दो कल्पोंमें तो पीतलेश्या है, और उसके आगे तीन कल्पके देवोंमें पद्मलेश्या है, और आगे शेष देवोंमें शुक्ललेश्या है । __ भाष्यम्-उपर्युपरि वैमानिकाः सौधर्मादिषु द्वयोनिषु शेषेषु च पीतपद्मशुक्ललेश्या भवन्ति यथासङ्घयम् । द्वयोः पीतलेश्याः सौधर्मेशानयोः । त्रिषु पद्मलेश्याः सानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकेषु । शेषेषु लान्तकादिष्वासर्वार्थसिद्धाच्छुक्ललेश्याः । उपर्युपरि तु विशुद्धतरेत्युक्तम् ॥ विशेषव्याख्या-चतुर्थनिकायके देवोंमें लेश्याकी यह अवस्था है कि, आरम्भके दो कल्पोंमें तो पीतलेश्या है, उसके ऊपरके तीन कल्पोंमें पद्मलेश्या है । और उनके ऊपरके शेष देवोंमें शुक्र लेश्या है । यहांपर पीत, पद्म, शुक्ल लेश्याका और द्वित्रिशेषका For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् यथासंख्य है। जैसे-दो अर्थात् सौधर्म तथा ऐशानकल्पके देवोंमें तो पीतलेश्या है, और शेष अर्थात् लान्तकसे आदिलेकर सर्वार्थसिद्धपर्यन्त शुक्रलेश्याही है । और समानलेश्याओमभी ऊपर २ के देवोंकी लेश्या अधिक विशुद्ध है. यह विषय कह चुके हैं। अत्राह । उक्तं भवता द्विविधा वैमानिका देवाः कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्चेति । तत् के कल्पा इति । अत्रोच्यते अब यहांपर कहतें हैं कि वैमानिक देवोंके आपने दो भेद कहे हैं, एक कल्पोपपन्न और दूसरा कल्पातीत । सो उनमें कौन कल्पोपपन्न हैं और कौन कल्पातीत हैं ? । इसपर यह अग्रिम सूत्र कहते हैं प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २४ ॥ सूत्रार्थ-अवेयकसे पूर्व कल्प हैं, और उनसे परे कल्पातीत हैं। भाष्यम्-प्राग्वेयकेभ्यः कल्पा भवन्ति सौधर्मादय आरणाच्युतपर्यन्ता इत्यर्थः । अतोऽन्ये कल्पातीताः ॥ विशेषव्याख्या सौधर्मसे आदि लेकर ग्रैवेयकके पूर्व अर्थात् आरणाच्युतपर्यन्त कल्प हैं और उन कल्पोंमे जो निवास करते हैं वे कल्पोपपन्न हैं । और शेष आगेके कल्पातीत हैं। अत्राह । किं देवाः सर्व एव सम्यग्दृष्टयो यद्भगवतां परमर्षीणामहतां जन्मादिषु प्रमुदिता भवन्ति इति । अत्रोच्यते । न सर्वे सम्यग्दृष्टयः किं तु सम्यग्दृष्टयः सद्धर्मबहुमानादेव तत्र प्रमुदिता भवन्त्यभिगच्छन्ति च । मिथ्यादृष्टयोऽपि च लोकचित्तानुरोधादिन्द्रानुवृत्त्या परस्परदर्शनात् पूर्वानुचरितमिति च प्रमोदं भजन्तेऽभिगच्छन्ति च । लोकान्तिकास्तु सर्व एव विशुद्धभावाः सद्धर्मबहुमानात्संसारदुःखात्तानां च सत्त्वानामनुकम्पया भगवतां परमर्षीणामहतां जन्मादिषु विशेषतः प्रमुदिता भवन्ति । अभिनिःक्रमणाय च कृतसंकल्पान्भगवतोऽभिगम्य प्रहृष्टमनसः स्तुवन्ति सभाजयन्ति चेति ॥ । अब यहांपर कहते हैं क्या सब देव सम्यग्दृष्टि होते हैं, जो भगवान् परमर्षि अर्हतोंके जन्म अभिषेक आदिमें प्रसन्न होते हैं ? अब इसका उत्तर कहते हैं कि सब देवता तो सम्यग्दृष्टि नहीं होते किन्तु जो सम्यग्दृष्टि हैं वे सद्धर्मके बहुमान (अति आदर )सेही अतिप्रसन्न होते हैं और जन्मादिके स्थानोंपर जातेभी हैं । और मिथ्यादृष्टि देवभी लोकोंके चित्तके अनुरोधसे तथा इन्द्रकी अनुकूलतासे, और परस्परके आनन्ददर्शनसे, तथा १ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणरचित बृहत्संग्रहणिकी निजटीकामें मलयगिरि कहते हैं कि हरिभद्रसूरि तत्त्वार्थटीकाकार लिखते हैं "भावलेश्या" छहों प्रति निकायमें देवोंको होती हैं। और वही आचार्य अपनी प्रज्ञापनासूत्र (कलकत्तासंस्करण पृ. ३६५) की टीकामें कहता है । जैसे यह विषय प्रमाणबाधित है वैसा तत्त्वार्थटीकामें निर्धारित किया है उसीसे जानलेना । इस कथनसे निश्चित होता है कि मलयगिरिनेभी तत्त्वार्थसूत्रकी टीका की है। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सब देव ऐसा करते चले आये हैं (भगवान् तीर्थंकरोंके जन्मादिमें आनन्द मनाते आये हैं) इससे हमको करना चाहिये ऐसा समझकरके प्रसन्नताको प्राप्त होते हैं और जन्म अभिषेकादिके स्थानमें उत्सवार्थ जातेभी हैं । और लोकान्तिक देव तो सभी विशुद्धभाव होते हैं, अतएव सद्धर्मके बहुमान आदरसत्कारसे तथा संसारके दुःखोंसे पीडित जीवोंके ऊपर दया कर भगवान् परमर्षिवरूप अर्हत् तीर्थंकरोंके जन्म अभिषेक आदि उत्सवोंमें विशेष रूपसे प्रसन्न होते हैं । अभिनिष्क्रमणके लिये अर्थात् तपके अर्थ संकल्प करनेवाले भगवान्को उनके समीप जाकर प्रसन्नचित्तसे स्तुति, तथा बड़ाई प्रतिष्ठा आदि करते हैं। अत्राह । के पुनर्लोकान्तिकाः कतिविधा वेति । अत्रोच्यते अब यहांपर कहते हैं कि लोकान्तिक देव कौन हैं, और कितने हैं? इस हेतुसे यह आगेका सूत्र कहते हैं ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः ॥ २५ ॥ सूत्रार्थ-ब्रह्मलोकमें जो रहते हैं वे लोकान्तिक हैं । भाष्यम् --ब्रह्मलोकालया एव लोकान्तिका भवन्ति नान्यकल्पेषु नापि परतः । ब्रह्मलोकं परिवृत्त्याष्टासु दिक्षु अष्टविकल्पा भवन्ति । तद्यथा विशेषव्याख्या-जिन देवोंका ब्रह्मलोक आलय अर्थात् स्थान है वे ब्रह्मलोकालय अर्थात् ब्रह्मलोकनिवासी देव लोकान्तिक कहे जाते हैं, न कि अन्य कल्पनिवासी, और न ब्रह्मलोकसे परे लोकके निवासी लोकान्तिक हैं । ब्रह्मलोक परिवेष्टित करके आठों दिशाओं(चार दिशा और चार विदिशाओं)में आठही विकल्प (भेद) इनके होते हैं। जैसे सारखतादित्यवहयरुणगर्दतोयतुषिताव्यावाधमरुतः (अरिष्टाश्च)२६ सूत्रार्थ-ये सारस्वत आदि आठ प्रकारके देव ब्रह्मलोककी पूर्वोत्तर आदि दिशाओं में होते हैं। भाष्यम्-एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा ब्रह्मलोकस्य पूर्वोत्तरादिषु दिक्षु प्रदक्षिणं भ. वन्ति यथासङ्खयम् । तद्यथा-पूर्वोत्तरस्यां दिशि सारस्वताः, पूर्वस्यामादित्याः, इत्येवं शेषाः ॥ विशेषव्याख्या-सारस्वत आदि मरुत् पर्यन्त आठ देव ब्रह्मलोकके पूर्वोत्तर आदि जो अष्ट दिग्विभाग हैं उनमें प्रदक्षिणरूपसे रहते हैं । यहांपर सारस्वत आदि देव और पूर्वोत्तरा आदि आठों दिशाओंका यथासंख्य क्रम है । जैसे-पूर्वोत्तर दिशामें सारस्वत देव रहते हैं, अर्थात् पूर्व और उत्तरदिशाके कोण (ऐशानकोण )में सारस्वत रहते हैं । पूर्व दिशामें आदित्यसंज्ञक देव रहते हैं। इसी प्रकार अन्य देवोंके विषयमें भी जान लेना चाहिये । अर्थात् पूर्व दक्षिण (आग्नेयकोण )में वहि, दक्षिणमें अरुण, दक्षिण पश्चिम Jain Education Internatiga For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् (नैर्ऋत्यकोण )में गर्दतोय, पश्चिममें तुषित, पश्चिमोत्तर (वायव्यकोण )में अव्याबाध, और उत्तरमें मरुत् अथवा अरिष्ट देव रहते हैं ॥ २६ ॥ विजयादिषु विचरमाः ॥ २७॥ सूत्रार्थ-विजयादिक विमानोंके देवोंको केवल दो जन्म सिद्धाऽवस्था प्राप्त होनेमें शेष रहते हैं। __ भाष्यम्-विजयादिष्वनुत्तरेषु विमानेषु देवा द्विचरमा भवन्ति । द्विचरमा इति तत युताः परं द्विर्जनित्वा सिध्यन्तीति । सकृत्सर्वार्थसिद्धमहाविमानवासिनः । शेषास्तु भजनीयाः॥ विशेषव्याख्या-विजय आदि जो पञ्च अनुत्तर विमान हैं उन विमानोंके निवासी देवोंके दोही जन्म अन्तके रहजाते हैं । द्विचरम इसका यह तात्पर्य है कि विजय आदि विमानोंकी स्थितिका काल भोगकर उससे जब च्युत हों तो पुनः संसारमें दो जन्म धारण करके मोक्षरूप सिद्धिको प्राप्त होते हैं । और सर्वार्थसिद्ध नाम महाविमानके निवासी देवता एकही बार संसारमें जन्म लेकर उसी जन्ममें सिद्ध हो जाते हैं । और इनसे शेष जो हैं उनको सिद्धि कई जन्ममें वा एक दो चार आदि जन्ममें प्राप्य है। __ अत्राह । उक्तं भवता जीवस्यौदयिकेषु भावेषु तिर्यग्योनिगतिरिति तथा स्थितौ तिर्यग्योनीनां चेति । आस्रवेषु च माया तैर्यग्योनस्येति । तत्के तिर्यग्योनय इति । अत्रोच्यते__ अब कहते हैं कि आपने औदयिक भावों में कहा है कि "तिर्यग्योनि" गति होती है (अ. २ सू. ६) । तथा उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिमें तिर्यग्योनिवालोंकी स्थिति बतलाई है (अ. ३ सू. २६) । आस्रवमें कहा है कि माया तिर्यग्योनि बन्धके आस्रवका कारण होती है (अ. ६ सू. १७) । इत्यादि स्थानोंमें अनेकबार तिर्यग्योनिकी चर्चा की है । सो तिर्यग्योनिवाले कौन हैं ? । इसके उत्तरमें अग्रिम सूत्र कहते हैं औपपातिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२८॥ सूत्रार्थ-उपपातरूप जन्मसे उत्पन्न होनेवाले तथा मनुष्योंसे जो शेष अर्थात् भिन्न हैं वे सब तिर्यग्योनिके जीव हैं। भाष्यम् –औपपातिकेभ्यश्च नारकदेवेभ्यो मनुष्येभ्यश्च यथोक्तेभ्यः शेषा एकेन्द्रियादयस्तिर्यग्योनयो भवन्ति ॥ विशेषव्याख्याः –उपपातरूप जन्मसे जो उत्पन्न होनेवाले देव तथा नारकी जीव और मनुष्य इनसे जो शेष एकेन्द्रियादिक जीव हैं वे तिर्यग्योनि जीव कहे जाते हैं । अत्राह । तिर्यग्योनिमनुष्याणां स्थितिरुक्ता । अथ देवानां का स्थितिरिति । अत्रोच्यते अब यहां कहते हैं कि तिर्यग्योनि तथा मनुष्योंकी स्थिति तो आपने कही । अब Jan देवोंकी स्थिति कितने कालपर्यन्त होती है, इस लिये यह अग्रिम सूत्र कहते हैं .amentorary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । स्थितिः॥ २९॥ भाष्यम्-स्थितिरित्यत ऊर्ध्व वक्ष्यते ॥ विशेषव्याख्या-अब इसके आगे देवोंकी स्थितिके विषयमें कहेंगे। भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम् ॥ ३० ॥ सूत्रार्थ-भवनवासी देवोंमें जो दक्षिणार्धाधिपति हैं उनकी अध्यर्ध एक पल्योपम स्थिति है। भाष्यम्-भवनेषु तावद्भवनवासिनां दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यधै परा स्थितिः । द्वयोर्द्वयोर्यथोक्तयोर्भवनवासीन्द्रयोः पूर्वो दक्षिणार्धाधिपतिः पर उत्तरार्धाधिपतिः ॥ विशेषव्याख्या-दक्षिणार्धाधिपति जो देव हैं उनकी अर्ध अधिक (सार्द्ध) एक पल्योपम अर्थात् डेढ़ पल्योपम परा स्थिति है । यथोक्त दो दो भवनवासी इन्द्रोंमेंसे पूर्व २ का इन्द्र दक्षिणार्धाधिपति कहा जाता है, और दूसरा उत्तरार्धाधिपति है। शेषाणां पादोने ॥ ३१ ॥ सूत्रार्थ-भवनवासियोंमें जो शेष अधिपति हैं उनकी पाद ऊन अर्थात् चौथाई पल्य कम दो पल्योपम परा स्थिति है। ___ भाष्यम्-शेषाणां भवनवासिष्वधिपतीनां द्वे पल्योपमे पादोने परा स्थितिः । के च शेषा उत्तरार्धाधिपतय इति ॥ विशेषव्याख्या-दक्षिणार्धाधिपतियोंकी तो डेढ़ पल्योपम परा स्थिति कहचुके, अब उनसे शेष अर्थात् जो उत्तरार्धाधिपति हैं उनकी एक पादसे ऊन अर्थात् पौने दो पल्योपम परा स्थिति है। यहां शेष पदसे उत्तरार्धाधिपतियोंसे तात्पर्य है। ____असुरेन्द्रयोः सागरोपममधिकं च ॥३२॥ भाष्यम्-असुरेन्द्रयोस्तु दक्षिणार्धाधिपत्युत्तरार्धाधिपत्योः सागरोपममधिकं च यथासङ्घयं परा स्थितिर्भवति ॥ विशेषव्याख्या-असुरेन्द्र जो दक्षिणार्धाधिपति तथा उत्तरार्धाधिपति हैं उनकी सागरोपम तथा कुछ अधिक परा स्थिति है। यहांपर दक्षिणार्धाधिपति तथा उत्तरार्धाधिपति और सागरोपम तथा अधिकका यथासंख्य है। अर्थात् असुरेन्द्रोंमें दक्षिणार्धाधिपतिकी सागरोपम परा स्थिति, और उत्तरार्धाधिपतिकी कुछ अधिक सागरोपम परा स्थिति है। सौधर्मादिषु यथाक्रमम् ॥ ३३ ॥ सूत्रार्थ-सौधर्मादिकोंमे यथाक्रमसे परा स्थिति कहेंगे। भाष्यम्-सौधर्ममादिं कृत्वा यथाक्रममित ऊवं परा स्थितिर्वक्ष्यते ॥ विशेषव्याख्या-यहांसे आगे सौधर्म आदिक देवोंकी परा स्थिति यथाक्रमसे कहेंगे। For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सागरोपमे ॥ ३४॥ भाष्यम्-सौधर्मे कल्पे देवानां परा स्थितिढे सागरोपमे इति ॥ विशेषव्याख्या-सौधर्मकल्पके देवोंकी परा स्थिति दो सागरोपम है। अधिक च ॥ ३५॥ भाष्यम्-ऐशाने द्वे एव सागरोपमे अधिक परा स्थितिर्भवति ॥ विशेषव्याख्या-और ऐशानकल्पमें कुछ अधिक दो सागरोपम परा स्थिति है । सप्त सानत्कुमारे ॥ ३६॥ भाष्यम्-सानत्कुमारे कल्पे सप्त सागरोपमाणि परा स्थितिर्भवति ॥ विशेषव्याख्या–सानत्कुमारकल्पके देवोंकी सात सागरोपम परा स्थिति है । विशेषत्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि च ॥ ३७॥ सूत्रार्थ—माहेन्द्रादि कल्पोंमें इन तीन सात विशेषाधिक सागरोंसहित सात सागरोम परा स्थिति है । विशेष तीन, सात, दश, ग्यारह, तेरह, पन्द्रह सागर अधिक सागरोपम परा स्थिति माहेन्द्र आदि कल्पोंमें है। भाष्यम्-एभिर्विशेषादिभिरधिकानि सप्त माहेन्द्रादिषु परा स्थितिर्भवति । सप्तेति वर्तते । तद्यथा-माहेन्द्रे सप्त विशेषाधिकानि । ब्रह्मलोके त्रिसिरधिकानि सप्त दशेत्यर्थः । लान्तके सप्तभिरधिकानि सप्त चतुर्दशेत्यर्थः । महाशुक्रे दशभिरधिकानि सप्त सप्तदशेत्यर्थः । सहस्रारे एकादशभिरधिकानि सप्त अष्टादशेत्यर्थः । आनतप्राणतयोस्त्रयोदशभिरधिकानि सप्त विंशतिरित्यर्थः । आरणाच्युतयोः पञ्चदशभिरधिकानि सप्त द्वाविंशतिरित्यर्थः ॥ विशेषव्याख्या—यहांपर पूर्वसूत्रसे सप्तकी अनुवृत्ति आती है। इससे यह अर्थ हुआ कि विशेष अधिक सप्त सागरोपमादि परा स्थिति माहेन्द्र आदि कल्पविमानोंमें होती है । जैसे-माहेन्द्रकल्पनिवासी देवोंकी विशेष अधिक सप्त सागरोपम स्थिति होती है। ब्रह्मलोकमें तीन अधिक सप्त सागरोपम अर्थात् दश सागरोपम स्थिति होती है । लान्तकमें सप्त अधिक सप्त अर्थात् चतुर्दश (१४) सागरोपम स्थिति होती है । महाशुक्रमें दश अधिक सप्त अर्थात् सत्रह (१७) सागरोपम स्थिति होती है । सहस्रारमें एकादश (ग्यारह) अधिक सप्त अर्थात् अठारह (१८) सागरोपम स्थिति रहती है । आनत प्राणतमें त्रयोदश (तेरह) अधिक सप्त अर्थात् (२०) सागरोपम स्थिति रहती है । और आरण तथा अच्युत कल्पोंमें पंचदश (पन्द्रह) अधिक सप्त अर्थात् बावीस (२२) सागरोपम स्थिति होती है ॥ ३७॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु अवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धे च ॥ ३८॥ सूत्रार्थ-आरण और अच्युतके ऊपर नव ग्रैवेयकोंमें, विजय आदिकमें तथा सर्वार्थसिद्धमें देवोंकी स्थिति एक २ सागरोपम अधिक होती जाती है । For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम्-आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेनाधिका स्थितिर्भवति नवसु अवेयकेषु विजयादिषु सवर्वार्थसिद्धे च । आरणाच्युते द्वाविंशतिप्रैवेयकेषु पृथगेकैकेनाधिका त्रयोविंशतिरित्यर्थः । एवमेकैकेनाधिका सर्वेषु नवसु यावत्सर्वेषामुपरि नवमे एकत्रिंशत् । सा विजयादिषु चतुर्वप्येकेनाधिका द्वात्रिंशत् । साप्येकेनाधिका सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिंशदिति ॥ विशेषव्याख्या-आरण तथा अच्युतके आगे नव ग्रैवेयक, विजय आदि तथा सर्वार्थसिद्ध में एक २ सागरोपम स्थितिकाल बढ़ता जाता है । जैसे-आरण और अच्युतमें तो बावीस सागरोपम स्थिति होती है यह तो कहीचुके हैं । अब उसके आगे नव ग्रैवेयकोंमें पृथक् २ एक २ सागरोपम अधिक होती जायगी । जैसे-प्रथम ग्रैवेयकमें तेवीस (२३), द्वितीयमें चौबीस, ऐसेही सबके अन्तमें नवम ग्रैवेयकमें एकतीस (३१) सागरोपम स्थितिकाल है । और विजय आदि चार अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित इन चारोंमें बत्तीस (३२) सागरोपम स्थितिकाल है । और सर्वार्थसिद्धमें वह स्थिति एक सागरोपम और अधिक होती है, अर्थात् सर्वार्थसिद्धविमाननिवासी देवोंकी तेंतीस (३३) सागरोपम होती है ॥ ३८॥ ___ अत्राह । मनुष्यतिर्यग्योनिजानां परापरे स्थिती व्याख्याते । अथौपपातिकानां किमेकैव स्थितिः परापरे न विद्यते इति । अत्रोच्यते अब कहते हैं कि मनुष्य तथा तिर्यग्योनिज जीवोंकी परा तथा अपरा दोनों प्रकारकी स्थितिका वर्णन किया गया । अब औपपातिक अर्थात् उपपातरूप जन्मसे उत्पन्न होनेवालोंकी क्या एकही स्थिति है ? अर्थात् इनकी स्थितिमें परा अपरा भेद नहीं है ? इसपर यह अग्रिम सूत्र कहते हैं अपरा पल्योपममधिकं च ॥ ३९ ॥ सूत्रार्थ—सौधर्म आदिमें जघन्य स्थिति पल्योपम और कुछ अधिक है। भाष्यम्-सौधर्मादिष्वेव यथाक्रममपरा स्थितिः पल्योपममधिकं च । अपरा जघन्या निकृष्टेत्यर्थः । परा प्रकृष्टा उत्कृष्टत्यनर्थान्तरम् । तत्र सौधर्मेऽपरा स्थितिः पल्योपममैशाने पल्योपममधिकं च ॥ विशेषव्याख्या–सौधर्म आदि कल्पोंमें यथाक्रम अपरा स्थिति पल्योपम तथा किंचित् अधिक है । अपरा अर्थात् जघन्या, सबसे निकृष्ट स्थितिका तात्पर्य है । और परा अर्थात् प्रकृष्ट, उत्कृष्ट ये दोनों एकार्थवाचक हैं । परा सबसे अधिक स्थिति है. उसमें सौधर्ममें अपरा स्थिति पल्योपम है, और ऐशानकल्पमें पल्योपम (एक पल्य ) तथा कुछ अधिक है। सागरोपमे ॥४०॥ भाष्यम्-सानत्कुमारेऽपरा स्थिति· सागरोपमे ॥ विशेषव्याख्या–सानत्कुमारकल्पमें अपरा स्थिति दो सागरोपम है ॥ ४० ॥ अधिके च ॥४१॥ भाष्यम्-माहेन्द्रे जघन्या स्थितिरधिके द्वे सागरोपमे ।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या - माहेन्द्रकल्प में अपरा स्थिति कुछ अधिक दो सागरोपम है ॥ परतः परतः पूर्वा पूर्वानन्तरा ॥ ४२ ॥ सूत्रार्थ - माहेन्द्रकल्पके परे पूर्व अर्थात् पूर्व २ स्वर्गोंमें जो परा स्थिति है वह पर २ में जघन्या अर्थात् अपरा स्थिति होती है । ११८ भाष्यम् – माहेन्द्रात्परतः पूर्वा परानन्तरा जघन्या स्थितिर्भवति । तद्यथा - माहेन्द्रे परा स्थितिर्विशेषाधिकानि सप्त सागरोमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवति । ब्रह्मलोके दश सागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तके जघन्या । एवमा सर्वार्थसिद्धादिति । ( विजयादिषु चतुर्षु परा स्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सा त्वजघन्योत्कृष्टा सर्वार्थसिद्ध इति ) ॥ विशेषव्याख्या–माहेन्द्रकल्पसे आगे पूर्व २ की जो परा स्थिति है वह पर २ 1 । अर्थात् आगे २ के कल्पोंमें अपरा स्थिति हो जाती है जैसे - माहेन्द्रकल्प में परा स्थिति विशेष अधिक सप्त सागरोपम है, वह ब्रह्मलोक में अपरा अर्थात् जघन्या है । ऐसेही ब्रह्मलोक में परा स्थिति दश सागरोपम है वह लान्तकमें जघन्या वा अपरा स्थिति है । इसी प्रकार पूर्व २ की परा स्थिति पर २ की जघन्या स्थिति सर्वार्थसिद्धपर्यन्त जाननी चाहिये । (विजये आदि चार विमानोंमें परा स्थिति तेंतीस सागरोपम है. वह सर्वार्थसिद्धमें अजघन्योत्कृष्टा है ।) नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ४३ ॥ सूत्रार्थ - नारक अर्थात् नरककी द्वितीया आदि भूमियोंमें भी पूर्व २ की जो परा स्थिति है वह पर २ की अपरा होती है । भाष्यम् –नारकाणां च द्वितीयादिषु भूमिषु पूर्वा पूर्वा परा स्थितिरनन्तरा परतः परतोऽपरा भवति । तद्यथा - रत्नप्रभायां नारकाणामेकं सागरोपमं परा स्थितिः सा जघन्या शर्करा - प्रभायाम् । त्रीणि सागरोपमाणि परा स्थितिः शर्कराप्रभायां सा जघन्या वालुकाप्रभायामिति । एवं सर्वासु । तमःप्रभायां द्वाविंशतिः सागरोपमाणि परा स्थितिः सा जघन्या महातम:प्रभायामिति । विशेषव्याख्याः—जैसे देवोंके कल्पविमानोंके विषयमें माहेन्द्रसे परे पूर्व २ की परा स्थिति, पर २ की अपरा होती है; ऐसेही नरककी द्वितीय (शर्करा प्रभा) आदि भूमियोंमें भी पूर्व २ की परा स्थिति, परकी भूमियोंकी अपरा वा जघन्या स्थिति है । जैसे - रत्नप्रभा में नारक जीवोंकी एक सागरोपम परा स्थिति है, वह शर्कराप्रभामें जघन्या स्थिति है । तथा १ यहांपर यह जानना उचित है कि विजय आदि चार विमानोंमें परा स्थिति बत्तीस सागरोपम है; और सर्वार्थसिद्धमें तेंतीस सागरोपम अजघन्योत्कृष्टा है, अर्थात् वहां एकही स्थिति है; परा अपरा भेद नहीं है । और भाष्यकार सर्वार्थसिद्धमें भी जघन्या बत्तीस सागरोपम है ऐसा जो कहते हैं “आसर्वार्थसिद्धात्” उसका अभिप्राय नहीं ज्ञात होता है । कदाचित् यहां आङ् (आ) मर्यादाबोधक हो अर्थात् सर्वार्थसिद्धको छोड़के "तेन विना मर्यादा तत्सहितोऽभिविधिः” । २ विजयादिककी परा स्थिति तो बत्तीसकी (३२) कही है यहां ३३ किस अभिप्रायसे कहे यह नहीं जाना जाता । और कहीं २ कोष्ठका पाठ नहीं है । क्योंकि अर्थ Jain Eational For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ११९ शर्कराप्रभामें परा स्थिति तीन सागरोपम है वह वालुकाप्रभामें जघन्या स्थिति है । इसी प्रकार शेष सब भूमियों में भी समझ लेना चाहिये । तमः प्रभाभूमिमें बावीस (२२) सागरोपम परा स्थिति है वह महातमः प्रभामें जघन्या अर्थात् अपरा स्थिति है ॥ ४३ ॥ दश वर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥ ४४ ॥ भाष्यम् – प्रथमायां भूमौ नारकाणां दश वर्षसहस्राणि जघन्या स्थितिः ॥ विशेषव्याख्या- - प्रथम भूमि अर्थात् रत्नप्रभा भूमिमें नारकजीवों की अपरा स्थिति दशसहस्र (१००००) वर्ष है । भवनेषु च ॥ ४५ ॥ भाष्यम् – भवनवासिनां च दश वर्षसहस्राणि जघन्या स्थितिः ॥ विशेषव्याख्या—भवनवासी देवोंकी भी जघन्या स्थिति दश सहस्र वर्ष है । व्यन्तराणां च ॥ ४६ ॥ भाष्यम् – व्यन्तराणां च देवानां दश वर्षसहस्राणि जघन्या स्थितिः ।। विशेषव्याख्या - व्यन्तरदेवोंकी भी जघन्या स्थिति दश सहस्र वर्ष है । परा पल्योपमम् ॥ ४७ ॥ भाष्यम् - व्यन्तराणां परा स्थितिः पल्योपमं भवति ॥ विशेषव्याख्या - व्यन्तरदेवों की परा ( सर्वोत्कृष्टा ) स्थिति पल्योपम है ज्योतिष्काणामधिकम् ॥ ४८ ॥ भाष्यम् - ज्योतिष्काणां देवानामधिकं पल्योपमं परा स्थितिर्भवति || विशेषव्याख्या– ज्योतिष्कदेवोंकी परा स्थिति कुछ अधिक पल्योपम है । ग्रहाणामेकम् ॥ ४९ ॥ भाष्यम् – ग्रहाणामेकं पल्योपमं स्थितिर्भवति ॥ विशेषव्याख्या — ग्रहों की परा स्थिति एकही पल्योपम होती है ॥ ४९ ॥ नक्षत्राणामर्धम् ॥ ५० ॥ भाष्यम् - नक्षत्राणां देवानां पल्योपमार्धं परा स्थितिर्भवति ॥ विशेषव्याख्या–नक्षत्रोंकी अर्ध अर्थात् आधा पल्योपम परा स्थिति है । तारकाणां चतुर्भागः ॥ ५१ ॥ भाष्यम् - तारकाणां च पल्योपमचतुर्भागः परा स्थितिः ।। विशेषव्याख्या–ताराओंकी परा स्थिति पत्योपमका चतुर्थ भाग है । जघन्या त्वष्टभागः ॥ ५२ ॥ भाष्यम् - तारकाणां तु जघन्या स्थितिः पल्योपमाष्टभागः ॥ विशेषव्याख्या — और ताराओंकी जघन्या स्थिति पल्योपमका अष्टम भाग है । For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् चतुर्भागः शेषाणाम् ॥ ५३॥ भाष्यम्-तारकाभ्यः शेषाणां ज्योतिष्काणां चतुर्भागः पल्योपमस्यापरा स्थितिः ॥ विशेषव्याख्या-ताराओंसे शेष जो ज्योतिष्क देव हैं उनकी अपरा स्थिति पल्योपमका चतुर्थ भाग है। इति तत्त्वार्थाधिगमाख्येऽर्हत्प्रवचनसङ्ग्रहे देवगतिप्रदर्शनो नामाचार्योपाधिधारिठाकुरप्रसादशर्मप्रणीत-भाषाटीका समलङ्कृतश्चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः ।। अथ पञ्चमोऽध्यायः। उक्ता जीवाः । अजीवान्वक्ष्यामः ।। जीवपदार्थका निरूपण करचुके अब अजीव पदार्थ कहते हैं । ___ अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः॥१॥ सूत्रार्थ-धर्म, अधर्म, आकाश तथा पुद्गल अजीवकाय हैं । भाष्यम्-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकायः पुद्गलास्तिकाय इत्यजीवकायाः । तान् लक्षणतः परस्ताद्वक्ष्यामः । कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थ च ॥ विशेषव्याख्या:-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, तथा पुद्गलास्तिकाय; ये चारों अजीवकाय हैं । इनको लक्षणपूर्वक आगे कहेंगे । इस सूत्रमें कायशब्दका ग्रहण प्रदेश तथा अवयवोंके बहुत्व बोधनके अर्थ किया है, अर्थात् इनके प्रदेश अवयव बहुत हैं, इस बातके जतानेके लिये कायग्रहण किया है । और अद्धासमयमें कायत्व नहीं है यह जतानेके लियेभी कायग्रहण है ॥ १॥ द्रव्याणि जीवाश्च ॥२॥ सूत्रार्थ-धर्म आदि चार अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और संपूर्ण जीव ये पांच द्रव्य हैं। भाष्यम्-एते धर्मादयश्चत्वारो प्राणिनश्च पञ्च द्रव्याणि च भवन्तीति । उक्तं हि “मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य” इति ॥ विशेषव्याख्याः -धर्म आदि चार और पांचवां जीव इन पांचोंकी द्रव्य संज्ञा है । कहाभी है—“मति तथा श्रुतज्ञानका विषयनिबन्ध द्रव्योंके असर्व पर्यायों और सब द्रव्योंमें है; और केवल ज्ञानका संपूर्ण द्रव्य तथा संपूर्ण पर्यायमें विषयनिबंध है । अर्थात् मति और श्रुतज्ञानसे संपूर्ण द्रव्य तो जाने जाते हैं परन्तु सब पर्यायसहित नहीं; और केवल ज्ञानसे संपूर्ण पर्यायसहित सब द्रव्य जाने जाते हैं." यह विषय प्रथम कहचुके हैं (अ. १ सू. २७,३०) ॥ २ ॥ For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्यतस्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ३ ॥ सूत्रार्थ - ये पांचो द्रव्य अर्थात् धर्म आदि चार तथा जीव नित्य अवस्थित तथा अरूपी द्रव्य हैं । १२१ भाष्यम् - एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति । तद्भावाव्ययं नित्यमिति वक्ष्यते ॥ अवस्थितानि च । न हि कदाचित्पभ्वत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति ।। अरूपाणि च । नैषां रूपमस्तीति । रूपं मूर्तिर्मूर्त्याश्रयाश्च स्पर्शादय इति ॥ विशेषव्याख्या - धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव ये पांच नित्य द्रव्य हैं । और नित्यका लक्षण “तद्भावाव्ययं नित्यम् " अर्थात् वह वही है ऐसा प्रत्यभिज्ञानका हेतुरूप जो भाव उसको नित्य कहते । ऐसा आगे कहैंगे (अ. ५ सू. ३०) । और ये पांचों अवस्थितरूप हैं । अवस्थितरूप इसका यह अभिप्राय है कि अपनी पञ्चत्वसङ्ख्या तथा नित्यरूप भूतार्थताको कभीभी नहीं त्यागते । और 'अरूपाणि' इसका यह तात्पर्य है कि धर्म अधर्म आदि द्रव्योंमें कोई श्वेतनीलपीतादि रूप वा वर्ण नहीं है । रूप (मूर्ति) अर्थात् विग्रह और मूर्तिके आश्रयीभूत स्पर्श रस आदिभी इनमें नहीं हैं ॥ ३ ॥ रूपिणः पुद्गलाः ॥ ४ ॥ सूत्रार्थ — पुद्गल रूपी हैं । भाष्यम् - पुद्गला एव रूपिणो भवन्ति । रूपमेषामस्त्येषु वास्तीति रूपिणः ॥ विशेषव्याख्या – इन पांचोंमें पुद्गलही रूपी द्रव्य हैं । जिनके रूप है वा जिनमें रूप है वे रूपी हैं ॥ ४ ॥ आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ५ ॥ सूत्रार्थ - धर्मसे लेकर आकाशपर्यन्त एक द्रव्य हैं । भाष्यम् – आ आकाशाद्धर्मादीन्येकद्रव्याण्येव भवन्ति । पुद्गलजीवास्त्वनेकद्रव्याणीति ॥ विशेषव्याख्या—धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक २ द्रव्य हैं, अर्थात् धर्म अधर्म आकाश इनके अनेक भेद नहीं हैं किन्तु ये एकही एक हैं । और, पुद्गल तथा जीव ये तो अनेक द्रव्य हैं अर्थात् इन दोनोंके अनेक भेद हैं ॥ ५ ॥ निष्क्रियाणि च ॥ ६ ॥ सूत्रार्थ - धर्मसे लेकर आकाशपर्यन्त द्रव्य निष्क्रिय भी हैं । भाष्यम् – आ आकाशादेव धर्मादीनि निष्क्रियाणि भवन्ति । पुद्गलजीवास्तु क्रियावन्तः । क्रियेति गतिकर्माह || १ "आ आकाशादेकरूपाणि " कहीं २ ऐसाभी सूत्रपाठ है. यहां प्रथम आ शब्द अभिव्याप्ति ( पर्यन्त) रूप अर्थका बोधक है । 'आकाशा०' इस पाठ में भी आकाशके पूर्व 'आ' पद है परन्तु दीर्घ रूप सन्धि हो गई है । Jain Education Internatl For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् • विशेषव्याख्या-धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य अरूपी हैं और निष्क्रिय भी हैं; अर्थात् इनमें कोई क्रिया नहीं है। और पुद्गल तथा जीव तो क्रियावान् पदार्थ (द्रव्य) हैं। यहां क्रियासे गतिकर्मका तात्पर्य है । अर्थात् गतिकर्मको क्रिया कहते हैं। ___ अत्राह । उक्तं भवता प्रदेशावयवबहुत्वं कायसंज्ञमिति । तस्मात्क एषां धर्मादीनां प्रदेशावयवनियम इति । अत्रोच्यते । सर्वेषां प्रदेशाः सन्त्यन्यत्र परमाणोः । अवयवास्तु स्कन्धानामेव । वक्ष्यते "ह्मणवः स्कन्धाश्च" "संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते" इति ।। अब यहांपर कहते हैं कि आपने प्रथम यह कहा है कि प्रदेश तथा अवयोंका बहुत्व जो है वही कायसंज्ञक है (अ. ५ सू. १) । अर्थात् जिसके अधिक प्रदेश तथा अवयव हों वह पदार्थ कायवान् वा अस्तिकाय शब्दसे कहा जाता है। जैसे-जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय इत्यादि । सो धर्म अधर्म आदिके प्रदेश तथा अवयवोंका क्या नियम है ? अब इसका उत्तर कहते हैं। कि-प्रेदेश तो परमाणुको छोड़के सब द्रव्योंके हैं. और अवयव तो केवल स्कन्धोंहीके हैं । ऐसा आगे कहेंगेभी । अणु और स्कन्ध “ए दो पुद्गलोंके भेद हैं" ये संघातसे, भेदसे तथा संघात-भेदसे उत्पन्न होते हैं ॥ ६ ॥ तत्रतहां असङ्ख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ॥७॥ सूत्रार्थ-धर्म तथा अधर्मके असङ्खयेय प्रदेश हैं। भाष्यम्-प्रदेशो नामापेक्षिकः सर्वसूक्ष्मस्तु परमाणोरवगाह इति ॥ विशेषव्याख्या–प्रदेश पदार्थ सापेक्ष होता है; और परमाणुका अवगाह सर्वसूक्ष्म है ॥ ७ ॥ जीवस्य च ॥८॥ भाष्यम्-एकजीवस्य वासङ्खयेयाः प्रदेशा भवन्तीति । विशेषव्याख्या-जीवद्रव्यकेभी अर्थात् एक जीवकेभी असंख्येय प्रदेश होते हैं॥ ८ ॥ आकाशस्यानन्ताः॥९॥ भाष्यम्-लोकालोकाकाशस्यानन्ताः प्रदेशाः । लोकाकाशस्य तु धर्माधमैकजीवैस्तुल्याः॥ विशेषव्याख्या-लोकालोकाकाशके अनन्त प्रदेश हैं । और लोकाकाशके धर्म, अधर्म तथा एक जीवके तुल्य अर्थात् असंख्यात प्रदेश हैं ॥ ९ ॥ १ इस सूत्रकी व्याख्या पाश्चात्य विद्वान् सिद्धान्तहृदय इस पदमें पुस्तकका नाम कहके भ्रममें पड़ गये हैं, किन्तु-"तथाचावधृतसिद्धान्तहृदयेन विशेषावश्यककारेण नमस्कारनियुक्तौ शब्दानित्यत्वप्रतिपादनेच्छाभावोऽपि" इस वाक्यमें "अवधृतसिद्धान्तहृदय" जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणका विशेषण है । अर्थात् वे सिद्धान्तवादी हैं । २ जो कि वस्तुके व्यतिरेक और भिन्नतासे कदाचित्भी उपलब्ध नहीं होते वे प्रदेश हैं । ३ जो कि विशकलित परिकलित अर्थात् स्पष्ट मूर्तिमान् हैं, बुद्धिपथमें जिनकी मूर्ति स्पष्ट है, वे अवयव हैं. और वे अवयव, धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और अणु इनमें नहीं होते तथा येही प्रदेश और अवयवोंका भेद है। For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १२३ सङ्खयेयासङ्ख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १०॥ भाष्यम्-सङ्ख्या असङ्खयेया अनन्ताश्च पुद्गलानां प्रदेशा भवन्ति । अनन्ता इति वर्तते ॥ विशेषव्याख्या-और पुद्गलोंके प्रदेश संख्येय, असङ्ख्येय तथा अनन्तभी हैं। यहांपर अनन्तशब्दकी पूर्वसूत्रसे अनुवृत्ति आती है ॥ १० ॥ नाणोः ॥११॥ भाष्यम्-अणोः प्रदेशा न भवन्ति । अनादिरमध्योऽप्रदेशो हि परमाणुः ।। विशेषव्याख्या-अणुके प्रदेश नहीं होते । क्योंकि परमाणु आदि, मध्य तथा प्रदेश इनकरके रहित हैं ॥ ११ ॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२॥ भाष्यम्-अवगाहिनामवगाहो लोकाकाशे भवति । विशेषव्याख्या—जो अवगाही (रहनेवाले ) हैं उनका अवगाह (स्थिति) लोकाकाशमें होती है ॥ १२ ॥ धर्माधर्मयोः कृत्ले ॥१३॥ भाष्यम्-धर्माधर्मयोः कृत्स्ने लोकाकाशेऽवगाहो भवतीति ॥ विशेषव्याख्या-धर्म तथा अधर्मका संपूर्ण लोकाकाशमें अवगाह होता है ॥ १३ ॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ-पुद्गलोंका आकाशके एक आदि प्रदेशोंमें अवगाह विकल्पनीय है। भाष्यम्-अप्रदेशसङ्खयेयासङ्खयेयानन्तप्रदेशानां पुद्गलानामेकादिष्वाकाशप्रदेशेषु भाज्योऽवगाहः । भाज्यो विभाज्यो विकल्प इत्यनर्थान्तरम् । तद्यथा –परमाणोरेकस्मिन्नेव प्रदेशे। द्वषणुकस्यैकस्मिन् द्वयोश्च । व्यणुकस्यैकस्मिन् द्वयोस्त्रिषु च । एवं चतुरणुकादीनां सङ्खयेयासङ्खयेयप्रदेशस्यैकादिषु सङ्खयेयेष्वसङ्खथेयेषु च । अनन्तप्रदेशस्य च ॥ विशेषव्याख्या-अप्रदेश, सङ्खयेयप्रदेश, असङ्खयेयप्रदेश, तथा अनन्तप्रदेशवाले जो पुद्गल हैं उनका आकाशके एक आदि प्रदेशोंमें अवगाह भाज्य अर्थात् विभाग करनेयोग्य है । भाज्य, विभाज्य, और विकल्प ये सब समानार्थक हैं । जैसे-परमाणुका एकही प्रदेशमें अवगाह है। और व्यणुकका एक तथा दो प्रदेशोंमें अवगाह है । व्यणुकका एक, दो तथा तीन प्रदेशोंमेंभी अवगाह है । इसी प्रकार चतुरणुक आदिके विषयमें जो एक प्रदेशी है उसका एक प्रदेशमें और जो सङ्खयेयप्रदेशी है उसका एक प्रदेशको आदि लेकर सङ्ख्येयप्रदेशोंमें, असङ्ख्येय प्रदेशीका एकको आदि लेकर असङ्ख्येय प्रदेशोंमें, और अनन्तप्रदेशीका एकको आदि लेकर अनन्त प्रदेशोंमें अवगाह है ॥ १४ ॥ असङ्खयेयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५ ॥ भाष्यम्-लोकाकाशप्रदेशानामसङ्खयेयभागादिषु जीवानामवगाहो भवति । आ सर्वलोकादिति ॥ For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या - लोकाकाशके असङ्खयेय भाग आदिके विषे जीवोंका अवगाह होता है । यह जीवोंका अवगाह संपूर्ण लोकतक होता है ॥ १५ ॥ १२४ अत्राह । को हेतुरसङ्घयेयभागादिषु जीवानामवगाहो भवतीति । अत्रोच्यतेअब यहां कहते हैं कि क्या कारण है कि लोकाकाशके असङ्खयेय विभागादिमें taar अवगाह होता है ? । अब इसपर कहते हैं प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ सूत्रार्थ — दीपके प्रकाशके समान जीवों के प्रदेश संकोचविस्ताररूप होनेसे लोकके असङ्ख्येय आदि भागोंमें जीवोंका अवगाह होता है । भाष्यम् – जीवस्य हि प्रदेशानां संहारविसर्गाविष्टौ प्रदीपस्येव । तद्यथा – तैलवर्त्यग्न्युपादाप्रवृद्धः प्रदीप महतीमपि कूटागारशालां प्रकाशयत्यण्वीमपि, माणिकावृतः माणिकां द्रोणावृतो द्रोणमाढकावृतश्चाढकं प्रस्थावृतः प्रस्थं पाण्यावृतो पाणिमिति । एवमेव प्रदेशानां संहारविसर्गाभ्यां जीवो महान्तमणुं वा पञ्चविधं शरीरस्कन्धं धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवप्रदेशसमुदायं व्याप्नोतीत्यवगाहत इत्यर्थः । धर्माधर्माकाशजीवानां परस्परेण पुद्गलेषु च वृत्तिर्न विरुध्यतेऽमूर्तत्वात् ॥ विशेषव्याख्या – प्रदीपके समान जीवके प्रदेशोंके संहार तथा विसर्ग इष्ट हैं । तैल, वर्तिका (बत्ती) तथा अग्निरूप उपादानकारणसे वृद्धिको प्राप्त प्रदीप (दीपक) छोटी तथा बड़ी शाला (गृह) को प्रकाशित करता है । जैसे- दीपक यदि माणिका ( पात्र ) से आच्छादित हो तो माणिकाको प्रकाशित करता है, द्रोण ( अन्न मापनेके पात्रविशेष ) से आच्छादित हो तो द्रोणको प्रकाशित करता है, ऐसेही आढकसे आवृत ( ढका हुआ ) होनेसे आढक (पात्रविशेष ) को, प्रस्थसे आवृत होने से प्रस्थ ( मापने के पात्र ) को और पाणिसे आवृत होनेसे पाणिको प्रकाशित करता है । इसी प्रकार यह जीवभी प्रदेशोंके संहार तथा विसर्ग अर्थात् संकोच और विस्तारसे महान् अथवा अणु पञ्चविध शरीरस्कन्ध धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल तथा जीवके प्रदेशसमूहको अवगाहन करता अर्थात् व्याप्त होता है । और धर्म, अधर्म, आकाश तथा जीवोंकी परस्परसे पुद्गलों में गगनागमनरूप वृत्तिका विरोध नहीं होता, क्योंकि धर्म आदि चारों अमूर्त हैं ॥ १६ ॥ 1 अत्राह । सति प्रदेशसंहारविसर्गसंभवे कस्मादसङ्ख्येयभागादिषु जीवानामवगाहो भवति नैकप्रदेशादिष्विति । अत्रोच्यते । संयोगत्वात्संसारिणां चरमशरीरत्रिभागहीनावगाहित्वाच्च सिद्धानामिति ॥ अब कहते हैं कि प्रदेशोंके संहार तथा प्रसर्पणके स्वभावका संभव होनेसे असङ्ख्येय भागादिकमें जीवोंका अवगाह क्यों होता है ? और एक प्रदेशादिमें क्यों नहीं होता ? इसपर कहते हैं कि, संसारी जीवोंको तो योग ( शरीरवाङ्मनोयोग ) सहित होनेसे; और For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १२५ सिद्धोंको अन्तिम शरीरसे त्रिभागहीन होनेसे असङ्ख्य भाग आदिमें अवगाह (व्याप्ति) होती है। अत्राह । उक्तं भवता धर्मादीनस्तिकायान् परस्ताल्लक्षणतो वक्ष्याम इति तत्किमेषां लक्षणमिति । अत्रोच्यते___ अब कहते हैं कि आपने यह कहा है, कि धर्मास्तिकाय आदिको लक्षणपूर्वक हम आगे कहेंगे (अ. ५ सू. १)सो इनके क्या लक्षण हैं ? । अब इसके उत्तरमें अग्रिम सूत्र कहते हैं गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७॥ सूत्रार्थ—गत्युपग्रह और स्थित्युपग्रह यह धर्म तथा अधर्मका उपकार है । भाष्यम्-गतिमतां गतेः स्थितिमतां च स्थितेरुपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारो यथासङ्घयम् । उपग्रहो निमित्तमपेक्षा कारणं हेतुरित्यनान्तरम् । उपकारः प्रयोजनं गुणोऽर्थ इत्यनर्थान्तरम् ॥ विशेषव्याख्या गतिमान् जो (जीव पुद्गल) पदार्थ हैं उनकी तो गतिके और जो स्थितिमान् (ठहरे हुए जीव पुद्गल) हैं, उनकी स्थितिके उपग्रह अर्थात् सहायरूप होना यह धर्म तथा अधर्मका जीव और पुद्गलोंके ऊपर उपकार है । यहांपर गति उपग्रह, और स्थिति उपग्रह इनका तथा धर्म और अधर्मका यथासङ्ख्य है । अर्थात् गतिकारणता धर्मका और स्थितिकारणता अधर्मका लक्षण है । उपग्रह, निमित्त, अपेक्षा, कारण, और हेतु ये सब समानार्थक हैं । और ऐसेही उपकार, प्रयोजन, गुण तथा अर्थ ये सबभी एकार्थबोधक हैं ॥ १७ ॥ आकाशस्यावगाहः ॥१८॥ सूत्रार्थ-सम्पूर्ण द्रव्योंको अवगाह देना यह आकाशका उपकार है। भाष्यम्-अवगाहिनां धर्माधर्मपुद्गलजीवानामवगाह आकाशस्योपकारः । धर्माधर्मयोरन्तःप्रवेशसंभवेन पुद्गलजीवानां संयोगविभागैश्चेति ॥ विशेषव्याख्या-अवगाही अर्थात् रहनेवाले पदार्थों अर्थात् धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव इन सबको अवगाह देना यह आकाशका धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीवोंके ऊपर उपकार है । इनमें धर्म और अधर्मका आभ्यन्तर प्रवेशके संभवसे उपकार करता है, और पुद्गल तथा जीवोंका संयोग तथा विभागोंसे उपकार करता है । तात्पर्य यह है कि धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीवोंको अवकाश वा अवगाहदानरूपसे तो उपकारक आकाशही है; किन्तु धर्म अधर्मको प्रत्येकमें अन्तःप्रवेशके संभवसे और पुद्गल तथा जीवोंका संयोग तथा विभागोंसेभी उपकार करता है ॥ १८ ॥ शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सूत्रार्थ-शरीर, वाक्, मन, तथा प्राण, अपान ये पुद्गलोंका जीवोंके ऊपर उपग्रह अर्थात् उपकार है। भाष्यम्-पञ्चविधानि शरीराण्यौदारिकादीनि वाड्मनः प्राणापानाविति पुद्गलानामुपकारः । तत्र शरीराणि यथोक्तानि । प्राणापानौ च नामकर्मणि व्याख्यातौ । द्वीन्द्रियादयो जिह्वन्द्रिययोगाद्भाषात्वेन गृह्णन्ति नान्ये । संज्ञिनश्च मनस्त्वेन गृह्णन्ति नान्य इति । वक्ष्यते हि सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्त इति ।। विशेषव्याख्या-औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, और कार्मण इन पञ्चविध शरीरोंके द्वारा वाक्से, मनसे और प्राण तथा अपानसे पुद्गलोंका जीवके ऊपर उपकार है । इनमेंसे शरीर तो पूर्व कहे हैं (अ. २ सू. ३७) और प्राण अपान नामकर्ममें व्याख्यात हैं (अ. ६ सू. ११)। और द्वीन्द्रिय आदि जिह्वा इन्द्रियके संयोगसे भाषारूपसे पुद्गलोंको ग्रहण करते हैं, न कि अन्य । संज्ञी मनरूपसेभी ग्रहण करते हैं अन्य नहीं । ऐसा आगे कहेंगेभी कि कषायसहित होनेसे जीव कोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है (अ. ८ सू. २।१९) ॥ १९ ॥ किं चान्यत्तथा आरैभी सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ सूत्रार्थ--सुखोपग्रह, दुःखोपग्रह, जीवितोपग्रह, मरणोपग्रह, इनसेभी पुद्गलोंका उपकार है। भाष्यम्-सुखोपग्रहो दुःखोपग्रहो जीवितोपग्रहो मरणोपग्रहश्चेति पुद्गलानामुपकारः । तद्यथा-इष्टाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः सुखस्योपकारः । अनिष्टा दुःखस्य । स्नानाच्छादनानुलेपनभोजनादीनि विधिप्रयुक्तानि जीवितस्यानपवर्तनं चायुष्कस्य । विषशस्त्राग्न्यादीनि मरणस्यापवर्तनं चायुष्कस्य ॥ . विशेषव्याख्या--सुखके उपग्रह, दुःखके उपग्रह, जीवित (जीवन)के उपग्रह, तथा मरणके उपग्रहसे जीवोंके ऊपर पुद्गलोंका उपकार है । जैसे-अपनेको अभीष्ट स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण तथा शब्द ये तो सुखके उपकार हैं, और अनिष्ट स्पर्श रसादि दुःखके । और विधिसे कृत स्नान, आच्छादन, अनुलेपन (तैल उबटन आदिके मर्दन) और भोजन ये जीवनके अर्थात् आयुके अपवर्तन न होनेके उपकार हैं । तथा विष, शस्त्र और अग्नि आदि मरणके अर्थात् आयुके अपवर्तन होनेके उपग्रह हैं। अत्राह । उपपन्नं तावदेतत्सोपक्रमाणामपवर्तनीयायुषाम् । अथानपवायुषां कथमिति । अत्रोच्यते-तेषामपि जीवितमरणोपग्रहः पुद्गलानामुपकारः । कथमिति चेत्तदुच्यते । कर्मणः स्थितिक्षयाभ्याम् । कर्म हि पौद्गलमिति । आहारश्च त्रिविधः सर्वेषामेवोपकुरुते । किं कारणम् । शरीरस्थित्युपचयबलवृद्धिप्रीत्यर्थ ह्याहार इति ॥ For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १२७ अब यहांपर कहते हैं कि जो उपक्रम (आरंभ) सहित तथा अपवर्तनीय (विषादिद्वारा न्यून करने योग्य) आयुषसहित हैं उनका तो जीवितोपग्रह और मरण उपग्रहरूप उपकार युक्त है । किन्तु जिनकी आयुष्का अपवर्तन नहीं होता । जैसे-देव तथा नरकके जीव उनका जीवित उपग्रह मरण उपग्रहद्वारा पुद्गल किस प्रकारसे उपकार कर सकते हैं ? । अब इसका उत्तर कहते हैं । जिनकी आयुष्का अपवर्तन नहीं होता उनकाभी जीवित उपग्रह तथा मरण उपग्रहरूप पुद्गलोंका उपकार है । यदि कहो कि कैसे ? तो कहते हैं। कर्मोंकी स्थिति और क्षयसे । अर्थात् कर्मोकी स्थिति जीवित उपग्रहरूप उपकार होता है । और कर्मोके क्षयसे मरणोपग्रहरूप उपकार होता है । और कर्म जो है वह तो पौद्गलिक है, अर्थात् पुद्गलसेही कर्म उत्पन्न होते हैं । तीन प्रकारका जो आहार है वह सेबकाही उपकार करता है । इसका क्या कारण है ? । उत्तर-क्यों कि शरीरकी स्थिति, वृद्धि, तथा बल, तेज आदिकी बढ़ानेकी प्रीतिसेही आहारका सेवन होता है ॥ २० ॥ ___ अत्राह । गृह्णीमस्तावद्धर्माधर्माकाशपुद्गला जीवद्रव्याणामुपकुर्वन्तीति । अथ जीवानां क उपकार इति । अत्रोच्यते - अब कहते हैं कि इस बातको हम मानते हैं कि धर्म, अधर्म, आकाश तथा पुद्गल द्रव्य, जीवद्रव्यका उपकार करते हैं । परन्तु जीवोंका द्रव्यके ऊपर क्या उपकार है ? । इसके उत्तरमें यह अग्रिम सूत्र है परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१॥ सूत्रार्थ-जीवोंका परस्पर उपकार है। भाष्यम्-परस्परस्य हिताहितोपदेशाभ्यामुपग्रहो जीवानामिति । विशेषव्याख्या-जीव परस्पर आपसमें एक दूसरेका हित तथा अहितके उपदेशद्वारा उपकार करते हैं । अर्थात् गुरु कर्तव्याकर्तव्यका उपदेश देकर शिष्योंका उपकार करता है और शिष्य गुरुकी सेवा शुश्रूषा आदिद्वारा उसका उपकार करता है । ऐसेही खामी आदि निज-आश्रितोंका पालन पोषण आदिसे उपकार करते हैं, और आश्रित आदि उनकी आज्ञा पालन आदिसे उनका उपकार करते हैं ॥ २१ ॥ अत्राह । अथ कालस्योपकारः क इति । अत्रोच्यते अब यहां कहते हैं कि कालका क्या उपकार है ? । इसके उत्तरमें अग्रिम सूत्र कहते हैं वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२॥ १ ओजस् तेजः (पराक्रमादिकी वृद्धिका हेतु) तथा लोमप्रक्षेपादि और कवल यह तीनों प्रकारका आहार है। २ यहां 'सर्वेषाम्' इससे संसारी जीवोंका ग्रहण है, क्योंकि अधिक वेही हैं। ३ यहांपर वर्तना, For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ___रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सूत्रार्थ-वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालके उपकार हैं । भाष्यम्-तद्यथा-सर्वभावानां वर्तना कालाश्रया वृत्तिः । वर्तना उत्पत्तिः स्थितिः प्रथमसमयाश्रया इत्यर्थः ॥ परिणामो द्विविधः । अनादिरादिमांश्च । तं परस्ताद्वक्ष्यामः । क्रिया गतिः । सा त्रिविधा । प्रयोगगतिर्विश्रसागतिमिश्रिकेति ॥ परत्वापरत्वे त्रिविधे प्रशंसाकृते क्षेत्रकृते कालकृते इति । तत्र प्रशंसाकृते परो धर्मः परं ज्ञानं अपरो धर्म अपरमज्ञानभिति । क्षेत्रकृते एकदिक्कालावस्थितयोर्विप्रकृष्टः परो भवति सन्निकृष्टोऽपरः । कालकृते द्विरष्टवर्षाद्वर्षशतिकः परो भवति वर्षशतिकाहिरष्टवर्षोऽपरो भवति ॥ तदेवं प्रशंसाक्षेत्रकृते परत्वापरत्वे वर्जयित्वा वर्तनादीनि कालकृतानि कालस्योपकार इति । विशेषव्याख्या-वर्तना आदि कालके उपकार हैं । जैसे-सब पदार्थोंकी वर्तना जो है वह कालके आश्रित वृत्ति है । वर्तना अर्थात् संपूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति, तथा स्थिति अर्थात् प्रथम समयके आश्रयीभूत जो उत्पत्ति स्थिति है वह वर्तना है । परिणाम दो प्रकारका है, एक अनादि परिणाम और दूसरा आदिमान् परिणाम । उस द्विविध परिणामको हम आगे कहेंगे (अ. ५ सू. ४२)। क्रिया अर्थात् गतिरूप क्रिया यहभी कालकाही उपकार है । क्रिया तीन प्रकारकी है । प्रथम प्रयोगगति, द्वितीय विश्रसागति, और तृतीय मिश्रिका वा मिश्रका । (उनमें प्रयोगगति पुरुषप्रयत्नजन्य, विश्रसागति स्वयं परिपाकसे जन्य और मिश्रिका उभयजन्य है) । परत्व अपरत्वभी तीन प्रकारके हैं । जैसे-प्रशंसाकृत । क्षेत्र (देश)कृत और कालकृत । उनमें प्रशंसाकृत जैसे-धर्म पर है, ज्ञान पर है, तथा अधर्म अपर है, अज्ञान अपर है । क्षेत्रकृत जैसे-एक देश कालमें स्थित दो पदार्थों के विषयमें जो दूर है वह तो पर है, और जो समीप है वह अपर है । कालकृत जैसे-शोलह वर्षवालेकी अपेक्षा शत (सौ) वर्षवाला पर है, और शतवर्षकी अपेक्षासे शोलह वर्षवाला अपर है । इस प्रकारसे प्रशंसा तथा क्षेत्रकृत परत्व अपरत्वको छोड़कर वर्तना आदि सब कालकृत है । अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया और कालिक परत्वापरत्व कालके उपकार हैं ॥ २२ ॥ अत्राह । उक्तं भवता शरीरादीनि पुद्गलानामुपकार इति । पुद्गलानिति च तत्रान्तरीया जीवान्परिभाषन्ते । स्पर्शादिरहिताश्चान्ये । तत्कथमेतदिति । अत्रोच्यते । एतदादिविप्रतिपत्तिप्रतिषेधार्थ विशेषवचनविवक्षया चेदमुच्यते ॥ अब यहांपर कहते हैं कि आपने शरीर आदि पुद्गलोंके उपकार कहे । और पुद्गलोंको अन्य तन्त्रवाले (बौद्ध) जीव कहते हैं । और दूसरे कहते हैं कि पुद्गल स्पर्श रस आदिसे रहित हैं । सो यह कैसे हो सकता है ? अर्थात् ये स्पर्श आदिरहित होनेसे जीव हैं, परिणाम और क्रिया इन तीनों पदोंका विरोध न होनेसे समास करके पढ़ना चाहिये । कोई असमस्तही पढ़ते हैं । सापेक्ष होनेसे परत्वापरत्वका तो समास हैही। For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १२९ अथवा स्पर्शआदिसहित हैं ? इत्यादि जो विप्रतिपत्ति (विवादविषय) है उसके निषेधके लिये तथा विशेष कथनकी विवक्षासे यह आगेका सूत्र कहते हैं । स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ॥ सूत्रार्थ—स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णलक्षणयुक्त पुद्गल होते हैं। भाष्यम्-स्पर्शः रसः गन्धः वर्ण इत्येवंलक्षणः पुद्गला भवन्ति । तत्र स्पर्शोऽष्टविधः कठिनो मृदुर्गुरुर्लघुः शीत उष्णः स्निग्धः रूक्ष इति । रसः पञ्चविधस्तिक्तः कटुः कषायोऽम्लो मधुर इति । गन्धो द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च । वर्णः पञ्चविधः कृष्णो नीलो लोहितः पीतः शुक्ल इति ॥ विशेषव्याख्या-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवान् अर्थात् स्पर्श आदियुक्त पुद्गल होते हैं। उनमें स्पर्श आठ (८) प्रकारका होता है । जैसे-कठिन १ मृदु (कोमल) २ गुरु ३ लघु ४ शीत ५ उष्ण ६ स्निग्ध ७ और रूक्ष ८ । रस पांच प्रकारका होता है। कटु १, तिक्त २, कषाय (कशैला) ३, आमिल (खट्टा) ४ और मधुर ५। गन्ध दो प्रकारका होता है एक सुरभि (सुगन्ध) और दूसरा असुरभि अर्थात् दुर्गन्ध । और वर्ण पांच प्रकारका होता है, जैसे-कृष्ण (काला) १, नील २, लोहित (लाल) ३, पीत और श्वेत ५। किं चान्यत्और यह अन्य विशेषभीशब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥२४॥ सूत्रार्थः-शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य (सूक्ष्मता तथा स्थूलता), संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप तथा उद्योत यह सब पुद्गलके पर्याय हैं । अर्थात् शब्द बन्ध आदि सब पुद्गलकेही विकार हैं। भाष्यम्-तत्र शब्दः षड़िधः । ततो विततो घनः शुषिरो घर्षो भाष इति ॥बन्धस्त्रिविधः। प्रयोगबन्धो विश्रसाबन्धो मिश्र इति । स्निग्धरूक्षत्वाद्भवतीति वक्ष्यते ॥ सौक्ष्म्यं द्विविधमन्त्यमापेक्षिकं च । अन्यं परमाणुष्वेव । आपेक्षिकं व्यणुकादिषु संघातपरिणामापेक्षं भवति । तद्यथा-आमलकाद्वदरमिति । स्थौल्यमपि द्विविधमन्त्यमापेक्षिकं च संघातपरिणामापेक्षमेव भवति । तत्रान्त्यं सर्वलोकव्यापिनि महास्कन्धे भवति । आपेक्षिकं बदरादिभ्य आमलकादिध्विति ॥ संस्थानमनेकविधम् । दीर्घह्रस्वाद्यनित्थत्वपर्यन्तम् । भेदः पञ्चविधः । औत्कारिक: चौर्णिकः खण्डः प्रतरः अनुतटइति ॥ तमश्छायातपोद्योताश्च परिणामजाः ॥ सर्व एवैते स्पर्शादयः पुद्गलेष्वेव भवन्तीति । अतः पुद्गलास्तद्वन्तः ।। विशेषव्याख्या-उनमें शब्द षट् (छ) प्रकारका है । जैसे-तत (वीणादिसे उत्पन्न ), वितत (मुरजमृदङ्गादिजन्य ), घन (काँसा वा तालीसे उत्पन्न ), शुषिर (वंशी आदिसे उत्पन्न ), घर्ष ( संघर्षण-रगड़से उत्पन्न ) और भाषारूप । बन्ध तीन प्रकारका है। प्रयो JainEducation International For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् गबन्ध ( पुरुषप्रयत्नसे उत्पन्न ), विश्रसा ( अर्थात् स्वतःसिद्ध वा परिपाकजन्य ) बन्ध आरै मिश्रबन्ध 'स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलोंके परस्पर स्पृष्ट होनेपर बन्ध होता है' ऐसा आगे इसी अध्यायके ( ३२ )वें सूत्रमें कहेंगे। सौक्ष्म्य दो प्रकारका है एक अन्तिम परमाणु आदि निष्ठ और दूसरा सापेक्ष । अन्तिम सौक्ष्म्य तो परमाणुओंमें होता है और दूसरा द्यणुक आदिमें संघात परिणामकी अपेक्षासे होता है । जैसे-आमलेसे वदर (बेर )में सूक्ष्मता है। यह संघातपरिणामके सापेक्ष होती है । और स्थौल्यभी दो प्रकारका होता है । एक अन्तिम और दूसरा आपेक्षिक अर्थात् किसीकी अपेक्षासे । उनमें अन्तिम स्थौल्य (स्थूलत्व वा महत्व ) सर्वलोकव्यापी महास्कन्धमें होता है और द्वितीय स्थौल्य, जैसे-बदर (बेर ) आदिकी अपेक्षा आमले आदिमें । संस्थान ( अवयवरचनाविशेष ) अनेक प्रकारका होता है । जैसे-दीर्घ ह्रस्वसे अनित्थत्व (निरूपणके अयोग्य ) पर्यन्त होता है । भेद पांच प्रकारका है । जैसे-औत्कारिक (काष्ठादिकको आरा आदिसे चीरना), चौर्णिक (चूर्णके द्वारा उत्पन्न. जैसे-दाल आटा), खण्ड (जैसे घटके कपालादिक ), प्रसर (जैसे बादलके टुकड़े) तथा अनुतट और तम (प्रकाशविरोधी ), छाया (प्रकाशावरणनिमित्ता), आतप (सूर्य आदिसे होनेवाले उष्णरूप) तथा उद्योत ( चन्द्र आदिका प्रकाश) ये सब पुद्गलके परिणामसे उत्पन्न होते हैं । ये सब स्पर्शसे लेकर उद्योतपर्यन्त पुद्गलोंहीमें होते हैं । इस कारण पुद्गल तद्वान् अर्थात् इनसे युक्त कहलाते हैं। अत्राह । किमर्थ स्पर्शादीनां शब्दादीनां च पृथक् सूत्रकरणमिति । अत्रोच्यते । स्पर्शादयः परमाणुषु स्कन्धेषु च परिणामजा एव भवन्तीति । शब्दादयस्तु स्कन्धेष्वेव भवन्त्यनेकनिमित्ताश्चेत्यतः पृथक्करणम् ।। अब यहांपर प्रश्न करते हैं कि यदि स्पर्श रसादि तथा शब्दबन्धादि पुद्गलोंहीमें होते हैं तो स्पर्शादिक तथा शब्दादिकके लिये पृथक् २ सूत्र क्यों किया ? । अर्थात् स्पर्श रस गंध इत्यादि (२३) तथा शब्द-बन्ध इत्यादि ( २४ ) दो सूत्र क्यों किये ? एकही सूत्रसे कार्य चल जाता । अब इसका उत्तर कहते हैं कि स्पर्श रस आदि जो हैं वे परमाणु ओंमें तथा स्कन्धोंमें स्वभावसेही होते हैं । और शब्द-बन्ध आदि तो स्कन्धोंहीमें होते हैं और अनेक निमित्तोंसे होते हैं, न कि केवल परिणामजन्य, इस लिये पृथक् २ सूत्र किये ॥ २४ ॥ त एते पुद्गलाः समासतो द्विविधा भवन्ति । तद्यथाये पुद्गल संक्षेपसे दो प्रकारके होते हैं । जैसे: १ जिसका निरूपण न होसकै कि वह ऐसा वा इस प्रकारका है । २ अनुतट वह भेद है जो संतप्त लोहेको घनसे पीटनेसे स्फुलिंग निकलते हैं। For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। अणवः स्कन्धाश्च ॥ २५॥ सूत्रार्थ:-अणु तथा स्कन्ध ये दो भेद पुद्गलोंके हैं। भाष्यम्-उक्तं चइस विषयमें अन्यत्र कारिकाओंके द्वारा कहाभी है। कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ इति । वह परमाणु कारण और अन्तिम सूक्ष्मतासहित तथा नित्य है। तथा एक रस, एक गन्ध और एकवर्णयुक्त, दो स्पर्शसहित, और कार्यलिङ्ग है, अर्थात् कार्यसे जाना जाता है । इस प्रकारसे परमाणुके लक्षण कहे हैं। तत्राणवोऽबद्धाः स्कन्धास्तु बद्धा एव ॥ अणु तथा स्कन्धोंमें परमाणु तो अबद्ध अर्थात् बन्धनरहित हैं, और स्कन्ध बद्ध हैं ॥ २५ ॥ अत्राह । कथं पुनरेतद्वैविध्यं भवतीति । अत्रोच्यते । स्कन्धास्तावत् अब यहांपर कहते हैं कि पुद्गलोंके ये दो भेद कैसे होते हैं ? । इस लिये यह अग्रिम सूत्र कहते हैं । प्रथम स्कन्धोंके विषयमें कहते हैं संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ सूत्रार्थः-संघातसे, भेदसे तथा संघात-भेदसे स्कन्ध उत्पन्न होते हैं ! भाष्यम्-संघाताद्भेदात्संघातभेदादिति । एभ्यस्त्रिभ्यः कारणेभ्यः स्कन्धा उत्पद्यन्ते द्विप्रदेशादयः। तद्यथा-द्वयोः परमाण्वोः संघाताहिप्रदेशः । द्विप्रदेशस्याणोश्च संघातात्रिप्रदेशः। एवं सङ्ख्येयानामसङ्ख्येयानामनन्तानामनन्तानन्तानां च प्रदेशानां संघातात्तावत्प्रदेशाः ॥ एषामेव भेदाहिप्रदेशपर्यन्ताः ॥ एत एव संघातभेदाभ्यामेकसामायिकाभ्यां द्विप्रदेशादयः स्कन्धा उत्पद्यन्ते । अन्यस्य संघातेनान्यतो भेदेनेति ॥ विशेषव्याख्या-संघात आदि जो तीन कारण हैं उनसे द्विप्रदेश (दो प्रदेशोंवाले ) आदि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । जैसे—दो परमाणुओंके संघातसे द्विप्रदेश उत्पन्न होता है, तथा द्विप्रदेश और अणुके संघातसे त्रिप्रदेश उत्पन्न होता है । इस प्रकार सङ्खयेय, असवयेय, अनन्त और अनन्तानन्त प्रदेशोंके संघातसे उतनेही अर्थात् सङ्ख्येय, असङ्ख्येय, अनन्त तथा अनन्तानन्त प्रदेशवाले उत्पन्न होते हैं । और इन्ही संख्यात संख्यात अनन्त प्रदेशोंवाले स्कन्धोंके भेद करनेसे द्विप्रदेशपर्यन्त स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । और येही एक समयमें उत्पन्न संघात तथा भेदसे द्विप्रदेश आदि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। अन्यके संघात और अन्यके भेदसे ये स्कन्ध उत्पन्न होते हैं ॥ २६ ॥ अत्राह । अथ परमाणुः कथमुत्पद्यत इति । अत्रोच्यतेअब यहां कहते हैं कि परमाणु कैसे उत्पन्न होता है? । इस लिये यह सूत्र कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भेदादणुः ॥ २७॥ भाष्यम्-भेदादेव परमाणुरुत्पद्यते न संघातादिति ॥ विशेषव्याख्या-अणु भेदसे ( किसी वस्तुके खण्डसे ) ही उत्पन्न होता है, संघातसे कभी नहीं होता ॥ २७ ॥ . भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः ॥ २८॥ सूत्रार्थ:-चाक्षुष स्कन्ध भेद तथा संघात दोनोंसे उत्पन्न होते हैं । भाष्यम्-भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः स्कन्धा उत्पद्यन्ते । अचाक्षुषास्तु यथोक्तासंघाताद्भेदात्संघातभेदाच्चेति ॥ विशेषव्याख्या-चाक्षुष अर्थात् जो नेत्र इन्द्रियसे प्रत्यक्ष हो सकैं वे स्कन्ध भेद और संघातसे उत्पन्न होते हैं । और अचाक्षुष तो पूर्वोक्त संघात, भेद, तथा संघात-भेदसे उत्पन्न होते हैं। अत्राह । धर्मादीनि सन्तीति कथं गृह्यत इति । अत्रोच्यते । लक्षणतः । अब यहांपर प्रश्न करते हैं कि धर्म आदि द्रव्य ( सन्ति ) अर्थात् हैं यह कैसे ग्रहण किया ( जाना) जाता है ? । अब इसका उत्तर देते हैं कि लक्षणसे । इसपर कहते हैं ॥२८॥ किं च सतो लक्षणमिति । अत्रोच्यते-- पुनः इसपर प्रश्न करते हैं कि सत्का क्या लक्षण है कि जिससे ये जाने जाते हैं। इसपर कहते हैं उत्पाव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ २९ ॥ सूत्रार्थः-उत्पाद (उत्पत्ति ), व्यय ( नाश ) और ध्रौव्य (स्थिरता ) युक्त होना यही सत्का लक्षण है। __ भाष्यम्-उत्पादव्ययौ धौव्यं च युक्तं सतो लक्षणम् । यदुत्पद्यते यद्वयेति यच्च ध्रुवं तत्सत् । अतोऽन्यदसदिति ॥ विशेषव्याख्या-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होना सत्का लक्षण है । अर्थात् जो उत्पन्न हो और नाशको प्राप्त हो, तथा ध्रुव हो वह सत् है । और इससे जो भिन्न है वह असत् है। [उत्पादव्ययौ ध्रौव्यं च सतो लक्षणम् । यदिह मनुष्यत्वादिना पर्यायेण व्ययत आत्मनो देवत्वादिना पर्यायेणोत्पादः एकान्तध्रौव्ये आत्मनि तत्तथैकस्वभावतयावस्थाभेदानुपपत्तेः । एवं च संसारापवर्गभेदाभावः । कल्पितत्वेऽस्य निःस्वभावतयानुपलब्धिप्रसङ्गात् । सस्वभावत्वे त्वेकान्तध्रौव्याभावस्तस्यैव तथाभवनादिति । तत्तत्स्वभावतया विरोधाभावात्तथोपलब्धिसिद्धेः। तद्भ्रान्तत्वे प्रमाणाभावः । योगिज्ञानप्रमाणाभ्युपगमे त्वभ्रान्तस्तदवस्थाभेदः । इत्थं चैतत् अन्यथा न मनुष्यादेवत्वादीति । एवं यमादिपालनानर्थक्यम् । एवं च सति "अहिंसासत्या १ कहीं २ ऐसा लिखा है कि "उत्पादव्ययाभ्यां ध्रौव्येण च युक्तं सतो लक्षणम्" उत्पादसे, ... व्ययसे, तथा ध्रौव्यसे युक्त होना यह सत्का लक्षण है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । स्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः” “शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः" इति आगमवचनं वचनमात्रम् । एवमेकान्ताध्रौव्येऽपि सर्वथा तदभावापत्तेः तत्त्वतो हेतुकत्वमेवावस्थान्तरमिति सर्वदा तद्भावाभावप्रसङ्गः अहेतुकत्वाविशेषात् । न हेतुस्वभावतयोर्ध्व तद्भावः तत्स्वभावतयैकान्तेन ध्रौव्यसिद्धेः । यदा हि हतोरेवासौ स्वभावो यत्तदनन्तरं तद्भावस्तदा ध्रुवोऽन्वयस्तस्यैव तथा भवनात् । एवं च तुलोन्नामावनामवद्धेतुफलयोयुगपद्वययोत्पादसिद्धिरन्यथा तत्तद्वयतिरिक्तेतरविकल्पाभ्यामयोगात् । तन्न। मनुष्यादेर्देवत्वमित्यायातं मार्गवैफल्यमागमस्येति । एवं सम्यग्दृष्टिः सम्यक्संकल्पः सम्यग्वाग् सम्यग्मार्गः सम्यगाजवः सम्यग्व्यायामः सम्यक्स्मृतिः सम्यक्समाधिरिति वाग्वैयर्थ्यम् । एवं घटव्ययवत्या मृदः कपालोत्पादभावात् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति । एकान्तध्रौव्ये तत्तथैकस्वभावतयावस्थाभेदानुपपत्तेः । समानं पूर्वेण । एवमेतद्व्यवहारतः तथा मनुष्यादिस्थितिद्रव्यमधिकृत्य दर्शितम् । निश्चयतस्तु प्रतिसमयमुत्पादादिमत्तथा भेदसिद्धेः । अन्यथा तदयोगात्। यथाह सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्योश्चित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात् ॥१॥ नरकादिगतिविभेदो भेदः संसारमोक्षयोश्चैव । हिंसादिस्तद्धेतुः सम्यक्त्वादिश्च मुख्य इति ॥ २॥ उत्पादादियुते खलु वस्तुन्येतदुपपद्यते सर्वम् । तद्रहिते तदभावात् सर्वमपि न युज्यते नीत्या ॥३॥ निरुपादानो न भवत्युत्पादो नापि तादवस्थ्येऽस्य । तद्विक्रिययापि तथा त्रितययुतेऽस्मिन् भवत्येषः ॥ ४ ॥ सिद्धत्वेनोत्पादो व्ययोऽस्य संसारभावतो ज्ञेयः । जीवत्वेन ध्रौव्यं त्रितययुतं सर्वमेवं तु ॥५॥ (एतच्च भाष्यं हारिभद्रवृत्तौ व्याख्यातमस्ति न च सिद्धसेनीयायामिति) तदित्थं उत्पादव्ययौ ध्रौव्यं चैतत्रितययुक्तं सतो लक्षणं । अथवा युक्तं समाहितं त्रिस्वभावं सत् । यदुत्पद्यते यद्वयेति यच्च ध्रुवं तत्सत् अतोऽन्यदसदिति ॥ उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्य यह सत्का लक्षण है । जिससे इस संसारमें जीवका मनुध्यत्व आदि पर्यायरूपसे व्यय होता है, और देवत्व आदि पर्यायरूपसे उत्पत्ति होती है और जीवरूपसे ध्रौव्य है । इस हेतुसे तीनों लक्षणयुक्त होनेसे सत् है । और (एकान्त) ( सर्वथा ) ध्रौव्य माननेसे और उसी ध्रौव्यरूप एक स्वभाव होनेसे आत्माकी अवस्था ओंका भेद अयुक्त है । और जब आत्माकी सदा एकही अवस्था है तब संसार तथा मोक्षके भेदकाभी अभाव हुआ, अर्थात् सदा आत्माके एकरूप होनेपर संसारसे मोक्षमें क्या विशेषता है ? जिसके लिये अनेक प्रयत्न किये जाते हैं। और कदाचित् संसाराऽवस्था तथा मोक्षावस्थाके भेदको कल्पित मानो तो आत्माका संसारी स्वभाव न होनेसे उसकी उपलब्धि (प्राप्ति) के अभावका प्रसङ्ग हो जायगा । और जब आत्माका मनुष्यत्व देवत्व आदि संसारी पर्यायस्वभाव है तो एकान्तरूपसे ध्रौव्यका अभाव होगया, क्योंकि आत्माही For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मनुष्य देव आदि पर्यायरूपसे होता है । और देवत्व मनुष्यत्वादि पर्यायकी उपलब्धि स्वभावरूप होनेसे विना किसी विरोधके सिद्धही है । कदाचित् कहो कि संसारी मनुष्य देव आदि पर्यायका भाव जो आत्माको होता है यह भ्रान्ति है तो उसके भ्रान्तत्व होनेमें कोई प्रमाण नहीं है । और जब योगियोंके ज्ञानको प्रमाण मानो तब तो अवस्थाभेद प्रतीत हुआ । इस हेतुसे यह अवस्थाओंका भेद ऐसाही है । और यदि अन्यथा मानो तो मनुष्यके देवत्व आदि पर्याय होही नहीं सकते । फिर यमनियमादिका पालनभी निरर्थक है । और ऐसा होनेसे "अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरीका अभाव ), ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये पांच यम हैं" तथा "शौच, सन्तोष, तप, खाध्याय (पठन पाठन ), तथा ईश्वरप्रणिधान, ये पांच नियम हैं" इत्यादि शास्त्र (योगदर्शनके) वचन केवल कथनमात्रके हैं, अर्थात् व्यर्थ हैं । इस लिये सर्वथा ध्रौव्य आत्मस्वरूप नहीं है किन्तु मनुष्य देव सिद्ध आदि पर्यायोंसे अवस्थाभेद है । और ऐसेही सर्वथा अधौव्यरूपभी आत्माके माननेसे हानि है । क्यों कि जब सर्वथा वह आत्मा न रहा तब यम नियम आदिके फलभोग किसको होंगे? इस हेतुसे यहभी निश्चित हुआ कि यथार्थमें हेतुपूर्वक आत्मस्वभावमें अवस्थान्तरकी प्राप्ति होती है । और अहेतुक मानो तो जो स्वभाववाली अवस्था है उसके भाव वा अभावका सर्वदा प्रसङ्ग होगा । क्यों कि अहेतुकता होनेंमें कोई विशेषता नहीं है । और हेतुस्वभावतासे ऊर्ध्वतद्भाव ( देवत्वादि भाव) नहीं होता । क्योंकि हेतुस्वभाव होनेसे एकान्तरूपसे उसको ध्रौव्य होजायगा । और जब हेतुसे देवत्व मनुष्यत्वादि स्वभाव होता है और जिस हेतुके अनन्तर वैसे स्वभाव (मनुष्यत्व वा देवत्वादि स्वभाव ) की सत्ता होती है तब ध्रुव आत्मरूपका अवश्य अन्वय है अर्थात् सब दशामें संबन्ध है, क्योंकि उसी आत्माहीका वैसा स्वभाव वा पर्याय हो जाता है। ऐसा होनेसे किसीने जो यह कहा कि तुला (तराजू )की डांडी जैसे जिस समय एक ओर ऊंची होती है उसी समय दूसरी ओर नीची होती है ऐसेही हेतु और उस हेतुसे उत्पन्न होनेवाले फलके व्यय तथा उत्पादकी एक कालमेंही सिद्धि होती है और यदि ऐसा न हो तो उनसे भिन्न अन्य विकल्पोंसे सम्बन्ध न होगा । यह कथन संगत नहीं है। क्योंकि एकही कालमें हेतु और फलकी और व्यय तथा उत्पादकी सिद्धि 'माननेसे मनुष्य आदिसे देवत्वकी प्राप्ति होती है इस आगममार्गकी विफलता प्राप्त हुई । क्योंकि जिस समय देवत्वप्राप्तिमें हेतुरूप मनुष्यजन्मके यम नियम आदि हैं उस समय फलकी प्राप्ति नहीं है । और इसी रीतिसे अब (हेतुविशेषसे ) यह सम्यग्दृष्टि है, सम्यक् संकल्प है, सम्यग्वाग् , सम्यग्मार्ग, सम्यगार्जव, सम्यग्व्यायाम, सम्यक्स्मृति, तथा सम्यक्समाधि, इत्यादि वचन व्यर्थ होंगे। इसी रीतिसे घटपर्यायके व्यय (नाश ). वाली मृत्तिकासे कपालरूप पर्यायके उत्पाद होनेसे उत्पाद, व्यय, तथा धौव्य-युक्त होनेसे For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सत् है । क्योंकि घटपर्यायका व्यय, कपालपर्यायका उत्पाद और मृत्तिकारूपसे ध्रौव्य है । और एकान्तरूपसे ध्रौव्य माननेसे उस वस्तुका उसी प्रकार एक स्वभाव होनेसे अवस्थाओंका भेद अयुक्त होगा; और सब वार्ता पूर्वके समान यहांभी समझलेनी । इस प्रकार व्यवहारनयसे तथा मनुष्य आदि स्थिति द्रव्यको उद्देशकरके यहां सत्का लक्षण दर्शाया गया । और निश्चयनयसे तो प्रतिसमय पदार्थ उत्पत्ति आदिसहित होनेसे अवस्थाओंके भेदकी सिद्धि है । और यदि उत्पाद तथा व्यय आदि युक्त वस्तु न हों तो पूर्वपर अवस्थाओंका भेद न सिद्ध होगा और इस विषयमें ऐसाही अन्यत्र कहाभी है___ संपूर्ण पदार्थमात्रमें चिति तथा अपचिति अर्थात् वृद्धि तथा ह्रासके विद्यमान होनेसे और आकृति ( व्यक्ति) तथा जातिके व्यवस्थापनसे क्षण २ में भेद नियत है और द्रव्यरूपसे विशेषभी नहीं है ॥ १ ॥ नरक आदि गतियोंका विभेद तथा संसार और मोक्षका भेदभी वस्तुओंके अवस्थाओंके भेदसेही नियत है और इन गतियोंके तथा संसार और मोक्षके भेद होनेमें हिंसा आदि तथा सम्यग्दर्शन आदि हेतु मुख्य है ॥ २ ॥ और नरक आदि गतियोंके भेद तथा संसार और मोक्षके ये सब भेद आदि तभी उपपन्न अर्थात् युक्त होसकते हैं जब प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है। अर्थात् जब अनेकान्तवादसे यह निश्चित है कि वस्तुमें पूर्वपर्यायका व्यय (नाश) और उत्तरपर्यायका उत्पाद तथा मूल द्रव्यादिरूपसे ध्रौव्य है । जैसे मनुष्यगतिमें मनुष्यपर्यायका व्यय और देवगति प्राप्त होनमें देवपर्यायकी उत्पत्ति तथा जीवत्वरूपसे जब ध्रौव्य है तभी सब युक्त है; और उत्पाद आदिरहित वस्तुमें उत्पाद आदिके अभावसे नरक गति आदिके भेद तथा संसार और मोक्षके भेद ये सब नयसे नहीं युक्त होसकते ॥ ३॥ और उपादानकारण ( हेतु) के विना ध्रौव्यरूप एक वस्तुमें उत्पाद नहीं हो सकता, और ऐसेही सदा विक्रिया (सदा अध्रौव्य) सेभी उत्पाद नहीं हो सकता; इसलिये उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त वस्तुमें ही यह उत्पाद आदि होता है ॥ ४ ॥ और सिद्ध पर्यायमेंभी सिद्धत्वरूपसे उत्पाद है, और इस जीवके संसारका अभाव होनेसे संसारपर्यायका व्यय जानना चाहिये । तथा जीवत्व अर्थात् शुद्ध जीवत्वरूपसे ध्रौव्यभी है ॥२९॥ इसप्रकार सब कुछ उत्पाद आदि त्रितय (तीनों) से युक्तही है ॥ ५॥ (यह भाष्य १ एक पुस्तकमें अग्रिम प्रान्त (फुटनोट )में ऐसी टिप्पणी है कि इस २९ वें सूत्रके भाष्यका पाठ दो प्रकारका है । एक तो "उत्पादव्ययौ ध्रौव्यं चैतत्रितययुक्तं" इत्यादि रूपसे । यह सिद्धसेनजीकी वृत्तिमें है । और द्वितीय पाठ इस प्रकार है "उत्पादव्ययौ ध्रौव्यं च सतो लक्षणम्" यहां “यदिह" इत्यादि जो कोष्ठ के भीतर है वह सब सिद्धसेनकी वृत्तिमें है । और किसी पुस्तकमें भाष्यका आरम्भ ऐसे है "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" अर्थात् उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य ये तीनों एक ही पदमें पढ़े हैं। और कहीं "उत्पादव्ययाभ्यां ध्रौव्येण च युक्तं सत्" ऐसा पाठ है । सर्वथा सूत्रका यह अर्थ है कि उत्पाद-आदिमान् अर्थात् उत्पादादिसहित वस्तु सत् है । For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हरिभद्रकी वृत्तिमें व्याख्यात है, किन्तु सिद्धसेनकी वृत्तिमें नहीं है.) वह भाष्य इस प्रकारसे है कि उत्पाद, व्यय, तथा ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त सत्का लक्षण है । अथवा युक्तका अर्थ है समाहित ( सहित) अर्थात् उत्पादादि त्रिस्वभाववस्तु सत् है । जो उत्पन्न हो, जो नष्ट हो, तथा जो ध्रुवभी हो वह सत् है, और इससे अन्य असत् है । ___ अत्राह । गृह्णीमस्तावदेवलक्षणं सदिति । इदं तु वाच्यं तत्किं नित्यमाहोस्विदनित्यमिति । अत्रोच्यते__ अब यहां कहते हैं कि पूर्वोक्त सत्का लक्षण स्वीकार करते हैं । परन्तु वह सत् नित्य है वा अनित्य है ? । इस लिये यह अग्रिम सूत्र कहते हैं तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३०॥ भाष्यम्-यत्सतो भावान्न व्येति न व्येष्यति तन्नित्यमिति । विशेषव्याख्याः -जो सत् स्वभावसे नाशको न प्राप्त होता हो वा न होगा वह नित्य है ॥ ३० ॥ अर्पितानर्पितसिडेः ॥ ३१ ॥ · सूत्रार्थ:-पदार्थोंकी सिद्धि मुख्य और गौण रीतिसे होती है । अर्थात् जो एककी मुख्यता तो दूसरेकी गौणता होती है ॥ __ भाष्यम्-सच्च त्रिविधमपि नित्यं च । उभे अपि अर्पितानर्पितसिद्धेः । अर्पितं व्यावहारिकमर्पितमव्यावहारिकं चेत्यर्थः । तच्च सच्चतुर्विधम् । तद्यथा-द्रव्यास्तिकं मातृकापदास्तिकमुत्पन्नास्तिकं पर्यायास्तिकमिति । एषामर्थपदानि द्रव्यं वा द्रव्ये वा द्रव्याणि वा सत्। असन्नाम नास्त्येव द्रव्यास्तिकस्य ॥ मातृकापदास्तिकस्यापि । मातृकापदं वा मातृकापदे वा मातृकापदानि वा सत् । अमातृकापदं वा अमातृकापदे वा अमातृकापदानि वा असत् ।। उत्पन्नास्तिकस्य । उत्पन्नं वोत्पन्ने वोत्पन्नानि वा सत् । अनुत्पन्नं वानुत्पन्ने वानुत्पन्नानि वा सत् ॥ अर्पितेऽनुपनीते न वाच्यं सदित्यसदिति वा । पर्यायास्तिकस्य सद्भावपर्याये वा सद्भावपर्याययोर्वा सद्भावपर्यायेषु वा आदिष्टं द्रव्यं वा द्रव्ये वा द्रव्याणि वा सत् । असद्भावपर्याये वा असद्भावपर्याययोर्वा असद्भावपर्यायेषु वा आदिष्टं द्रव्यं वा द्रव्ये वा द्रव्याणि वासत् । तदुभयपयोये वा तदुभयपर्याययोर्वा तदुभयपर्यायेषु वा आदिष्टं द्रव्यं वा द्रव्ये वा द्रव्याणि वा न वाच्यं सदित्यसदिति वा । देशादेशेन विकल्पयितव्यमिति ॥ विशेषव्याख्या-उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य एतत्रितयरूपभी सत् है और नित्यभी है। और उत्पाद, व्यय, तथा ध्रौव्ययुक्त सत् और नित्य ये दोनों अर्पित तथा अनर्पित भेदसे सिद्ध हैं । अर्थात् जब द्रव्यरूपसे अनर्पित किया और पर्यायरूपसे अर्पित (योजित ) किया तब उत्पादादियुक्त सत्त्व सिद्ध है । और जब द्रव्यरूपसे अर्पित किया और पर्यायरूपसे अनर्पित किया तब नित्यत्व सिद्ध है । अर्पित नाम व्यावहारिक जो व्यव— हारमें आवै, और अनर्पित अर्थात् अव्यवहारिक जो व्यवहारमें न आवै । पुनः वह सत् For Personal.& Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १३७ चार प्रकारका है । जैसे-द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, उत्पन्नास्तिक, और पर्यायास्तिक । अब इनके अर्थ पद इस रीतिसे हैं. जैसे--एक द्रव्य वा दो द्रव्य वा बहुत द्रव्य अर्थात् एकत्व, द्वित्व तथा बहुत्व संख्यासहित द्रव्य सत् है; यह द्रव्यास्तिकका अर्थ है । असत् अर्थात् नहीं है । द्रव्यास्तिकका तथा मातृकापदास्तिकका भी ऐसाही है। एक मातृकापद, दो मातृकापद तथा बहुत मातृकापद सत् हैं । इसी प्रकार एक अमातृकापद, दो अमातृकापद, वा बहुत अमातृकापद असत् हैं । ऐसेही उत्पन्नास्तिकके विषयमें एक उत्पन्न, दो उत्पन्न अथवा बहुत उत्पन्न सत् हैं । और ऐसेही एक अनुत्पन्न वा दो अनुत्पन्न अथवा बहुत अनुत्पन्न असत् हैं । अर्पित अनुपस्थित होनेसे सत् वा असत् कुछ नहीं कहसकते । तथा पर्यायास्तिकके सद्भाव एक पर्याय, दो वा अधिक पर्यायोंमे आदिष्ट ( कहेहुए) एक द्रव्य वा दो, वा बहुत द्रव्य सत् हैं । और ऐसेही एक असद्भावपर्यायमें, वा दो अथवा बहुत असद्भावपर्यायोंमें आदिष्ट एक, दो वा अधिक द्रव्य असत् हैं । और ऐसेही सदसद् एतद्भाव एक दो वा अधिक पर्यायोंमें आदिष्ट एक दो वा बहुत द्रव्य सत् अथवा असद्रूपसे नहीं कहसकते । अर्थात् वह अवक्तव्य है । तात्पर्य यह है कि देश और आदेशसे वस्तुका विकल्प करना उचित है। अत्राह । उक्तं भवता संघातभेदेभ्यः स्कन्धा उत्पद्यन्त इति । तत्कि संयोगमात्रादेव संघातो भवति । आहोस्विदस्ति कश्चिद्विशेष इति । अत्रोच्यते । सति संयोगे बद्धस्य संघातो भवतीति ॥ ___ अब यहांपर कहते हैं कि आपने कहा है कि संघात तथा भेद वा संघात-भेदसे स्कन्ध उत्पन्न होते हैं, सो क्या संयोगमात्रसेही संघात होता है; अथवा कोई विशेषता है ? । अब इस विषयमें कहते हैं कि संयोग होनेपरही जो बद्ध है अर्थात् जिसका बन्ध है उसका संघात होता है ॥ ३१ ॥ अत्राह । अथ कथं बन्धो भवतीति । अत्रोच्यतेअब कहते हैं कि बन्ध कैसे होता है ? । इसपर यह अग्रिम सूत्र कहते हैं लिग्धरूक्षत्वाद्वन्धः॥ ३२ ॥ सूत्रार्थ:-स्निग्ध तथा रूक्षत्व हेतुसे बन्ध होता है । भाष्यम्-स्निग्धरूक्षयोः पुद्गलयोः स्पृष्टयोः स्पृष्टयोर्बन्धो भवतीति । विशेषव्याख्या-स्निग्ध पदार्थसे वा भीगे हुये तथा रूक्ष अर्थात् रूखे खरखरे पुद्गल जब आपसमें स्पृष्ट होते ( एक दूसरेसे छूजाते ) हैं तब बन्ध होता है ॥ ३२ ॥ अत्राह । किमेष एकान्त इति । अत्रोच्यते१ ऐसा भान होता है कि यह जो सद्रूपता सिद्ध करते हैं सो निज पर्याय आदिसे तौ सत् है और अन्य रूपसे असत् है, तथा एकही कालमें सदसदुभयरूपसे अवक्तव्य है। Jain Education Internatio/१८ For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ : रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ___ अब कहते हैं क्या यह स्पृष्ट स्निग्ध रूक्ष पुद्गलोंका बन्ध एकान्ततः अर्थात् नियमसे सदा सब पुद्गलोंका होता है अथवा नहीं ? । इसपर यह आगेका सूत्र कहते हैं न जघन्यगुणानाम् ॥ ३३॥ सूत्रार्थ:-जघन्यगुणयुक्त स्निग्ध तथा जघन्यगुणयुक्त रूक्ष पुद्गलोंका स्पर्श होनेपरभी बन्ध नहीं होता ॥ भाष्यम्-जघन्यगुणस्निग्धानां जघन्यगुणरूक्षाणां च परस्परेण बन्धो न भवतीति ।। विशेषव्याख्या-जघन्यगुणवाले स्निग्ध वा जघन्यगुणवाले रूक्ष पुद्गलोंका परस्पर बन्ध नहीं होता ॥ ३३ ॥ अत्राह । उक्तं भवता जघन्यगुणवर्जानां स्निग्धानां रूक्षेण रूक्षाणां च स्निग्धेन सह बन्धो भवतीति । अथ तुल्यगुणयोः किमत्यन्तप्रतिषेध इति । अत्रोच्यते । न जघन्यगुणानामित्यधिकृत्येदमुच्यते__ अब यहांपर कहते हैं कि जघन्यगुणसे वर्जित स्निग्ध पुद्गलोंका रूक्षके साथ, और ऐसेही जघन्यगुणोंसे रहित रूक्ष पुद्गलोंका स्निग्धके साथ बन्ध होता है ऐसा आपने अभी कहा है । सो क्या तुल्यगुण अर्थात् समान गुणवाले पुद्गलोंका बन्ध सर्वथा नहीं होता ? । इसपर कहते हैं कि “न जघन्यगुणानाम्" अर्थात् “जघन्य गुणवालोंका बन्ध नहीं होता" इसका अधिकार करके यह अग्रिम सूत्र कहते हैं गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३४॥ सूत्रार्थ-गुणकी समता होनेपर सदृश पुद्गलोंका बन्ध नहीं होता। भाष्यम्-गुणसाम्ये सति सदृशानां बन्धो न भवति । तद्यथा-तुल्यगुणस्निग्धस्य तुल्यगुणस्निग्धेन तुल्यगुणरूक्षस्य तुल्यगुणरूक्षेणेति ।। विशेषव्याख्या-जब स्निग्धोंका और रूक्षोंका गुण समान होता है तब स्निग्धोंका स्निग्धोंके साथ तथा रूक्षोंका रूक्षोंके साथ बन्ध नहीं होता । जैसे-समानगुणयुक्त स्निग्ध पदार्थका समान गुणवाले स्निग्ध पदार्थके साथ, तथा समान गुण रूक्ष पदार्थका समान गुण रूक्षके साथ बन्ध नहीं होता। अत्राह । सदृशग्रहणं किमपेक्षत इति । अत्रोच्यते । गुणवैषम्ये सदृशानां बन्धो भवतीति ।। अब कहते हैं कि इस ३४ वें सूत्रमें सदृशग्रहण किसकी अपेक्षा करता है, अर्थात् गुण वा पदार्थकी ? । इसपर कहते हैं कि गुणकी विषमतामें सदृश पदार्थोंकाभी बन्ध होता है । अर्थात् पहले स्निग्धका रूक्ष तथा रूक्षका स्निग्धके साथ बन्ध दिखलाया था. अब सदृशग्रहणसे यह तात्पर्य है कि गुणकी विषमतामें रूक्षोंका रूक्षके साथ तथा स्निग्धोंका स्निग्धके साथभी बन्ध होजाता है ॥ ३४॥ अत्राह । किमविशेषेण गुणवैषम्ये सदृशानां बन्धो भवतीति । अत्रोच्यते अब यहांपर प्रश्न करते हैं कि क्या अविशेष रूपसे गुणोंके वैषम्यमें बन्ध होता है अथवा इसका कोई विशेष नियम है ? । इसपर यह सूत्र कहते हैं For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । safaaiदिगुणानां तु ॥ ३५ ॥ सूत्रार्थ– द्विगुण आदिसे अधिक गुणवाले सदृश पदार्थोंकाभी बन्ध होता है । भाष्यम् – व्यधिकादिगुणानां तु सदृशानां बन्धो भवति । तद्यथा - स्निग्धस्य द्विगुणाद्यधिकस्निग्धेन । द्विगुणाद्यधिकस्निग्धस्य स्निग्धेन । रूक्षस्यापि द्विगुणाद्यधिकरूक्षेण । द्विगुणाद्यधिकरूक्षस्य रूक्षेण । एकादिगुणाधिकयोस्तु सदृशयोर्बन्धो न भवति । अत्र तुशब्दो व्यावृत्तिविशेषणार्थः प्रतिषेधं व्यावर्तयति बन्धं च विशेषयति ॥ विशेषव्याख्या - अब इस विषयको कहते हैं कि रूक्षका रूक्षके साथ, और स्त्रिग्धका स्निग्धके साथभी बन्ध होता है किन्तु रूक्ष तथा स्निग्ध गुणोंकी इस प्रकारसे विषमता होनी चाहिये । जैसे- स्निग्धका अर्थात् सामान्य स्निग्धका द्विगुण आदि अधिक स्निग्धके साथ बन्ध होता है । तथा द्विगुण आदि अधिक स्निग्धका सामान्य स्निग्धके साथ बन्ध होता है; ऐसेही रूक्षका द्विगुण आदि अधिक रूक्षके साथ बन्ध होता है; तथा द्विगुण आदि अधिक रूक्षका सामान्य रूक्षके साथभी बन्ध होता है । तात्पर्य ह कि सामान्य स्निग्ध पदार्थका उससे द्विगुण स्निग्धके साथ बन्ध होजाता है । जैसे - जमे घृतका पिघले घृतके साथ तथा आटेका गुड वा चीनीके साथ । परन्तु यह वैषम्य द्विगुण आदिसे अधिक होना चाहिये । और एक द्विगुण अधिक सदृश पदार्थोंका बन्ध नहीं होता । इस सूत्र में “ द्व्यधिकादिगुणानान्तु” यहां जो 'तु' शब्द पठित है वह व्यावृत्ति तथा विशेषणके लिये है । अर्थात् " न जघन्यगुणानां " वा " गुणसाम्ये सहशानां” इत्याकारक प्रतिषेधकी तो व्यावृत्ति करता है और बन्धको विशेषित करता है ॥३५॥ अत्राह । परमाणुषु स्कन्धेषु च ये स्पर्शादयो गुणास्ते किं व्यवस्थितास्तेष्वाहोस्विदव्यवस्थिता इति । अत्रोच्यते । अव्यवस्थिताः । कुतः । परिणामात् ॥ अब यहां कहते हैं कि परमाणुओंके तथा स्कन्धों के जो स्पर्श रस आदि गुण प्रथम कहे हैं वे उनमें व्यवस्थित रूपसे रहते हैं अथवा अव्यवस्थित रूपसे हैं ? | इसपर कहते हैं कि वे स्पर्शरसादि अव्यवस्थितही रहते हैं । क्योंकि वे परिणामसे होते हैं । अत्राह । द्वयोरपि बध्यमानयोर्गुणवत्त्वे सति कथं परिणामो भवतीति उच्यते अब कहते हैं कि यदि बध्यमान ( जिनका बन्ध हो रहा है वे ) दोनों पदार्थ गुणवान् हैं तो कैसे परिणाम होता है ? इसपर कहते हैं बन्धे समाधिकौ पारिणामिकौ ॥ ३६ ॥ भाष्यम् – बन्धे सति समगुणस्य समगुणः परिणामको भवति । अधिकगुणो हीनस्येति ॥ विशेषव्याख्या—बन्ध होनेपर यदि सम गुण है तब तो समगुणका समगुणवालाही परिणाम होगा और हीन गुणका अधिक गुणवान् परिणाम होगा ॥ ३६ ॥ अत्राह । उक्तं भवता द्रव्याणि जीवाश्चेति । तत्किमुद्देशत एव द्रव्याणां प्रसिद्धिराहोस्विलक्षणतोऽपीति । अत्रोच्यते । लक्षणतोऽपि प्रसिद्धिः । तदुच्यते 2 For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अब कहते हैं कि आपने पूर्वप्रकरणमें यह कहा है कि " धर्म आदि चार तथा जीव द्रव्य हैं" ( अ. ५ सू. २ ) सो क्या केवल उद्देशमात्र ( नामसंकीर्तन )सेही द्रव्यकी प्रसिद्धि (सिद्धि) है अथवा लक्षणसेभी ? इस हेतुसे कहते हैं कि नहीं, लक्षणसे भी द्रव्य ( पदार्थ ) की प्रसिद्धि है, इस कारण से लक्षणबोधक सूत्र आगे कहते हैंगुणपर्यावद द्रव्यम् ॥ ३७ ॥ सूत्रार्थ - जिसमें गुण तथा पर्याय हों वह द्रव्य है । भाष्यम् गुणान् लक्षणतो वक्ष्यामः । भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः । तदुभयं यत्र विद्यते तद्द्रव्यम् । गुणपर्याया अस्य सन्त्यस्मिन्वा सन्तीति गुणपर्यायवत् ॥ 1 विशेषव्याख्या—गुणपर्यायवत्त्व, अर्थात् “गुणवत्त्वे सति पर्यायवत्त्वं द्रव्यत्वम्” गुणवान् हो जिसमें कोई न कोई पर्याय हो वह द्रव्य है । गुणोंको लक्षणपूर्वक आगे कहैंगे । और भावान्तर तथा संज्ञान्तर होना यह पर्याय है । अर्थात् एक भावसे दूसरा भाव हो जाय तथा एक संज्ञासे दूसरी संज्ञा हो जाय यह पर्याय है । जैसे - मनुष्यसंज्ञासे देवसंज्ञा होजाना । ये दोनों अर्थात् गुण और पर्याय जिसके हैं वा जिसमें हैं वही द्रव्य है ॥ ३७ ॥ I कालचेत्येके || ३८ ॥ भाष्यम् - एके त्वाचार्या व्याचक्षते कालोऽपि द्रव्यमिति ।। सूत्रार्थ — विशेषव्याख्या - कोई एक आचार्य ऐसा कहते हैं कि कालभी द्रव्य है ॥ ३८ ॥ सोऽनन्तसमयः ॥ ३९ ॥ भाष्यम् - स चैष कालोऽनन्तसमयः । तत्रैक एव वर्तमानसमयः । अतीतानागतयो - स्त्वानन्त्यम् ॥ सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या - वह काल अनन्त समयरूप है । उसमें वर्तमानकाल तो एकही है। किन्तु अतीत (भूत) और अनागत ( भविष्यत्) काल अनन्त हैं ॥ ३९ ॥ अत्राह । उक्तं भवता गुणपर्यायवद्द्रव्यमिति । तत्र के गुणा इति । अत्रोच्यते अब कहते हैं कि आपने यह वर्णन किया है कि गुण तथा पर्याय जिसमें हों, वा गुणपर्याय जिसके हों वह द्रव्य है ( अ. ५ सू. ३७ ). सो वे गुण कौन हैं ? । इसके उत्तरमें यह अग्रिम सूत्र कहते हैं द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ४० ॥ सूत्रार्थ – जो द्रव्यके आश्रयमें रहैं, और स्वयं निर्गुण हों वे गुण हैं । भाष्यम् – द्रव्यमेषामाश्रय इति द्रव्याश्रयाः । नैषां गुणाः सन्तीति निर्गुणा: । विशेषव्याख्या - जिनका आश्रय अर्थात् रहनेका स्थान द्रव्य हो, और स्वयं निर्गुण हों, अर्थात् उनमें गुण न हों वे गुण हैं ॥ ४० ॥ For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अत्राह । उक्तं भवता बन्धे समाधिको पारिणामिकौ इति तत्र कः परिणाम इति । अत्रोच्यते अब यहां कहते हैं कि आपने प्रथम यह कहा है कि बन्ध होनेपर समान गुणवालेका समान गुण परिणाम होता है, और हीन गुणका अधिक गुण परिणाम होता है (अ. ५ सू. ३६) । सो परिणाम क्या वस्तु है ? । इसके उत्तरमें अग्रिम सूत्र कहते हैं . तद्भावः परिणामः॥४१॥ सूत्रार्थ-वस्तुका जो भाव अर्थात् स्वभाव वही परिणाम है। भाष्यम्-धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां स्वभावः स्वतत्त्वं परिणामः । विशेषव्याख्या-पूर्व प्रसंगमें यथोक्त जो धर्म अधर्म आदि द्रव्य हैं उनका स्वभाव तथा गुणोंका स्वभाव अर्थात् निजतत्त्व वही परिणाम है ॥ ४१ ॥ स द्विविधः। वह परिणाम दो प्रकारका है । जैसे-- अनादिरादिमांश्च ॥ ४२ ॥ भाष्यम्-तत्रानादिररूपिषु धर्माधर्माकाशजीवेष्विति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या--अनादि तथा आदिमान् दो प्रकारका परिणाम है । उनमें अनादि परिणाम तो अरूपी द्रव्य जो धर्म, अधर्म, अकाश तथा जीव हैं उनमेंही होता है ॥ ४२ ॥ रूपिष्वादिमान् ॥ ४३ ॥ भाष्यम्-रूपिषु तु द्रव्येषु आदिमान । परिणामोऽनेकविधः स्पर्शपरिणामादिरिति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्याः -रूपी जो द्रव्य हैं, अर्थात् श्वेत, कृष्ण और नील आदि रूपवाले जो द्रव्य हैं, उनमें आदिमान् ( सादि) परिणाम होता है । और वह आदिमान् परिणाम अनेक प्रकारका होता है । जैसे-स्पर्श परिणाम, रस परिणाम और गंध परिणाम, इत्यादि ॥ ४३ ॥ योगोपयोगी जीवेषु ॥४४॥ सूत्रार्थ-जीव यद्यपि अरूपी द्रव्य हैं, तथापि उनमें योग और उपयोग ये आदिमान् परिणाम होते हैं। भाष्यम्-जीवेष्वरूपिष्वपि सत्सु योगोपयोगौ परिणामावादिमन्तौ भवतः । तत्रोपयोगः पूर्वोक्तः । योगस्तु परस्तावक्ष्यते ___इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसङ्ग्रहे पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ५ ॥ विशेषव्याख्याः -अरूपी द्रव्योंमें अनादि परिणाम कहा है (अ. ५ सू. ४२)। उसका यह अपवाद वा विशेष वचन है कि जीवोंके अरूपी द्रव्य होनेपरभी उनमें आ For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दिमान् परिणाम योग तथा उपयोग होते हैं ॥ उनमें उपयोग तो प्रथम (अ. २ सू. १९ में ) कह चुके हैं और योग आगे (अ. ६ सू. १. में) कहेंगे ॥ ४४ ॥ इत्याचार्योपाधिधारिद्विवेदोपनामकठाकुरप्रसादशर्मप्रणीत-भाषाटीकासमलङ्कृते तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसङ्ग्रहे पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥ ___ अथ षष्ठोऽध्यायः। अत्राह । उक्ता जीवाजीवाः । अथास्रवः क इत्यास्रवप्रसिद्ध्यर्थमिदं प्रक्रम्यते अब कहते हैं कि जीव तथा अजीव पदार्थका निरूपण कर चुके । अब उसके पश्चात् क्रमप्राप्त आस्रव पदार्थका निरूपण करना चाहिये, इस प्रयोजनकी प्रसिद्धिके लिये इस सूत्रका आरम्भ करते हैं कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥१॥ सूत्रार्थ-कायिक, वाचिक, तथा मानस जो कर्म है उसको योग कहते हैं । भाष्यम्-कायिकं कर्म वाचिकं कर्म मानसं कर्म इत्येष त्रिविधो योगो भवति । स एकशो द्विविधः । शुभश्चाशुभश्च । तत्राशुभो हिंसास्तयाब्रह्मादीनि कायिकः। सावधानृतपरुष. पिशुनादीनि वाचिकः । अभिध्याव्यापादेासूयादीनि मानसः । अतो विपरीतः शुभ इति ॥ विशेषव्याख्या:-कायिक कर्म, वाचिक कर्म, तथा मानस कर्म यह तीन प्रकारका योग होता है । वह प्रत्येक शुभ और अशुभ भेदसे दो प्रकारका होता है। उनमें से हिंसा चौर्य ( चोरी ) तथा अब्रह्मचर्य (मैथुनसेवन ) इत्यादि कायिक अशुभ कर्म योग है। किसीकी निंदा, मिथ्याभाषण, कठोर वचन, चगुली इत्यादि वाचिक अशुभ कर्म योग है। किसीके धन लेनेकी अभिलाषा, मारनेकी इच्छा, ईर्ष्या (जलन ), असूया (गुणोंमेंभी दोषारोपण) तथा अनिष्टचिंतन आदि मानस अशुभ कर्म योग है । और इनसे विपरीत शुभ है । जैसे-अहिंसा अचौर्य आदि कायिक, प्रशंसा सत्यभाषणादि वाचिक शुभ कर्म योग है । तथा दूसरेकी शुभचिंतनतादि मानस शुभ कर्म है ॥ १॥ स आस्त्रवः॥२॥ सूत्रार्थ-पूर्वोक्त योग आस्रव है। भाष्यम्-स एष त्रिविधोऽपि योग आस्रवसंज्ञो भवति । शुभाशुभयोः कर्मणोरास्रवणादास्रवः । सरःसलिलावाहिनिर्वाहिस्रोतोवत् ॥ विशेषव्याख्या-कायिक, वाचिक, तथा मानस जो कर्म हैं, यही तीन प्रकारका जो योग वर्णन किया है वही आस्रव है । शुभ तथा अशुभ कर्मोंका आस्रव अर्थात् आगमन होनेसे यह आस्रव कहा जाता है । जैसे-तालाबके जलके ग्रहण तथा निष्कासन करनेवाला प्रवाह है वैसेही वह आस्रव है, अर्थात् उसी मार्गसे कर्मोंका आगमन होता है ॥२॥ Jain Euucation international For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । शुभः पुण्यस्य ॥३॥ भाष्यम्-शुभो योगः पुण्यस्यास्रवो भवति ॥ सूत्रार्थ-शुभ योग पुण्यके आस्रवका कारण होता है। विशेषव्याख्या-शुभ योग पुण्यका आस्रव होता है, अर्थात् शुभ योगसे पुण्य आस्रवका आगमन होता है ॥ ३ ॥ अशुभः पापस्य ॥४॥ सूत्रार्थ-अशुभ योग पापास्रवका कारण होता है। भाष्यम्-तत्र सद्वद्यादि पुण्यं वक्ष्यते । शेषं पापमिति ॥ विशेषव्याख्या-जैसे शुभ योगसे पुण्य आस्रव होता है वैसेही अशुभ योगसे पापात्रव होता है । उनमें शुभ सद्वेद्य आदि पुण्य आगे (अ. ८ सू. ३६ में ) कहेंगे और सवेद्य आदिसे जो भिन्न है वह पाप है ॥ ४ ॥ सकषायाकषाययोः साम्परायिके-पथयोः॥५॥ सूत्रार्थ—यह त्रिविध योग सकषाय, तथा अकषायके साम्परायिक तथा ई-- पथका आस्रव होता है। भाष्यम्-स एष त्रिविधोऽपि योगः सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोरास्रवो भवति यथासङ्घयं यथासम्भवं च । सकषायस्य योगः साम्परायिकस्य अकषायस्येर्यापथस्यैवैकसमयस्थितेः ॥ विशेषव्याख्या—यह जो कायिक कर्म आदि तीन प्रकारके योग दर्शाये हैं वे सकषाय अर्थात् कषायोंकरके सहित और अकषाय (कषायोंसे रहित) जीवोंके होते हैं। और वे साम्परायिक तथा ईर्ष्यापथके आस्रव होते हैं। यहांपर सकषाय तथा अकषाय इन दोनोंका साम्परायिक और ई-पथ दोनोंके साथ यथासंख्य संबंध है । अर्थात् सकषायका योग तो साम्परायिकका आस्रव होता है और अकषायका योग ईर्यापथका आस्रव होता है । क्योंकि अकषाय तथा ईयापथकी ही एक समयमें स्थिति होती है ॥ ५॥ अबतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदाः ६ सूत्रार्थ-भावार्थः-पांच, चार, पांच तथा पच्चीस संख्यायुक्त अव्रत, कषाय, इंद्रिय और क्रिया ये पूर्व आस्रवके भेद हैं। भाष्यम्-पूर्वस्येति सूत्रक्रमप्रामाण्यात्साम्परायिकस्याह । साम्परायिकस्यास्रवभेदाः पञ्च चत्वारः पञ्च पञ्चविंशतिरिति भवन्ति । पञ्च हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाः । 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्येवमादयो वक्ष्यन्ते । चत्वारः क्रोधमानमायालोमा अनन्तानुबन्ध्यादयो वक्ष्यन्ते । पञ्च प्रमत्तस्येन्द्रियाणि । पञ्चविंशतिः क्रियाः । तत्रेमे क्रियाप्रत्यया यथासङ्घयं प्रत्येतव्याः । तद्यथा-सम्यक्त्वमिथ्यात्वप्रयोगसमादानेर्यापथाः कायाधिकरणप्रदोषपरितापन For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्राणातिपाताः दर्शनस्पर्शनप्रत्ययसमन्तानुपातानाभोगा: स्वहस्तनिसर्गविदारणानयनानवकाङ्क्षा आरम्भपरिग्रहमायामिथ्यादर्शनाप्रत्याख्यानक्रिया इति ॥ विशेषव्याख्या–पञ्चम सूत्रमें पठित पाठक्रमके प्रमाणसे यहांपर पूर्वसे साम्परायिक आस्रवका ग्रहण है। उस साम्परायिक आस्रवके पांच अवत, चार कषाय, पांच इंद्रिय तथा पञ्चविंशति ( पच्चीस ) क्रिया, सब मिलके उनचालीस (३९) भेद हैं । उनमें हिंसा, अनृत (मिथ्याभाषण ), स्तेय अर्थात् चोरी, अब्रह्मचर्य (मैथुनप्रसंग) और परिग्रह ये पांच अव्रत हैं । प्रमत्तयोगसे प्राणोंको शरीरसे पृथक् करना यह हिंसा है (अ. १ सू. ८)। इसको आदि लेकर हिंसादिके लक्षण आगे कहेंगे। क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार कषाय हैं । अनंताऽनुबन्धी आदि भेद आगे (अ. ८ सू. १० में ) कहेंगे और स्पर्शन आदि प्रमत्तके पांच इंद्रिय हैं । और क्रियाके पच्चीस भेद हैं। उनमें ये वक्ष्यमाण क्रिया, प्रत्यय यथासंख्यरूपसे जानने चाहिये । जैसे-सम्यक्त्वक्रिया, मिथ्यात्वक्रिया, प्रयोगक्रिया, समादानक्रिया, ई-पथक्रिया, कायक्रिया, . अधिकरणक्रिया, प्रदोषक्रिया, परितापनक्रिया, प्राणातिपातक्रिया, दर्शनक्रिया, स्पर्शनक्रिया, प्रत्ययक्रिया, समंतानुपातानक्रिया, अभोगक्रिया, स्वहस्तक्रिया, निसर्गक्रिया, विदारणक्रिया, अनयनक्रिया, अनवकाङ्क्षाक्रिया, आरम्भक्रिया, परिग्रहक्रिया, मायाक्रिया, मिथ्यादर्शनक्रिया, तथा अप्रत्याख्यानक्रिया, ये ३९ भेद साम्परायिक आस्रवके हैं ॥ ६ ॥ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभाववी-धिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥७॥ सूत्रार्थ-उञ्चालीसभेदसहित इन साम्परायिक आस्रवोंकी तीव्र मन्दादिभावोंके विशेषसे विशेषता है। __ भाष्यम्-सांपरायिकास्रवाणां एषामकोनचत्वारिंशत्साम्परायिकाणां तीव्रभावात् मन्दभावाज्ज्ञातभावादज्ञातभावाद्वीर्यविशेषादधिकरणविशेषाच्च विशेषो भवति । लघुर्लघुतरो लघुतमस्तीवस्तीव्रतरतीब्रतम इति । तद्विशेषाच्च बन्धविशेषो भवति ॥ विशेषव्याख्या-पूर्वोक्त पांच चार आदि भेद सहित जो उन्चालीस भेद साम्परायिक आस्रवोंके कहें है उनकाभी तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभावसे तथा वीर्यविशेष, और अधिकरणविशेषसे विशेष है । अर्थात् न्यूनाधिक तारतम्य है। जैसे कि लघु, लघुतर तथा लघुतम । एसे ही तीव्र, तीव्रतर तथा तीव्रतम हिंसादि । इनके विशेषसे बंधमें विशेषता होती है ॥ ७॥ अत्राह । तीव्रमन्दादयो भावा लोकप्रतीताः वीर्य च जीवस्य क्षायोपशमिकः क्षायिको वा भाव इत्युक्तम् । अथाधिकरणं किमिति । अत्रोच्यते___ अब यहांपर कहते हैं कि तीव्र मंद आदि भाव तो लोकमें प्रतीत (प्रसिद्ध) ही हैं। और वीर्य्यभी जीवका क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव है यह (अ. २ सू. ४।५ में ) कह चुके हैं। अब अधिकरण क्या है ? इस लिये यह अग्रिम सूत्र कहते हैं For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १४५ अधिकरणं जीवाजीवाः ॥ ८॥ सूत्रार्थ-अधिकरण जीव तथा अजीव हैं। भाष्यम्-अधिकरणं द्विविधम् । द्रव्याधिकरणं भावाधिकरणं च । तत्र द्रव्याधिकरणं छेदनभेदनादि शस्त्रं च दशविधम् । भावाधिकरणमष्टोत्तरशतविधम् । एतदुभयं जीवाधिकरणमजीवाधिकरणं च ॥ तत्र. विशेषव्याख्या-अधिकरण दो प्रकारके होते हैं । एक द्रव्याधिकरण, दूसरा भावाधिकरण । इनमें द्रव्याधिकरण छेदनभेदनादि तथा शस्त्र जो कि दश प्रकारका है । और भावाधिकरण एकसौ आठ (१०८) हैं (अ. ६ सू. ९)। यह दोनों जीवाधिकरण और अजीवाधिकरणभी हैं ॥ ८ ॥ उनमेंसे: आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥९॥ सूत्रार्थ-आद्य अर्थात् प्रथम जीवाधिकरण संरंभादिभेदसे संक्षेपसे तीन प्रकारका, पुनः वह एक २ तीन प्रकारका, पुनः वह एक २ तीन प्रकारका, और पुनः वह एक २ चार प्रकारका है। भाष्यम्-आद्यमिति सूत्रक्रमप्रामाण्याज्जीवाधिकरणमाह । तत्समासतस्त्रिविधम्। संरम्भः समारम्भ आरम्भ इति । एतत्पुनरेकशः कायवाङमनोयोगविशेषात्रिविधं भवति । तद्यथाकायसंरम्भः वाक्संरम्भः मनःसंरम्भः कायसमारम्भः वाक्समारम्भः मनःसमारम्भः कायारम्भः वागारम्भः मनआरम्भ इति ॥ एतदप्येकशः कृतकारितानुमतविशेषात्रिविधं भवति । तद्यथा-कृतकायसंरम्भः कारितकायसंरम्भः अनुमतकायसंरम्भः कृतवाक्संरम्भ कारितवाक्संरम्भः अनुमतवाक्संरम्भः कृतमनःसंरम्भः कारितमनःसंरम्भः अनुमतमनःसंरम्भः एवं समारम्भारम्भावपि ॥ तदपि पुनरेकशः कषायविशेषाञ्चतुर्विधम् । तद्यथा-क्रोधकृतकायसंरम्भः मानकृतकायसंरम्भः मायाकृतकायसंरम्भः लोभकृतकायसंरम्भः क्रोधकारितकायसंरम्भः मानकारितकायसंरम्भः मायाकारितकायसंरम्भः लोभकारितकायरम्भः क्रोधानुमतकायसंरम्भः मानानुमतकायसंरम्भः मायानुमतकायसंरम्भः लोभानुमतकायसंरम्भः । एवं वाङ्मनोयोगाभ्यामपि वक्तव्यम् । तथा समारम्भारम्भौ ॥ तदेवं जीवाधिकरणं समासेनैकशः षट्त्रिंशद्विकल्पं भवति । त्रिविधमप्यष्टोत्तरशतविकल्पं भवतीति ।। संरम्भः सकषायः परितापनंया भवेत्समारम्भः । आरम्भः प्राणिवधः त्रिविधो योगस्ततो ज्ञेयः ॥ विशेषव्याख्या—पूर्वसूत्र (८) क्रमके प्रमाणसे आद्यशब्दसे जीवाधिकरणका ग्रहण है । वह प्रथम संक्षेपसे संरम्भ, समारम्भ, और आरम्भ इन भेदोंसे तीन प्रकारका है । और यह एक २ काय, वाक्, तथा मनोरूप योगविशेषसे तीन २ प्रकारका है। जैसे-कायसंरम्भ, वाक्संरम्भ और मनःसंरम्भ; पुनः कायसमारंभ, वाक्समारम्भ, तथा मनःसमारम्भ; और काय-आरम्भ, वाक्-आरम्भ, वा मन-आरम्भ; इस प्रकारसे प्रत्येकके तीन २ भेद Jain Education Internasal For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् होगये । और इनमेंभी प्रत्येकके कृत, कारित, वा अनुमतके भेदसे पुनः तीन २ भेद हैं । जैसे-कृतकायसंरम्भ, कारित कायसंरम्भ, तथा अनुमत कायसंरम्भ, ऐसेही कृत वाक्संरम्भ, कारित वाक्संरम्भ तथा अनुमत वाक्संरम्भ, तथा कृतमनःसंरम्भ, कारितमनः संरम्भ, और अनुमतमनःसंरम्भ । इसीप्रकार समारम्भ और आरम्भके साथभी काय आदिके योजनपूर्वक कृत, कारित तथा अनुमतके योजनसे प्रत्येकके तीन २ भेद होते हैं । और यह भी पुनः प्रत्येक कषायके विशेषसे चार २ प्रकारके होते हैं। जैसे-क्रोधकृत कायसंरंभ, मानकृत कायसंरंभ, मायाकृत कायसंरंभ, लोभकृत कायसंरंभ; क्रोधकारित कायसंरंभ, मानकारित कायसंरम्भ, मायाकारित कायसंरम्भ, लोभकारित कायसंरंभ; क्रोधानुमत कायसंरंभ, मानानुमत कायसंरम्भ, मायानुमत कायसंरंभ, लोभानुमत कायसंरंभ ॥ इसीप्रकार वाग् तथा मनके साथभी योजित करके कहना चाहिये । जैसे—क्रोधकृत वाक्संरम्भ, मानकृत वाक्संरम्भ, मायाकृत वाक्संरम्भ, तथा लोभकृत वाक्संरम्भ, इसी रीतिसे कारित आदिको लगाके समझलेना । और ऐसेही समारंभ तथा आरंभके भी भेद होंगे। इसप्रकार संक्षेपसे जीवाधिकरणके प्रत्येक (संरम्भादि) ३६ छत्तीस २ भेद होते हैं । और तीनोंके अर्थात् संरंभ आदिके मिलके एकसौ आठ (१०८) हुए । क्योंकि छत्तीसको त्रिगुण करनेसे (१०८) होते हैं। _कषायसहित होनेसे संरम्भ होता है, परितापनासे अर्थात् दुःख आदि संप्रदानसे समारम्भ होता है, और प्राणियोंका वध करना आरम्भ होता है. इसप्रकार त्रिविध हेतुसे त्रिविध योग समझना चाहिये ॥९॥ अत्राह । अथाजीवाधिकरणं किमिति । अत्रोच्यते अब यहांपर कहते हैं कि अजीव अधिकरण क्या है ? । इसके उत्तरमें यह अग्रिम सूत्र कहते हैं निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्दित्रिभेदाः परम् ॥ १०॥ सूत्रार्थ—पर अर्थात् अजीव अधिकरणके निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग तथा निसर्ग ये चार भेद संक्षेपसे हैं । और निर्वर्तना आदिके क्रमसे दो, चार, दो, तथा तीन भेद हैं। भाष्यम्-परमिति सूत्रक्रमप्रामाण्यादजीवाधिकरणमाह । तत्समासतश्चतुर्विधम् । तद्यथानिर्वर्तना निक्षेपः संयोगो निसर्ग इति ॥ तत्र निर्वर्तनाधिकरणं द्विविधम् । मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणमुत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं च । तत्र मूलगुणनिर्वर्तनाः पञ्च, शरीराणि वाङ्मनःप्राणापानाश्च । उत्तरगुणनिर्वर्तना काष्ठपुस्तचित्रकर्मादीनि ॥ निक्षेपाधिकरणं चतुर्विधम् । तद्यथाअप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुःप्रमार्जितनिक्षेपाधिकरणं सहसानिक्षेपाधिकरणमनाभोगनिक्षेपाधिकरणमिति ।। संयोगाधिकरणं द्विविधम् । भक्तपानसंयोजनाधिकरणमुपकरणसंयोजनाधिकरणं च ॥ निसर्गाधिकरणं त्रिविधम् । कायनिसर्गाधिकरणं वाडिसर्गाधिकरणं मनो. निसर्गाधिकरणमिति । For Personal & Private Use Only : Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। विशेषव्याख्या-"अधिकरणं जीवाजीवाः" ( अ० ६ सू० ८ ) इस सूत्रके क्रमसे यहां 'पर' शब्दसे अजीव अधिकरणका ग्रहण है, और वह निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग, तथा निसर्ग, इन चार भेदोंमें संक्षेपसे विभक्त है। उनमें निर्वर्तनाधिकरणके दो भेद हैं । जैसेमूलगुणनिवर्तनाधिकरण तथा उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण । उनमें भी मूलगुणनिर्वर्तना पञ्चविध है, जैसे-शरीर (औदरिक आदि), वाक्, मन, तथा प्राण व अपान । और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण काष्ठ, पुस्त, चित्रकर्मादिक । निक्षेपाधिकरण चार प्रकारका है । जैसे• अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण अर्थात् विना अन्वेषण किये किसी वस्तुको कहीं स्थापित करना । द्वितीय दुःप्रमार्जित निक्षेपाधिकरण अर्थात् उत्तमतासे मार्जन ( सफाई ) किये विना कहीं कुछ रख देना । तृतीय सहसानिक्षेपाधिकरण अर्थात् अकस्मात् (एकदम) कुछ रख देना । चौथा अनाभोगनिक्षेपाधिकरण अर्थात् विना शुद्ध किये तथा विना देखे स्थानमें शरीर आदिका रख देना । संयोगाधिकरण दो प्रकारका है । जैसे-भक्तपान ( अन्नपान) संयोजनाधिकरण, तथा उपकरण ( भोजनसे भिन्न अन्य सामग्री वस्त्राभूषण आदि ) संयोजनाधिकरण । और चतुर्थ निसर्गाधिकरण, तीन प्रकारका है । जैसे कामनिसर्गाधिकरण, वागनिसर्गाधिकरण, तथा मनोनिसर्गाधिकरण ।। ___ अत्राह । उक्तं भवता सकषायाकषाययोर्योगः साम्परायिकर्यापथयोरास्रव इति । साम्परायिकं चाष्टविधं वक्ष्यते । तत् किं सर्वस्याविशिष्ट आस्रव आहोस्वित्प्रतिविशेषोऽस्तीति । अत्रोच्यते । सत्यपि योगत्वाविशेषे प्रकृतिं कृति प्राप्यास्रवविशेषो भवति । तद्यथा अब कहते हैं कि आपने सकषाय तथा अकषायका योग साम्परायिक तथा ईर्यापथका आत्रवरूप ( अ० ६ सू० ५ में ) कहा है 'सो साम्परायिक आठ प्रकारका है। यह आगे ( अ० ६, सू० २६ में ) कहेंगे । सो यहांपर प्रश्न यह है कि सब योगोंका आस्रव अविशिष्ट ( विना किसी विशेषके ) है अथवा कुछ विशेष है ? । इस-पर कहते हैं कि यद्यपि योगस्वरूपमें विशेषता न रहनेपर भी प्रकृतिकी कृतिको प्राप्त होकर आस्रवमें विशेषता होती है । जैसेतत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः॥११॥ सूत्रार्थ—ए तत्प्रदोषादिक ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणके आस्रवके कारण हैं। भाष्यम्-आस्रवो ज्ञानस्य ज्ञानवतां ज्ञानसाधनानां च प्रदोषो निह्नवो मात्सर्यमन्तराय आसादन उपघात इति ज्ञानावरणास्रवा भवन्ति । एतैर्हि ज्ञानावरणं कर्म बध्यते ॥ एवमेव दर्शनावरणस्येति ॥ विशेषव्याख्या-ज्ञान अथवा ज्ञानके साधनों, वा ज्ञानियोंके प्रदोष, निह्नव (ज्ञाना. दिका छिपाना, जैसे-जानते हुए भी कहना कि यह मैं नहीं जानता) मात्सर्य (डाह, देनेयोग्य ज्ञानको नहीं देना), अन्तराय (ज्ञानका व्यवच्छेद करना) आसादन ('ज्ञान प्रकाश करते For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ रायचन्द्रजैनशास्त्र मालायाम् हुए किसी दूसरे को रोकना) तथा उपघात (प्रशस्त ज्ञानमें दोष लगाना) ये छहो ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणके आस्रव होते हैं । अर्थात् इन प्रदोष आदिसे ज्ञानावरण कर्मका बन्ध होता है, और ऐसेही इन्हीं कारणोंसे दर्शनावरण कर्मकाभी बन्ध होता है । तात्पर्य्य यह कि ज्ञान, ज्ञानसाधन, वा ज्ञानियोंके संबन्ध में प्रदोष, निह्नव आदि ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणके आस्रव के हेतु होते हैं ॥ ११ ॥ ॥१२॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसदेद्यस्य सूत्रार्थ – दुःखशोकादि आत्मगत हों, वा परमें उत्पन्न किये जायँ अथवा उभयमें . हों तो वे असद्वेद्य आस्रव होते हैं । भाष्यम् – दुःखं शोकस्ताप आक्रन्दनं वधः परिदेवनमित्यात्मसंस्थानि परस्य क्रियमाणा - न्युभयोश्च क्रियमाणान्यसद्वेद्यस्यास्रवा भवन्तीति । विशेषव्याख्या – दुःख ( पीडारूप परिणाम ), शोक ( अनुग्रहरहित होनेसे विकलता), ताप (पश्चात्ताप ), आक्रन्दन ( शोकादिकसे व्यक्तरूप रोदन ), वध तथा परिदेवन ( ऐसा रोना कि जिससे हरएकको दया आजाय ) ये आत्मसंस्थ हों अर्थात् अपनेमें हों वा परमें किये जायँ अथवा अपने पराये उभयमें किये जायँ तो वे असद्वेद्य ( असद्वेदनीयता असातावेदनीय) के आस्रव होते हैं । अर्थात् इनसे असद्वेद्य कर्मबन्ध होता है ॥ १२ ॥ भूतवत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥ १३ ॥ सूत्रार्थ - सर्वभूतानुकम्पा आदि सद्वेधके आस्रवके हेतु होते हैं । भाष्यम् – सर्वभूतानुकम्पा अगारिष्वनगारिषु च प्रतिष्वनुकम्पाविशेषो दानं सरागसंयमः संयमासंयमोऽकामनिर्जरा बालतपो योगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्यास्रवा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या - संपूर्ण प्राणीमात्रके ऊपर अनुकंपा अर्थात् दया वा कृपादृष्ट तथा अगारी व अनगारी व्रतियोंपर विशेष अनुकंपा, सरागसंयमादि अर्थात् सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, बालतप, योगे, क्षांति, तथा शौच ए सब सद्वेद्य (सातावेदनीय) के आवके कारण होते हैं ॥ १३ ॥ केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादी दर्शनमोहस्य ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ — केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद ( निन्दावाद ) करना, ये दर्शनमोहके आवके हेतु हैं । भाष्यम् – भगवतां परमर्षीणां केवलिनामर्हस्प्रोक्तस्य च साङ्गोपाङ्गस्य श्रुतस्य चातुर्वर्ण्यस्य सङ्घस्य पञ्चमहाव्रतसाधनस्य धर्मस्य चतुर्विधानां च देवानामवर्णवादी दर्शनमोहस्यास्रवा इति ॥ १ यहां योग से यह तात्पर्य है कि लोकके अभिमत काय वचनादि सतक्रियाका अनुष्ठान करना। यहां दण्डभावनिवृत्त्यर्थं उस ( योग ) का कथन है । For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १४९ विशेषव्याख्या-परमर्षिरूप भगवान् केवलियोंका, अर्हत्प्रोक्त (अर्हत् भगवान्से कथित) साङ्गोपाङ्ग श्रुत चतुवर्ण सङ्घका, पञ्चमहाव्रतसाधनीभूत धर्मका, तथा भवनवासी आदि चतुर्विध देवोंका जो अवर्णवाद ८ अर्थात् निंदाप्रवाद, यह दर्शनमोहकर्मके आस्रवका कारण है ॥ १४ ॥ कषायोदयात्तीवात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ १५॥ भाष्यम्-कषायोदयात्तीवात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्यास्रवो भवति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-कषायोंके उदयसे तीव्र जो आत्माके परिणाम हैं वे चारित्रमोहनीय कर्मके आस्रवके कारण होते हैं ॥ १५ ॥ बहारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ॥१६॥ भाष्यम्-बह्वारम्भता बहुपरिग्रहता च नारकस्यायुष आस्रवो भवति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-अधिक आरम्भ तथा अधिक परिग्रह नरककी आयुके आस्रवका कारण होता है ॥ १६ ॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥ १७॥ भाष्यम्-माया तैर्यग्योनस्यायुष आस्रवो भवति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-माया (कपटचारिता) तैर्यग्योनिकी आयुके आसवका कारण होती है ॥ १७॥ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं खभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य ॥१८॥ भाष्यम्-अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्यायुष आस्रवो भवति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-अल्पारंभ तथा अल्पपरिग्रह, अर्थात् अल्पकार्योंका आरंभ और परिग्रह जैसे कि जितनेमें अपना कार्य चल जाय उतनेही कार्योंका आरंभ करना, तथा जितनेमें अपना प्रयोजन हो जाय उतनाही संचय वा परिग्रह करना, तथा खभावकी कोमलता व सरलता ये सब मानुष आयुषके आस्रवके हेतु हैं ॥ १८ ॥ निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ॥ १९॥ सूत्रार्थ:-शील व व्रतसे रहित होना सब प्रकारकी आयुवालोंके आस्रवका हेतु है ॥ १९ ॥ __ भाष्यम्-निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषां नारकतैर्यग्योनमानुषाणामायुषामास्रवो भवति । यथोक्तानि च। विशेषव्याख्या-शील तथा व्रतोंसे रहित होना, अर्थात् शील तथा व्रतोंका जो अभाव है वह नारक, तैर्यग्योन, तथा मानुष, इन सब आयुष्योंके आस्रवका हेतु है । और जो जिस आयुषके आस्रवके कारण कह आये हैं वेभी हैं । जैसे-अधिक आरम्भ For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् परिग्रह नरककी, माया तिर्यग्योनिकी और अल्पारंभ परिग्रह तथा स्वभावमृदुता आदि मनुष्यकी आयुके आस्रवके हेतु हैं ( अ० ६ सू० १६-१७-१८-) ॥ १९॥ अथ दैवस्यायुषः क आस्रव इति । अत्रोच्यते— अब कहते हैं कि दैव आयुषके आस्रवका हेतु क्या है ? | इसपर कहते हैं सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥ २० ॥ सूत्रार्थ–सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, तथा बालतप ए सब दैव आयुषके आस्रव होते हैं । भाष्यम्-संयमो विरतिर्ब्रतमित्यनर्थान्तरम् । हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतमिति वक्ष्यते ।। संयमासंयमो देशविरतिरणुव्रतमित्यनर्थान्तरम् । देशसर्वतोऽणुमहती इत्यपि वक्ष्यते || अकामनिर्जरा पराधीनतयानुरोधाच्चाकुशलनिवृत्तिराहारादिनिरोधश्च ॥ बालतपः । बालो मूढ इत्यनर्थान्तरम् । तस्य तपो बालतपः । तच्चाभिप्रवेशमरुत्प्रपातजलप्रवेशादि ॥ तदेवं सरागसंयमः संयमासंयमादीनि च दैवस्यायुष आस्रवा भवन्तीति ॥ विशेषव्याख्या—संयम अर्थात् विरति, क्योंकि संयम, विरति, व्रत ए सब एकार्थवाचक हैं | हिंसा, अनृत ( झूठ ), स्तेय ( चोरी ), अब्रह्म ( ब्रह्मचर्यका न होना ) तथा परिग्रह इनसे जो विरति ( विरक्तता वा निवृत्ति) सो व्रत है ऐसा आगे ( अ० ७ सू० १ में. ) कहेंगे, तथा संयमासंयम, देशमें विरति, अणुव्रत ए सब एकार्थवाचक हैं अतएव देश तथा 'सर्वदेशमें से हिंसादिविरति अणुव्रत तथा महात्रत होता है' यहभी ( अ० ७ सू० २ में ) आगे कहेंगे. और 'पराधीनता से अकुशल ( दुष्ट कुकर्मादि ) कर्मोंसे निवृत्ति तथा आहारका निरोध अर्थात् अपनी इच्छा न रहते भी पराधीनताके कारणसे अकुशल कार्योंसे निवृत्त रहना, तथा भोजन विषयादि सेवन न कर सकना' यह अकामनिर्जरा है । तथा बाल और मूढ भी समानार्थक हैं । उस मूढका जो तप है उसको बालतप कहते हैं । वह बालतप अग्निमें प्रवेश, महावायुका पान वा पर्वतपरसे गिरना अथवा जलमें प्रवेश करना आदि हैं । इस रीति से सरागसंयम, तथा संयमासंयमादि दैव आयुषके आस्रवके हेतु होते हैं ॥ २० ॥ अथ नाम्नः क आस्रव इति । अत्रोच्यते अब इसके पश्चात् नामकर्मका क्या आस्रव है ? | यह कहते हैं योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २१ ॥ भाष्यम् - कायवाङ्मनोयोगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न आस्रवो भवतीति ॥ सूत्रार्थ — विशेषव्याख्या - काय, वाग् तथा मनोरूप जो योग है उसकी वक्रता For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ __ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अर्थात् कुटिलता और विसंवादन अर्थात् अन्यथा प्रवर्तन कराना ए अशुभ नामके आस्रवके हेतु होते हैं ॥ २१ ॥ विपरीतं शुभस्य ॥ २२॥ सूत्रार्थ-पूर्वकथितसे विपरीत शुभनामका आस्रव है । भाष्यम्-एतदुभयं विपरीतं शुभस्य नाम्न आस्रवो भवतीति ॥ किं चान्यत्विशेषव्याख्या-पूर्वकथनसे विपरीत अर्थात् काय, वाग् तथा मनोरूप योगकी सरलता, और अविसंवादन (यथार्थप्रवर्तन) ए सब शुभ नामके आस्रवके हेतु हैं ॥ २२ ॥ तथा दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी सङ्घसाधुसमाधिवैयावृत्यकरणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य ॥ २३ ॥ सूत्रार्थ-दर्शनविशुद्धि व विनय सम्पन्नताआदि तीर्थकरनामके आस्रव होते हैं, अतिप्रकृष्ट अर्थात् सर्वोत्तम दर्शनविशुद्धि (शुद्धता), विनयसम्पन्नता ( चार प्रकारके विनयका साहित्य ), शीलव्रतोंमें सर्वथा अनतिचार अर्थात् प्रमादका अभाव, निरंतर ज्ञानोपयोग, तथा संवेग (संसारसे वैराग्य और धर्मसे अनुराग), शक्तिके अनुसार त्याग ( दानादि) तथा तप, सङ्घ ( चातुर्वर्ण्यसमूह ) तथा साधुओंकी समाधि और वैयावृत्य (अनेक प्रकारकी सेवा शुश्रूषादि करना ) अर्हत् , आचार्य, बहुश्रुत, तथा शास्त्रकी परमभावोंकी विशुद्धिसे भक्ति, सामायिकादिक आवश्यककी अपरिहारणि (अत्याग), मार्गप्रभावना (जैनधर्मके महत्वका प्रख्यापन ) और प्रवचनवत्सलता ये सब गुण तीर्थंकर नाम कर्मके आस्रव हैं । __ भाष्यम्-परमप्रकृष्टा दर्शनविशुद्धिः । विनयसंपन्नता च । शीलवतेष्वात्यन्तिको भृशमप्रमादोऽनतिचारः । अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगः संवेगश्च । यथाशक्तितस्त्यागस्तपश्च । सङ्घस्य साधूनां च समाधिवैयावृत्यकरणम् । अर्हत्स्वाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च परमभावविशुद्धियुक्ता भक्तिः । सामायिकादीनामावश्यकानां भावतोऽनुष्ठानस्यापरिहाणिः । सम्यग्दर्शनादेर्मोक्षमार्गस्य निहत्य मानं करणोपदेशाभ्यां प्रभावना । अर्हच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बालवृद्धतपस्विशैक्षग्लानादीनां च सङ्ग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति । एते गुणाः समस्ता व्यस्ता वा तीर्थकरनाम्न आस्रवा भवन्तीति । विशेषव्याख्या-दर्शन (सम्यक्दर्शन ) की परमोत्कृष्ट विशुद्धि, विनययुक्तता, शीलवतोंमें अनतिचार अर्थात् शीलव्रतोंका अतिचार (दोष)रहित पालन करना, अभीक्ष्णं अर्थात् सदा ज्ञानोपयोग तथा संवेग, तथा यथाशक्ति दान (सुपात्रोंको दान ) तथा तप, सङ्घ १ जो खधर्मी हो वह चातुर्वर्ण्यसमुदाय संघशब्दसे विवक्षित भान होता है। For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् तथा साधुओंकी समाधि और वैयावृत्यकरण अर्थात् संघकी समाधि (समाधान) और साधुओंका वैयावृत्यकरण अर्थात् शरीर, वाक् तथा मनोयोग से सेवा टहल करनी । तथा अर्हत्परमर्षियोंमें, आचार्योंमें, बहुश्रुतों अर्थात् सर्वशास्त्रज्ञानसम्पन्नों में, और शास्त्रों में परमभावविशुद्धियुक्त भक्ति । और आवश्यक अर्थात् सामायिक आदिकी परमशुद्धभाव से अनुष्ठानद्वारा अपरिहाणि अर्थात् त्यागका अभाव । और सम्यग् दर्शन आदि जो मोक्षमार्ग हैं उनके अनुष्ठान तथा उपदेश आदिसे उनकी प्रभावना, अर्थात् उनकी महिमाको सबपर प्रगट करना | और अर्हत्शासनके अनुष्ठान करनेवाले श्रुतधरोंके ऊपर तथा बाल वृद्ध तपस्वी और शैक्षग्लान आदिके ऊपर संग्रह (मेल) उपग्रह (उपकार) तथा अनुग्रह आदिका जो करना है वह प्रवचनवत्सलता है । ये पूर्वोक्त सब गुण मिलित तथा पृथक् २ अर्थात् ये दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता आदि सब गुण मिलते हों वा इनमें से यथासंभव एक दो चार हों तो तीर्थकर नामकर्मका आस्रव होते हैं । अर्थात् इन गुणोंसे तीर्थकर कर्मका बंध होता है ॥ २३ ॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २४ ॥ सूत्रार्थ — दूसरोंकी निंदा व अपनी प्रशंसा, सद्गुणोंका आच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन अर्थात् प्रकट करना ये सब नीचैर्गोत्र ( नीचकुल ) के आस्रव होते हैं । भाष्यम्—परनिन्दात्मप्रशंसा सगुणाच्छादनमसद्गुणोद्भावनं चात्मपरोभयस्थं नीचैर्गोत्रस्यास्रवा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या - सर्वत्र आत्म - ( अपनी ) प्रशंसा वा अन्य पुरुषोंकी निंदा, तथा अन्यप्राणियोंमें जो उत्तम गुण विद्यमान हैं उनका तो आच्छादन करना अर्थात् छिपाना और अपने जो उत्तम गुण नहीं हैं उनको उत्तम गुण करके लोकमें प्रगट करना तथा अपने असद् अर्थात् निंद्यगुणों को गुप्त रखना, ये नीचैर्गोत्र ( नीचकुल ) में उत्पत्तिके आस्रवके हेतु हैं ॥ २४ ॥ तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य ॥ २५ ॥ 1 भाष्यम्—उत्तरस्येति सूत्रक्रमप्रामाण्यादुच्चैर्गोत्रस्याह । नीचैर्गोत्रास्रवविपर्ययो नीचैर्वृत्तिरनुत्सेको चैत्रस्यास्रवा भवन्ति ।। सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या - नीचैर्गोत्रके जो आस्रव कहे हैं, उसके विपर्य्यय अर्थात् अपनी निंदा और दूसरोंकी प्रशंसा, दूसरोंके असद्गुणोंका गोपन और सत् (उत्तम) गुणोंका प्रकट करना, सबसे 'नीचैर्वृत्ति अर्थात् नम्रताका वर्ताव रखना, तथा अनुत्सेक अर्थात् किसीसे गर्व न करना, ये सब गुण उच्चैर्गोत्र ( उच्चकुल) में उत्पत्तिके आस्रव होते हैं ॥ २५ ॥ १ नीचैर्वृत्ति इसको कहते हैं कि - विनयप्रवण (विनयकी ओर झुकी हुई ) बाकूकायचित्तता अर्थात् मन, वचन और शरीरसे नम्र वर्ताव करना. For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १५३ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २६॥ सूत्रार्थ-विघ्न करना अंतराय ( कर्म )के आस्रवका हेतु होता है। भाष्यम्-दानादीनां विघ्नकरणमन्तरायस्यास्रवो भवतीति । एते साम्परायिकस्याष्टविधस्य पृथक् पृथगास्रवविशेषा भवन्तीति ॥ . इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसङ्ग्रहे भाष्यतः षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥ विशेषव्याख्याः —दानादिकके विषयमें जो विघ्न आदिका करना है वह अंतराय कर्मका आस्रव होता है । यह दर्शनावरण आदि अष्ट (आठ) प्रकारके साम्परायिकके पृथक् २ आस्रव दर्शाये गये ॥ २६ ॥ ...इत्याचार्योपाधिधारिठाकुरप्रसादशर्मप्रणीतभाषाटीकासमलतेऽर्हत्प्रवचन सङ्ग्रहे भाष्यतः षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ अथ सप्तमोऽध्यायः। अत्राह । उक्तं भवता सद्वेद्यस्यास्रवेषु भूतव्रत्यनुकम्पेति, तत्र किं व्रतं को वा व्रतीति । अत्रोच्यते__ अब यहांपर कहते हैं 'आपने प्रथम यह कहा कि सब प्राणियोंपर तथा व्रतियोंमें विशेष अनुकम्पा, तथा दानादि सद्वेद्य कर्मका आस्रव होता है (अ. ६ सू. १२), सो व्रत क्या है ? । और व्रतको धारण करनेवाले व्रती कौन हैं ? । इसके उत्तरमें यह अग्रिम सूत्र कहते हैं: हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ सूत्रार्थ-हिंसा और असत्य भाषण आदिसे निवृत्त होनेको व्रत कहते हैं । भाष्यम्-हिंसाया अनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहाच्च कायवाङ्मनोभिर्विरतिव्रतम् । विरतिर्नाम ज्ञात्वाभ्युपेत्याकरणम् । अकरणं निवृत्तिरुपरमो विरतिरित्यनर्थान्तरम् ।। विशेषव्याख्या–हिंसासे, अनृत (मिथ्या भाषणादि )से, स्तेय अर्थात् चोरीसे, अब्रह्म अर्थात् मैथुनप्रसंगसे और परिग्रह अर्थात् पदार्थसंचयसे शरीर, वाणी और मनके द्वारा जो विरति अर्थात् उपरम है उसको व्रत कहते हैं। विरति शब्दका अर्थ है कि किसी पदार्थको जानकर उसे तदनुसार स्वीकार करके त्यागना । और अकरण (न करना), उपरम तथा निवृत्ति, विरति ये सब समानार्थवाची शब्द हैं । देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ भाष्यम्-एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्याः -इन हिंसा आदि पांच पापोंसे एकदेशविरति तो अणुव्रत होता है और सर्वथा हिंसादिसे निवृत्ति होजानेसे महावत होता है ॥ २ ॥ For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥ ३॥ सूत्रार्थ-उन व्रतोंकी स्थिरताके निमित्त प्रत्येककी पांच २ भावना करनी चाहिये। भाप्यम्-तस्य पञ्चविधस्य व्रतस्य स्थैर्यार्थमेकैकस्य पञ्च पञ्च भावना भवन्ति । तद्यथाअहिंसायास्तावदीर्यासमितिर्मनोगुप्तिरेषणासमितिरादाननिक्षेपणसमितिरालोकितपानभोजनमिति ॥ सत्यवचनस्यानुवीचिभाषणं क्रोधप्रत्याख्यानं लोभप्रत्याख्यानमभीरुत्वं हास्यप्रत्याख्यानमिति ॥ अस्तेयस्यानुवीच्यवग्रहयाचनमभीक्ष्णावग्रहयाचनमेतावदित्यवग्रहावधारणं समानधार्मिकेभ्योऽवग्रहयाचनमनुज्ञापितपानभोजनमिति ॥ ब्रह्मचर्यस्य स्त्रीपशुषण्डकसंसक्तशयनासनवर्जनं रागसंयुक्तस्त्रीकथावर्जनं स्त्रीणां मनोहरेन्द्रियालोकनवर्जनं पूर्वरतानुस्मरणवर्जनं प्रणीतरसभोजनवर्जनमिति ॥ आकिञ्चनस्य पञ्चानामिन्द्रियार्थानां स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दानां मनोज्ञानां प्राप्तौ गायवर्जनममनोज्ञानां प्राप्तौ द्वेषवर्जनमिति ॥ किं चान्यदिति । विशेषव्याख्या-वह जो अहिंसा आदि पांच प्रकारके व्रत कहे हैं, उनकी स्थिरता अर्थात् दृढताके अर्थ प्रत्येक व्रतकी पांच २ प्रकारकी भावना करनी चाहिये । जैसे-प्रथम अहिंसा व्रतकी स्थिरताके अर्थ ई-समिति १ मनोगुप्ति २एषणासमिति ३,आदान-निक्षेपणसमिति, ४ और आलोकितपानभोजन ५, तथा सत्य व्रतकी स्थिरताके लिये अनुवीचिभाषण (अनिंद्यभाषण )१ क्रोधप्रत्याख्यान (क्रोधका त्याग) २ लोभप्रत्याख्यान (लोभका त्याग) ३ अभीरुत्व अर्थात् भयका अभाव ४ और हास्यका प्रत्याख्यान ( अभाव ) ५ । अचौर्य व्रतके स्थैर्यके लिये भी अनुवीचि-अवग्रह-याचन (अनिंद्य पदार्थका ग्रहण तथा याचन ) १ निरंतर अनिंद्य याचन २ इतना ही हमारे लिये पर्याप्त होगा इस प्रकारके विचारपूर्वक पदार्थोंका ग्रहण ३ समानधर्मियोंसे ही अवग्रहयाचन ४, और अनुज्ञापित (आज्ञा दिए हुए पदार्थोंका) पान तथा भोजन ५, तथा ब्रह्मचर्य व्रतकी स्थिरताके लिये स्त्री, पशु और नपुंसकके संबंध वा संपर्कवाले शयन, शय्या आदि और आसनका वर्जन १ रागयुक्त स्त्रियोंकी कथाका वर्जन (निषेध) २ स्त्रियोंके मनोहर अङ्गोंके दर्शनका निषेध ३ पूर्वकालमें किये हुए स्त्रीप्रसंग आदिके स्मरणका निषेध ४ तथा अतिपुष्टिकारक वा कामोत्पादक भोजनका निषेध (अभाव) ५ तथा अकिंचन अर्थात् अपरिग्रहव्रतकी स्थिरताके अर्थ पाँचो इंद्रियोंके जो अर्थ (विषय) स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द हैं; वे यदि मनोज्ञ (अपनेको इष्ट वा अभिलषित) प्राप्त हों तब तो गार्य अर्थात् लोलुपता वा लुब्धताका वर्जन और यदि अमनोज्ञ (अनिष्ट) प्राप्त हों तब द्वेषका वर्जन अर्थात् निषेधरूपसे भावना न करनी । इस रीति पांचो व्रतोंकी दृढताके लिये प्रत्येकके अर्थ पांच २ भावना दर्शाई गईं ॥ ३ ॥ और भी हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ॥४॥ For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १५५ सूत्रार्थ - हिंसादिक जो पांचो हैं उनमें इस लोक तथा परलोकमें भी अपाय (श्रेय - स्कर कार्योंके नाश) का प्रयोग तथा अवद्य ( निंदा) दर्शनकी भावना करै ॥ ४ ॥ भाष्यम् — हिंसादिषु पञ्चस्वास्रवेष्विहामुत्र चापायदर्शनमवद्यदर्शनं च भावयेत् । तद्यथा । हिंसायास्तावत् हिंस्रो हि नित्योद्वेजनीयो नित्यानुबद्धवैरश्च । इहैव वधबन्धपरिशादीन्प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् ॥ तथानृतवाद्यश्रद्धेयो भवति । इहैव जिह्वाछेदादीन्प्रतिलभते मिथ्याभ्याख्यानदुःखितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यस्तदधिकान्दुःखहेतून्प्राप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीत्यनृतवचनायुपरमः श्रेयान् ।। तथा स्तेनः परद्रव्यहरणप्रसक्तमतिः सर्वस्योद्वेजनीयो भवतीति । इहैव चाभिघातवधबन्धनहस्तपादकर्णनासोत्तरौष्ठच्छेदनभेदन सर्वस्वहरणवध्ययातनमारणादीन्प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति स्तेयाद्व्युपरमः श्रेयान् । तथाऽब्रह्मचारी विभ्रमो - द्भ्रान्तचित्तः विप्रक्रीर्णेन्द्रियो महान्धो गज इव निरङ्कुशः शर्म नो लभते । मोहाभिभूतश्च कार्याकार्यानभिज्ञो न किंचिदकुशलं नारभते । परदाराभिगमनकृतांश्च इहैव वैरानुबन्धलिङ्गच्छेदनवधबन्धनद्रव्यापहारादीन्प्रतिलभतेऽपायान्प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीत्यब्रह्मणो व्युपरमः श्रेयानिति । तथा परिग्रहवान् शकुनिरिव मांसपेशीहस्तोऽन्येषां क्रव्यादशकुनानामिव तस्करादीनां गम्यो भवति || अर्जनरक्षणक्षयकृतांश्च दोषान्प्राप्नोति । न चास्य तृप्तिर्भवतीन्धनैरिवार्लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति । प्रेत्य चाशुभां गतिं प्राप्नोति लुब्धोऽयमिति च गर्हितो भवतीति परिग्रहाद्वयुपरमः श्रेयान् ॥ किं चान्यत् 1 विशेषव्याख्या - हिंसा तथा मिथ्याभाषणादि पांचोंके आस्रवोंमें इस लोकमें तथा मृत्युके पश्चात् परलोक में अपायदर्शन तथा अवद्यदर्शनकी भावना करे । अर्थात् हिंसादिके विषे इस लोकमें तथा परलोकमें भी श्रेयःप्रणाश तथा निंदायुक्तकी दृष्टि रक्खे, कि ये जीवके श्रेष्ठ कार्यों के नाशक तथा निंद्यके जनक हैं । जैसे- हिंसाकारी जीव नित्यही भय उद्वेगादिसे नित्य प्राणियों में बद्धवैर होता है । अत एव हिंसाशील जीव इसी लोकमें वध तथा तथा बंधन आदि क्लेशोंको प्राप्त होता है, और मृत्युके अनंतर परलोकमें अशुभगतिको प्राप्त होता है और उभय लोकमें निन्दित भी होता है, इत्यादि कारणोंसे हिंसा से निवृत्ति होना ही कल्याणकारक है । इसी प्रकार असत्यवादी भी इस लोक में विश्वासके अयोग्य होता है । और यहांही पर राजा आदिके द्वारा जिह्वा आदिके छेदन तथा कारागृह क्लेशोंको प्राप्त होता है और मिथ्याकथनसे दुःखित लोगोंसे सदा बद्धवैर होनेसे उनके द्वारा उनसेभी अधिक दुःख हेतुओं को प्राप्त होता है, मरणके अनंतर अशुभ गतिको प्राप्त होता है और उभय लोकमें निन्दितभी होता है, इत्यादि हेतुओं से मिथ्याभाषणसे उपरम होनाही कल्याणकारक है, इसी प्रकार चोरी करनेवाला प्राणीभी दूसरोंके द्रव्यके अपहरण करनेमें आसक्तबुद्धि होनेसे सबसे उद्वेजनीय अर्थात् त्रास भयआदिके पात्र होता है और इसी लोकमें राजा तथा चोरीसे दुःखित जनोंसे ताडित वध, For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् बंधन, हस्त, पाद, कर्ण, तथा नासिका और ओष्ठके छेदन-भेदन, सर्वस्वहरण, तथा वध मारणआदि पीडाओंको प्राप्त होता है और मृत्युके अनंतर अशुभ गतिको प्राप्त होता है तथा उभय लोकमें निन्दितभी होता है । इत्यादि कारणोंसे चौर्यकर्मसे निवृत्त होनाही कल्याणकारक होता, है इसी प्रकार अब्रह्मचारी अर्थात् व्यभिचारी ( परस्त्रीगामी) जन विभ्रमसे सदा उद्भान्तचित्त अर्थात् विभ्रमसे पूर्ण, इंद्रियोंकी लोलुपतासे पूर्ण अत एव मदांध हाथीके समान निरङ्कुश ( स्वेच्छाचारी) होनेसे शांतिको कदापि नहीं प्राप्त होता है और मोहग्रस्त अज्ञान वा अविवेकसे पूर्ण अकर्तव्य तथा कर्तव्यसे अनभिज्ञ, अर्थात् क्या हमारा कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है इस प्रकारके विवेकसे शून्य होनेसे कौनसे अकुशल ( दुष्ट ) कर्मका आरम्भ नहीं करता ? अर्थात् सभी दुष्कर्मोंका आरंभ करता है और इसी लोकमें परस्त्रीगमनआदिसे उत्पन्न वैरानुबंधसे लिङ्गच्छेदन, वध, बंधन, तथा द्रव्यादिके अपहरणआदि अनेक क्लेशोंको प्राप्त होता है, इस प्रकारके अनेकविध पूर्ण क्लेशोंको भोगकर मरणके पश्चात् परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है और उभय लोकमें निन्दित होता है, इत्यादि हेतुओंसे परस्त्रीआदिगमनसे निवृत्त होनाही कल्याणकारक है । और ऐसेही परिग्रहवान् प्राणीभी तस्करों ( चोरों )से अभिगमनीय (प्रापणीय वा लूटनेके योग्य ) होता है, जैसे मांस लिये हुए साधारण पक्षी अन्य मांसाहारी जीवोंसे तथा धनके उपार्जन, रक्षण वा नाशसे उत्पन्न अनेक दुःखोंको प्राप्त होता है और कितना ही धनका संग्रह करे परन्तु धनोंसे इसकी तृप्ति ऐसे नहीं होती जैसे इंधनोंसे अग्निकी, तथा अतिपरिग्रहके लोभसे ग्रस्त होनेके काण कर्तव्य अकर्तव्यके विवेकसेभी शून्य हो जाता है और मृत्युके अनंतर अशुभ गतिको प्राप्त होता है और यह प्राणी अतिलोमी है इस प्रकार निन्दितभी होता है, इत्यादि हेतुओंसे परिग्रहसे उपरत ( अलग ) होना ही कल्याणदायक है । इत्यादि भावना करनेसे अहिंसादि बहुत दृढ होते हैं ॥ ४ ॥ और भी दुःखमेव वा ॥५॥ सूत्रार्थ-अथवा 'हिंसाआदि पांच पापोंमें दुःखही दुःख है' ऐसी भावना करनी चाहिये । । भाष्यम्-दुःखमेव वा हिंसादिषु भावयेत् ॥ यथा ममाप्रियं दुःखमेवं सर्वसत्त्वानामिति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् ॥ यथा मम मिथ्याभ्याख्यानेनाभ्याख्यातस्य तीव्र दुःखं भूतपूर्व भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति अनृतवचनाद्वयुपरमः श्रेयान् ॥ यथा ममेष्टद्रव्यवियोगे दुःखं भूतपूर्व भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति स्तेयाद्वयुपरमः श्रेयान् ॥ तथा रागद्वेषात्मकत्वान्मैथुनं दुःखमेव । स्यादेतत्स्पर्शनसुखमिति तच्च न । कुतः । व्याधिप्रतीकारत्वात्कण्डूपरिगतवच्चाब्रह्मव्याधिप्रतीकारत्वादसुखे ह्यस्मिन्सुखाभिमानो मूढस्य। तद्यथा For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । तीव्रया त्वक्छोणितमांसानुगतया कण्डा परिगतात्मा काष्ठशकललोष्टशर्करानखशुक्तिभिर्विच्छिन्नगात्रो रुधिरार्द्रः कण्डूयमानो दुःखमेव सुखमिति मन्यते । तद्वन्मैथुनोपसेवीति मैथुनाद्वयुपरमः श्रेयान् ॥ तथा परिग्रहवानप्राप्तप्राप्तनष्टेषु काङ्क्षारक्षणशोकोद्भवं दुःखमेव प्राप्नोतीति परिग्रहाद्वयुपरमः श्रेयान् । इत्येवं भावयतो व्रतिनो व्रते स्थैर्य भवति ॥ किं चान्यत् । १५७ 1 विशेषव्याख्या - जैसे दुःख मुझे अप्रिय है और प्राणोंको शरीरसे पृथक् करना मुझे इष्ट नहीं है, ऐसेही संपूर्ण जीवोंको दुःख अप्रिय है इस हेतुसे हिंसासे उपरमही कल्याणकारी है । जैसे मिथ्याभाषणसे मुझे दुःख होता है अर्थात् मेरे विषय में यदि कोई मिथ्याभाषण करे तो मुझे अतिदुःख होता है और प्रथमभी इससे दुःख हुआ है, ऐसेही अन्य प्राणी के विषय में मिथ्याभाषण से उस अन्य प्राणीकोभी दुःख होगा इस हेतुसे मिथ्याभाषणसे विरत होनाही उत्तम है । तथा जैसे मुझे इष्ट पदार्थोंके वियोग से दुःख होता है और पूर्व हुआ भी ऐसेही यदि चोरी करके उनका इष्ट पदार्थसे वियोग कर देवेंगे तौ सब प्राणीमात्रको दुःख होगा, इत्यादि हेतुओंसे चोरीसे पृथक् होनाही कल्याणदायक है । ऐसेही रागद्वेषसे पूर्ण होनेसे मैथुनप्रसंगभी दुःखही है । कदाचित् यह कहो कि -मैथुनमें जो स्पर्शन इंद्रियसे सुख होता है वह दुःख नहीं है, सो यह कथन भी असंगत है । क्योंकि यह व्याधिका प्रतीकार अर्थात् रोगका प्रतीकार होनेसे कण्डू ( खुजली ) से व्याप्त मनुष्यको संघर्षण ( खुजलाहट ) आदिद्वारा उसको प्रतीकार (उपाय) के समान मैथुनेच्छारूप व्याधि ( रोग ) के प्रतीकारके होनेसे सुखसे रहित इस मैथुनमें स्पर्शजन्य सुखमें मूढ़ पुरुषको सुखका अभिमान है, यथार्थ में सुख नहीं होता । जैसेअतितीव्रं त्वचा रुधिर तथा मांसमें व्याप्त कण्डू ( दाह आदि खुजलाहट ) से व्याप्त प्राणी काष्ठके खण्ड से, लोहके खण्डसे, कंकणसे, तथा नख, शुक्ति ( सीप ) आदि के संघर्षण से अर्थात् इन पदार्थोंसे खुजलानेसे छिन्न शरीर और रुधिरसे व्याप्त होनेपर भी खुजलाता हुआ दुःखकोही सुख मानता है, ऐसेही मैथुनका सेवी भी दुःखको ही सुख मान बैठता है, इस हेतु से मैथुन से उपराम होनाही कल्याणकारी है । ऐसे ही परिग्रहवान् प्राणी भी अप्राप्त पदार्थ प्राप्त होनेकी आकाङ्क्षा तथा अर्जनादिसे प्राप्तके रक्षणसे और प्राप्त होकर नष्ट होनेके शोकसे उत्पन्न दुःखकोही पाता है, इन कारणों से परिग्रहसे उपराम होनाही कल्याणदायक है । इस प्रकार हिंसाआदि पंच पापोंमें दुःखकीही भावना करने से व्रतीक व्रतमें स्थिरता होती है । और भी १ शंका होसकती है कि- मैथुन तो स्पर्शद्वारा सुखकाही जनक है, उसमें स्त्रीपुरुषों में किसीको भी दुःख नहीं होता; किंतु दोनोंको सुखही होता है ? इसका उत्तर " स्यात्" इत्यादिसे देते हैं । २ यहां पर " तत्" ( सो ) इस पदसे स्पर्शजन्य सुखसे तात्पर्य है ॥ ३ " इत्येवं भावयतो०" "इस रीति से भावना करनेवाले' इत्यादि वाक्य में जो ( इत्येवं ) यह पद दिया है इससे सूत्रकी समाप्ति दर्शाई है. इससे जो कोई भाष्यकोही 'व्याधिप्रतीकारत्वात्कण्डूपरिगतत्वाञ्चाब्रह्मेति, तथाप्राप्तनष्टेषु काङ्क्षाशोकौ प्राप्तेषु च For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विनेयेषु ६ सूत्रार्थ-सब जीवोंमें मैत्री, गुणाधिकमें प्रमोद, क्लेशयुक्तमें करुणा, तथा अशिक्षित दुष्ट जीवोंमें औदासीन्यकी भावना करनी चाहिये । भाष्यम्-भावयेद्यथासङ्ख्यम् । मैत्री सर्वसत्त्वेषु । क्षमेऽहं सर्वसत्त्वानाम् । क्षमयेऽहं सर्वसत्त्वान् । मैत्री मे सर्वसत्त्वेषु । वैरं मम न केनचिदिति ॥ प्रमोदं गुणाधिकेषु । प्रमोदो नाम विनयप्रयोगो वन्दनस्तुतिवर्णवादवैयावृत्त्यकरणादिभिः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोधिकेषु साधुषु परात्मोभयकृतपूजाजनितः सर्वेन्द्रियाभिव्यक्तो मनःप्रहर्ष इति ॥ कारुण्यं क्लिश्यमानेषु । कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रह इत्यर्थः । तन्महामोहाभिभूतेषु मतिश्रुतविभङ्गाज्ञानपरिगतेषु विषयतर्षाग्निना दन्दह्यमानमानसेषु हिताहितप्राप्तिपरिहारविपरीतप्रवृत्तिषु विविधदुःखार्दितेषु दीनकृपणानाथबालमोमुहवृद्धेषु सत्त्वेषु भावयेत् । तथा हि भावयन् हितोपदेशादिभिस्ताननुगृह्णातीति ॥ माध्यस्थ्यमविनेयेषु । माध्यस्थ्यमौदासीन्यमुपेक्षेत्यनर्थान्तरम् । अविनेया नाम मृत्पिण्डकाष्ठकुड्यभूता ग्रहणधारणविज्ञानोहापोहवियुक्ता महामोहाभिभूता दुष्टावग्राहिताश्च । तेषु माध्यस्थ्यं भावयेत् । न हि तत्र वक्तुहितोपदेशसाफल्यं भवति । विशेषव्याख्या-मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, तथा माध्यस्थ, इन चारोंका सत्वमात्र, गुणाधिक, क्लिश्यमान, और अविनेय इन चारोंके साथ यथासंख्य है । अर्थात् सत्व आदिमें मैत्री आदिकी भावना चाहिये । जैसे-संपूर्ण जीवोंमें मैत्री ( मित्रता )की भावना करे । जैसे-सब जीवोंके अपराध आदि मैं क्षमा करता हूं और संपूर्ण जीवोंसे अपना अपराध क्षमा करता हूं । तात्पर्य यह कि-सब जीवोंपर मैं मित्रताकी दृष्टि रक्खू और सब जीव मेरे ऊपर । मेरी मित्रता संपूर्ण जीवोंमें हो और मेरा वैर (विरोध ) किसी प्राणीसे नहीं हैं ऐसी भावना करे । तथा जो अपनेसे अधिक विद्याआदि गुणसम्पन्न हैं उनमें प्रमोदकी भावना करनी चाहिये । प्रमोद कहते हैं विनयका प्रयोग अर्थात् स्तुति, वन्दना, वर्णवाद (प्रशंसा) तथा वैयावृत्यकरण अर्थात् सेवा शुश्रूषा आदि करना; सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, और तप आदिमें अधिक जो साधु हैं उनमें अन्य पुरुष तथा अपनेसे कृत जो पूजाआदि सत्कार हैं उस पूजाआदिसे उत्पन्न संपूर्ण इन्द्रियोंसे प्रकट मनका प्रहर्ष ( अधिक आनन्द) होना यही गुणाधिकोंमें प्रमोद है, सो इस प्रमोदकी भावना गुणाधिकोंमें करनी चाहिये । तथा जो क्लिश्यमान हैं अर्थात् दुःखयुक्त हैं उनमें करुणाकी भावना करनी चाहिये । कारुण्य अर्थात् अनुकम्पा, दया, दीनोंके ऊपर अनुग्रह करना है । वह कारुण्य महामोहग्रस्त, मति श्रुत विभङ्गज्ञानरूप अज्ञानसे पूर्ण, विषयरूप तृष्णाकी अग्निसे रात्रि दिन दन्दह्यमान (अत्यन्त जलते हुए ) चित्तवालोंमें कि-जिनकी प्रवृत्ति हिताहितकी प्राप्ति तथा परिहार ( त्याग) रक्षणमुपभोगेष्वतृप्तिरिति' इस भाष्यको जो सूत्र मानकर पढ़ते हैं वेह अनार्ष हैं । यदि ये दोनों सूत्र होते तो इनके अवयवोंकी व्याख्या होती, वह नहीं है इसलिये इनको सूत्र मानना यह अनार्ष है ॥ For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १५९ अर्थात् हितकी प्राप्ति, अहितका परिहार इनमें विपरीत है, तथा जो नानाप्रकारके दुःखोंसे दुःखी हैं उनपर तथा दीन, कृपण, अनाथ, बाल तथा अत्यन्त मोही वृद्ध जीवोंपर करनी चाहिये तथा ऐसी भावनाका चिन्तवन करता हुआ उनको हितोपदेशादिकके द्वारा अनुग्रहीतभी करे । और अविनेयोंमें माध्यस्थ्य अर्थात् उदासीनता रखनी चाहिये । माध्यस्थ्य उदासीनता तथा उपेक्षा, ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं। जो मृत्तिकाके पिण्डके समान वा काष्ठ, भित्ति वा पाषाणके समान उपदेशादिके ग्रहण धारणमें असमर्थ, विज्ञान तथा ऊहापोह (प्रतिभा वा कल्पनाशक्ति )से रहित हैं, और महामोहसे ग्रस्त अथवा किसी पदार्थको दुष्टता वा विपरीतरूपसे ग्रहण किये हैं वा किसीसे विपरीत ग्रहण कराये गए हैं, वे अविनेय हैं । ऐसे जीवोंके विषयमें उदासीनताकी भावना करे । क्योंकि ऐसे जीवोंको उपदेश देनेसे वक्ताके हितोपदेशकी सफलता नहीं होती ॥ ६॥ किं चान्यत् । और यह भी है। __ जगत्कायखभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् ॥ ७ ॥ सूत्रार्थ-संवेग तथा वैराग्यकी प्राप्तिके लिये जगत् तथा काय (शरीर)के स्वभावोंकी भावना करनी चाहिये ॥ ७ ॥ __ भाष्यम्-जगत्कायस्वभावौ च भावयेत् संवेगवैराग्यार्थम् । तत्र जगत्स्वभावो द्रव्याणामनाद्यादिमत्परिणामयुक्ताः प्रादुर्भावतिरोभावस्थित्यन्यतानुग्रहविनाशाः । कायस्वभावोऽनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारताऽशुचित्वमिति ॥ एवं ह्यस्य भावयतः संवेगो वैराग्यं च भवति । तत्र संवेगो नाम संसारभीरुत्वमारम्भपरिग्रहेषु दोषदर्शनादरतिधर्मे बहुमानो धार्मिकेषु च धर्मश्रवणे धार्मिकदर्शने च मनःप्रसाद उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तौ च श्रद्धेति ॥ वैराग्यं नाम शरीरभोगसंसारनिर्वेदोपशान्तस्य बाह्याभ्यन्तरेषूपाधिष्वनभिष्वङ्ग इति ॥ विशेषव्याख्या-संवेग और वैराग्यके अर्थ जगत् व कायके स्वभावोंकी भावना करै। उनमें प्रथम जगत्के स्वभावके विषयमें कहते हैं, जगत्के स्वभाव यह हैं किसम्पूर्ण द्रव्योंके अनादि तथा आदिमान् परिणामोंसे युक्त प्रादुर्भाव (प्रकट होना), तिरोभाव (लुप्त होना), अवस्थिति (पदार्थोंकी कुछ कालस्थिति), परस्पर उपकार तथा विनाश, ऐसी भावना करे । और कायस्वभाव क्या है कि-शरीरकी अनित्यता, दुःखोंकी हेतुता, निःसारता, तथा मलादिसे युक्त होनेके कारण अपवित्रतादि । इस रीतिसे भावना करनेवाले जीवके संवेग तथा वैराग्य होते हैं । उनमेंसे संवेग नाम संसारसे भीरुता (भय वा डर), आरम्भ परिग्रहादि दोषोंके देखनेसे अरुचि, धर्ममें बहुमान, तथा धार्मिक प्राणियोंमें धर्मके श्रवणमें तथा धार्मिक पुरुषोंके दर्शनमें मनकी प्रसन्नता, और उत्तरोत्तर For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् उनके गुणोंका ज्ञान होनेपर उनमें अधिक श्रद्धा, इत्यादि संवेग है । तथा शरीरसे, भोगोसे, संसारसे ग्लानि होनेपर शान्त पुरुषकी बाह्य तथा आभ्यन्तरकी जो उपाधियां हैं उनमें अनासक्ति, अर्थात् संसार से शरीर से भोगादिसे सर्वथा शान्त होकर आभ्यन्तर क्रोधादिक तथा विषयोंमें जो अप्रीति है वही वैराग्य है ॥ ७ ॥ I अत्राह । उक्तं भवता हिंसादिभ्यो विरतिर्ब्रतमिति तत्र का हिंसा नामेति । अत्रोच्यते । अब यहांपर कहते हैं—कि आपने (श्रीआचार्यने ) यह कहा है कि हिंसा आदि पांच महापापोंसे जो निवृत्ति है वही व्रत है (अ. ७ सू. १); सो उन पांच पापोंमेंसे हिंसा क्या वस्तु है ? इसके उत्तर में यह अग्रिम सूत्र कहते हैं: - प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ ८ ॥ सूत्रार्थ — प्रमत्तयोगसे जो प्राणोंका शरीरसे पृथक्करण है उसको हिंसा कहते हैं ||८|| भाष्यम् – प्रमत्तो यः कायवमनोयोगैः प्राणव्यपरोपणं करोति सा हिंसा । हिंसा मारणं प्राणातिपातः प्राणवधः देहान्तरसंक्रामणं प्राणव्यपरोपणमित्यनर्थान्तरम् ॥ विशेषव्याख्या - प्रमत्त ( कषायसहित ) होकर काय, वाक् तथा मनोयोगों से जो प्राणोंका व्यपरोपण अर्थात् प्राणोंका वध करना है; वही हिंसा है । हिंसा, मारण, प्राणवध, प्राणातिपात, एक देह से दूसरे देहमें जीवका संक्रामण और प्राणोंका व्यपरोपण, ये सब समानार्थक शब्द हैं ॥ ८ ॥ अत्राह । अथानृतं किमिति । अत्रोच्यते अब कहते हैं कि अनृत क्या है ? इसका उत्तर कहते हैं असदभिधानमनृतम् ॥ ९ ॥ सूत्रार्थ -असत् अर्थात् मिथ्या जो कथन है उसको अनृत कहते हैं ॥ ९ ॥ भाष्यम् - असदिति सद्भावप्रतिषेधोऽर्थान्तरं गर्दा च ॥ तत्र सद्भावप्रतिषेधो नाम सद्भूतनवोऽभूतोद्भावनं च । तद्यथा - नास्त्यात्मा नास्ति परलोक इत्यादि भूतनिह्नवः । श्यामाकतण्डुलमात्रोऽयमात्मा अङ्गुष्ठपर्वमात्रोऽयमात्मा आदित्यवर्णो निःक्रिय इत्येवमाद्यमभूतोद्भावनम् || अर्थान्तरं यो गां ब्रवीत्यश्वमश्वं च गौरिति ॥ गर्हेति हिंसापारुष्यपैशुन्या. दियुक्तं वचः सत्यमपि गर्हितमनृतमेव भवतीति ॥ विशेषव्याख्या -असत् पदसे यहांपर सद्भावका निषेध, अर्थान्तर, (जैसा यथार्थ में है उससे अन्य अर्थ ) तथा गही निन्दाका ग्रहण हैं, उनमें सद्भावका निषेध नाम सद्भूत अर्थका अपह्नव ( छिपाना ) और असत् का उद्भावन ( प्रकटीकरण) । जैसे- 'आत्मा नहीं है, परलोक नहीं है, इत्यादि सद्भूत पदार्थका अपह्नव अर्थात् निषेध है । और श्यामा (समा वा सेवई वा अतिसूक्ष्म चावलविशेष ) तण्डुलमात्र यह जीवात्मा है, वा अङ्गुष्ठके पर्वमात्र यह आत्मा है, आदित्यवर्ण है, निष्क्रिय है इत्यादि असद्भुत वस्तुका 1 * For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १६१ प्रकटीकरण हैं । अर्थान्तर वह है-जैसे गौको अश्व कहे और अश्वको गौ । गर्दा; हिंसा, पारुष्यवचन (कठोर मर्मवेधी वचन) तथा पैशुन्य (चुगुली) आदि युक्तवचन, यह यद्यपि सत्य हो तथापि गर्हित (निन्दित)होनेसे असत्यही है । अर्थात् गर्हित सत्यभी असत्यवत् है ॥ ९ ॥ अत्राह । अथ स्तेयं किमिति । अत्रोच्यते-- अब यहांपर कहते हैं कि स्तेय क्या है ? इसके उत्तरमें यह सूत्र कहते हैं । अदत्तादानं स्तेयम् ॥१०॥ सूत्रार्थ-न दिये हुए पदार्थका ग्रहण करना स्तेय है ॥ १० ॥ भाष्यम्-स्तेयबुद्ध्या परैरदत्तस्य परिगृहीतस्य तृणादेव्यजातस्यादानं स्तेयम् ॥ विशेषव्याख्या-स्तेय(चौर्य) बुद्धिसे अदत्त अर्थात् जिनसे वह पदार्थ सम्बध रखता है उन पुरुषोंके बिना दियेहुए परिगृहीत जो तृणसे आदि लेके यावत् द्रव्य हैं उनका ग्रहण करना अर्थात् लेलेना, इसीको स्तेय चोरी कहते हैं ॥ १० ॥ अत्राह । अथाब्रह्म किमिति । अत्रोच्यतेअब इसके पश्चात् कहते हैं कि 'अब्रह्म' क्या है ? इसपर यह कहते हैं मैथुनमब्रह्म ॥११॥ भाष्यम्-स्त्रीपुंसयोमिथुनभावो मिथुनकर्म वा मैथुनं तदब्रह्म । सूत्रार्थ-स्त्रीपुरुषका जो मिथुनभाव वा मैथुनकर्म अथवा मैथुन (स्त्रीप्रसङ्ग) है, उसको अब्रह्म अर्थात् मैथुनसेवन कहते हैं ॥ ११ ॥ अत्राह । अथ परिग्रहः क इति । अत्रोच्यते--- अब यहांपर कहते हैं कि इसके पश्चात् परिग्रह क्या है ? इसपर कहते हैं। मूछी परिग्रहः ॥ १२॥ सूत्रार्थ-मूर्छाको परिग्रह कहते हैं ॥ १२ ॥ भाष्यम्-चेतनावत्स्वचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः । इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः कांक्षा गार्ड्य मूर्छत्यनान्तरम् ॥ विशेषव्याख्या-चेतनावान् हों वा अचेतन हों, ऐसे चेतनाचेतन बाह्य तथा आभ्यन्तर द्रव्योंमें जो मूर्छा (तदर्जन रक्षणआदिकी अभिलाषा ) है उसको परिग्रह कहते हैं । इच्छा, प्रार्थना, काम, अभिलाष, कांक्षा, गार्थ्य, परिग्रह, तथा मूर्छा ये सब समानार्थक शब्द हैं ॥ १२ ॥ __ अत्राह । गृह्णीमस्तावद्रतानि । अथ व्रती क इति । अत्रोच्यते-- अब यहांपर कहते हैं कि-व्रतोंको जैसा आपने कहा वैसा हम ग्रहण करते हैं, परंतु व्रती कौन है ? इसके उत्तरके लिये यह सूत्र है For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् निःशल्यो व्रती ॥ १३ ॥ सूत्रार्थ-शल्योंसे जो रहित है, वही व्रती है ॥ १३ ॥ भाष्यम्-मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यैस्त्रिभिर्वियुक्तो निःशल्यो व्रती भवति । व्रतान्यस्य सन्तीति व्रती । तदेवं निःशल्यो व्रतवान् व्रती भवतीति ॥ विशेषव्याख्या-मायाशल्य, निदानशल्य तथा मिथ्यादर्शनशल्य इन तीन प्रकारके शल्योंसे जो रहित है तथा निःशल्य अर्थात् जिसके शल्य निकलगये हैं वही व्रती है । तथा पूर्वोक्त अहिंसा आदि व्रत जिसमें हैं वह व्रती है । इस प्रकार जो निःशल्य तथा व्रतवान् (व्रतयुक्त) हो सो व्रती होता है ॥ १३ ॥ अगार्यनगारश्च ॥ १४॥ भाष्यम्-स एष व्रती द्विविधो भवति । अगारी अनगारश्च । श्रावकः श्रमणश्चेत्यर्थः ।। सूत्रार्थ-व्रतीके दो भेद होते हैं । एक अगारी (गृही ) अर्थात् श्रावक और दूसरा अनगारी अर्थात् श्रमण ॥ १४ ॥ अत्राह । कोऽनयोः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते अब यहां कहते हैं कि इन दोनों अर्थात् अगारी तथा अनगारी इनमें क्या भेद है ? इसपर यह सूत्र कहते हैं अणुव्रतोऽगारी ॥१५॥ सूत्रार्थ-अणुव्रतवाला अगारी है ॥ १५ ॥ भाष्यम्-अणून्यस्य व्रतानीत्यणुव्रतः । तदेवमणुव्रतधरः श्रावकोऽगारी व्रती भवति ॥ विशेषव्याख्या—जिसके व्रत अणु अर्थात् लघु वा छोटे हैं वह श्रावक अगारी व्रती होता है ॥ १५॥ किं चान्यत्और अगारी व्रतीके विषयमें यह वक्ष्यमाण विशेष भी हैदिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगा तिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च ॥ १६ ॥ सूत्रार्थ तथा दिग्वत, देशत्रत आदि जो व्रत हैं उन व्रतोंसे जो संपन्न अर्थात् युक्त हो वह अगारी व्रती होता है ॥ १६ ॥ __ भाष्यम्-एभिश्च दिग्व्रतादिभिरुत्तरव्रतैः संपन्नोऽगारी व्रती भवति । तत्र दिग्व्रतं नाम तिर्यगूलमधो वा दशानां दिशां यथाशक्ति गमनपरिमाणाभिग्रहः । तत्परतश्च सर्वभूतेवर्थतोऽनर्थतश्च सर्वसाबद्ययोगनिक्षेपः ॥ देशव्रतं नामापवरकगृहग्रामसीमादिषु यथाशक्ति प्रविचाराय परिमाणाभिग्रहः । तत्परतश्च सर्वभूतेष्वर्थतोऽनर्थतश्च सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः ॥ अनर्थदण्डो नामोपभोगपरिभोगावस्यागारिणो व्रतिनोऽर्थः। तद्व्यतिरिक्तोऽनर्थः। तदर्थो दण्डोऽनर्थदण्डः । तद्विरतिव्रतम् । सामायिकं नामाभिगृह्य कालं सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः ॥ पौष For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १६३ 1 धोपवासो नाम पौषधे उपवासः पौषधोपवासः । पौषधः पर्वेत्यनर्थान्तरम् । सोऽष्टमीं चतुर्दशीं पञ्चदशीमन्यतमां वा तिथिमभिगृह्य चतुर्थाद्युपवासिना व्यपगतस्नानानुलेपनगन्धमाल्यालंकारेण न्यस्तसर्वसावद्ययोगेन कुशसंस्तारफलकादीनामन्यतमं संस्तारमास्तीर्य स्थानं वीरासननिषद्यानां वान्यतममास्थाय धर्मजागरिकापरेणानुष्ठेयो भवति । उपभोगपरिभोगवतं नामाशनपानखाद्यस्वाद्यगन्धमाल्यादीनामाच्छादनप्रावरणालंकारशयनासनगृहयानवाहनादीनां च बहुसावद्यानां वर्जनम् । अल्पसावद्यानामपि परिमाणकरणमिति || अतिथिसंविभागो नाम न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां द्रव्याणां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमोपेतं परयात्मानुग्रहबुद्धया संयतेभ्यो दानमिति ॥ विशेषव्याख्या - दिग्वत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिकत्रत, पौषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगव्रत, तथा अतिथिसंविभागत्रत, ये जो उत्तरत्रत हैं इनसे सम्पन्न ( युक्त ) अर्थात् इन व्रतोंके करनेवाला भी अगारी व्रती है । इनमें से दिग्वतका लक्षण यह है कि-तिर्यग् ( इधर उधर ) आठों दिशाओं में ऊपर ( पर्वतादि के ) और अधोभाग में गमनके परिमाणका नियम करना और उससे परे सब जीवोंके विषय में सार्थक वा निरर्थक संपूर्ण सावद्य ( निन्दित ) योगों का त्याग करना, यही दिग्वत है । देशत्रत वह है कि- अपनेके अपवरक ( सब ओरसे आवृत करनेवाले, घेरनेवाले ) जो गृह, ग्राम तथा सीमा आदि हैं उनमें यथाशक्ति प्रविचार ( गमनागमन) के लिये परिमाणका अभिग्रह अर्थात् नियम करना । और उस सीमासे परे संपूर्ण प्राणियोंके विषे अर्थसे वा अनर्थसे संपूर्ण सावद्य ( निन्दा वा दोषसहित ) काय, वाक् तथा मनोमय योगों का त्याग करना । अनर्थदण्ड- ड-नाम उपभोग, तथा परिभोग इस अगारी व्रतीके अर्थ हैं और उससे भिन्न अनर्थ है, उस अनर्थके लिये जो दण्ड है उसको अनर्थदण्ड कहते हैं । इस हेतुसे उस अनर्थदण्डसे जो विरति अर्थात् उपराम वा निवृत्ति है उसको अनर्थदण्डवत कहते हैं । सामायिक वह है कि - किसी नियत कालके लिये सम्पूर्ण सावद्य अर्थात् ग वा निन्दनीय योगोंका त्याग । पौषधोपवास, इसका अर्थ यह है कि - पौषध अर्थात् पर्वमें जो उपवास ( भोजनादिका त्याग ) वह पौषधोपवास है । पौषध तथा पर्व ये दोनों समानार्थवाचक शब्द हैं । यह पौषधोपवास अष्टमी, चतुर्दशी, अथवा पूर्णिमा अमावास्या इनमेंसे किसी एक तिथिको वा सबको नियम करके चतुर्थकाल आदि उपवास करनेवाले प्राणीको स्नान अनुलेपन ( उबटनाआदि सुगन्धित द्रव्य जो शरीरमें लगाये जाते हैं ) गन्ध, अतर, तैल आदि, माल्य अर्थात् पुष्पमाला आदि तथा आभूषणोंके त्यागसहित और संपूर्ण सावद्य योगों से भी रहित होकर, कुश, चटाई वा पाटा इनमेंसे किसी एक आसन के ऊपर वीर, पद्म, अथवा स्वस्तिक आदिमेंसे किसी एक आसन से बैठकर धर्मजागरिकामें तत्पर होके अर्थात् धर्मार्थ जागरणमें परायण होके अनुष्ठान करनेयोग्य है । तात्पर्य यह कि इस पूर्वोक्त नियमसे पौषधोपवासका अनुष्ठान करना चाहिये । ' For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उपभोगपरिभोगव्रत वह है कि-जिसमें भोजन, पानआदि खाद्य पदार्थोंका, खाद्य अर्थात् प्रिय आनन्ददायक गन्धमाल्य आदि पदार्थोंका, आच्छादन ( वस्त्रादि ) अलकार, शय्या, आसन, गृह, यान (सवारी घोड़े हाथी बग्गीआदि), वाहन बैलआदि पदार्थोंका जो कि-बहुत सावध हैं अर्थात् निन्दादोषादिसहित हैं उन सबका त्याग करना । और इन भोजन, पान, गन्धमाल्य, वस्त्र, अलङ्कार, शय्या, गृह यानादिमेंसे जो अल्पदोषादियुक्त हैं उनका भी परिमाण करना कि-इतनेसे अधिक नहीं रक्खेंगे, अर्थात् अल्प दोषवालोंमें भी आवश्यक पदार्थोंकी गणना करके वर्तावमें लाना, यह उपभोगपरिभोगव्रत है । अथितिसंविभागवत वह है कि-न्यायसे प्राप्त अर्थात् धर्मसे उपार्जित कल्पनीय (सम्पादन ) करनेके योग्य जो द्रव्य हैं उनका देश, काल, श्रद्धा तथा सत्कारके क्रमसे युक्त होकर अतिअनुग्रहबुद्धिसे संयत अर्थात् संयमी पुरुषोंको देना, ये सात व्रतभी अगारी व्रतीके होते हैं ॥ १६ ॥ किं चान्यदिति । और यहभी है;-.. मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता ॥१७॥ सूत्रार्थ-व्रती (अगारी व्रती ) मारणान्तिकी अर्थात् मरणसमयकी संलेखनाका जोषिता अर्थात् सेवी होना चाहिये ॥ १७॥ . भाष्यम्-कालसंहननदौर्बल्योपसर्गदोषाद्धर्मावश्यकपरिहाणिं वाभितो ज्ञात्वावमौदर्यचतुर्थषष्ठाष्टमभक्तादिभिरात्मानं संलिख्य संयमं प्रतिपद्योत्तमव्रतसंपन्नश्चतुर्विधाहारं प्रत्याख्याय यावज्जीवं भावनानुप्रेक्षापरः स्मृतिसमाधिबहुलो मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता उत्तमार्थस्याराधको भवतीति ।। विशेषव्याख्या-काल, संहनन (शरीरकी स्थितिविशेष), दुर्बलता तथा उपसर्ग ( पीडाआदि उपद्रवों )के दोषसे आवश्यक कार्यकी परिहाणिको सब ओरसे जानकर अवमौदर्य, ( अल्प अशन ), चतुर्थ, षष्ठ, तथा अष्टम कालमें भक्त (भात )आदिके द्वारा आत्माको नियममें लाके संयममें प्राप्त होके उत्तम व्रतसम्पन्न हो, चारों प्रकारके आहारोंको त्यागकर, जीवनपर्यन्त भावना तथा अनुपेक्षामें तत्पर स्मरण तथा समाधिमें बहुधा परायण होके, मरण समयकी संलेखनाका सेवी उत्तम अर्थका आराधक होता है । ___ एतानि दिग्व्रतादीनि शीलानि भवन्ति । निःशल्यो व्रतीति वचनादुक्तं भवति व्रती नियतं सम्यग्दृष्टिरिति ॥ ये जो दिग्वतादि कहे हैं वे सब शीलसंज्ञक हैं । निःशल्य व्रती होता है इस वचनसे यह सिद्ध है कि-व्रती नियमसे सम्यग्दृष्टिवाला होता है । . For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र तहां सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १६५ सम्यग्दृष्टेरती - शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवाः चाराः ॥ १८ ॥ सूत्रार्थ — शंकाआदि पांच सम्यग्दृष्टि पुरुषके अतिचार हैं ॥ १ ॥ 1 भाष्यम् – शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवः इत्येते पञ्च सम्यग्दृष्टेरती - चारा भवन्ति । अतिचारो व्यतिक्रमः स्खलनमित्यनर्थान्तरम् ॥ अधिगतजीवाजीवादितत्त्वस्यापि भगवतः शासनं भावतोऽभिप्रपन्नस्यासंहार्यमतेः सम्यग्दृष्टेरर्हत्प्रोक्तेषु अत्यन्तसूक्ष्मेध्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्येष्वर्थेषु यः संदेहो भवति एवं स्यादेवं न स्यादिति सा शङ्का ॥ ऐहलौकिकपारलौकिकेषु विषयेष्वाशंसा काङ्क्षा । सोऽतिचारः सम्यग्दृष्टेः । कुतः । काङ्क्षिता विचारितगुणदोषः समयमतिक्रामति ॥ विचिकित्सा नाम इदमप्यस्तीदमपीति मतिविप्लुतिः ॥ अन्यदृष्टिरित्यच्छासनव्यतिरिक्तां दृष्टिमाह । सा द्विविधा । अभिगृहीता अनभिगृहीता च । तद्युक्तानां क्रियावादिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकानां च प्रशंसासंस्तवौ सम्यग्दृष्टेरतिचार इति । अत्राह । प्रशंसासंस्तवयोः कः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते । ज्ञानदर्शनगुणप्रकर्षोद्भावनं भावतः प्रशंसा । संस्तवस्तु सोपधं निरुपधं 'भूताभूतगुणवचनमिति ॥ विशेषव्याख्या - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा तथा संस्तव, ये पांच सम्यग्दृष्टि पुरुषके अतिचार ( दोष ) हैं । अतिचार, व्यतिक्रम तथा स्खलन, ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । जीव अजीवआदि तत्त्वोंके ज्ञाता भगवान् के शासनको ' भावसे अभिप्राप्त और असंहार्यमति ( असंहृतबुद्धि ) अर्थात् जिसकी बुद्धि सब स्थानोंसे हटके जिनप्रोक्त पदार्थोंमें दृढतासे निःसन्देहपूर्वक स्थिर नहीं हुई है ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुषको अर्हत् भगवान् से कथित अतिसूक्ष्म, अतीन्द्रिय तथा केवल आगमप्रमाणसे ग्राह्य ( जाननेयोग्य ) पदार्थोंमें जो सन्देह है कि ऐसा भगवान् ने कहा है वैसा हो सकता है, वा नहीं, ऐसा जो विचार है उसको शंका कहते हैं । तथा इस लोकके और परलोकके विषयोंमें जो प्राप्त होनेकी अभिलाषा है वह कांक्षा है | वह शंका तथा कांक्षा करनेवाला दोनो सम्यग्दृष्टिके अतिचार हैं । क्योंकि - जिसने गुणदोषको नहीं विचारा है ऐसा पुरुष समयका उल्लंघन करता है । और विचिकित्सा वह कि - ऐसा भी है और ऐसभी है, अर्थात् अर्हद् भगवान् ने जो कहा है यह भी यथार्थ है और अन्यदृष्टि अर्थात् कपिल आदिका जो कथन है यह भी यथार्थ है, इस प्रकारकी मति ( भ्रांति ) होना । तथा अन्य दृष्टिसे यहां अर्हत्शासन से भिन्नदृष्टि से तात्पर्य है । वह अन्यदृष्टि दो प्रकारकी होती है, एक तो अभिगृहीत (स्वीकृत ) और द्वितीय ( दूसरी ) अनभिगृहीत ( अस्वीकृत ) । उस अन्यदृष्टिसे युक्त क्रियावादी हों अथवा अक्रियावादी हों, तथा अज्ञानी ( जिनके For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हिताहितकी परीक्षा नहीं है ऐसे ) हों अथवा वैनयिक अर्थात् सम्पूर्ण देव तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंको समान माननेवाले हों, उनकी प्रशंसा तथा संस्तव करना । ये प्रशंसा तथा संस्तव दोनो सम्यग्दृष्टिके अतीचार हैं । अब यहां प्रश्न करते हैं कि-प्रशंसा तथा संस्तव ( स्तुति ) इन दोनोंमें क्या भेद है ? इस शंकाका उत्तर कहते हैं कि-भावसे ज्ञानदर्शन गुणकी प्रकर्षता ( उच्चता वा अधिकता)का जो उद्भावन अर्थात् सबपर प्रकट करना है, यह तो प्रशंसा है । और सोपध वा निरुपध वा भूत और अभूत अर्थात् यथार्थ वा अयथार्थ गुणोंका जो संकीर्तन है वह संस्तव अर्थात् संस्तुति है । ये शंकाआदि पांचों सम्यग्दृष्टि जनके अती चार अर्थात् व्यतिक्रम हैं ॥ १८ ॥ इस अग्रिम सूत्रसे व्रत तथा शीलोंके अतीचारोंकी संख्या ( गिनती ) कहते हैं व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ १९॥ सूत्रार्थ-अहिंसाआदि पांच (५) व्रतोंमें और दिग्वतआदि सात (७) शीलोंमें भी पांच (५) २ अतिचार होते हैं ॥ १० ॥ ___ भाष्यम्-व्रतेषु पञ्चसु शीलेषु च सप्तसु पञ्च पञ्चातीचारा भवन्ति यथाक्रममिति ऊर्वं यद्वक्ष्यामः । तद्यथा विशेषव्याख्या-अहिंसाआदि व्रतोंके तथा दिग्वतआदि शीलोंके पांच २ अतीचारोंको अर्थात् प्रथम अहिंसाआदि व्रतोंके और पीछे दिग्वतआदि शीलोंके पांच २ अतीचारोंको हम आगे कहेंगे ॥ जैसे. बन्धवधविच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ॥२०॥ सूत्रार्थ-बन्ध, वध, छेद, अतिभारारोपण, अन्नपाननिरोध ये पांच अहिंसाव्रतके अतिचार हैं ॥ २० ॥ भाष्यम् -त्रसस्थावराणां जीवानां बन्धवधौ त्वक्छेदः काष्ठादीनां पुरुषहस्त्यश्वगोमहिषादीनां चातिभारारोपणं तेषामेव चानपाननिरोधः अहिंसाव्रतस्यातिचारा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-त्रस तथा स्थावर जो जीव हैं उनका वध १ तथा बन्धन २, तथा काष्ठआदिकी त्वक् (छाल आदि )का छेदन ३, पुरुष, हस्ती ( हाथी), अश्व, गौ तथा महिष (भैंस )आदिके ऊपर अतिभार अर्थात् उचितसे अधिक भारका आरोपण ( लादना ) ४ और उन्हीके अर्थात् पुरुष, हस्ती, अश्व आदिके अन्नपानआदि आहारका निरोध करना ( रोकना) ५, ये पांचो अहिंसावतके अतिचार हैं ॥ २० ॥ मिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥२१॥ सूत्रार्थ-मिथ्या उपदेश, रहस्याभ्याख्यान (गोप्य वार्ताओंका प्रकट करना), कूटलेखक्रिया, न्यासापहार तथा साकारमंत्रभेद, ये पांचों सत्य व्रतके अतीचार हैं ॥२१॥ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम्-एते पञ्च मिथ्योपदेशादयः सत्यवचनस्यातिचारा भवन्ति । तत्र मिथ्योपदेशो नाम प्रमत्तवचनमयथार्थवचनोपदेशो विवादेष्वतिसंधानोपदेश इत्येवमादिः ॥ रहस्याभ्याख्यानं नाम स्त्रीपुंसयोः परस्परेणान्यस्य वा रागसंयुक्तं हास्यक्रीडासङ्गादिभी रहस्येनाभिशंसनम् ॥ कूटलेखंक्रिया लोकप्रतीता ॥ न्यासापहारो विस्मरणकृतपरनिक्षेपग्रहणम् ॥ साकारमत्रभेदः पैशुन्यं गुह्यमन्त्रभेदश्च ।। विशेषव्याख्या-मिथ्या उपदेश, आदि सत्यभाषणव्रतके पांच अतीचार अर्थात् व्यतिक्रम वा स्खलन हैं । जैसे–प्रमत्तवचन, अयथार्थवचनका उपदेश, तथा विवादोंमें अतिसन्धान अर्थात् सन्धान ( सम्बन्ध )को उलंघनकरके अर्थात् असम्बद्ध वा प्रकरणविरुद्ध जो उपदेश है इत्यादि सब मिथ्या उपदेश हैं। रहस्याभ्याख्यान-अर्थात् स्त्री पुरुषका परस्परके द्वारा अथवा अन्य किसीके रागसंयुक्त विषयको हास्य क्रीडाआदिसे रहस्यरूपसे जो कथन है वह रहस्याभ्याख्यान है । कूटलेखक्रिया-संसारमें प्रसिद्ध ही है । अर्थात् मिथ्या लेख वा जाली तमस्सुकआदि बनाना, यह सब कूटलेखक्रिया है । न्यासापहार-विस्मरण आदिके द्वारा धरोहररूपसे स्थापित पदार्थको हरलेना, यह न्यासापहार है । साकारमत्रभेद-पैशुन्य (चुगली करना) और गुह्यमन्त्र (सलाह) का भेद करना ( भंडाफोड़ करना) है । ये सब सत्यभाषणव्रतके व्यतिक्रम हैं ॥ _स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २२॥ सूत्रार्थ-स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मानादि, तथा प्रतिरूपकव्यवहार, ये पांचो अस्तेय ( अचौर्य )व्रतके अतीचार हैं ॥ २२ ॥ भाष्यम्-एते पञ्चास्तेयव्रतस्यातिचारा भवन्ति । तत्र स्तेनेषु हिरण्यादिप्रयोगः ॥ स्तेनैराहतस्य द्रव्यस्य मुधा क्रयेण वा ग्रहणं तदाहृतादानम् ॥ विरुद्धराज्यातिक्रमश्वास्तेयव्रतस्यातिचारः । विरुद्ध हि राज्ये सर्वमेव स्तेययुक्तमादानं भवति ॥ हीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारः कूटतुलाकूटमानवञ्चनादियुक्तः क्रयो विक्रयो वृद्धिप्रयोगश्च । प्रतिरूपकव्यवहारो नाम सुवर्णरूप्यादीनां द्रव्याणां प्रतिरूपकक्रिया व्याजीकरणानि चेत्येते पञ्चास्तेयव्रतस्यातिचारा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-स्तेनप्रयोगआदि अस्तेय व्रतके अतीचार हैं। उनमें चोरोंमें सुवर्णआदिका लेन देन करना, यह स्तेनप्रयोग है । तथा चोरोंसे लाया हुआ जो द्रव्य है उसको यों ही वा अल्प मूल्यसे लेलेना, यह तदाहृतादान है । तथा विरुद्ध राज्यमें अतिक्रम करना, अर्थात् विरुद्ध राज्यमें क्रमका उल्लंघन करना । क्योंकि-विरुद्ध राज्यमें सब स्तेययुक्त ही ग्रहणआदि होता है । तथा हीनाधिकमानोन्मानादि यह हैं कि कूटतुला अर्थात् मिथ्या ( झूठी ) तराजूसे कपटपूर्वक माप, वञ्चना (धोखा) आदिसे युक्त, क्रय विक्रय व्यवहार, अर्थात् झूठी तराजूसे, झूठे मापसे, तोलसे, दूसरोंको धोखा For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् देकर न्यून ( कम ) देना और अधिक लेना । तथा हीनाधिक परिमाणसे वृद्धि करना । और प्रतिरूपकव्यवहार यह है कि-सुवर्ण तथा रूप्य (रूपा-चांदी) आदि द्रव्योंकी प्रतिरूपकक्रिया, अर्थात् सोने चांदीके समान ( मुलम्मेआदि अन्य )द्रव्योंको बनालेना तथा अन्य प्रकारके कपट व्यवहार करनेको भी प्रतिरूपक क्रिया कहते हैं । ये स्तेनप्रयोगआदि पांच अस्तेय व्रतके अतीचार हैं ॥ २२ ॥ परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडातीव्रका- माभिनिवेशाः॥ २३ ॥ सूत्रार्थ-परविवाहकरणादि ब्रह्मचर्य व्रतके अतीचार हैं । अर्थात् परविवाहकरण. १ व्यभिचारिणी वा दूसरेकी विवाहितासे संग करना २ जिसका विवाह नहीं हुआ हो ऐसी कन्याआदिसे गमन करना ३ अयोग्य अङ्गसे क्रीडा करना ४ कामके वेगका तीव्र होना यह पांच (५) ब्रह्मचर्य व्रतके अतीचार हैं ॥ २३ ॥ भाष्यम्-परविवाहकरणमित्वरपरिगृहीतागमनमपरिगृहीतागमनमनङ्गक्रीडा तीव्रकामाभिनिवेश इत्येते पञ्च ब्रह्मचर्यव्रतस्यातिचारा भवन्ति । विशेषव्याख्या---परविवाहकरण, अन्यकी विवाहिता कुलटा स्त्रीसे गमन करना, अपरिगृहीता ( अविवाहिता कुमारी या वेश्याआदि) स्त्रियोंके साथ गमन करना, अनङ्गक्रीडा अर्थात् अङ्गोंसे भिन्न अङ्गोंमें क्रीडा करना, अतितीव्र कामनाका अभिनिवेश (वेग) अर्थात् अत्यन्त कामी होना; ये पांच ब्रह्मचर्य व्रतके अतीचार हैं ॥ २३ ॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः॥२४ सूत्रार्थ-क्षेत्र, वास्तु, हिरण्यआदि वस्तुओंके प्रमाणका अतिक्रम करना, इत्यादि पांच इच्छापरिमाण वा अपरिग्रह व्रतके अतिचार हैं ॥ २४ ॥ भाष्यम्-क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमः धनधान्यप्रमाणातिक्रमः दासीदासप्रमाणातिक्रमः कुप्यप्रमाणातिक्रम इत्येते पञ्चेच्छापरिमाणवतस्यातिचारा भवन्ति । विशेषव्याख्या-क्षेत्र, वास्तु, खेत तथा गृहको प्रमाणसे अधिक संग्रह करना १ हिरण्य सुवर्णआदि वस्तुओंको प्रमाणसे अधिक संग्रह करना २ धन, धान्य व अन्य प्रकारके धन तथा अन्न वृक्षादिका प्रमाणसे अधिक संग्रह करना, ३ दासी दासआदिको प्रमाणसे अधिक नियत करना ४ और कुप्य अर्थात् भाण्ड वर्तनादि पदार्थोंको प्रमाणसे अधिक संग्रह करना ५ ये पांचो इच्छापरिमाण वा अपरिग्रह व्रतके अतिचार हैं ॥२४॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानि ॥ २५॥ सूत्रार्थ—ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि तथा स्मृतिका अन्तर्धान, ये पांचों दिग्वतादि (शील )के अतिचार हैं ॥ २५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १६९ भाष्यम्-ऊर्ध्वव्यतिक्रमः अधोव्यतिक्रमः तिर्यग्व्यतिक्रमः क्षेत्रवृद्धिः स्मृत्यन्तर्धानमित्येते पञ्च दिग्वतस्यातिचारा भवन्ति । स्मृत्यन्तर्धानं नाम स्मृतेभ्रंशोऽन्तर्धानमिति ।। विशेषव्याख्या-अहिंसाआदि पांच व्रतोंके अतीचारोंका व्याख्यान होगया, अब दिग्वतादि सत्वशीलोंके पांच २ अतीचार क्रमसे कहते हैं। उनमें प्रथम दिग्वतके जो नियम बांधे हैं, सो ऊर्ध्वभागका व्यतिक्रम अर्थात् नियत किये हुए स्थानसे अधिक गमनादि; ऐसे ही अधोभागमें (नीचेकी ओर )परिमाणसे अधिक गमनादि अधोव्यतिक्रम है २ आठों दिशाओंमें परिमाणसे अधिक देशमें गमनादि तिर्यग्व्यतिक्रम है ३ नियत परिमाणसे अधिक क्षेत्र (देश )की सीमाको बढ़ालेना यह क्षेत्रवृद्धिनामा अतिचार है ४ तथा स्मृतिका अन्तर्धान अर्थात् कहांतक सीमा की थी उसकी स्मृति न रहना, विस्मृत होके अधिक देशमें गमनागमनादि व्यवहार करना ५ यह स्मृत्यन्तर्धाननामा पञ्चम दिग्वतका अतीचार है ॥ २५ ॥ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥ २६ ॥ सूत्रार्थ—आनयन १ प्रेष्यप्रयोग २ शब्दानुपात ३ रूपानुपात ४ तथा पुद्गलक्षेप; ५ ये पांच देशव्रतके अतीचार हैं २६ ॥ भाष्यम्-द्रव्यस्यानयनं प्रेष्यप्रयोगः शब्दानुपातः रूपानुपातः पुद्गलक्षेप इत्येते पञ्च देशव्रतस्यातिचारा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या—किसी आते जाते हुए मनुष्यके द्वारा अभिलषित द्रव्य नियत देशकी सीमासे बाहरके देशसे मँगवा लेना यह आनयनातिचार है । १ भृत्य (नौकर) आदिके द्वारा सीमासे बाहर अपने न जानेके देशसे कार्य निकाल लेना, यह प्रेष्यप्रयोग है २ तथा नियत देशसे बाहर स्वयं न जाकर शब्दके द्वारा कार्य निकाल लेना, यह शब्दानुपात अतिचार है .३ तथा ऐसे ही परिमाणसे बाह्य देशमें अपना रूप (फोटो-तसबीरआदि )दिखाके कार्य चला लेना, यह रूपानुपात है ४ और इसी प्रकार परिमाणसे बाह्य देशमें पुद्गल अर्थात् ढेला पाषाणआदि फेंककर कार्यका निर्वाह करलेना, यह पुद्गलक्षेपनामा पञ्चम देशव्रतका अतीचार है ॥ २६॥ कन्दर्पकौकुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि ॥२७॥ सूत्रार्थ-कन्दर्प १ कौकुच्य २ मौखर्य ३ असमीक्ष्याधिकरण ४ और उपभोगाधिकत्व ५ ये पांच अनर्थदण्डविरतिव्रतके अतीचार हैं ॥ २७ ॥ भाष्यम्-कन्दर्पः कौकुच्यं मौखर्यमसमीक्ष्याधिकरणमुपभोगाधिकत्वमित्येते पञ्चानर्थदण्डविरतिव्रतस्यातिचारा भवन्ति । तत्र कन्दर्पो नाम रागसंयुक्तोऽसभ्यो वाक्प्रयोगो हास्यं च ॥ कौकुच्यं नाम एतदेवोभयं दुष्टकायप्रचारसंयुक्तम् ॥ मौखर्यमसंबद्धबहुप्रलापित्वम् ॥ असमीक्ष्याधिकरणं लोकप्रतीतम् ॥ उपभोगाधिकत्वं चेति ॥ Jain Education Internatel For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या-कन्दर्पादि पांच अनर्थदण्डविरतिव्रतके अतिचार हैं। उनमें रागसंयुक्त तथा असभ्य वाणीका प्रयोग करना अर्थात् रागपूर्ण तथा सभ्यताविरुद्ध भाषण, और हास्य करना, यह कन्दर्पनामा अतिचार है १ । और ये ही दोनों, अर्थात् रागसंयुक्त असभ्य भाषण और हास्य यदि दुष्ट कायके (शरीरके )संचारसहित हों तो वह कौकुच्य अतिचार है २। असम्बद्ध (परस्परविरुद्ध तथा निरर्थक )अधिक प्रलाप करना, यह मौखर्यनामा अतिचार है ३ । और असमीक्ष्याधिकरण तो लोकमें प्रसिद्ध ही है; अर्थात् विना विचारे आवश्यकसे अधिक सामग्री एकत्रित करलेना, यह असमीक्ष्याधिकरण है ४ । और उपभोगसे अधिक वस्तुका रखना, यह उपभोगाधिकत्वनामक पञ्चम अतिचार है ५ ॥२७॥ योगदुष्पणिधानानादस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥२८॥ सूत्रार्थ-कायदुष्प्रणिधान, १ वाग्दुष्प्रणिधान, २ तथा मनोदुष्प्रणिधान, ३ अनादर ४ और स्मृत्यनुपस्थान ५ ये पांच सामायिक व्रतके अतिचार हैं ॥ २८ ॥ भाष्यम्-कायदुष्प्रणिधानं वाग्दुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानमनादरः स्मृत्यनुपस्थापनमित्येते पञ्च सामायिकव्रतस्यातिचारा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-कायआदि तीनों योगोंका दुष्प्रणिधान अर्थात् जिस प्रकार सावधा. नीसे विधिपूर्वक कायआदि योगोंको सामायिकके समयमें लगाना चाहिये उस प्रकार न लगाना यही काय, वाग् तथा मनोरूप योगोंके दुष्पणिधान हैं अर्थात् काययोग दुप्रणिधान १ वागयोग दुष्प्रणिधान २ मनोयोग दुष्प्रणिधान ३ हैं तथा अनादर, सामायिकको आदरसे न करना, किन्तु बेगारसी टाल देना यही अनादर अतिचार है । ४ । और पूर्णरूपसे सामायिककी विधि कैसे करनी चाहिये तथा किसका ध्यान, किस आसन वा किस विधिसे इत्यादि विषयोंकी स्मृति (स्मरण )न रहना अथवा सामायिक करना ही भूलजाना यह स्मृत्यनुपस्थाननामा पञ्चम अतिचार है । ५ । तीन योगोंका दुष्प्रणिधानचतुर्थ (चौथा ) अनादर, और पञ्चम स्मृत्यनुपस्थान ये पांचो सामायिक व्रतके अतीचार अर्थात् व्यतिक्रम जानने चाहिये ॥ २८ ॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादाननिक्षेपसंस्तारोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥ २९॥ सूत्रार्थ- अप्रत्यवेक्षित तथा अप्रमार्जित स्थलमें उत्सर्ग १ अप्रत्यवेक्षित तथा अप्रमार्जित पदार्थका आदान तथा निक्षेप, २ अप्रत्यवेक्षित तथा अप्रमार्जित संस्तारोपक्रम ३ अनादर ४ तथा स्मृत्यनुपस्थान, ५ ये पांच पौषधोपवासव्रतके अतिचार हैं ॥ २९ ॥ भाष्यम्-अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जिते उत्सर्गः अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितस्यादाननिक्षेपौ अप्र For Personal & Private Use Only ____ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । त्यवेक्षिताप्रमार्जितः संस्तारोपक्रमः अनादरः स्मृत्यनुपस्थानमित्येते पञ्च पौषधोपवासस्यातिचारा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-अप्रत्यवेक्षित और अप्रमार्जित, अर्थात् विना पूर्णरूपसे देखे और विना खच्छ (साफ)किए हुए स्थानमें मलमूत्रादिका करना १ यह अप्रत्यवेक्षित तथा अप्रमार्जित स्थलमें उत्सर्गनामा अतिचार है, ऐसे ही अप्रत्यवेक्षित अर्थात् विना अच्छी रीतिसे देखे, और अप्रमार्जित अर्थात् विना शुद्ध किये हुए किसी पदार्थको ग्रहण करना अथवा कहीं स्थापित करना वा फेंक देना; यह अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादाननिक्षेपनामा द्वितीय अतिचार है २ तथा विना देखे और विना शुद्ध किये विस्तरआदिपर गमन शयन, आसनादिक करना यह तृतीय अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-संस्तारोपक्रमनामा अतिचार है ३ अनादर पौषधोपवासमें कर्तव्य अनुष्ठानमें आदरका अभाव यह चतुर्थ अतिचार है। ४ । और पौषधोपवासमें कर्तव्य विधिकी विस्मृति होना, अथवा पौषधमें उपवास ही भूलजाना यह पौषधोपवासका पञ्चम अतिचार है । ५ । इस प्रकार पौषधोपवासके पांच अतिचार हैं ॥ २९ ॥ सचित्तसंबडसंमिश्राभिषवदुष्पकाहाराः ॥ ३०॥ सूत्रार्थ—सचित्ताहार १ सचित्तसंबद्धाहार २ सचित्तसंमिश्राहार ३ अभिषवाहार, ४ और दुष्पक्वाहार, ५ ये पांचों प्रकारके आहार उपभोगव्रतके अतिचार हैं ॥ ३० ॥ भाष्यम्-सचित्ताहारः सचित्तसंबद्धाहारः सचित्तसंमिश्राहारः अभिषवाहारः दुष्पकाहार इत्येते पञ्चोपभोगव्रतस्यातिचारा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-सचित्त अर्थात् चित्तसहित वस्तुका भोजन करना यह सचित्ताहार है। १ । तथा चित्तसे संबद्ध (संबन्ध रखनेवाली )वस्तुका आहार सचित्तसंबद्धाहार है । २ । चित्तसहित जो पदार्थ है, उससे मिलित पदार्थोंका आहार सचित्तसंमिश्राहार है । ३ । अभिषव अर्थात् पुष्ट अथवा रससंयुक्त आहार यह अभिषवाहार है । ४ । और (अच्छी तरह न पकाये हुए)पदार्थका जो आहार है वह दुष्पकाहार उपभोगव्रतका अतीचार है । ५। ऐसे पांच अतीचार हैं ॥ ३० ॥ ___ सचित्तनिक्षेपपिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥३१॥ सूत्रार्थः-सचित्तनिक्षेप १ सचित्तपिधान २ परव्यपदेश ३ मात्सर्य ४ तथा कालातिक्रम ५ ये पांच अतिथिसंविभागवतके अतिचार हैं ॥ ३ ॥ भाष्यम्-अन्नादेव्यजातस्य सचित्ते निक्षेपः सचित्तपिधानं परस्येदमिति परव्यपदेशमात्सर्य कालातिक्रम इत्येते पञ्चातिथिसंविभागस्यातिचारा भवन्ति ।। विशेषव्याख्या–अन्नआदि जो द्रव्यसमूह है उसको किसी सचित्त वस्तुपर रखदेना यह सचित्तनिक्षेप है। १ । अन्नआदि पदार्थको सचित्त वस्तुसे ढकदेना, यह सचित्तपि For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् धान है । २ । यह पदार्थ पराया अर्थात् अन्य मनुष्यका है, यह परव्यपदेश है । ३ । मात्सर्य अर्थात् अन्य देहीके गुण आदिसे ईर्ष्या करना यह मात्सर्यनामा चौथा अतीचार है । ४ । तथा दानआदिके समयका उल्लघंन करना यह कालातिक्रमनामा अतिथिसंविभागवतका पश्चम अतिचार है । ५॥ ३१ ॥ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानकरणानि ॥ ३२॥ सूत्रार्थ-जीवितानुशंसा १ मरणानुशंसा २ मित्रानुराग ३ सुखानुबन्ध ४ तथा निदानकरण ५ ये पांच मारणान्तिकी संलेखनाके अतिचार हैं ॥ ३२ ॥ __ भाष्यम्-जीविताशंसा मरणाशंसा मित्रानुरागः सुखानुबन्धो निदानकरणमित्येते मारणान्तिकसंलेखनायाः पश्चातिचारा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-जीवनकी आशंसा (अभिलाषा) यह जीवितानुशंसा १ तथा मृत्युकी आशंसा यह मरणानुशंसा २ मित्रोंमें प्रीति यह मित्रानुराग ३ है । सुखका सम्बन्ध रखना अथवा सुखका स्मरण करना यह सुखाऽनुबन्ध ४ है । आगामी विषयभोगोंकी आकांक्षा करना निदानकरण ५ पञ्चम अतिचार है ॥ तदेतेषु सम्यक्त्वव्रतशीलव्यतिक्रमस्थानेषु पञ्चषष्टिष्वतिचारस्थानेषु अप्रमादो न्याय इति। इन अतिचारोंसे व्रत तथा शीलोंकी पूर्णता नहीं होती, इस हेतुसे सम्यक्त्व व्रत तथा शीलके व्यतिक्रम स्थान जो पूर्वकथित पैंसठ (६५) अतिचार स्थान हैं उनमें अप्रमाद करना चाहिये । अर्थात् प्रमादसे ये अतिचार न होने देने चाहिये ॥ ३२ ॥ अत्राह । उक्तानि व्रतानि वतिनश्च । अथ दानं किमिति । अत्रोच्यते अब यहांपर कहते हैं कि व्रत तथा व्रतियोंका निरूपण किया। अब दान क्या है ? इसके लिये यह अग्रिम सूत्र कहते हैं . अनुग्रहार्थ खस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३३ ॥ सूत्रार्थ—अनुग्रहार्थ अपनी वस्तुका त्याग करना दान कहलाता है । आत्मपरानुग्रहार्थ स्वस्य द्रव्यजातस्यान्नपानवस्त्रादेः पात्रेऽतिसर्गो दानम् । विशेषव्याख्या-अपने तथा अन्यके ऊपर अनुग्रह (अनुकम्पा )के अर्थ जो निजद्रव्यसमूह, अन्नपान, तथा वस्त्रआदि पदार्थों का पात्रोंमें त्याग है उसको दान कहते हैं ३३ किं चऔर इसके विषयमें यह विशेषता भी कही है-- विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तविशेषः ॥ ३४॥ सूत्रार्थ-विधि, द्रव्य, दाता, तथा पात्र, इनके विशेषसे दोनोंकी विशेषता होती है ॥ ३४ ॥ भाष्यम्-विधिविशेषाद् द्रव्यविशेषाद् दातृविशेषात्पात्रविशेषाञ्च तस्य दानधर्मस्य वि For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १७३ शेषो भवति । तद्विशेषाञ्च फलविशेषः ॥ तत्र विधिविशेषो नाम देशकालसं पच्छ्रद्धासत्कारक्रमाः कल्पनीयत्वमित्येवमादिः ॥ द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सारजातिगुणोत्कर्षयोगः ॥ दातृविशेषः प्रतिग्रहीत नसूया, त्यागेऽविषादः अपरिभाविता, दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः, कुशलाभिसंधिता, दृष्टफलानपेक्षिता, निरुपधत्वमनिदानत्वमिति ॥ पात्रविशेषः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपः संपन्नता इति ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसङ्ग्रहे सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥ विशेषव्याख्या—विधिके विशेषसे, द्रव्य अर्थात् दातव्य पदार्थके विशेषसे, दाता ( देनेवाले ) के विशेषसे, और पात्र अर्थात् जिसको दान दिया जाता है उसके विशेष (वैलक्षण्य) होनेसे दान धर्ममें भी विशेष (वैलक्षण्य व भेद ) होता है । उन विशेषोंमेंसे देश, काल, संपत् अर्थात् उत्तम देश, काल, सम्पत्ति, श्रद्धा, तथा सत्कारके क्रम इन सब विशेष रूपोंसे कल्पना करना यह विधिविशेष है । और द्रव्यविशेष क्या है कि अन्न आदि जो देय पदार्थ हैं उनमें सारजातीय ( उत्तमजातीय ) गुणके उत्कर्षका सम्बन्ध करना । अर्थात् उत्तम जाति तथा उत्तम गुणसंयुक्त वस्तु देना; यह द्रव्यविशेष है । दा ताकी विशेषता यह है कि दाताकी ग्रहणकर्ता पुरुषमें असूया (गुणों में दोषदृष्टि वा स्पर्धा) न हो । तथा त्याग (दान देने) में विषाद (शोक ) न हो अनादर न हो, अर्थात् आदरपूर्वक दान दे देनेकी इच्छा करते हुए, तथा दे चुकनेपर भी प्रीतियोग हो; दान देनेमें कुशल ( कल्याणमय ) अभिप्राय हो; किसी दृष्ट फलकी आकांक्षा न हो, उपधा ( उपाधि ) विशेषसे वर्जित हो; तथा निदानरहित हो, यह सब दातृ ( दाता ) के विशेष हैं । और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपसे सम्पन्न होना; यह पात्र ( दानके योग्य पुरुष ) की विशेषता है । इस प्रकार विधि आदिकी विशेषतासे दानमें विशेषता होती है ॥ ३४ ॥ इत्याचार्योपाधिधारि-ठाकुरप्रसादद्विवेदिप्रणीतभाषाटीकासमलङ्कृते तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसंग्रहे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ अष्टमोऽध्यायः । उक्त आस्रवः बन्धं वक्ष्यामः । तत्प्रसिद्ध्यर्थमिदमुच्यते । आस्रवका निरूपण कर चुके । अब इसके अनन्तर बन्धका व्याख्यान करेंगे । उस बन्धकी सिद्धिके अर्थ यह अग्रिम सूत्र कहते हैं— मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥ १ ॥ सूत्रार्थ - मिथ्यादर्शन १ अविरति २ प्रमाद ३ कषाय ४ और योग ५ ये पांचों बन्धके हेतु हैं ॥ १ ॥ For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-मिथ्यादर्शनं अविरतिः प्रमादः कषाया योगा इत्येते पञ्च बन्धहेतवो भवन्ति। तत्र सम्यग्दर्शनाद्विपरीतं मिथ्यादर्शनम् । तद् द्विविधमभिगृहीतमनभिगृहीतं च । तत्राभ्युपेत्यासम्यग्दर्शनपरिग्रहोऽभिगृहीतमज्ञानिकादीनां त्रयाणां त्रिषष्टानां कुवादिशतानाम् । शेषमनभिगृहीतम् ॥ यथोक्ताया विरतेर्विपरीताविरतिः ॥ प्रमादः स्मृत्यनवस्थानं कुशलेष्वनादरो योगदुष्प्रणिधानं चैष प्रमादः ॥ कषाया मोहनीये वक्ष्यन्ते योगस्त्रिविधः पूर्वोक्तः ॥ एषां मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनां पूर्वस्मिन्पूर्वस्मिन्सति नियतमुत्तरेषां भावः । उत्तरोत्तरभावे तु पूर्वेषामनियम इति ॥ विशेषव्याख्या-मिथ्यादर्शन आदि बन्धके हेतु हैं, उनमें सम्यग्दर्शनसे जो विपरीत अर्थात् विरुद्ध है वह मिथ्यादर्शन है । वह मिथ्यादर्शन दो प्रकारका है-एक अभिगृहीत और दूसरा अनभिगृहीत । उनमें अज्ञानिकादि तीन तथा तीनसौ साठ असम्यग्दर्शनपूर्वक स्वीकार (जो दूसरेके उपदेश आदिसे स्वीकृत) होते हैं वह अभिगृहीत और शेष (अनादिकालका) अनभिगृहीत है । हिंसादिसे जो पूर्वविरति कही है उससे विपरीत अविरति है। तथा स्मृति (स्मरण)की अनवस्थिति, अर्थात् स्मृतिका नाश वा अभाव, कुशल कृत्योंमें अनादर तथा योगोंका दुष्प्रणिधान, ये सब प्रमाद हैं । कषाय मोहनीय कर्मोंमें कहेंगे (अ. ८ सू. १०), और योग, काय, वाग् तथा मनोरूप तीन प्रकारका पूर्वप्रकरणमें कह चुके हैं । ये जो मिथ्यादर्शन आदि पांच प्रकारके बन्धके हेतु कहे हैं इनमें पूर्व २के होनेपर परकी स्थिति अवश्य होती है, जैसे-मिथ्यादर्शनके होनेपर अविरतिकी सत्ता अवश्य होती है, अविरतिके होनेपर प्रमादकी सत्ता अवश्य होती है। ऐसा ही आगे भी जानो। उत्तर उत्तर (आगे२)के होनेपर पूर्वरके बन्धके हेतुओंकी स्थितिका नियम नहीं है किअवश्य हो । जैसे अविरतिकी सत्तामें यह नियम नहीं है कि-मिथ्यादर्शन अवश्य हो, अर्थात् अविरतिकी सत्तामें मिथ्यादर्शन हो भी सकता है और नहीं भी ॥१॥ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते ॥२॥ सूत्रार्थ-कषायसहित होनेसे जीव कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है ॥ २ ॥ भाष्यम्-सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलान् आदत्ते । कर्मयोग्यानिति अष्टविधे पुद्गलग्रहणकर्मशरीरग्रहणयोग्यानित्यर्थः । नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषादिति वक्ष्यते ॥ विशेषव्याख्या-कषायसहित होनेके कारण जीव कर्मयोग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है । इसका यह अभिप्राय है कि-अष्टविध पुद्गलग्रहणकर्म शरीर है उसके ग्रहणयोग्य अर्थात् जिसमें अष्टविध कर्मों के शरीरका ग्रहण है उन कर्मशरीर निर्माणयोग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। क्यों कि नामप्रत्यय कहिये कारण जिसको सबमें योगविशेषसे सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाहमें स्थित सम्पूर्ण आत्माके प्रदेशोंमें अनन्तानन्त प्रदेश है; ऐसा कहेंगे । (अ. ८ सू. २५) ॥२॥ स बन्धः ॥३॥ ... भाष्यम्स एष कमशरीरपुद्गलग्रहणकृतो बन्धो भवति । For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । सूत्रार्थ-वि०व्याख्या-वही यह कर्म शरीरार्थ जो पुद्गलका ग्रहण तत्कृत बन्ध होता है । तात्पर्य यह कि-कर्मोंके शरीरार्थ जो जीव पुद्गलोंको ग्रहण करता है वही बन्ध है ॥ ३॥ स पुनश्चतुर्विधः । वह बन्ध वक्ष्यमाण भेदोंसे चार प्रकारका है. जैसे प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः॥४॥ सूत्रार्थ-प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश यह चार उस बन्धके प्रकार हैं। भाष्यम्-प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धः अनुभावबन्धः प्रदेशबन्धः इति । तत्रविशेषव्याख्या–प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध तथा प्रदेशबन्ध, ये चार बन्ध हैं । जैसे आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायाः ॥५ भाष्यम्-आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यात्प्रकृतिबन्धमाह । सोऽष्टविधः । तद्यथा । ज्ञानावरणं दर्शनावरणं वेदनीयं मोहनीयं आयुष्कं नाम गोत्रं अन्तरायमिति । किं चान्यत् सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-इस पूर्वोक्त चतुर्थ सूत्रके क्रमके प्रमाणसे आद्य अर्थात् प्रथम जो प्रकृति-बन्ध है उसको कहते हैं। उसके आठ भेद हैं। जैसेज्ञानावरण १, दर्शनावरण २, वेदनीय ३, मोहनीय ४, आयुष्क ५, नाम ६, गोत्र ७, और अन्तराय ८, ये आठ प्रकृतिबन्ध हैं । और यह भी विशेष है ॥ ५ ॥ पञ्चनवद्यष्टाविंशतिचतुईिचत्वारिंशदूविपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥६॥ भाष्यम्-स एष प्रकृतिबन्धोऽष्टविधोऽपि पुनरेकशः पञ्चभेदः नवभेदः द्विभेदः अष्टाविंशतिभेदः चतुर्भेदः द्विचत्वारिंशद्भेदः द्विभेदः पञ्चभेद इति यथाक्रमं प्रत्येतव्यम् । इत उत्तरं यद्वक्ष्यामः । तद्यथा-- सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-जो यह प्रकृतिबन्ध आठ प्रकारका वर्णन किया गया है उन आठों भेदोंमें भी प्रत्येकके ये भेद हैं । जैसे—ज्ञानावरणके पांच (५) भेद, दर्शनावरणके नौ (९) भेद, वेदनीयके दो (२)भेद, मोहनीयके अष्टाविंशति अर्थात् अट्ठाईस (२८)भेद, आयुष्कके चार (४)भेद, नामके बयालीस (४२)भेद, गोत्रके दो (२)भेद, और अन्तरायके पांच (५)भेद हैं, इस प्रकार यथाक्रमसे जानना चाहिये ॥ ६ ॥ अब इसके पश्चात् जिन प्रकृतिभेदोंको आगे कहेंगे उनको ऐसे जानना. जैसे मत्यादीनाम् ॥७॥ भाष्यम्-ज्ञानावरणं पञ्चविधं भवति । मत्यादीनां ज्ञानानामावरणानि पञ्च विकल्पांश्चैकश इति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-ज्ञानावरण जो प्रकृतिबन्धका प्रथम भेद है वह पांच For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रकारका होता है । मतिश्रुतादि जो ज्ञान हैं उनके भेदसे पांच प्रकारका ज्ञानावरण होता है । जैसे—मतिज्ञानावरण १ श्रुतज्ञानावरण २ अवधिज्ञानावरण ३ मनःपर्यायज्ञानावरण ४ तथा केवलज्ञानावरण ५ इस प्रकार प्रत्येक ज्ञानके साथ आवरणके विकल्प (भेद)समझने चाहिये ॥ ७ ॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च ॥ ८॥ सूत्रार्थ-चक्षुरादि नवभेद दर्शनावरणके हैं । भाष्यम्-चक्षुर्दर्शनावरणं अचक्षुर्दर्शनावरणं अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणं निद्रावेदनीयं निद्रानिद्रावेदनीयं प्रचलावेदनीयं प्रचलाप्रचलावेदनीयं स्त्यानगृद्धिवेदनीयमिति दर्शनावरणं नवभेदं भवति । विशेषव्याख्या-चक्षुर्दर्शनावरण १, अचक्षुर्दर्शनावरण २, अवधिदर्शनावरण ३, केवलदर्शनावरण ४, निद्रावेदनीय ५, निद्रानिद्रावेदनीय ६, प्रचलावेदनीय ७, प्रचलाप्रचलावेदनीय ८, स्त्यानगृद्धिवेदनीय ९, ये नौ (९) भेद दर्शनावरणके हैं ॥ ८ ॥ सदसद्धेद्ये ॥९॥ सूत्रार्थ-वेदनीय आवरणके सत् असत् दो भेद हैं। सद्वेद्यं असāद्यं च वेदनीयं द्विभेदं भवति । सूत्रार्थ—सद्वेद्य १ तथा असद्वेद्य २ इन भेदोंसे वेदनीय दो भेदसहित है ॥ ९॥ दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनवभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः ॥१०॥ भाष्यम्-त्रिद्विषोडशनवभेदा यथाक्रमम् । मोहनीयबन्धो द्विविधो दर्शनमोहनीयाख्यश्चारित्रमोहनीयाख्यश्च । तत्र दर्शनमोहनीयाख्यस्त्रिभेदः । तद्यथा । मिथ्यात्ववेदनीयं सम्यक्त्ववेदनीयं सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयमिति । चारित्रमोहनीयाख्यो द्विभेदः कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं चेति । तत्र कषायवेदनीयाख्यः षोडशभेदः । तद्यथा । अनन्तानुबन्धी क्रोधो मानो माया लोभ एवमप्रत्याख्यानकषायः प्रत्याख्यानावरणकषायः संज्वलनकषाय इत्येकशः क्रोधमानमायालोमाः षोडश भेदाः ॥ नोकषायवेदनीयं नवभेदम् । तद्यथा । हास्य रतिः अरतिः शोकः भयं जुगुप्सा पुरुषवेदः स्त्रीवेदः नपुंसकवेद इति नोकषायवेदनीयं नवप्रकारम् । तत्र पुरुषवेदादीनां तृणकाष्ठकरीषाग्नयो निदर्शनानि भवन्ति । इत्येवं मोहनीयमष्ठाविंशतिभेदं भवति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-तीन, दो, षोडश (सोलह ) तथा नव भेद यथाक्रमसे For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १७७ दर्शनमोहनीय आदिके हैं। प्रथम मोहनीयबन्ध दो प्रकारका है; एक (१)दर्शनमोहनीय और दूसरा (२) चारित्रमोहनीय । अब उनमें प्रथम दर्शनमोहनीय नामक जो बन्ध है उसके तीन (३) भेद हैं। जैसे-मिथ्यात्ववेदनीय १, सम्यक्त्ववेदनीय २, तथा सम्यग्मिथ्यात्व-एतदुभयवेदनीय ३ और चारित्रमोहनीयके दो (२)भेद हैं, एक (१)कषायवेदनीय १ और दूसरा नोकषायवेदनीय २। उनमें भी कषायवेदनीयके षोडश अर्थात् सोलह (१६)भेद हैं । जैसेअनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, तथा लोभ, अर्थात् अनन्तानुबन्धीक्रोधकषाय, अनन्तानुबन्धीमानकषाय, अनन्तानुबन्धी मायाकषाय, तथा अनन्तानुबन्धी लोभकषाय। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानकषाय, प्रत्याख्यानावरणकषाय, तथा संज्वलनकषाय हैं । तात्पर्य यह किजैसे-अनन्तानुबन्धीकी क्रोधआदि प्रत्येकके साथ योजना हुई है ऐसे ही अप्रत्याख्यान आदिकी भी होती है। जैसे-अप्रत्याख्यानक्रोधकषाय, अप्रत्याख्यानमानकषाय, अप्रत्याख्यानमायाकषाय, तथा अप्रत्याख्यानलोभकषाय । इसी रीतिसे प्रत्याख्यानावरण, तथा संज्वलनकी प्रत्येकके साथ योजना करनेसे क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये सोलह प्रकारके होजाते हैं । नोकषायवेदनीयके नौ (९)भेद हैं । जैसे—हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, और नपुंसकवेद। उनमें पुरुषवेदादिके तृण, काष्ठ, तथा करीषकी अग्निके निदर्शन अर्थात् दृष्टान्त क्रमसे होसकते हैं। इस प्रकार मोहनीयप्रकृतिके अट्ठाईस (२८) भेद हुए; अर्थात् तीन ३ दर्शनमोहनीयके, चारित्रमोहनीयमेंके कषायके १६, नोकषायके ९. इनमेंसे तीन वेदके निकालनेसे अठ्ठाइस होते हैं। अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती । तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते । पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति । अप्रत्याख्यानकषायोदयाद्विरतिर्न भवति । प्रत्याख्यानावरणकषायोदयाद्विरताविरतिर्भवत्युत्तमचारित्रलाभस्तु न भवति । संज्वलनकषायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति ॥ ___ अब इनमें अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शनका उपघाती होता है । उस अनन्तानुबन्धी कषायके उत्पन्न होनेसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न ही नहीं होता, और यदि अनन्तानुबन्धी कषायके उदयके पूर्व सम्यग्दर्शन उत्पन्न होगया हो तो उसके उदयके पश्चात् वह सम्य- . ग्दर्शन विनष्ट होजाता है । अर्थात् पूर्वकालमें उत्पन्न भी सम्यग्दर्शनका इस कषायके उदय होनेसे प्रतिपात (नाश)हो जाता है। अप्रत्याख्यानकषायके उदयसे विरति (हिंसादिसे विरति) नहीं होती । और प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयसे विरताविरति तो होती है परंतु उत्तम चारित्रका लाभ नहीं होता । __ क्रोधः कोपो रोषो द्वेषो भण्डनं भाम इत्यनान्तरम् । तस्यास्य क्रोधस्य तीव्रमध्यविमध्यमन्दभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा । पर्वतराजिसदृशः भूमिराजिसदृशः वालुकाराजिसदृशः उदकराजिसदृश इति । तत्र पर्वतराजिसदृशो नाम । यथा प्रयोगवित्रसामिश्रकाणामन्यतमेन हेतुना पर्वतराजिरुत्पन्ना नैव कदाचिदपि संरोहति एवमिष्टवियोजना. Jain Education Internaticial For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् निष्टयोजनाभिलषित।लाभादीनामन्यतमेन हेतुना यस्योत्पन्नः क्रोध आमरणान्न व्ययं गच्छति जात्यन्तरानुबन्धी निरनुनयस्तीत्रानुशयोऽप्रत्यवमर्शश्च भवति स पर्वतराजिसदृशः । तादृशं क्रोधमनुमृता नरकेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । भूमिराजिसदृशो नाम । यथा भूमेर्भास्कररश्मिजालात्तस्नेहाया वाय्वभिहताया राजिरुत्पन्ना वर्षापेक्षसंरोहा परमप्रकृष्टाष्टमासस्थितिर्भवति एवं यथोक्तनिमित्तो यस्य क्रोधोऽनेकविधस्थानीयो दुरनुनयो भवति स भूमिराज - सदृशः । तादृशं क्रोधमनुमृतास्तिर्यग्योनावुपपत्तिं प्राप्नुवन्ति ।। वालुकाराजिसदृशो नाम । यथा वालुकायां काष्ठशलाकाशर्करादीनामन्यतमेन हेतुना राजिरुत्पन्ना वाय्वीरणाद्यपेक्षसंरोहार्वाग्मासस्य रोहति एवं यथोक्तनिमित्तोत्पन्नो यस्य क्रोधोऽहोरात्रं पक्षं मासं चातुर्मास्यं संवत्सरं वावतिष्ठते स वालुकाराजिसदृशो नाम क्रोधः । तादृशं क्रोधमनुमृता मनुष्येषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति ॥ उदकराजिसदृशो नाम । यथोदके दण्डशलाकाङ्गुल्यादीनामन्यतमेन हेतुना राजिरुत्पन्ना द्रवत्वादपामुत्पत्त्यनन्तरमेव संरोहति एवं यथोक्तनिमित्तो यस्य क्रोधो विदुषोऽ प्रमत्तस्य प्रत्यवमर्शेनोत्पत्त्यनन्तरमेव व्यपगच्छति स उदकराजिसदृशः । तादृशं क्रोधमनुमृता देवेषूपपत्तिं प्राप्नुवन्ति । येषां त्वेष चतुर्विधोऽपि न भवति ते निर्वाणं प्राप्नुवन्ति । १७८ 1 क्रोध, कोप, रोष, द्वेष, भण्डन तथा भाम ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । इन अनेक पर्यायोंसे वाच्य कषायसंज्ञक क्रोधके तीव्र, मध्यम, विमध्यम, तथा मन्दभाव के आश्रित ये दृष्टान्त होते हैं । जैसे --- पर्वतराजिसदृश अर्थात् पर्वतके ऊपर रेखाके समान, भूमिराज (भूमिके ऊपर रेखा ) के समान, बालुकाराजिसमान, तथा जलराजिसमान । ये चार (४) दृष्टान्त हैं । इनमें से 'पर्वतराज' का यह तात्पर्य है कि - जैसे पुरुषके प्रयोगसे अर्थात् लोहेकी टांकी आदिके द्वारा, वा स्वयं किसी प्रकारसे, अथवा पुरुषके यत्न इन तीन हेतुओं में से किसी एक हेतुसे यदि पर्वतकी शिलापर रेखा उत्पन्न होगई हो तो वह कदापि नहीं नष्ट होती । ऐसे ही इष्टके वियोग, अनिष्टके संयोग तथा अभिलषित पदार्थके लाभ न होनेसे, इन तीन हेतुओंमेंसे किसी एक हेतुसे जिस पुरुषके क्रोध उत्पन्न हुआ वह यदि मरणपर्यन्त नष्ट न हो, किन्तु जन्मान्तरमें भी वह उस प्राणीके साथ ही जाय, किसी प्रकार से शान्त न हो, न दूर कियाजाय, तीव्र आशय संयुक्त, और क्षमाके अयोग्य हो वह क्रोध पर्वतराजि (रेखा) के सदृश है । इस क्रोधके पश्चात् जो जीव मृत्युको प्राप्त होते हैं वे नरकोंमें जन्म पाते हैं । तथा भूमिराजिसदृश, सूर्यके किरणों से आर्द्रता ( गीलापन ) सहित, तथा वायुसे ताडित होनेसे भूमिपर यदि रेखा उत्पन्न होगई तो वह रेखा प्रायः वर्षा कालतक रहेगी । इस हेतुसे अधिकसे भी अधिक आठ मास - पर्यन्त रेखाकी स्थिति रहेगी । ऐसे ही जिसका क्रोध पूर्वोक्त किसी हेतुसे उत्पन्न हुआ, और वह अनेक प्रकारसे स्थित होने योग्य है, अर्थात् कई वर्ष रहे, अथवा दो चार वर्ष रहे, वा एक ही वर्ष रहे, और दुःखसे दूर करने योग्य हो, वह क्रोध भूमिरेखा के समान है । और इस प्रकार के क्रोधके अनन्तर मृत्युको प्राप्त जो जीव हैं वे तिर्यग्योनियोंमें 1 For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । उत्पन्न होते हैं । वालुकाराजिसदृश, जैसे बालूमें काष्ठ, लोहादिकी शलाका वा कंकरआदि हेतुओं से किसी भी कारणसे राजि (रेखा ) उत्पन्न होगई हो तो वह पवन आदिके झकोरोंसे वा अन्य हेतुओंसे एक मासके पूर्व ही नष्ट होजाती है। ऐसे ही पूर्वकथित इष्टवियोग आदि किसी हेतुसे यदि किसीके क्रोध उत्पन्न होगया तो वह क्रोध रात्रि, दिन पक्ष, मास, चतुर्मास वा अधिकसे अधिक एक वर्ष स्थित रहे तो वह क्रोध वालुकारेखाके समान है । इस प्रकारके क्रोधके उत्पन्न होनेके अनन्तर मरणको प्राप्त प्राणी मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं । उदकराजिके सदृश, जैसे जलमें दण्ड, शलाका तथा अङ्गुली आदि हेतुओं से किसी एक हेतुके द्वारा यदि रेखा उत्पन्न हो तो वह उस (जल)के द्रवीभूत होनेसे उत्पत्तिके अनन्तर ही मिट जाती है । इसी रीतिसे पूर्वनिमित्तोंसे जिस अप्रमत्त विद्वान्को क्रोध उत्पन्न हुआ और वह विचार तथा क्षमा करनेसे उत्पत्तिके अनन्तर ही नाशको भी प्राप्त होजाता है तो वह क्रोध उदकराजि (जलरेखा ) के समान है। इस प्रकारके क्रोध होनेके अनन्तर जो मृत्युको प्राप्त हुए वे देवताओंमें उत्पन्न होते हैं। और जिनको इन पूर्वकथित चारों प्रकारके क्रोधोंमें कोई भी क्रोध नहीं उत्पन्न होता वे तो निर्वाण ( मोक्ष ) को प्राप्त होते हैं। मानः स्तम्भो गर्व उत्सेकोऽहंकारो दर्पो मदः स्मय इत्यनन्तरम् । तस्यास्य मानस्य तीब्रादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा। शैलस्तम्भसदृशः अस्थिस्तम्भसदृशः दारुस्तम्भसदृशः लतास्तम्भसदृश इति । एषामुपसंहारो निगमनं च क्रोधनिदर्शनैर्व्याख्यातम् ॥ . . मान, स्तम्भ, गर्व, उत्सेक, अहङ्कार, दर्प, मद, तथा स्मय, ये सब शब्द भी एकार्थवाचक हैं । इन अनेक पर्यायोंसे वाच्य मानके भी तीव्र, मध्यम, तथा मन्दभावोंके आश्रित चार दृष्टान्त होते हैं । जैसे—शैलस्तम्भसदृश (पाषाण वा पर्वतोंके खम्भेके समान ) अस्थिस्तम्भसदृश (हाड़के खम्भेके तुल्य ) दारुस्तम्भसदृश (काष्ठके खम्भेके तुल्य ) और लतास्तम्भसदृश (बेलोंके खंभेके तुल्य ) इन चार प्रकारके मानोंके उपसंहार (संग्रह तथा समाप्ति) और निगमन (दृष्टान्तद्वारा उनकी सिद्धी) क्रोधोंके ही दृष्टान्तोंसे व्याख्यात समझलेनी उचित है। माया प्रणिधिरुपधिनिकृतिरावरणं वञ्चना दम्भः कूटमतिसन्धानमनार्जवमित्यनर्थान्तरम् । तस्या मायायास्तीवादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा । वंशकुणसदृशी मेषविषाणसदृशी गोमूत्रिकासदृशी निर्लेखनसदृशीति । अत्राप्युपसंहारनिगमने क्रोधनिदशनैर्व्याख्याते ॥ ऐसे ही माया, प्रणिधि, उपधि, निकृति, आवरण, वञ्चना, दम्भ, कूट, अतिसन्धान, तथा अनार्जव; ये सब शब्द भी एक ही अर्थके बोधक हैं। इस प्रकार अनेक पर्यायोंसे वाच्य इस मायाके भी तीव्र आदि भावोंके आश्रित दृष्टान्त होते हैं । जैसे-वंशकुण For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् सदृशी माया, मेषविषाण (भेड़के सींग ) सदृशी, तथा निर्लेखनसदृशी । इसके भी उपसंहार तथा दृष्टान्त क्रोधके दृष्टान्तोंसे व्याख्यात ( वर्णित ) समझलेने चाहिये । लोभो रागो गार्घ्यमिच्छा मूर्छा स्नेहः कांक्षाभिष्वङ्ग इत्यनर्थान्तरम् । तस्यास्य लोभस्य तीव्रादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा लाक्षारागसदृशः कर्दमरागसदृशः कुसुम्भरागसदृशो हरिद्रारागसदृश इति । अत्राप्युपसंहारनिगमने क्रोधनिदर्शनैर्व्याख्याते ॥ लोभ, गार्ध्य, इच्छा, मूर्छा, स्नेह, कांक्षा तथा अभिषङ्ग इत्यादि सब एकार्थवाचक शब्द हैं । इस प्रकार राग आदि पर्यायोंसे वाच्य इस लोभके भी तीव्र मध्यम आदि भा - वोंके आश्रित दृष्टान्त हैं। जैसे - लाक्षारागसदृश ( लाख वा लाह के रंगके समान ) - कर्दम, (कीचड़ ) रागसदृश, कुसुम्भरागसदृश, तथा हरिद्रा ( हल्दी ) रागसदृश; ये चार प्रकारके रंग लोभके दृष्टान्त हैं । इनके भी संग्रह नाशादिकी रीति क्रोधके दृष्टान्तों व्याख्यात समझलेनी चाहिये । एषां क्रोधादीनां चतुर्णी कषायाणां प्रत्यनीकभूताः प्रतिघाततवो भवन्ति । तद्यथा । क्षमा क्रोधस्य मार्दवं मानस्यार्जवं मायायाः संतोषो लोभस्येति । इन क्रोध आदि चार प्रकारके कषायों के प्रतिपक्षभूत इनके नाशक हेतु ये होते हैं । जैसे - क्षमा क्रोध कषायके नाशमें हेतु है, मार्दव ( मृदुता वा नम्रता ) मानकषायके ना में हेतु है, आर्जव ( सरल स्वभाव वा कपटराहित्य व्यवहार ) मायाका प्रतिपक्ष तथा उसके नाशमें हेतु है । और सन्तोष ( यथाप्राप्त वस्तुमें तृप्ति ) लोभका प्रतिपक्ष और उसके नाशमें कारण है । इस कारण क्रोधादि कषायोंके नाशार्थ क्षमा आदिका धारण अवश्यं कर्तव्य है ॥ १० ॥ नारक तैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥ ११ ॥ सूत्रार्थ - नारक, तैर्यग्योन, मानुष और दैव यह चार आयुषके भेद हैं । भाष्यम् - आयुष्कं चतुर्भेदं नारकं तैर्यग्योनं मानुषं दैवमिति । विशेषव्याख्या – अब पञ्चम उत्तरप्रकृति जो आयुष्क ( आयुष् ) है उसके नारक, तैर्यग्योन, मानुष और दैव इन भेदोंसे चार भेद हैं ॥ ११ ॥ गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धन सङ्घातसंस्थानसंहननस्पर्शर सगन्धवर्णानुपूर्व्यगुरुलघूपघातपराघातातपोद्योतोच्छ्रासविहायोगतयः प्रत्येकशरीर ससुभगसुखरशुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च ॥ १२ ॥ भाष्यम् – गतिनाम जातिनाम शरीरनाम अङ्गोपाङ्गनाम निर्माणनाम बन्धननाम संघातनाम संस्थाननाम संहनननाम स्पर्शनाम रसनाम गन्धनाम वर्णनाम आनुपूर्वी - · नाम अगुरुलघुनाम उपघातनाम पराघातनाम आतपनाम उद्योतनाम उच्छ्वासनाम विहा For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ ____सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । योगतिनाम । प्रत्येकशरीरादीनां सेतराणां नामानि । तद्यथा । प्रत्येकशरीरनाम साधारणशरीरनाम त्रसनाम स्थावरनाम सुभगनाम दुर्भगनाम सुस्वरनाम दुःस्वरनाम शुभनाम अशुभनाम सूक्ष्मनाम बादरनाम पर्याप्तनाम अपर्याप्तनाम स्थिरनाम अस्थिरनाम आदेयनाम अनादेयनाम यशोनाम अयशोनाम तीर्थनाम तीर्थकरनाम इत्येतद्विचत्वारिंशद्विधं मूलभेदतो नामकर्म भवति । उत्तरनामानेकविधम् । तद्यथा । गतिनाम चतुर्विधं नरकगतिनाम तिर्यग्योनिगतिनाम मनुष्यगतिनाम ॥ जातिनाम्नो मूलभेदाः पञ्च । तद्यथा। एकेन्द्रियजातिनाम द्वीन्द्रियजातिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम पञ्चेन्द्रियजातिनामेति ॥ एकेन्द्रियजातिनामानेकविधम् । तद्यथा । पृथिवीकायिकजातिनाम अप्कायिकजातिनाम तेजःकायिकजातिनाम वायुकायिकजातिनाम वनस्पतिकायिकजातिनामेति ॥ तत्र पृथिवीकायिकजातिनामानेकविधम् । तद्यथा । शुद्धपृथिवी-शर्करावालुकोपल-शिलालवणायत्रपु-ताम्र-सीसक-रूप्य-सुवर्ण-वज्र-हरिताल-हिङ्गुलक-मनःशिला-सस्यकाञ्चनप्रवालकाभ्रपटलाभ्रवालिका जातिनामादि गोमेदक-रुचकाङ्क-स्फटिकलोहिताक्ष-जलावभास-वैडूर्य-चन्द्रप्रभ-चन्द्रकान्त-सूर्यकान्त-जलकान्त-मसारगल्लाश्मगर्भ-सौगन्धिक-पुलकारिष्ट-काञ्चनमणिजातिनामादि च ॥ अप्कायिकजातिनामानेकविधम् । तद्यथा । उपक्लेदावश्याय-नीहार-हिम-घनोदक-शुद्धोदकजातिनामादि ॥ तेजःकायिकजातिनामानेकविधम् । तद्यथा । अङ्गार-ज्वाला-लाताचिमुर्मुर-शुद्धाग्निजाटिनामादि ॥ वायुकायिकजातिनामानेकविधम् । तद्यथा। उत्कलिका-मण्डलिका–झञ्झकायन-संवर्तकजातिनामादि । वनस्पतिकायिकजातिनामानेकविधम् । तद्यथा । कन्द-मूल-स्कन्ध-त्वक्-काष्ठपत्र-प्रवाल-पुष्प-फलगुल्म-गुच्छ-लता-वल्ली-तृण-पर्वकायशेवाल-पनक-वलक-कुहन जातिनामादि ॥ एवं द्वीन्द्रियजातिनामानेकविधम् । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियजातिनामादीन्यपि ॥ सूत्रार्थ-अब इसके आगे नाम प्रकरणके ४२ भेदोंका वर्णन करते हैं । जैसेगतिनाम, जातिनाम, शरीरनाम, अङ्गोपाङ्गनाम, निर्माणनाम, बन्धननाम, संघातनाम, संस्थाननाम, संहनननाम, स्पर्शनाम, रसनाम, गन्धनाम, वर्णनाम, आनुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम, आतपनाम, उद्योतनाम, उच्छासनाम, विहायोगतिनाम (आकाशगतिनाम) और प्रत्येक शरीरादिके तथा उनके प्रतिपक्षोंके नाम; जैसे–प्रत्येक शरीरनाम, साधारणशरीरनाम, त्रसनाम, स्थावरनाम, सुभगनाम; दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सूक्ष्मनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, आदेयनाम, और अनादेयनाम, यशोनाम, अयशोनाम, तथा तीर्थकरनाम, इस प्रकार मूलभेदसे बयालीस (४२) भेद नाम कर्मके हैं । और उत्तरनाम तो अनेक प्रकारके हैं । जैसे-गतिनामके चार भेद हैं नरकगतिनाम, तिर्यग्योनिगतिनाम, मनुष्यगतिनाम, तथा देवगतिनाम, जातिनाम कर्मके मूल भेद पांच हैं । जैसेएकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातिनाम, त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिंद्रियजातिनाम, तथा पञ्चेन्द्रियजातिनाम । अब एकेन्द्रिय (एक स्पर्शन इन्द्रियवाले) जातिनाम भी अनेक For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् १८२ 1 - उप प्रकारके हैं । जैसे-पृथिवीकायिकजातिनाम, अपूकायिकजातिनाम, तेजः कायिकजातिनाम, 1 वायुकायिकजातिनाम, वनस्पतिकायिकजातिनाम, और उनमें भी पृथिवीकायिकजातिनाम भी अनेक भेद हैं । जैसे- शुद्धपृथिवीजातिनाम, शर्करापृथिवीजातिनाम, वालुकापृथिवीजातिनाम, उपलपृथिवीजातिनाम, शिलापृथिवीजातिनाम, लवणपृथिवीजातिनाम, अयस् (लोह) पृथिवीजातिनाम, त्रपु ( रांगा ) पृथिवीजातिनाम, ताम्रपृथिवीजातिनाम, सीसकपृथिवीजातिनाम, रूप्यपृथिवीजातिनाम, सुवर्णपृथिवीजातिनाम, वज्रपृथिवीजातिनाम, हरितालपृथिवीजातिनाम, हिङ्गुलक ( हींगके वर्णका रंगविशेष) जातिनाम, मनःशिला ( उपधातुभेद ) जातिनाम, ऐसे ही सस्य अनेकविध धान्य, काञ्चन, प्रवाल, अभ्रपटल, अभ्रवालिका पृथिवीजातिनाम आदि और भी समझलेने । तथा गोमेदक, रुचकाङ्ग, स्फटिक, लोहिताक्ष, जलावभास ( मौक्तिक ), वैडूर्य, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, जलकान्त, मसारगल, अश्मगर्भ, सौगन्धिक, पुलकारिष्ट, तथा काञ्चन, इत्यादि मणिपृथिवीजातिनाम समझना चाहिये । अपकायिकजातिनाम भी अनेक प्रकारका है । जैसे- उ क्लेद अप्कायिकजातिनाम, अवश्याय ( कुहिरा वा ओस) अप्कायिकजातिनाम, नीहारजातिनाम, हिमजातिनाम, घनोदकजातिनाम, तथा शुद्धोदकजातिनाम, आदि अन्य भी अप्कायिकजातिनामके अवान्तर भेद समझलेने । तेजः कायिकजातिनाम भी अनेक प्रकारका है । जैसे-अङ्गारतेजः कायिकजातिनाम, ज्वालातेजः कायिकजातिनाम, अघाततेजः कायिकजातिनाम, अर्चिस्तेजः कायिकजातिनाम, भ्रमरतेजः कायिकजातिनाम, तथा शुद्धानि - तेजःकायिकजातिनाम आदि अन्य भी जानने चाहिये । वायुकायिकजातिनामके भी अवान्तर भेद अनेक हैं । जैसे- उत्कलिकावायुकायिकजातिनाम, मण्डलिकावायुकायिकजातिनाम, झञ्झकायनवायुकायिकजातिनाम, तथा संवर्तकवायुकायिकजातिनाम आदि अन्य भी हैं । और ऐसे ही वनस्पतिकायिकजातिनाम कर्मके अवान्तर अनेक भेद हैं । जैसेकन्दवनस्पतिकायिकजातिनाम, मूलवनस्पतिकायिकजातिनाम, स्कन्धवनस्पतिकायिकजातिनाम, त्वग्वनस्पतिकायिकजातिनाम ऐसे ही काष्ठ, पत्र, प्रवाल, पुष्प, फल, गुल्म, गुच्छ, लता, वल्ली, तृण, पर्व, कायशेवाल, पनक, वलक, तथा कुहनवनस्पतिकायिकजातिनाम आदि अन्य भी समझलेने | इसी रीतिसे द्वीन्द्रियजातिनाम भी अनेक भेदसहित हैं । और इसी रीतिसे त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तथा पञ्चेन्द्रियजातिनाम भी अनेक अवान्तर—भेद=सहित हैं । I 1 शरीरनाम पञ्चविधम् । तद्यथा । औदारिकशरीरनाम वैक्रियशरीरनाम आहारकशरीर १ यहांसे लेके पुलकारिष्ट कांचनपर्यन्त सबके आगे पृथिवीकायिकजातिनाम इतना जोड़के पढ़ना तथा समझना चाहिये, जैसे सस्य पृथिवीकायिकजातिनाम, कांचन पृथिवीकायिकजातिनाम, प्रवाल पृथिवीकायिकजातिनाम इत्यादि आगे भी ऐसे ही समझना । For Personal & Private Use Only. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १८३ नाम तैजसशरीर नाम कार्मणशरीरनामेति ॥ अङ्गोपाङ्गनाम त्रिविधम् । तद्यथा । औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम वैक्रियशरीराङ्गोपाङ्गनाम आहारकशरीराङ्गोपाङ्गनाम । पुनरेकैकमनेकविधम् । तद्यथा । अङ्गनाम तावत् शिरोनाम उरोनाम पृष्ठनाम बाहुनाम उदरनाम पदनाम || उपाङ्गनामानेकविधम् । तद्यथा । स्पर्शनाम रसनाम प्राणनाम चक्षुर्नाम श्रोत्रनाम । तथा मस्तिष्ककपालकृकाटिकाशङ्खललाटतालुकपोलहनुचिबुकदशनौष्ठधूनयनकर्णनासाद्युपाङ्गनामानि शिरसः । एवं सर्वेषामङ्गानामुपाङ्गानां नामानि ॥ जातिलिङ्गाकृतिव्यवस्थानियामकं निर्माणानाम | सत्यां प्राप्तौ निर्मितानामपि शरीराणां बन्धकं बन्धननाम । अन्यथा हि वालुकापुरुषवदबद्धानि शरीराणि स्युरिति ॥ बद्धानामपि च संघातविशेषजनकं प्रचयविशेषात्संघातनाम दारुमृत्पिण्डायः संघातवत् ॥ संस्थाननाम षड्विधम् । तद्यथा । समचतुरस्रनाम न्यग्रोधपरिमण्डलनाम साचिनाम कुब्जनाम वामननाम हुण्डनामेति ॥ संहनननाम षड्डिधम् । तद्यथा । वज्रर्षभनाराचनाम अर्धवर्षभनाराचनाम नाराचनाम अर्धनाराचनाम कीलिकानाम मृपाटिकानामेति ॥ स्पर्शनामाष्टविधं कठिननामादि ॥ रसनामानेकविधं तिक्तनामादि ॥ गन्धनामानेकविधं सुरभिगन्धनामादि ॥ वर्णनामानेकविधं कालकनामादि ॥ गतावुत्पत्तुकामस्यान्तर्गतौ वर्तमानस्य तदभिमुखमानुपूर्व्या तत्प्रापणसमर्थमानुपूर्वीनामेति । निर्माणनिर्मितानां शरीराङ्गोपाङ्गानां विनिवेशक्रमनियामकमानुपूर्वीनामेत्यपरे ॥ अगुरुलघुपरिणामनियामकमगुरुलघुनाम ॥ शरीराङ्गोपाङ्गोपघातकमुपघातनाम स्वपराक्रमविजयापघात जनकं वा ॥ परत्रासप्रतिघातादिजनकं पराघातनाम ॥ आतपसामर्थ्यजनकमातपनाम ।। प्रकाशसामर्थ्यजनकमुद्योतनाम || प्राणापानपुद्गलग्रहणसामर्थ्यजनक मुच्छ्रासनाम ॥ लब्धिशिक्षर्द्धिप्रत्ययस्याकाशगमनस्य जनकं विहायोगतिनाम || 1 शरीरनाम कर्म पांच प्रकारका है । जैसे - औदारिकशरीरनाम, वैक्रियकशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम, तथा कार्मणशरीरनाम । अङ्गोपाङ्गनाम तीन प्रकारका है । जैसे-औदारिकअङ्गोपाङ्गनाम, वैक्रियशरीरअङ्गोपाङ्गनाम, और आहारकशरीरअङ्गोपाङ्गनाम, पुनः ये औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम आदि एक २ अनेक प्रकारका है । जैसेप्रथम अङ्गनाम कहते हैं - शिरोनाम, उरो (छाती) नाम, पृष्ठ (पीठ ) नाम, बाहुनाम, उदरनाम तथा पादनाम, उपाङ्गनाम भी अनेक प्रकारका है । जैसे- स्पर्शनाम, रसनाम, घाणनाम, चक्षुर्नाम, तथा श्रोत्रनाम । और मस्तिष्क, कपाल, कृकाटिका, शङ्ख, ललाट, तालु, कपोल, हनु, चिबुक ( ठोड़ी), दशन ( दांत ), ओष्ठ, भ्रू ( भौंह ), नयन, कर्ण, नासा, आदि शिरके उपाङ्गनाम हैं । जैसे - मस्तिष्कनाम, कपालनाम, तथा ललाटनाम इत्यादि रूपसे समझना । इसी रीतिसे सम्पूर्ण अङ्ग तथा उपाङ्गोंके नाम जानने चाहिये ॥ जाति, लिङ्ग तथा आकृतिकी व्यवस्थानियामक निर्माणनाम । हैं उन २ शरीर, अङ्ग, उपाङ्गनाम कर्मकी प्राप्ति होनेपर निर्मित ( रचित ) शरीरोंका जो बन्धक ( बांधनेवाला ) है उसको बन्धननाम कहते हैं । और यदि बन्धननाम कर्म न हो तो बालूके पुरुषके समान सब शरीर अबद्ध अर्थात् बन्धनरहित हो जायँगे । तथा बद्धशरीरोंका भी प्रच For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् यविशेषसे जो संघात ( समूह ) विशेषको उत्पन्न करनेवाला है उसको संघातनाम कर्म कहते हैं । जैसे कि-काष्ठमृत्पिण्ड, तथा लोहका संघात होता है, ऐसे ही शरीरोंका भी होता है । संस्थाननामके षट् (छ) भेद हैं। जैसे-समचतुरस्रनाम, न्यग्रोध (वटवृक्ष) परिमण्डलनाम, साचिनाम (तिर्यक्संस्थाननाम ), कुजनाम, वामननाम, तथा हुण्डनाम, संहनननामके भी छ (६) भेद हैं । जैसे-वज्रर्षभनाराचनाम, अर्धवज्रर्षभनाराचनाम, नाराचनाम, अर्धनाराचनाम, कीलिकानाम, मृपाटिकानाम । स्पर्शनामके आठ भेद हैं । जैसे कठिननाम, मृदुनाम, उष्णनाम, शीतनाम, इत्यादि । रसनामके भी अनेक भेद हैं । जैसे-तिक्तनाम, मधुरनाम, कटुनाम, आम्रनाम, तथा कषायनाम आदि और भी हैं । गन्धनामके भी अनेक भेद हैं। जैसे सुरभिगन्धनाम तथा दुरभिमानगन्धनाम, इत्यादि । वर्णनाम अनेक भेदसहित हैं । जैसे-कालनाम, पीतनाम, तथा अरुणनाम आदि । गतिमें उत्पन्न होनेकी कामनायुक्त और अन्तर्गतिमें जो वर्तमान है उसके ( उस गतिके ) अभिमुख आनुपूर्वीसे जो उस जीवको प्राप्त करनेमें समर्थ है उसको आनुपूर्वी नाम कहते हैं। और निर्माण नामसे निर्मित (रचित ) जो शरीरत्व था अङ्गोपाङ्ग है, उनके विनिवेशक्रम अर्थात् यथायोग्य स्थानमें संस्थापक क्रमको ही कोई २ नियामकको आनुपूर्वी नाम कहते हैं । अगुरुलघुपरिणामके नियामकको अगुरुलघुनाम कहते हैं। शरीर, अङ्ग तथा उपाङ्गोंके उपघातकको उपघातकनाम कहते हैं । अपने पराक्रम तथा विजय आदिके उपघातका जो जनक ( उत्पन्न करनेवाला) अथवा परके त्रासके प्रतिघातका जो जनक है उसको पराघातनाम कहते हैं । आतपसामर्थ्य (शक्ति) का जो जनक ( उत्पादक ) है वह आतपनाम है, प्रकाशके सामर्थ्यका जो जनक है वह उद्योतनाम है । प्राण अपान पुद्गल ग्रहण करनेकी शक्तिका जो उत्पादक है वह उच्छ्वासनाम है । तथा लब्धि, शिक्षा, और ऋद्धि है कारण जिसका ऐसी जो आकाशगति है उस आकाशगतिका जो जनक है वह विहायोगतिनाम है। पृथकशरीरनिर्वर्तकं प्रत्येकशरीरनाम । अनेकजीवसाधारणशरीरनिर्वतकं साधारणशरीरनाम । त्रसभावनिर्वर्तकं त्रसनाम । स्थावरभावनिर्वर्तकं स्थावरनाम । सौभाग्यनिर्वर्तक सुभगनाम । दौर्भाग्यनिर्वर्तकं दुर्भगनाम । सौस्वर्यनिर्वर्तकं सुस्वरनाम । दौस्वर्यनिर्वर्तकं दुःस्वरनाम । शुभभावशोभामाङ्गल्यनिर्वर्तकं शुभनाम । तद्विपरीतनिवर्तकमशुभनाम । सूक्ष्मशरीरनिर्वर्तकं सूक्ष्मनाम । बादरशरीरनिर्वर्तकं बादरनाम ॥ पर्याप्तिः पञ्चविधा । तद्यथा । आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिरिति । पर्याप्तिः क्रियापरिसमाप्तिरात्मनः । शरीरेन्द्रियवाङ्मनःप्राणापानयोग्यदलिकद्रव्याहरणक्रियापरिसमाप्तिराहारपर्याप्तिः । गृहीतस्य शरीरतया संस्थापनक्रियापरिसमाप्तिः शरीरपर्याप्तिः । १ आकारविशेषको संस्थान कहते हैं। २ शरीर तथा अवयवोंकी सन्धिविशेषको संहनन कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १८५ संस्थापनं रचना घटनमित्यर्थः । त्वगादीन्द्रियनिर्वर्तनक्रियापरिसमाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । प्राणापानक्रियायोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनिवर्तनक्रियापरिसमाप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः । भाषायोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनिवर्तनक्रियापरिसमाप्ति षापर्याप्तिः । मनस्त्वयोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनिर्वर्तनक्रियासमाप्तिर्मनःपर्याप्तिरित्येके । आसां युगपदारब्धानामपि क्रमेण समाप्तिरुत्तरोत्तरसूक्ष्मत्वात् सूत्रदादिकर्तनघटनवत् । यथासङ्खयं च निदर्शनानि गृहदलिकग्रहणस्तम्भस्थूणाद्वारप्रवेशनिर्गमस्थानशयनादिक्रियानिर्वर्तनानीति । पर्याप्तिनिर्वर्तकं पर्याप्तिनाम अपर्याप्तिनिवर्तकमपर्याप्तिनाम अपर्याप्तिनाम तत्परिणामयोग्यदलिकद्रव्यमात्मनानोपात्तमित्यर्थः ॥ स्थिरत्वनिवर्तकं स्थिरनाम । विपरीतमस्थिरनाम । आदेयभावनिर्वतकमादेयनाम । विपरीतमनादेयनाम । यशोनिर्वर्तकं यशोनाम । विपरीतमयशोनाम । तीर्थकरत्वनिर्वर्तकं तीर्थकरनाम । तांस्तान्भावान्नामयतीति नाम । एवं सोत्तरभेदो नामकर्मभेदोऽनेकविधः प्रत्येतव्यः॥ पृथक् २ शरीरोंको जो उत्पन्न करनेवाला सामर्थ्यविशेष है, वह प्रत्येक शरीरनाम है । अनेक जीव साधारण शरीरका जो साधक है वह साधारणशरीरनाम है । त्रस ( भय उद्वेगआदिसहित जीव ) भावका जो साधक है वह त्रसनाम है । स्थावर भावका जो साधक वा उत्पादक है उसको स्थावरनाम कहते हैं । सौभाग्यका जो जनक है उसको सुभगनाम कहते हैं । दुर्भाग्यका जो सिद्ध करनेवाला है वह दुर्भगनाम है। उत्तम स्वरका जो निर्वर्तक ( साधक ) है वह सुस्वरनाम है । दुष्ट ( खराब ) स्वर (आवाज) का जो साधक है वह दुःस्वरनाम है । शुभ भाव, शोभा तथा माङ्गल्यका जो साधक है वह शुभनाम है । और उससे विपरीत अर्थात् अशुभ भाव, अशोभा तथा अमङ्गलका जो साधक है वह अशुभनाम है । सूक्ष्म शरीरका निर्वर्तक (जनक) सूक्ष्मनाम है । उससे विरुद्ध बादर (स्थूल ) शरीरका जनक है वह बादरनाम है। पर्याप्ति पांच प्रकारकी है। जैसे-आहारपर्याप्ति (पूर्णता), शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति. प्राणापानपर्याप्ति, तथा भाषापर्याप्ति । यहां पर्याप्ति शब्दका अर्थ आत्माकी क्रियाकी परिसमाप्ति अर्थात् पूर्णता है । इनमें शरीर, इन्द्रिय, वाग्, मन, तथा प्राण अपानके योग्य दलके जो द्रव्य हैं, अर्थात् जिन द्रव्योंसे शरीरआदि रचनाकी योग्यता होती है उन द्रव्योंके आहरण (आनयन ) क्रियाकी जो समाप्ति है वह आहारपर्याप्ति है । और ग्रहण किये हुए द्रव्यकी शरीररूपसे संस्थापनक्रिया होती है उस क्रियाकी परिसमाप्ति, शरीरपर्याप्ति संस्थापनका अर्थ है । रचना अथवा घटना, अर्थात् शरीररूपसे रचना । त्वग ( स्पर्शन ) आदि इन्द्रियों के निर्माण (रचना) रूप क्रियाकी परिसमाप्ति जो है वह इन्द्रियपर्याप्ति है। प्राण अपान (श्वास उच्छास) क्रियाके योग्य द्रव्योंका ग्रहण तथा त्याग जो है उस ग्रहण तथा त्याग शक्तिको सिद्ध करनेवाली जो क्रिया है उसकी परिसमाप्ति जो है वह प्राणापानपर्याप्ति है । भाषाके योग्य जो द्रव्य है उस द्रव्यके ग्रहण Jain Education Internaval For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् 1 I तथा त्यागशक्तिको सिद्ध करनेवाली जो क्रिया है उस क्रियाकी जो समाप्ति है वह भाषा - पर्याप्त है । मनस्त्व ( मन ) के योग्य ( मनोनिर्वाणके योग्य ) जो द्रव्य है उस द्रव्यके ग्रहण तथा त्यागशक्तिको सिद्ध करनेवाली जो क्रियाकी समाप्ति है वह मनःपर्याप्त है. ऐसा किन्ही आचार्यों का कथन है । यद्यपि ये सब पर्याप्तिक्रिया एकही कालमें आरम्भ की जाती हैं तथापि समाप्ति क्रमसे होती है । क्यों कि उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं । जैसे सूत्र काठ आदि काटने की क्रिया एक कालमें भी प्रारब्ध होकर क्रमशः समष्टि होती है । इनके यथासंख्य ये दृष्टान्त हैं । जैसे- गृहदलके ग्रहण में प्रथम स्तम्भ आदि आनयनक्रिया निर्वर्तन अनन्तर स्थूणा ( कड़ियों का रखना ) पुनः द्वारप्रवेश, तथा निर्गमस्थान क्रियानिर्वर्तन, और पुनः शयनादिक्रियानिर्वर्तन, ये सब क्रमसे होते हैं, ऐसे ही शरीरादि पर्याप्तिभी हैं । पर्याप्तिका साधक जो है उसको पर्याप्तिनाम कहते हैं । अपर्याप्तिका जो साधक है वह अपर्याप्तिनाम है । अपर्याप्तिनामका यह अर्थ है कि उस परिणामके योग्य दलिक (उपयोगी दलके) द्रव्यको आत्माने नहीं ग्रहण किया । स्थिरत्वका जो उत्पादक है वह स्थिरनाम है | इसके विपरीत अस्थिरनाम है । आदेय ( ग्रहणयोग्य) भावका जो साधक है वह आदेयनाम है । उसके विरुद्ध अनादेयनाम है । यथा यश (कीर्ति) का जो उत्पादक है वह यशोनाम है। उसके विपरीत अर्थात् अपयशका जो उत्पादक है वह अयशोनाम है । और जो तीर्थकरत्वको सिद्ध करनेवाला कर्म है वह तीर्थकरनाम है । उन २ भावोंको जो नाम करावे अर्थात् उन २ भावोंके प्राप्त करानेमें हेतुरूप जो है वह नाम है. इस प्रकार उत्तरभेदसहित नामकर्मभेद अनेक प्रकारका जानना चाहिये ॥ १२ ॥ उच्चैर्नीचैश्च ॥ १३ ॥ भाष्यम्—उच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रं च । तत्रोच्चैर्गोत्रं देशजातिकुलस्थान मानसत्कारैश्वर्याद्युत्कर्षनिर्वर्तकम्। विपरीतं नीचैर्गोत्रं चण्डालमुष्टिकव्याधमत्स्यबन्धदास्यादिनिर्वर्तकम् ॥ सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या - सप्तम प्रकृतिबन्ध गोत्रकर्म है । उस गोत्रके दो भेद हैं एक उच्चैर्गोत्र, और द्वितीय नीचैर्गोत्र । उनमें उच्चैर्गोत्र जो है वह देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार तथा ऐश्वर्यआदिकी प्रकर्षता ( उच्चता ) का साधक है । और उससे विपरीत जो है वह नीचैर्गोत्र चाण्डाल, नट, व्याध, मत्स्यबन्ध तथा दास्यआदि नीच भावोंको उत्पन्न करता है ॥ १३ ॥ दानादीनाम् ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ - दानादिमें जो विघ्नका साधक है वह अन्तराय कर्म है ॥ १४ ॥ भाष्यम् – अन्तरायः पञ्चविधः । तद्यथा । दानस्यान्तरायः लाभस्यान्तरायः भोगस्यान्तरायः उपभोगस्यान्तरायः वीर्यान्तराय इति ॥ विशेषव्याख्या - अन्तराय पांच ( ५ ) प्रकारका है । जैसे -दानका अन्तराय, For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। १८७ अर्थात् जो दान देनेमें प्रतिबन्धक है, लाभान्तराय-अर्थात् जो लाभ होनेमें प्रतिबन्धक है वह लाभका अन्तराय है, भोगका जो प्रतिबन्धक है वह भोगका अन्तराय है; उपभोगका प्रतिबन्धक उपभोगान्तराय है; और जो वीर्यका अन्तराय है अर्थात् प्रतिबन्धक है वह वीर्यान्तराय है ॥ १४ ॥ उक्तः प्रकृतिबन्धः । स्थितिबन्धं वक्ष्यामः । प्रकृतिबन्ध कह चुके, अब इसके आगे स्थितिबन्ध कहेंगे आदितस्तिमृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥१५॥ भाष्यम्-आदितस्तिसृणां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणदर्शनावरणवेद्यानामन्तरायप्रकृतेश्व त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ।। सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या—आदिसे अर्थात् “आयो ज्ञानदर्शन" (अ. ८ सू. ५) इस सूत्रके आरम्भकमसे जो तीन कर्मप्रकृति ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा वेदनीय हैं, उनकी तथा अष्टम अन्तरायरूप कर्म प्रकृतिकी त्रिंशत् (तीस ३०) सागरोपम कोटिकोटि परा स्थिति है । अर्थात् अधिकसे अधिक ये चार कर्मप्रकृतियां जीवके साथ ३० सागरोपम कोटिकोटि रहसकती हैं ॥ १५ ॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ १६॥ भाष्यम्-मोहनीयकर्मप्रकृतेः सप्ततिः सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः॥ सूत्रार्थ-मोहनीय जो कर्मप्रकृति है उसकी परा स्थिति सत्तर (७०) सागरोपम कोटिकोटि है ॥ १६ ॥ नामगोत्रयोविंशतिः ॥ १७॥ भाष्यम्-नामगोत्रप्रकृत्योविंशतिः सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥ . सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-नाम तथा गोत्रप्रकृतिकी परा स्थिति बीस (२०) सागरोपम कोटिकोटि है ॥ १७ ॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥१८॥ भाष्यम्-आयुष्कप्रकृतेस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परा स्थितिः ॥ सूत्रार्थ--विशेषव्याख्या-आयुष्कप्रकृतिकी परा स्थिति तेतीस (३३) सागरोपम है ॥ १८ ॥ अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ १९॥ भाष्यम्-वेदनीयप्रकृतेरपरा द्वादश मुहूर्ताः स्थितिरिति ॥ सूत्रार्थ—विशेषव्याख्या-वेदनीयप्रकृतिकी अपरा स्थिति अर्थात् न्यूनसे न्यून स्थिति द्वादश (बारह १२) मुहूर्त कालपर्यन्त है ॥ १९॥ For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नामगोत्रयोरष्टौ ॥२०॥ भाष्यम्-नामगोत्रप्रकृत्योरष्टौ मुहूर्ता अपरा स्थितिर्भवति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-नाम तथा गोत्र, इन दोनों प्रकृतियोंकी अपरा ( हीना) स्थिति आठ (८) मुहूर्त है ॥ २० ॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् ॥ २१॥ भाष्यम्-वेदनीयनामगोत्रप्रकृतिभ्यः शेषाणां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयायुष्कान्तरायप्रकृतीनामपरा स्थितिरन्तर्मुहूतै भवति । सूत्रार्थ--विशेषव्याख्या-पूर्वकथित प्रकृतियोंसे अर्थात् वेदनीय, नाम, तथा गोत्र, इन तीन प्रकृतियोंसे शेष जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयुष्क, तथा अन्तराय; इन पांच (५) प्रकृतियोंकी अपरा स्थिति अन्तर्मुहूर्त है । अर्थात् ये पांच प्रकृतियां न्यूनसे न्यून काल अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त जीवके साथ रहती हैं ॥ २१ ॥ उक्तः स्थितिबन्धः । अनुभावबन्धं वक्ष्यामः । स्थितिबन्ध जो द्वितीय भेद है उसको कहचुके, अब अनुभावबन्ध कहेंगे। विपाकोऽनुभावः॥ २२॥ सूत्रार्थ-कर्मोंके विपाकको अनुभावबन्ध कहते हैं ॥ २२ ॥ भाष्यम्-सर्वासां प्रकृतीनां फलं विपाकोदयोऽनुभावो भवति । विविधः पाको विपाकः स तथा चान्यथा चेत्यर्थः । जीवः कर्मविपाकमनुभवन् कर्मप्रत्ययमेवानाभोगवीर्यपूर्वकं कर्मसंक्रमं करोति उत्तरप्रकृतिषु सर्वासु मूलप्रकृत्यभिन्नासु न तु मूलप्रकृतिषु संक्रमो विद्यते बन्धविपाकनिमित्तान्यजातीयकत्वात् । उत्तरप्रकृतिषु च दर्शनचारित्रमोहनीययोः सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्यायुष्कस्य च जात्यन्तरानुबन्धविपाकनिमित्तान्यजातीयकत्वादेव संक्रमो न विद्यते । अपवर्तनं तु सर्वासां प्रकृतीनां विद्यते । तदायुष्केण व्याख्यातम् ।। विशेषव्याख्या—सम्पूर्ण जो कर्मप्रकृति हैं उनका जो फल है, अर्थात् कर्मोंके विपाकका जो उदय है उसको अनुभवबन्ध कहते हैं । विविध अर्थात् अनेक प्रकारसे जो पाक है वह विपाक कहा जाता है । वह विपाक उस प्रकारसेभी होता है, और अन्यथाभी होता है। अर्थात् कर्मोंके फलभोगपूर्वक होता है और प्रकारान्तरसे भी होता है । जीव जो है वह कर्मोंके विपाकको अनुभव करता हुआ कर्मनिमित्त ही अनाभोगवीर्यपूर्वक कर्मका संक्रम मूल प्रकृतियोंसे अभिन्न उत्तर प्रकृतियोंमें (प्रापण ) करता है न कि-मूलप्रकृतियोंमें संक्रम है; क्योंकि बन्धविपाकके निमित्तसे वे अन्य जातीयक हैं। और उत्तर प्रकृतियोंमें भी दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय और आयुष्कप्रकृतियोंके जात्यन्तर अनुबन्ध (अन्यजातिमें भी सम्बन्ध रखनेवाले ) विपाकके कहीं २ अनुभावके स्थानमें "अनुभागबन्ध" ऐसा भी पाठ है। For Personal & Private Use Only : Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । निमित्तसे अन्यजातीयकत्व होनेसे ( अपनेसे भिन्न जातिमें सम्बन्ध रखनेसे ) इनमें संक्रम नहीं है। और अपवर्तन तो सब प्रकृतियोंका होता है। और अपवर्तन हम आयुष्क कर्मके वर्णनमें वर्णन (निरूपण )करचुके हैं (अ. २, सू. ५२ ) ॥ २२ ॥ स यथानाम ॥ २३ ॥ भाष्यम्-सोऽनुभावो गतिनामादीनां यथानाम विपच्यते ॥ सूत्रार्थ-वह अनुभाव गति नाम आदिके यथानाम विपाकको प्राप्त होता है। अर्थात् गतिविपाक, जातिविपाक, नामविपाक इत्यादिरूपसे विपाकको प्राप्त होता है ॥ २३ ॥ ततश्च निर्जरा ॥२४॥ सूत्रार्थ-विपाकसे निर्जरा होती है ॥ २४ ॥ भाष्यम्-ततश्चानुभावात्कर्मनिर्जरा भवतीति निर्जरा क्षयो वेदनेत्येकार्थ । अत्र चशब्दो हेत्वन्तरमपेक्षते तपसा निर्जरा चेति वक्ष्यते ।। विशेषव्याख्या-कर्मप्रकृतियोंके अनुभाव अर्थात् विपाक होनेपर कर्मकी निर्जरा होजाती है । अर्थात् विपाकके पश्चात् कर्मोंका नाश होजाता है । निर्जरा, क्षय, वेदना, ये समानार्थक शब्द हैं । इस सूत्रमें जो च शब्द है वह दूसरे हेतुकी अपेक्षा रखता है । अर्थात् “ततः-विपाकात् अन्यथा च निर्जरा भवति" विपाकसे और अन्य हेतुसे भी निर्जरा होती है । तपसे भी निर्जरा होती है, यह विषय आगे कहेंगे (अ. ९ सू. ३) ॥ २४॥ उक्तोऽनुभावबन्धः । प्रदेशबन्धं वक्ष्यामः । अनुभावबन्धको कहचुके, अब प्रदेशबन्धको कहते हैं। नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥२५॥ सूत्रार्थ-नामहेतुक, सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाही,अनन्तानन्तप्रदेशयुक्त, स्थित, कर्मग्रहणयोग्य पुद्गल, सम्पूर्ण आत्मप्रदेशमें सब ओरसे योगविशेषकरके बन्धको प्राप्त होते हैं ॥ २५ ॥ __भाष्यम्-नामप्रत्ययाः पुद्गला बध्यन्ते । नाम प्रत्यय एषां ते इमे नामप्रत्ययाः । नामनिमित्ता नामहेतुका नामकारणा इत्यर्थः । सर्वतस्तिर्यगूर्ध्वमधश्च वध्यन्ते । योगविशेषात् काय. वाङानःकर्मयोगविशेषाच्च बध्यन्ते । सूक्ष्मा बध्यन्ते न बादराः । एकक्षेत्रावगाढा बध्यन्ते न क्षेत्रान्तरावगाढाः । स्थिताश्च बध्यन्ते न गतिसमापन्नाः । सर्वात्मप्रदेशेषु सर्वप्रकृतिपुद्गलाः सर्वात्मप्रदेशेषु बध्यन्ते । एकैको ह्यात्मप्रदेशोऽनन्तैः कर्मप्रदेशैर्बद्धः । अनन्तानन्तप्रदेशाः कर्मग्रहणयोग्याः पुद्गला बध्यन्ते न सङ्खथेयासङ्खयेयानन्तप्रदेशाः। कुतोऽग्रहणयोग्यत्वात्प्रदेशानामिति एष प्रदेशबन्धो भवति ॥ १ अपवर्तनका अर्थ है दूरीकरण, जैसे आयुष्कके दो भेद बताये हैं एक अपवर्तनीय, दूसरा अनपवर्तनीय, जैसे नारक देवादिक आयुष्कका अपवर्तन नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या—नामके कारण, अर्थात् नामरूप हेतुसे पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं। नाम है प्रत्यय कारण जिनमें उनको नामप्रत्यय कहते हैं। नामनिमित्तक, नामहेतुक, वा नामकारणवाले, यह नामप्रत्यय इसका अर्थ है । सर्वतः अर्थात् तिर्यक् इधर उधर चारोंओरसे, ऊर्ध्वभागसे तथा अधोभागसे सब ओरसे पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं । किससे बन्धको प्राप्त होते हैं, योगविशेषसे, काय, वाक् और मनोरूप कर्मयोगविशेषसे पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं । तथा सूक्ष्म पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं न कि-बादर (स्थूल) तथा एकक्षेत्राऽवगाही पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं, न-कि अन्य २ क्षेत्रों में स्थित तथा स्थित (स्थितिशील) पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं न कि गतिमें प्राप्त । तथा सम्पूर्ण प्रकृतिपुद्गल सम्पूर्ण आत्माके प्रदेशोंमें बन्धको प्राप्त होते हैं । क्योंकि-एक २ आत्माका प्रदेश अनन्त कर्मप्रदेशोंसे बद्ध है। तथा अनन्तानन्तप्रदेश (कर्मग्रहणयोग्य) पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं, न कि संख्येयप्रदेश, असंख्येयप्रदेश तथा अनन्तप्रदेशवाले क्योंकि-उन प्रदेशोंके ग्रहणकी योग्यता नहीं है । इस प्रकार नामप्रत्ययसे सर्व प्रदेशोंमें यथोक्त पुद्गलोंकी बन्धप्राप्ति प्रदेशबन्ध है ॥ २५॥ सर्व चैतदष्टविधं कर्म पुण्यं पापं च । सब यह पूर्वकथित आठ प्रकारका कर्म पुण्य तथा पाप एतदुभयरूप होता है अर्थात् पुण्य और पाप दोनों प्रकारके अर्थ हैं। तत्र उनमेंसेसद्धेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥२६॥ भाष्यम्-सद्वेद्यं भूतव्रत्यनुकम्पादिहेतुकम् सम्यक्त्ववेदनीयं केवलिश्रुतादीनां वर्णवादादिहेतुकम् हास्यवेदनीयं रतिवेदनीयं पुरुषवेदनीयं शुभमायुष्कं मानुषं दैवं च शुभनाम गतिनामादीनां शुभं गोत्रमुच्चैर्गोत्रमित्यर्थः । इत्येतदष्टविधं कर्म पुण्यम् , अतोऽन्यत्पापम् ॥ . इति तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसंग्रहेऽष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-सद्वेद्य अर्थात् प्राणिमात्र और विशेषरूपसे व्रतियोंमें अनुकम्पा आदिसे होनेवाला सद्वेदनीय, केवली, श्रुतआदिके वर्णवादआदि अर्थात् प्रशंसासे होनेवाला सम्यक्त्ववेदनीय, हास्यवेदनीय, रतिवेदनीय, पुरुषवेदनीय तथा शुभआयु, जैसेमानुष और दैव आयुष्क, शुभनाम अर्थात् गतिनामआदिमें शुभनाम और शुभगोत्र, अर्थात् उच्चैर्गोत्र; यह आठ प्रकारका कर्म पुण्य है, और इससे विरुद्ध पाप है। अतः शुभार्थ उद्योग उचित है ॥ २६ ॥ इत्याचार्योपाधिधारिपण्डितठाकुरप्रसादशर्मप्रणीतभाषाटीकासमलतेऽहत्प्र वचनसंग्रहेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। अथ नवमोऽध्यायः। उक्तो बन्धः । संवरं वक्ष्यामः बन्धका वर्णन करचुके, अब आगे इस नौमें ९ अध्यायमें संवर कहेंगे । आस्रवनिरोधः संवरः॥१॥ सूत्रार्थ-आस्रवका निरोध संवर कहलाता है ॥ १ ॥ भाष्यम्-यथोक्तस्य काययोगादेर्द्विचत्वारिंशद्विधस्यास्रवस्य निरोधः संवरः । विशेषव्याख्या-पूर्व प्रसङ्गमें जो काययोगआदि बयालीस (४२) प्रकारका आस्रव कहागया है, उसका जो निरोध अर्थात् रोकना है उसको संवर कहते हैं ॥ १ ॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः॥२॥ सूत्रार्थ-वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह, जय, तथा चारित्रसे होता है ॥ २॥ भाष्यम्-स एष संवर एभिर्गुस्यादिभिरभ्युपायैर्भवति । किं चान्यत् । विशेषव्याख्या-वह संवर इन गुप्ति आदिसे होता है ॥ २ ॥ और यह अन्य भी हेतु है तपसा निर्जरा च ॥३॥ सूत्रार्थ अर्थात् तपसे संवर और निर्जरा होती है ॥ ३ ॥ भाष्यम्-तपो द्वादशविधं वक्ष्यते । तेन संवरो भवति निर्जरा च ॥ विशेषव्याख्या-द्वादश (बारह १२)प्रकारका तप आगे कहेंगे । (अ. ९ सू. १९।२०)। उस बारह प्रकारके तपसे संवर होता है और निर्जरा भी होती है ॥ ३॥ अत्राह । उक्तं भवता गुप्त्यादिभिरभ्युपायैः संवरो भवतीति । तत्र के गुप्त्यादय इति । अत्रोच्यते___ अब यहाँपर कहते हैं कि-गुप्ति, समितिआदि उपायोंसे संवर होता है ऐसा आपने कहा है (अ. ९ सू. २)। सो वे गुप्ति आदि कौन हैं । इसलिये यह अग्रिम सूत्र कहते हैं सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ सूत्रार्थ-सम्यग् ( भलेप्रकार )पूर्वकथित त्रिविध योगोंका जो निग्रह है उसको गुप्ति कहते हैं ॥ ४ ॥ __भाष्यम्-सम्यगिति विधानतो ज्ञात्वाभ्युपेत्य सम्यग्दर्शनपूर्वकं त्रिविधस्य योगस्य निग्रहो गुप्तिः कायगुप्तिर्वाग्गुप्तिमनोगुप्तिरिति । तत्र शयनासनादाननिक्षेपस्थानचंक्रमणेषु कायचेष्टानियमः कायगुप्तिः। याचनपृच्छनपृष्टव्याकरणेषु वाड़ियमो मौनमेव वा वाग्गुप्तिः । सावद्यसंकल्पनिरोधः कुशलसंकल्पः कुशलाकुशलसंकल्पनिरोध एव वा मनोगुप्तिरिति ।। For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या— सम्यग् अर्थात् पूर्ण विधानसे ज्ञानपूर्वक स्वीकार करके सम्यग्दर्शनपूर्वक काय, वाग् तथा मनोरूप जो तीन (३) प्रकारके योग पूर्वमें कहे हैं उनका जो निरोध ( रोकना ) है वह गुप्त ' है । वह कायगुप्ति, वागूगुप्ति, और मनोगुप्ति, इन भेदोंसे तीन (३) प्रकारकी है । उनमें शयन, आसन, आदान ( ग्रहण ), निक्षेप ( त्याग वा किसी वस्तुको एक स्थानसे दूसरे स्थानमें फेंकना वा संचालन करना ) तथा स्थानचङ्क्रमण अर्थात् इधर उधर स्थानोंमें भ्रमण, इत्यादि कार्योंमें शरीरकी चेष्टाका नियत अर्थात् अनियत रूपसे निरर्थक शरीरकी चेष्टा वा सर्वथा चेष्टा न करनी, यह कायगुप्ति है । याचनमें, पूंछनेमें, तथा पूछे हुए पदार्थका व्याख्यान करनेमें वाणीका नियम, अथवा सर्वथा मौन ही रहना यह वागगुप्ति है । तथा निन्दनीय वा दुष्ट संकल्पोंका निरोध, कुशल (उत्तम) संकल्प करना, अथवा कुशल और अकुशल दोनों प्रकारके संकल्पों का जो निरोध है, वह मनोगुप्ति है ॥ ४ ॥ १९२ भाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥ ५ ॥ सूत्रार्थ - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेप, तथा उत्सर्ग; इन भेदोंसे पांच (५) सेमिति होती हैं ॥ ५ ॥ भाष्यम् — सम्यगीर्या सम्यग्भाषा सम्यगेषणा सम्यगादाननिक्षेपौ सम्यगुत्सर्ग इति पञ्च समितयः ।। तत्रावश्यकायैव संयमार्थ सर्वतो युगमात्रनिरीक्षणायुक्तस्य शनैर्न्यस्तपदा गतिरीर्यासमितिः । हितमितासंदिग्धानवद्यार्थनियतभाषणं भाषासमितिः । अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य चोद्गमोत्पादनैषणादोषवर्जन मेषणासमितिः । रजोहरणपात्रचीवरादीनां पीठफलकादीनां चावश्यकार्थ निरीक्ष्य प्रमृज्य चादाननिक्षेपौ आदाननिक्षेपणासमितिः । स्थण्डिले स्थावरजङ्गमजन्तुवर्जिते निरीक्ष्य प्रमृज्य च मूत्रपुरीषादीनामुत्सर्ग उत्सर्गसमितिरिति ॥ 1 विशेषव्याख्या—यहां पूर्वसूत्र से सम्यक् पदकी अनुवृत्ति है और उसका संबन्ध पांचों प्रकारोंके साथ है। इसलिये सम्यक् ईर्यासमिति, सम्यग्भाषासमिति, सम्यक् एषणासमिति, सम्यक् आदाननिक्षेपसमिति, तथा सम्यग् उत्सर्गसमिति; ये पांच समिति हैं । उनमें आवश्यक कार्यके ही लिये संयमार्थ युगमात्र ( चार हाथ ) सर्वत्र देखने में जो तत्पर है उसकी शनैः २ अर्थात् धीरे २ चरणोंको रखके जो गति ( गमन करना ) है उसको ईर्यासमिति कहते हैं । सब जीवोंका हितसाधक, परिमित, असंदिग्ध ( संदेहरहित )तथा अनिन्दनीय अर्थके पदोंका जो नियमितरूपसे भाषण है वह भाषासमिति है अन्न, पान, रजोहरण ( झाडू आदि ), पात्र ( कमण्डलुआदि ) तथा वस्त्रादि धर्मसाधन १ जिससे संसार से आत्माकी रक्षा हो उसको गुप्ति कहते हैं । २ प्राणियोंकी पीडा दूर करनेके लिये भले प्रकारको समिति कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १९३ पदार्थोके, तथा आश्रय( निवासस्थान )के आविर्भाव, उत्पत्ति तथा अभिलाषाआदि दोषोंका जो वर्जन अर्थात् अभाव है वह एषणासमिति है । रजोहरण, पात्र, वस्त्रादि, और पीड़े तथा तखत आदि आवश्यक कार्यके लिये बैठने सोने आदिके जो पदार्थ हैं; इन सबको भली भांति देख तथा शुद्ध करके आदान, निक्षेप( ग्रहण तथा त्याग )किया जाय उसको आदाननिक्षेपणसमिति कहते हैं। तथा उच्चता, अवनतता अर्थात् उँचाई, निचाई आदि दोषोंसे रहित परिष्कृत समधरासत्वसंयुक्त, तथा स्थावर और जङ्गम जीवोंके संचारसे शून्य स्थानमें देखकर, तथा शुद्धकरके मल मूत्रआदिका जो त्याग है उसको उत्सर्गसमिति कहते हैं । इस प्रकार पांचों समितियोंका वर्णन हुआ ॥ ५ ॥ उत्तमाक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याण धर्मः ॥६॥ सूत्रार्थ-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, और ब्रह्मचर्य ये दश उत्तम, धर्मके भेद हैं ॥ ६ ॥ भाष्यम्-इत्येष दशविधोऽनगारधर्मः उत्तमगुणप्रकर्षयुक्तो भवति । तत्र क्षमा तितिक्षा सहिष्णुत्वं कोध्रनिग्रह इत्यनान्तरम् । तत्कथं क्षमितव्यमिति चेदुच्यते । क्रोधनिमित्तस्यात्मनि भावाभावचिन्तनात् परैः प्रयुक्तस्य क्रोधनिमित्तस्यात्मनि भावचिन्तनादभावचिन्तनाद्वा क्षमितव्यम् । भावचिन्तनात् तावद्विद्यन्ते मय्यते दोषाः किमत्रासौ मिथ्या ब्रवीति क्षमितव्यम् । अभावचिन्तनादपि क्षमितव्यं नैते विद्यन्ते मयि दोषा यानज्ञानादसौ ब्रवीति क्षमितव्यम् । किं चान्यत् । क्रोधदोषचिन्तनाच्च क्षमितव्यम् । क्रुद्धस्य हि विद्वेषासादनस्मृतिभ्रंशव्रतलोपादयो दोषा भवन्तीति । किं चान्यत् । बालस्वभावचिन्तनाच्च परोक्षप्रत्यक्षाकोशताडनमारणधर्मभ्रंशानामुत्तरोत्तररक्षार्थम् । बाल इति मूढमाह । परोक्षमाक्रोशति बाले क्षमितव्यमेव । एवंखभावा हि बाला भवन्ति । दिष्टया च मां परोक्षमाक्रोशति न प्रत्यक्षमिति । लाभ एव मन्तव्य इति । प्रत्यक्षमप्याक्रोशति बाले क्षमितव्यं । विद्यत एवैतद्वालेषु । दिष्टया च मां प्रत्यक्षमाक्रोशति न ताडयति । एतदप्यस्ति बालेष्विति लाभ एव मन्तव्यः । ताडयत्यपि बाले क्षमितव्यम् । एवंखभावा हि बाला भवन्ति । दिष्टया च मां ताडयति न प्राणैर्वियोजयतीति । एतदपि विद्यते बालेष्विति । प्राणैर्वियोजयत्यपि बाले क्षमितव्यं । दिष्टया च मां प्राणैर्वियोजयति न धर्माद्धंशयतीति क्षमितव्यम् । एतदपि विद्यते बालेष्विति लाभ एव मन्तव्यः ॥ किं चान्यत् । स्वकृतकर्मफलाभ्यागमाञ्च । स्वकृतकर्मफलाभ्यागमोऽयं मम, निमित्तमात्रं पर इति क्षमितव्यम् । किं चान्यत् । क्षमागुणांश्चानायासादीननुस्मृत्य क्षमितव्यमेवेति क्षमाधर्मः ॥ १॥ विशेषव्याख्या-क्षमाआदि यह दश प्रकारका उत्तम धर्म है । अनगार ( साधु वा यति)का यह दशविध उत्तम गुण प्रकर्षतासे युक्त होता है। उनमें तितिक्षा व सहनशीलताको क्षमा कहते हैं । क्षमा, तितिक्षा, सहिष्णुता, तथा क्रोधनिग्रह, ये सब एकार्थ Jain Education Interna२५॥ For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् वाचक शब्द हैं । सो क्षमा किस रीतिसे करनी चाहिये यह कहते हैं । प्रयुक्त क्रोधके. निमित्तका आत्मामें भाव वा अभाव चिन्तन करनेसे, अर्थात् दूसरोंमें प्रयुक्त जो क्रोधके निमित्त (कारण वा हेतु )उनका आत्मामें भाव चिन्तन करना कि ये जो क्रोधके निमित्त हैं उनकी आत्मामें अस्तिता है, अथवा उसके अभावके चिन्तनसे क्षमा करनी चाहिये। उसमें भावके चिन्तनसे तो यह होगा कि-मुझमें क्रोधके कारणीभूत दोष ही हैं, इसमें यह मिथ्या क्या कहता है; ऐसा विचार करके क्षमा करनी चाहिये। और क्रोधके निमित्तके अभावचिन्तनसे भी क्षमा करनी चाहिये कि-ये दोष मुझमें नहीं हैं जिनको कि-यह अज्ञानसे कहता है। अर्थात् इसका मुझमें दोषारोपण अज्ञानसे है, यथार्थमें नहीं है। ऐसा चिन्तन करके भी क्षमा करनी चाहिये । और इससे भिन्न यह भी है कि-क्रोधके दोषोंका चिन्तन करके भी क्षमा करनी चाहिये । क्योंकि-क्रोधयुक्त प्राणीके विद्वेष स्मृतिका नाश तथा व्रतलोप आदि दोष भी होते हैं ऐसा विचार करके क्षमा करनी चाहिये । और यह भी है। बालस्वभावचिन्तनसे भी क्षमा करनी चाहिये । और परोक्ष, प्रत्यक्ष, आक्रोश, ताडन, मारण, तथा धर्मभ्रंश इनमेंसे उत्तरोत्तरकी रक्षार्थ भी क्षमा करनी अवश्य कर्तव्य है । बाल इस पदसे मूढसे अभिप्राय है। हमारे परोक्ष (अनुपस्थिति )में आक्रोशन (निन्दा आदि )करता है, बालक ( मूढ ) है इसलिये क्षमा करनी चाहिये । क्योंकि-बालक ऐसा बका ही करते हैं । और यह भी सौभाग्यका विषय है कि हमारे परोक्षमें ही वह गालिसंप्रदान आदि करता है, न कि-प्रत्यक्ष (सम्मुख)। इस हेतुसे लाभ ही समझना चाहिये। और यदि प्रत्यक्षमें गालिआदि संप्रदान बाल (मूढ )करे तो भी क्षमा ही करनी चाहिये। क्योंकि-बालक प्रत्यक्ष भी सबको कुवाच्य कहते हैं । और यह भी सौभाग्य है किप्रत्यक्ष कुवाच्य आक्रोशन आदि ही करता है, न कि-मुझे ताडना करता है (मारता) है। और बालक यदि ताडना करे तो भी उसपर क्षमा करनी उचित है। क्योंकि बाल (मूढ )जन ऐसे खभाववाले होते ही हैं, अर्थात् दूसरोंको ताडनाआदि करना यह उनका स्वभाव ही है, ऐसा मानकर क्षमा करनी चाहिये । और यह भी सौभाग्यका विषय है कि केवल ताडना ही करता है न कि-प्राणोंसे भी मुझे वियुक्त (अलग )करता है। क्योंकि-प्राणोंसे वियुक्त करना यह भी बालों ( मूढों ) में है। और प्राणोंसे भी वियुक्त करते हुए बालके ऊपर क्षमा ही करनी चाहिये । क्योंकि यह भी सौभाग्यका विषय है कि तुझे केवल प्राणोंसे ही पृथक् करता है (वध करता है ) न कि धर्मसे भ्रष्ट करता (धर्मसे च्युत वा पतित करता) है। क्योंकि-धर्मसे च्युत करना यह भी बालों (मूढजनों ) में है। अतः केवल प्राणमात्रसे ही वियुक्त (वधमात्र) करनेसे लाभ ही मानना उचित है, इत्यादि चिन्तन करके क्षमा ही करनी चाहिये । और यह भी हैअपनेसे किये हुए कर्मोके फलके अभ्यागम (आगमन) से भी क्षमा करनी For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १९५ उचित है । ऐसा विचार करना चाहिये कि मेरे ही किए कर्मोके फलोंका अभ्यागमन है; उन्ही कर्मोंका आगमन हुआ है जिससे हमको यह अनेक प्रकारके क्लेश होते हैं, दूसरा तो केवल निमित्तमात्र है, इत्यादि विचारोंसे क्षमा करनी चाहिये । और अन्य हेतु यह भी है कि-अनायास अर्थात् आयास परिश्रम आदिके अभाव आदि क्षमाके गुणोंको स्मरण करके क्षमा करनी उचित है । इस प्रकार यह क्षमा धर्म प्रथम कहा गया है ॥ १॥ नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको मार्दवलक्षणम् । मृदुभावः मृदुकर्म च मार्दवं मदनिग्रहो मानविघातश्वेत्यर्थः । तत्र मानस्येमान्यष्टौ स्थानानि भवन्ति । तद्यथा । जातिः कुलं रूपमैश्वर्य विज्ञानं श्रुतं लाभो वीर्यमिति । एभिर्जात्यादिभिरष्टाभिर्मदस्थानैर्मत्तः परात्मनिन्दाप्रशंसाभिरतस्तीब्राहंकारोपहतमतिरिहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्मादेषां मदस्थानानां निग्रहो मार्दवं धर्म इति ॥ २ ॥ नम्रताका वर्तन तथा गर्वराहित्य होना, यह मार्दवका लक्षण है । मृदुभाव वा मृदु कर्म जो है वह मार्दव है । मदका निग्रह अर्थात् धन विद्या आदिसे मद (गर्व ) होता है उसका निग्रह और अभिमानका विघात यह मार्दव धर्म है। उसमें मान वा अमिमानके ये ८ आठ स्थान होते हैं। जैसे-जाति (ब्राह्मणत्वआदि जाति), कुल (उत्तम कुल ), रूप (सौन्दर्य), ऐश्वर्य (धनआदि विभूति ), विज्ञान (अनेक पदार्थविषयक आनुभविक ज्ञान ), श्रुत अर्थात् शास्त्रसम्पत्ति, लाभ, ऐहिक वा पारलौकिक पदार्थके लाभ तथा वीर्य इन जाति आदि आठों मदोंके स्थानोंसे मत्त होकर प्राणी अन्य जनोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा आदिमें तत्पर होकर तीव्र अहङ्कारसे नष्ट बुद्धि इसलोक तथा परलोकमें भी अशुभ फलदायक पाप कर्मोंका ही संग्रह करता है; और उपदेश देनेपर भी मदोन्मत्तताके कारणसे कल्याणमार्गको नहीं ग्रहण करता, इत्यादि हेतुओंसे जो जाति आदि मनके स्थान अभी पूर्वमें कहे हैं उनका निग्रह करना यह मार्दवनामा द्वितीय धर्म है ॥ २॥ भावविशुद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम् । ऋजुभावः ऋजुकर्म वार्जवं भावदोषवर्जनमित्यर्थः । भावदोषयुक्तो झुपधिनिकृतिसंयुक्त इहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्मादार्जवं धर्म इति ॥ ३॥ भावकी विशुद्धि तथा वञ्चना, विप्रलम्भ (धोखा देना वा मिथ्या भाषण कपटआदि व्यवहारोंसे दूसरोंको ठगने) का अभाव अर्थात् अविसंवाद जो है वह आर्जवका लक्षण - १ मृदुका अर्थ कोमल है । उस मृदु शब्दसे भाव वा कर्म अर्थमें तद्धित अण् प्रत्यय होनेसे मार्दव बनता है । मृदोर्भावः कर्म वा मार्दवम् । अर्थात् मृदुका जो भाव या कर्म है वह मार्दव है । For Personal &Private Use Only . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है । ऋजुभाव तथा ऋजुकर्म, अर्थात् सरल भाव वा सरल कर्म यह आर्जव है । तात्पर्य यह है कि भावोंके जो दोष हैं उनका वर्जन (निषेध) दुष्ट भावोंके त्यागपूर्वक सरल भावोंका जो ग्रहण है वही आर्जव (सरलता, सिधाई वा कपटराहित्य ) है । क्योंकि भावोंके दोषोंसे युक्त कपट, वञ्चना (धोखा देना) आदिसे संयुक्त पुरुष इस लोक तथा परलोकमें अशुद्ध फलदायक अकुशल (पापमय ) कर्मोंका ही संग्रह करता है; और उपदेश देनेपर भी कल्याणको नहीं प्राप्त होता है । इस हेतुसे भावदोषोंका त्यागरूप आर्जव यह तृतीय धर्म है ॥ ३ ॥ अलोभः शौचलक्षणम् । शुचिभावः शुचिकर्म वा शौचं भावविशुद्धिः निष्कल्मषता धर्मसाधनमात्रास्वप्यनभिष्वङ्ग इत्यर्थः । अशुचिर्हि भावकल्मषसंयुक्त इहामुत्र चाशुभफलमकुशलं कर्मोपचिनोत्युपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते । तस्माच्छौचं धर्म इति ॥ ४ ॥ अलोभ अर्थात् लोभका अभाव होना, यह शौचका लक्षण है । शुचिका भाव वा शुचि (पवित्र ) कर्म शौच है । भावविशुद्धि (भावोंकी शुद्धता) तथा निष्कल्मषता अर्थात् लोभादि मालिन्यकी रहितता, धर्मसाधनमात्र सामग्रियोंमें भी आसक्तिका अभाव यह शौच है । क्योंकि अशुचि (शौचरहित) जन भावकल्मषोंसे संयुक्त रहनेके कारण इस लोक तथा परलोकमें भी अशुद्ध (दुष्ट ) फलदायक अकुशल अर्थात् पापोंसे पूर्ण तथा दुःखप्रद कर्मोंका संग्रह करता है, और उपदेश देनेपर भी कल्याणमार्गको नहीं प्राप्त होता, इस हेतुसे अशौचके त्यागनेसे शौच यह चतुर्थ धर्म होता है ॥ ४ ॥ सत्यर्थे भवं वचः सत्यं सद्भयो वा हितं सत्यम् । तदननृतमपरुषमपिशुनमनसभ्यमचपलमनाविलमविरलमसंभ्रान्तं मधुरमभिजातमसंदिग्धं स्फुटमौदार्ययुक्तमग्राम्यपदार्थाभिव्याहरमसीभरमरागद्वेषयुक्तं सूत्रमार्गानुसारप्रवृत्तार्थमय॑मर्थिजनभावग्रहणसमर्थमात्मपरानुग्राहकं निरुपधं देशकालोपपन्नमनवद्यमईच्छासनप्रशस्तं यतं मितं याचनं प्रच्छनं प्रभव्याकरणमिति सत्यं धर्मः ॥ ५॥ सत्य अर्थके लिये उत्पन्न जो वचन है वह सत्य है, अथवा सज्जनोंके लिये हितकारक जो वचन है वह सत्य है । वह सत्य मिथ्यादोषसे रहित, परुषता (कठोरता ) रहित, अपिशुन अर्थात् सूचकता वा चुगुली आदि दोषवर्जित, असभ्यतारहित, चञ्चलताशून्य, अनाविल ( मालिन्यदोषशून्य वा अकलुषित), विरलतारहित, असंभ्रान्त (भ्रमरहित ), मधुर, अभिजात (उज्वल वा विशद ), असंदिग्ध अर्थात् सन्देहरहित, स्फुट (स्पष्ट ), औदार्य अर्थात् उदारतासंयुक्त वा उच्च विचारसहित, ग्रामीण पद पदार्थ दोषोंसे वर्जित, अश्लीलतारहित, रागद्वेषसे वर्जित, सूत्रमार्गके अनुसार प्रवृत्त अर्थसहित, बहुमूल्य १ ऐसे ही सरल अर्थवाचक ऋजु शब्दसे भाव वा कर्म अर्थमें अण् प्रत्यय होनेसे आर्जव बनता है। (ऋजोर्भावः कर्म वा आर्जवम् ) अर्थात् ऋजुका जो भाव या कर्म है वह आर्जव है। For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १९७ वा पूजनीय, अर्थी जनोंको भाव ग्रहण करनेमें समर्थ ( योग्य ), अपने तथा अन्यके ऊपर अनुग्रह करनेवाला अर्थात् निज आत्मा और अन्य आत्माकी हानिसे वर्जित, छल कपटआदि दोषशून्य, देशकालके अनुकूल, अनिन्दनीय, अर्हत् भगवान् के शासन (शास्त्र ) - रीति से प्रशस्त अर्थात् अर्हत् - शास्त्र के सम्मत प्रशंसनीय, यत ( संयमसहित ), मित अर्थात् परिमित, याचन, प्रश्न और प्रश्नके विवरण अर्थात् प्रश्नके उत्तररूप होना चाहिये । इस रीति से मिथ्या परुषताआदि दोषोंसे शून्य होनेसे यह सत्य पञ्चम धर्म है ॥ ५ ॥ योगनिग्रहः संयमः । स सप्तदशविधः । तद्यथा । पृथिवीकायिकसंयमः अप्कायिकसंयमः तेजस्कायिकसंयमः वायुकायिकसंयमः वनस्पतिकायिकसंयमः द्वीन्द्रियसंयमः श्रीन्द्रियसंयमः चतुरिन्द्रियसंयमः पञ्चेन्द्रियसंयमः प्रेक्ष्यसंयमः उपेक्ष्यसंयमः अपहृत्यसंयमः प्रसृज्यसंयमः कायसंयमः वाक्संयमः मनः संयमः उपकरणसंयम इति संयमो धर्मः ॥६॥ योगोंका जो निग्रह है, अर्थात् काय, वाक् तथा मनोरूप जो तीन प्रकारके योग हैं उनका निग्रह अर्थात् अपने वशमें रखना, यह संयम धर्म है । वह संयम धर्म सत्रह (१७) प्रकारका है । जैसे— पृथिवीकायिकसंयम अर्थात् पृथिवीकायिकके विषयमें संयम, अप्रकायिकसंयम, तेजस्कायिकसंयम, वायुकायिकसंयम, वनस्पतिकायिकसंयम, द्वीन्द्रियसंयम अर्थात् दो इन्द्रियवाले जीवोंके विषयसंयम ( योगत्रयनिग्रह), त्रीन्द्रियसंयम, चतुरिन्द्रियसंयम, पञ्चेन्द्रियसंयमः प्रेक्ष्य अर्थात् प्रेक्षण करनेयोग्य पदार्थोंके विषयमें संयम, उपेक्ष्यसंयम ( उपेक्षा करनेयोग्य पदार्थोंसे संयम ), अहत्य संयम ( निन्दनीय पदार्थविषयक संयम ), प्रमृज्य अर्थात् शोधनीय पदार्थवि - षयक संयम, कायसंयम, वाक्यसंयम, मनःसंयम, तथा उपकरणसंयम । सर्वत्र उन २ पदार्थोंके विषयमें योगत्रयका निग्रह होनेसे संयम यह षष्ठ धर्म है ॥ ६ ॥ तपो द्विविधम् । तत्परस्ताद्वक्ष्यते । प्रकीर्णकं चेदमनेकविधम् । तद्यथा । यववज्रमध्ये चन्द्रप्रतिमे द्वे, कनकरत्नमुक्तावल्यस्तिस्रः सिंहविक्रीडिते द्वे, सप्तसप्तमिकाद्याः प्रतिमाश्चतस्रः, भद्रोत्तरमा चाम्लं वर्धमानं सर्वतोभद्रमित्येवमादि । तथा द्वादश भिक्षुप्रतिमा मासिकाद्या आसप्तमासिक्याः सप्त, सप्तरात्रिक्याः तिस्रः, अहोरात्रिकी, रात्रिकी चेति ॥ ७ ॥ तप दो प्रकारका है सो आगे कहेंगे ( अ. ९ सू. १९,२० ) । और प्रकीर्णक अर्थात् विस्तृत तप अनेक प्रकारका है । जैसे - यववज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा दो, कनकरत्नमुक्तावली तीन, सिंहविक्रीडित दो, सप्तमिकादि सात, भद्रोत्तर, आचाम्लं, वर्धमान, तथा सर्वतोभद्र, इत्यादि चार प्रतिमा द्वादश भिक्षुप्रतिमा हैं । मासिक आदि सप्त मासिकी पर्यन्त सात प्रतिमा हैं । सप्तरात्रिकी प्रतिमा तीन हैं, जैसे- अहोरात्रिकी, रात्रिकी इत्यादि । इस प्रकार तप सप्तम धर्म है ॥ ७ ॥ For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरानपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः ॥ ८ ॥ बाह्य तथा आभ्यन्तर उपाधि, शरीर, तथा अन्नपान आदिके आश्रयीभूत भाव दोषोंका जो परित्याग है वह त्यागरूप अष्टम धर्म है ॥ ८॥ शरीरधर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिञ्चन्यम् ।। ९॥ शरीर तथा धर्मके भी उपकरण अर्थात् धर्मसाधन सामग्री आदि हैं; उनमें भी निर्ममत्व, अर्थात् ये मेरे हैं इस प्रकारकी ममताका जो अभाव है उसको आकिञ्चन्य नवम धर्म कहते हैं ॥ ९ ॥ । व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकाय च गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यमस्वातन्त्र्यं गुर्वधीनत्वं गुरुनिर्देशस्थायित्वमित्यर्थ च । पञ्चाचार्याः प्रोक्ताः प्रव्राजको दिगाचार्यः श्रुतोद्देष्टा श्रुतसमुद्देष्टा आम्नायार्थवाचक इति । तस्य ब्रह्मचर्यस्येमे विशेषगुणा भवन्ति । अब्रह्मविरतिव्रतभावना यथोक्ता इष्टस्पर्शरसरूपगन्धशब्दविभूषानभिनन्दित्वं चेति ॥ १०॥ व्रतके परिपालनके अर्थ, ज्ञानकी विशेषवृद्धिके लिये, और क्रोधआदि कषायोंके परिपाकार्थ जो गुरुकुलमें निवास है, उसको ब्रह्मचर्य कहते हैं । ब्रह्मचर्यका अर्थ है अस्वतन्त्रता,. गुरुकी आधीनता, अर्थात् स्वतंत्र वा स्वच्छन्दचारी न होकर गुरुके आधीन रहना तथा गुरुके निर्देशमें स्थायित्व, अर्थात् गुरुकी आज्ञामें रहकर विद्यादि गुणोंका उपार्जन करना । आचार्य पांच प्रकारके कहे गये हैं । जैसे--परिव्राजक ( यति ), दिगाचार्य, श्रुत (शास्त्र) का उद्देष्टा (पढ़ानेवाला) और आम्नायसिद्ध अर्थोंका वाचक । उस ब्रह्मचर्यके ये विशेष गुण हैं । जैसे—अब्रह्मसे निवृत्ति अर्थात् मैथुनमे निवृत्ति और व्रतोंकी भावना। उन भावनाओंका वर्णन पूर्वप्रकरणमें कह चुके हैं। तथा मनोहर अभिलषित स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द, तथा आभूषणआदिसे प्रसन्न न होना । इन हेतुओंसे ब्रह्मचर्यकी दशम धर्ममें गणना की, अर्थात् ब्रह्मचर्य दशम धर्म है ॥१०॥ अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मखाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ सूत्रार्थ-अनित्यानुप्रेक्षा आदि बारह (१२) अनुप्रेक्षा हे ॥ ७ ॥ भाष्यम्-एता द्वादशानुप्रेक्षाः । तत्र बाह्याभ्यन्तराणि शरीरशय्यासनवस्त्रादीनि द्रव्याणि सर्वसंयोगाश्चानित्या इत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः तेष्वभिष्वजो न भवति मा भून्मे तद्वियोगजं दुःखमित्यनित्यानुप्रेक्षा ॥१॥ विशेषव्याख्या-अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, संसारानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा, अन्यत्वानुप्रेक्षा, अशुचित्वानुप्रेक्षा, आस्रवानुप्रेक्षा, संवरानुप्रेक्षा, निर्जरानुप्रेक्षा, लोकानुप्रेक्षा, बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा, तथा धर्मानुप्रेक्षा, ये द्वादश अर्थात् बारह (१२) प्रकारकी अनुप्रेक्षा हैं । उनमें बाह्य तथा आभ्यन्तरके यावत् पदार्थ मात्र हैं, उन सबकी अनित्य For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ताका अनुचिन्तन अर्थात् विचार करना । जैसे-शरीर, इन्द्रियादि, शय्या, आसन वस्त्र तथा गृहआदि जितने द्रव्य हैं, वे सब संयोगसे उत्पन्न हुए हैं और अनित्य हैं; ऐसा सदा चिन्तन करे । इस प्रकार चिन्तन करनेवाले प्राणीकी उन शरीरआदि पदार्थोंमें आसक्ति नहीं होती। क्योंकि वे अनित्य हैं तब उनके वियोगसे जनित' दुःख हमको न हो; इस प्रकार पदार्थोंके वियोगसे उत्पन्न दुःखोंके नाशार्थ जो सबके अनित्यत्वका अनुचिन्तन है वह अनित्यानुप्रेक्षा नाम प्रथम अनुप्रेक्षा है ॥ १ ॥ यथा निराश्रये जनविरहिते वनस्थलीपृष्ठे बलवता क्षुत्परिगतेनामिषैषिणा सिंहेनाभ्याहतस्य मृगशिशोः शरणं न विद्यते एवं जन्मजरामरणव्याधिप्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगेप्सितालाभमदारिद्र्यदौर्भाग्यदौर्मनस्यमरणादिसमुत्थेन दुःखेनाभ्याहतस्य जन्तोः संसारे शरणं न विद्यत इति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतो नित्यमशरणोऽस्मीति नित्योद्विग्नस्य सांसारिकेषु भावेष्वनभिष्वङ्गो भवति । अर्हच्छासनोक्त एव विधौ घटते तद्धि परं शरणमित्य. शरणानुप्रेक्षा ॥२॥ जैसे निराश्रय ( किसी प्रकारके आश्रयसे रहित ), जनशून्य महा अरण्यानी ( बड़े भारी जंगल) के मध्यमें बलवान् , क्षुधाग्रस्त तथा मांसके अभिलाषी सिंहसे अभ्याहत (आक्रान्त ) मृग (हरिणआदि पशु) के बच्चेको कोई शरण ( रक्षाका स्थान ) नहीं है; इसी प्रकार जन्म, वृद्धाऽवस्था, मरण, अनेक प्रकारके शारीरिक तथा मानसिक रोग, प्रिय प्राणी वा अन्य प्रिय वस्तुका वियोग, अप्रिय वा अनिष्ट वस्तुका संयोग, अभिलषित पदार्थका अलाभ (चाही हुई वस्तुका न मिलना), दारिद्य (दीनता, गरीबी), दौर्भाग्य, दौर्मनस्य (वैर विरोध आदि ) तथा मरणआदिसे लेके अनेक अनिष्ट हेतु ओंसे उत्पन्न दुःखसे आक्रान्त अर्थात् अनेक दुःखोंसे ग्रस्त जीवको कोई भी शरण (त्राण वा रक्षणका स्थान ) इस संसारमें नहीं है ऐसा अनुचिन्तन सदा करे । इस प्रकारसे नित्य चिन्तन करनेवाले प्राणीको कि-मैं सर्वथा शरणरहित हूं, मुझे जन्म जरा मरणआदि रोगजनित दुःखोंसे कोई भी इस संसारमें नहीं बचा सकता । उस नित्य उद्विग्न चित्तवाले प्राणीको सांसारिक भावमें अर्थात् संसारके पदार्थों में अरुचि वा अप्रीति होती है । तथा इस प्रकारके विचार करनेवाले जीवके चित्तमें यह भी भासता है कि-अर्हत् भगवान्प्रणीत शासन (शास्त्र) में जो कुछ कथित है वह सब इस अनित्यताआदि विधिमें घटित होता है, और उसमें ही प्रोक्त जो नित्य आत्मा है अथवा शुद्ध निश्चयसे आत्मारूप धर्म है, अन्य सब अशरण हैं, यह द्वितीय अशरणानुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ २॥ ___ अनादौ संसारे नरकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभवग्रहणेषु चक्रवत्परिवर्तमानस्य जन्तोः सर्व एव जन्तवः स्वजनाः परजना वा । न हि स्वजनपरजनयोर्व्यवस्था विद्यते । माता हि भूत्वा For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भगिनी भार्या दुहिता च भवति । भगिनी भूत्वा माता भार्या दुहिता च भवति । भार्या भूत्वा भगिनी दुहिता माता च भवति । दुहिता भूत्वा माता भगिनी भार्या च भवति ॥ तथा पिता भूत्वा भ्राता पुत्रः पौत्रश्च भवति । भ्राता भूत्वा पिता पुत्रः पौत्रश्च भवति । पौत्रो भूत्वा पिता भ्राता पुत्रश्च भवति । पुत्रो भूत्वा पिता भ्राता पौत्रश्च भवति । भर्ता भूत्वा दासो भवति । दासो भूत्वा भर्ता भवति । शत्रुर्भूत्वा मित्रं भवति मित्रं भूत्वा शत्रुर्भवति । पुमान्भूत्वा स्त्री भवति नपुंसकं च । स्त्री भूत्वा पुमान्नपुंसकं च भवति । नपुंसकं भूत्वा स्त्री पुमांश्च भवति । एवं चतुरशीतियोनिप्रमुखशतसहस्रेषु रागद्वेषमोहाभिभूतैर्जन्तुभिरनिवृत्तविषयतृष्णैरन्योन्यभक्षणाभिघातवधबन्धाभियोगाक्रोशादिजनितानि तीब्राणि दुःखानि प्राप्यन्ते । अहो द्वन्द्वारामः कष्टस्वभावः संसार इति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः संसारभयोद्विग्नस्य निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय घटत इति संसारानुप्रेक्षा ॥३॥ अनादि कालसे सिद्ध इस संसारमें नरक, तिर्यग्योनि, मनुष्य, तथा देवोंमें जन्मोंके ग्रहण करनेमें चक्रके तुल्य भ्रमण करते हुए जीवके कोई भी जीव वजन ( अपने) तथा परजन ( अन्य जन ) नहीं हैं। क्योंकि-चक्रके तुल्य भ्रमण करते हुए जीवके वजन तथा परजनकी व्यवस्था ही नहीं है। कारण—किसी जन्ममें वा इसी जन्ममें जो माता है, वह माता होकर जन्मान्तरमें भगिनी (बहिन ), भार्या (स्त्री) तथा कन्या भी होती है । और भगिनी होकर माता, भार्या तथा दुहिता (कन्या) होती है । और ऐसे ही किसी जन्ममें भार्या होकर पुनः जन्मान्तरमें भगिनी कन्या, कन्या तथा माता होती है । इसी प्रकार किसी जन्ममें कन्या होकर पुनः माता, भगिनी तथा भार्या होती है। ऐसे ही कोई जीव किसीका एक वा अनेक जन्ममें पिता होकर पुनः भ्राता, पुत्र, तथा पौत्र (पोता नाती) भी जन्मान्तरमें होता है, तथा भाई होकर जन्मान्तरोंमें पिता, पुत्र और पौत्र होता है तथा पौत्र होकर पुनः किसी जन्ममें पिता, भ्राता, तथा पुत्र होता है और कभी पुत्र होकर अन्य जन्ममें पिता, भ्राता तथा पौत्र होता है । इसी प्रकार चक्रवत् भ्रमणशील इस जन्ममरणमय संसारमें किसी स्त्रीका कोई पति होकर पुनः किसी जन्ममें दास होता है, और दास होकर पुनः कभी वही भर्ता (पति) होता है । ऐसे ही कोई जीव किसीका शत्रु होकर किसी जन्ममें मित्र होता है, और मित्र होकर पुनः शत्रु होता है । इसी रीतिसे किसी जन्ममें पुरुष होकर स्त्री होता है; और नपुंसक भी होता है । और स्त्री होकर पुरुष तथा नपुंसक भी होता है । तथा नपुंसक होके अन्य जन्ममें स्त्री तथा पुरुष भी होता है । इसी प्रकार चौरासी लक्ष योनियोंमें भ्रमण करते हुए राग तथा द्वेषसे पूर्ण तथा अतितृष्णाके वशीभूत जीव परस्पर ताडन, भक्षण, वध, बन्धन, अभियोग (मिथ्या अभिशाप वा कलंक) तथा निन्दा, कटुवचनआदिसे उत्पन्न अत्यन्त दुःखोंको प्राप्त होते हैं । अहो ! For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०१ कैसा द्वन्द्वाराम अर्थात् सुख, दुःख, शीतोष्ण, तथा संयोग वियोग आदि द्वन्द्वोंसे पूर्ण कष्टस्वभाव यह संसार है; इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये । इस प्रकार चिन्तन करते हुए तथा संसारके भयसे उद्विग्न जीवको निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न होता है । और निर्विण्ण (निर्वेद वा संसारसे ग्लानियुक्त ) होनेसे संसारके नाशार्थ ही वह प्रयत्न करता है । इस प्रकारसे संसारके स्वभावका चिन्तन यह तृतीय संसारानुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ ३ ॥ एक एवाहं न मे कश्चित्स्वः परो वा विद्यते । एक एवाहं जाये । एक एव म्रिये । न मे कश्चित्स्वजनसंज्ञः परजनसंज्ञो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति प्रत्यंशहारी वा भवति । एक एवाहं स्वकृतकर्मफलमनुभवामीति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः स्वजन - संज्ञकेषु स्नेहानुरागप्रतिबन्धो न भवति परसंज्ञकेषु च द्वेषानुबन्धः । ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव यतत इत्येकत्वानुप्रेक्षा ॥ ४ ॥ 1 इस संसार में मैं एक अर्थात् एकाकी ( अकेला ) ही हूं; मेरा कोई भी स्वकीय, अथवा परकीय (अन्य ) नहीं है । मैं अकेला ही उत्पन्न होता हूं, तथा अकेला ही मरता हूं। न तो मेरा कोई स्वजनसंज्ञक है और न परजनसंज्ञक है; अर्थात् मेरा कोई ऐसा सुहृद् (मित्र) नहीं है जो व्याधि जरा ( वृद्धावस्था ) तथा मरणआदि दुःखोंको अपहरण करे, वा ऐसा भी कोई नहीं है जो मेरा प्रत्यंश लेले । मैं तो एकाकी अपने किये हुए कर्मोंके फलोंका भोक्ता हूं, अर्थात् मेरे किये हुए कर्मों के फलोंका मुझसे अन्य कोई भी भोगनेवाला नहीं है, इत्यादि रीति से चिन्तन करै । इस प्रकार अपनेको एकाकी अर्थात् सर्वथा असहाय अकेला चिन्तन करते हुए इस जीवको स्वजनसंज्ञक जो स्त्री, पुत्र, भ्राता, मित्रआदि हैं; उनमें स्नेह अनुरागका प्रतिबन्ध नहीं होता, और जो परसंज्ञक शत्रुआदि हैं, उनमें द्वेषका भी अनुबन्ध नहीं होता । इस रीति से राग द्वेषके अभावसे निःसङ्गताको प्राप्त जीव मोक्षके ही अर्थ प्रयत्न करता है, इस प्रकार परम्परासे मोक्षसाधिका चतुर्थ एकत्वानुप्रेक्षा वर्णन की ॥ ४ ॥ शरीरव्यतिरेकेणात्मानमनुचिन्तयेत् । अन्यच्छरीरमन्योऽहम् ऐन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियो - ऽहम् अनित्यं शरीरं नित्योऽहम् अज्ञं शरीरं ज्ञोऽहम् आद्यन्तवच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम् बहूनि च मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः स एवायमहमन्यस्तेभ्यः इत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतः शरीरप्रतिबन्धो न भवतीति अन्यश्च शरीरान्नित्योऽहमिति निःश्रेयसे संघटत इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा ॥ ५ ॥ आत्माको शरीरसे पृथक् चिन्तन करना चाहिये । शरीर अन्य पदार्थ है, और मैं शरीरादिसे विलक्षण अन्य पदार्थ हूं । शरीर तो इन्द्रियोंका विषय है, और मैं अतीन्द्रिय हूं, अर्थात् मेरा ( शुद्ध आत्माका ) स्वरूप इन्द्रियोंका विषय नहीं है । शरीर तो अनित्य (क्षणभङ्गुर ) है, और मैं ( आत्मा ) नित्य हूं । शरीर अज्ञ अर्थात् जड है, और मैं ज्ञ अर्थात् ज्ञानस्वरूप चेतन हूं । शरीर आदि अन्तवाला है, और मैं अनादि अनन्त अवि Jain Education Internat al For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नाशी स्वरूप हूं। इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए अनेक लक्ष शरीर व्यतीत होगये, अर्थात् शरीर तो मेरे बहुत होगये, और मैं वही एक उन शरीरोंसे भिन्नस्वरूप हूं। इत्यादि रूपसे अपनेको शरीर इन्द्रियआदिसे भिन्नरूपसे चिन्तन करे । इस प्रकारसे चिन्तन करनेसे इस जीवको शरीरका प्रतिबन्ध, अर्थात् शरीरमें ममत्वआदि नहीं होता । मैं शरीरोंसे भिन्न नित्यस्वरूप हूं इस प्रकारके विचारसे मोक्षके ही लिये वह जीव प्रयत्न करता है । इस प्रकार यह पञ्चम अन्यत्वाऽनुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ ५ ॥ ___ अशुचि खल्विदं शरीरमिति चिन्तयेत् । तत्कथमशुचीति चेदाद्युत्तरकारणाशुचित्वादशुचिभाजनत्वादशुच्युद्भवत्वादशुभपरिणामपाकानुबन्धादशक्यप्रतीकारत्वाञ्चति । तत्राद्युत्तरकारणाशुचित्वात्तावच्छरीरस्याचं कारणं शुक्रं शोणितं च तदुभयमत्यन्ताशुचीति उत्तरमाहारपरिणामादि । तद्यथा । कवलाहारो हि ग्रस्तमात्र एव श्लेष्माशयं प्राप्य श्लेष्मणा द्रवीकृतोऽत्यन्ताशुचिर्भवति । ततः पित्ताशयं प्राप्य पच्यमानोऽम्लीकृतोऽशुचिरेव भवति । पक्को वाय्वाशयं प्राप्य वायुना विभज्यते पृथक् खलः पृथक् रसः । खलान्मूत्रपुरीषादयो मलाः प्रादुर्भवन्ति रसाच्छोणितं परिणमति शोणितान्मांसम् मांसान्मेदः मेदसोऽस्थीनि अस्थिभ्यो मज्जा मजाभ्यः शुक्रमिति । सर्व चैतच्श्लेष्मादिशुक्रान्तमशुचिर्भवति । तस्मादाद्युत्तरकारणाशुचित्वादशुचि शरीरमिति ॥ किं चान्यत् अशुचिभाजनत्वात् अशुचीनां खल्वपि भाजनं शरीरं कर्णनासाक्षिदन्तमलस्वदश्लेष्मपित्तमूत्रपुरीषादीनामवस्करभूतं तस्मादशुचीति ।। किं चान्यत् । अशुच्युद्भवत्वात् एषामेव कर्णमलादीनामुद्भवः शरीरं तत उद्भवन्तीति । अशुचौ च गर्भे संभवतीति अशुचि शरीरम् ॥ किं चान्यत् । अशुभपरिणामपाकानुबन्धादातवे बिन्दोराधानात्प्रभृति खल्वपि शरीरं कललार्बुदपेशीधनव्यूहसंपूर्णगर्भकौमारयौवनस्थविरभावजनकेनाशुभपरिणामपाकेनानुबद्धं दुर्गन्धि पूतिस्वभावं दुरन्तं तस्मादशुचि ॥ किं चान्यत् । अशक्यप्रतीकारत्वात् अशक्यप्रतीकारं खल्वपि शरीरस्याशुचित्वमुद्वर्तनरूक्षणस्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासयुक्तिमाल्यादिभिरप्यस्य न शक्यमशुचित्वमपनतुमशुच्यात्मकत्वाच्छुच्युपघातकत्वाञ्चेति । तस्मादशुचि शरीरमिति । एवं ह्यस्य चिन्तयतः शरीरे निर्वेदो भवति । निविण्णश्च शरीरप्रहाणाय घटत इति अशुचित्वानुप्रेक्षा ॥६॥ ___ यह शरीर अशुचि अर्थात् अपवित्र है ऐसा चिन्तन करना चाहिये । यदि ऐसा प्रश्न करो कि-किस प्रकार यह शरीर अपवित्र है? तो उत्तर यह है कि-आदि तथा उत्तर कारणके अपवित्र होनेसे, अशुचि अर्थात् अपवित्र वस्तुओंका पात्र होनेसे, अशुचि ( अपवित्र )वस्तुओंका उत्पत्तिस्थान होनेके कारण ( होनेसे ) तथा स्वयं अपवित्र स्थानसे उत्पन्न होनेके कारण, अशुभ परिणामयुक्त परिपाकके सम्बन्धसे, और अशक्य प्रतीकार (उपाय) होनेसे भी यह शरीर अशुचि अर्थात् अपवित्र है। उनमें प्रथम आदि तथा उत्तर कारणका अशुचित्व ( अपवित्रता) इस प्रकार है कि-शुक्र तथा शोणित, अर्थात् पिताका वीर्य और माताका रुधिर यह शरीरका आदिकारण है, इन्ही दो वस्तुओंसे शरीरका Jan पिण्ड प्रथम बनता है, और ये दोनों (शुक्र शोणित, ) अत्यन्त अपवित्र हैं। और उत्तर For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०३ 1 कारण क्या है कि-आहारके परिणाम आदि । क्योंकि - शरीर उत्पन्न होनेके पश्चात् आहारसे ही पालित होता है, इससे उत्तर कारण आहार है, और उस आहारके परिणाम अशुचि हैं । जैसे-कवलाहार ग्रस्त होते ही अर्थात् मुखमें डालकर गलेके नीचे निगलनेके पश्चात् ही श्लेष्माशय (कफ) के स्थानको प्राप्त होकर श्लेष्माके समान द्रवीभूत होकर अत्यन्त अपवित्र होजाता है । उसके अनन्तर पित्ताशय अर्थात् जहांपर पित्त रहता है ऐसे उदरके अन्तर्गत स्थानविशेषको प्राप्त होकर पाकको प्राप्त होता हुआ अम्ल ( खट्टे ) रूप रसको प्राप्त होकर अत्यन्तही अशुचि ( अपवित्र ) हो जाता है । पुनः उसके अनन्तर परिपक्क अर्थात् जीर्ण होकर वाताशय ( वातके स्थानविशेष ) को प्राप्त होकर वह आहार वातके द्वारा पृथक् २ भागोंमें विभक्त किया जाता है । अर्थात् वायुसे आहारका खलभाग पृथक् हो जाता है, और रसभाग पृथक् हो जाता है । अर्थात् तिल सर्षप आदिको यन्त्र में ( कोल्हू में ) डालके पेरनेसे जैसे खल भाग अलग होता है और रस ( तेल ) भाग अलग होता है, यही दशा भुक्त आहारकी भी पित्तके द्वारा परिपाकदशामें प्राप्त होकर वायुसे खल (स्थूल ) भाग अलग हो जाता है और रसभाग अलग होजाता है । उसमें भी खलभागसे तो मूत्र, मल (विष्ठा ) आदि मल उत्पन्न होते हैं । और रससे शोणित ( रुधिर ) परिणाम होता है, अर्थात् रस रुधिररूप में परिवर्तित ( बदल ) जाता है; रुधिरसे मांस, मांससे मेदा अर्थात् मांससे जन्य और अस्थि (हड्डी ) का कारण धातुविशेष उत्पन्न होता है, मेदासे अस्थि, और अस्थिसे मज्जा ( अस्थिजन्य शुक्रका कारण धातुविशेष ) उत्पन्न होता है; और मज्जा से शुक्र अर्थात् वीर्य उत्पन्न होता है । यह श्लेष्मासे लेकर शुक्रपर्यन्त सब अर्थात् रसादिशुक्रान्त सप्त धातु अत्यन्त अशुचि ( अपवित्र ) हैं । इसलिये आदि तथा उत्तर शरीरके कारण अपवित्र होनेसे शरीर अपवित्र है । और यह अन्य भी शरीर के अशुचित्वमें हेतु है । जैसे- अशुचिभाजनत्वरूप हेतुसे भी यह शरीर अशुचि है; अशुचिभाजन इसका यह अर्थ है कि - अशुचि वस्तुओंका पात्र होनेसे शरीर अपवित्र है । अशुचि वस्तुओंका पात्र शरीर इस प्रकार है कि - कर्ण (कान), नासिका, नेत्र, तथा दांतोंके मल, प्रस्वेद ( पसीना ), कफ, पित्त, मूत्र तथा विष्ठा आदि मलोंका यह आश्रयस्थान है अत एव स्वयम् अपवित्ररूप ही है । और यह अन्य भी हेतु है कि - यह शरीर अशुच्युद्भव है; अशुच्युद्भव इसका यह अर्थ है कि - अशुचि जो नासिका नेत्र आदि सप्त ऊपरके छिद्रोंसे और दो नीचेके छिद्रोंसे मल उत्पन्न होते हैं उनका उद्भव अर्थात् उत्पत्तिस्थान है, अथवा अशुचि जो गर्भ है उससे यह शरीर उत्पन्न होता है. इस हेतुसे 1 १ श्लेष्माशय, पित्ताशय, तथा वायुका आशय ये तीन श्लेष्मा, पित्त, तथा वायु जिन तीन धातुओंसे शरीरकी स्थिति व क्रिया होती है उनके रहनेके स्थान विशेष हैं । ये तीनों भुक्त आहारको श्लेष्मास्थिति से क्रमशः वीर्यदशातक पहुँचाते हैं । For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् यह अशुचि है। और इस शरीर के अशुचि होनेमें अन्य हेतु यह भी है कि - यह अशुभपरिणाम पाकाऽनुबन्ध होनेसे भी अशुचि है; क्योंकि गर्भाशय में बिन्दु अर्थात् वीर्यरूप बिन्दुके आधान ( गर्भाधान ) समयसे आरम्भ करके कलल ( शुक्रशोणितके संयोगसे गर्भकी अवस्थाविशेष), अर्बुद (पिण्डाकार होनेको आरूढ ), पेशी (मांसपिण्डाकार ), घन ( काठिन्ययुक्त मांसपिण्ड),व्यूह(हस्तपादआदिकी रचनासहित गर्भकी अवस्थाविशेष), सम्पूर्ण गर्भ, कौमारयौवन, तथा स्थविर अर्थात् वृद्धमान आदिका जनक ( उत्पादक ) जो अशुभ परिणामविपाक है उससे अनुबद्ध (सम्बद्ध ) दुर्गन्धयुक्त ( सड़नेका स्वभाव होनेसे अति दुर्गन्धसहित ) और दुःखमय अन्त होने से यह शररि अशुचि है । और अन्य यह भी है कि अशक्य प्रतीकार ( जिसका असाध्य उपाय है ऐसे ) हेतुसे भी यह शरीर अशुचि ( अपवित्र ) है | अशक्यप्रतीकार इसका आशय यह है कि उबटनसे निर्मलीकरण, रूक्षण ( रूखा करना ), स्नान, अनुलेपन, धूप, प्रघर्षण ( नखआदिसे घर्षण ) और सुगन्धित इतर तैल आदिके संयोग तथा पुष्पमाला धारण आदि युक्तियोंसे भी इस शरीर की अपवित्रताको दूर नहीं कर सकते, क्योंकि यह अशुचिरूप ही है, और अपने सम्बन्धसे पवित्रताका उपघातक (नाशक) है। इसलिये पूर्वोक्त हेतुओंसे यह शरीर अशुचि है; ऐसा चिन्तन करना चाहिये । क्योंकि इस प्रकार शरीरको चिन्तन करनेवाले जीवको शरीरमें ग्लानि तथा वैराग्य उत्पन्न होता है | निर्वेद ( ग्लानि वा वैराग्य ) सहित होनेसे वह जीव शरीर के नाश तथा मोक्षकी प्राप्तिके लिये चेष्टा करता है, इस रीति से यह षष्ठ अशुचित्वानुप्रेक्षा कही गई ॥ ६ ॥ आस्रवानिहामुत्रापाययुक्तान्महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णानकुशल । गम कुशलनिर्गमद्वार भूतानि - न्द्रियादीनवद्यतश्चिन्तयेत् । तद्यथा । स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्तचित्तः सिद्धोऽनेकविद्याबलसंपन्नोऽप्याकाशगोऽष्टाङ्गमहानिमित्तपारगो गार्ग्यः सत्यकिर्निधनमाजगाम । तथा प्रभूतयवसोदकप्रमाथावगाहादिगुणसंपन्नवनविचारिणश्च मदोत्कटा बलवन्तोऽपि हस्तिनो हस्तिबन्धकीषु स्पर्शनेन्द्रियसत्तचित्ताग्रहणमुपगच्छन्ति । ततो बन्धवधद्मनवाहनाङ्कुशपाणिप्रतोदाभिघातादिजनितानि तीव्राणि दुःखान्यनुभवन्ति । नित्यमेव स्वयूथस्य स्वच्छन्द प्रचारसुखस्य वनवासस्यानुस्मरन्ति तथा मैथुनसुखप्रसङ्गादाहितगर्भाश्वतरी प्रसवकाले प्रसवितुमशक्नुवन्ती तीव्रदुःखाभिहतावशा मरणमभ्युपैति । एवं सर्वे एव स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्ता इहामुत्र च विनिपातमृच्छन्तीति ॥ तथा जिह्वेन्द्रियप्रसक्ता मृतहस्तिशरीरस्थस्रोतोवेगोढवायसवत् हैमनघृतकुम्भप्रविष्टमूषिकवत् गोष्ठप्रस कहदवासिकूर्मवत् मांसपेशीलुब्धश्येनवत् बडिशामिषगृद्धमत्स्यवच्चेति ॥ तथा प्राणेन्द्रियप्रसक्ता ओषधिगन्धलुब्धपन्नगवत् पललगन्धानुसारिमूषिक वच्चेति ॥ तथा चक्षुरिन्द्रियप्रसक्ताः स्त्रीदर्शनप्रसङ्गादर्जुनकचोरवत् दीपालो - कलोलपतङ्गवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । तथा श्रोत्रेन्द्रियप्रसक्तास्तित्तिरकपोतकपिञ्जलवत् गीतसंगीतध्वनिलोलमृगवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । एवं हि चिन्तयन्नावनिरोधाय घटत इति आस्रवानुप्रेक्षा ॥ ७ ॥ For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०५ इस लोक तथा परलोकमें भी विघ्नकारक, बड़ी २ नदियोंके प्रवाहके वेगसदृश अति उग्र (तेज वा भयङ्कर ), अकुशल ( मूर्ख ) तथा शास्त्रकुशल पण्डितोंके भी, कर्मोंके निर्गम (आगमन )के द्वारभूत आस्रवरूप इंद्रियोंको, आत्माको कल्याणमार्गसे खण्डित करनेवाले चिन्तन करना चाहिये । अर्थात् “कर्मोंके आत्मामें अर्थात् प्रदेशमें आगमनके निमित्तभूत इंद्रियां निन्दनीय पापकर्मों में आत्माको फँसाकर उसे कल्याणमार्गसे पृथक् ( अलग) करदेती हैं ऐसा चिन्तन करना चाहिये" जैसे-स्पर्शन इद्रियमें आसक्तचित्त (फँसाहुआ) अनेक विद्या तथा बलसम्पन्न ( सहित ) और अष्टाङ्गके महानियमोंके पारङ्गत होनेपर भी सत्यकि गार्ग्य मरणको प्राप्त हुआ तथा नानाप्रकारके अत्यन्त सघन वृक्ष, तृण, जल आदिके द्वारा महाक्लेशकारक गणोंसे सम्पन्न ( सहित ) वनोंमें विचरनेवाले मदोन्मत्त, अति उद्धत तथा बलवान् हाथी भी हाथियोंके बन्धनमें हेतुभूत दुष्ट हथिनियों ( कृत्रिम वा यथार्थ )में स्पर्शन इन्द्रिय ( उपस्थ वा शिष्ण )से आसक्त होनेसे ग्रहणदशाको प्राप्त होते हैं । और इससे ( पकड़में आजानेके पीछे ) बन्धन, मरण, निग्रह, वाहन (सवारीको वहन करना वा लेजाना) तथा अङ्कुशोंके द्वारा, गण्डस्थलोंमें छेदन भेदन आदि नानाप्रकारके प्रहारों (चोटों)से उत्पन्न अति कठोर दुःखोंको सहन करते हैं। और सदा अपनी इच्छाके अनुसार अपने झुण्डके बनमें विचरने (भ्रमण करने )के सुख सहित वनवासको स्मरण किया करते हैं । और इसी रीति ( स्पर्शन इन्द्रियके आनन्दमें फसने )से मैथुनसुखके कारण गर्भ धारण करनेवाली अश्वतरी (खच्चरी )प्रसूति (बालकजनन ) समयमें प्रसव न कर सकती हुई अतिभयङ्कर महादुःखसे पीडित व अवश होकर मरण अवस्थाको प्राप्त होती है । इसी प्रकार सभी जो स्पर्शन इन्द्रिय ( त्वगिन्द्रिय )के सुखमें आसक्त हो ( फँस )जाते हैं वे इसलोक तथा परलोकमें भी पतनको ही प्राप्त होते हैं । तथा इसी (पूर्वकथित ) रीतिसे जो प्राणी जिह्वा इन्द्रियके सुखमें आसक्त हो (फँस ) जाते हैं वे भी नदीमध्यस्थित मरे हुए हाथीके शरीरपर स्थित (विद्यमान) जलप्रवाहके वेगसे वाहित (बहे हुए) काक (कौवे )के समान, हेमन्तऋतुमें(जाड़े वा शीत कालमें ) घृतके कुम्भ (घट वा घड़े )में प्रविष्ट (घुसे हुए ) घृतमें निमग्न (फँसे ) मूषक ( चूहे )के तुल्य, गोष्ठ (गौओंके निवासस्थान )में आसक्त हृदनिवासी कच्छप ( कछुये ) के सदृश, मांसके खण्ड (टुकड़े )के लोभी बाज पक्षीके समान, तथा कटिये बा बंशीमें लगे हए मांस (वा पिष्ट आटा आदि )के लोभी मत्स्य (मछली) तुल्य मरणकोही प्राप्त होते हैं। और घाण इन्द्रियमें आसक्त (फँसे हुए) जन भी औषधके गन्धके लोभी सर्प ( साँप ) के समान, मांसके गन्धके अनुगामी (मांसके गन्धको निश्चय करके उसके अनुसार चलनेवाले मूषक ('चूहे )के तुल्य मृत्युकोही प्राप्त होते हैं । और इसी (प्रथमकथित ) रीतिके अनुसार नेत्र (आंख ) इन्द्रियके आनन्दमें निमग्न (फँसे हुए) स्त्रीके For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दर्शन प्रसङ्गसे अर्जुन चोरके समान, तथा दीपके प्रकाशके लोभी पतङ्गके तुल्य पतन ( मरण) कोही प्राप्त होते हैं । इस प्रकारका चिन्तन (विचार) करना चाहिये और इसी प्रकार कर्ण (श्रोत्र वा कान) इन्द्रियके विषयमें आसक्त तित्तिर ( तीतर वा तीतल), कपोत (कबूतर ), कपिल, और गीत तथा वाद्यकी ध्वनिके लोभी मृगके समान विनिपात ( मरण)को प्राप्त होते हैं, ऐसा विचार करना चाहिये । इसप्रकार चिन्तन करता हुआ यह प्राणी आस्रवके निरोधके लिये समर्थ होता है। इसप्रकार यह सप्तमी आस्रवानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ ७॥ ___ संवरांश्च महाव्रतादिगुप्त्यादिपरिपालनाद्गुणतश्चिन्तयेत् । सर्वे ह्येते यथोक्तास्रवदोषाः संवृतात्मनो न भवन्तीति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतो मतिः संवरायैव घटत इति संवरानुप्रेक्षा ॥८॥ तथा गुप्ति (मनो, वाक्, काय )आदिके परिपालन रूप गुणोंसे पञ्च महाव्रत स्वरूप संवरोंका इस जीवको विचार करना चाहिये । क्योंकि जिसका आत्मा संवृत है अर्थात् जो संवरगुणसहित है उस जीवको आस्रवके जो सब दोष कहे गये हैं वे सभी नहीं होते ऐसा चिन्तन करना चाहिये । इस रीतिसे चिन्तन करनेवालेकी बुद्धि संवरके लिये समर्थ होती है, यह अष्टमी संवराऽनुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ ८॥ निर्जरा वेदना विपाक इत्यनान्तरम् । स द्विविधोऽबुद्धिपूर्वः कुशलमूलश्च । तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाको योऽबुद्धिपूर्वकस्तमुद्यतोऽनुचिन्तयेदकुशलानुबन्ध इति । तपःपरीषहजयकृतः कुशलमूलः । तं गुणतोऽनुचिन्तयेत् । शुभानुबन्धो निरनुबन्धो वेति । एवमनुचिन्तयन्कर्मनिर्जरणायैव घटत इति निर्जरानुप्रेक्षा ॥९॥ निर्जरा (एकदेश कर्मोंका क्षय वा सामान्यरूपसे कर्मक्षय ), बेदना (कर्मफलोंका अनुभव ) तथा विपाक (कर्मोंका फलयोग ) ये सब एक अर्थवाचक शब्द हैं । वह निर्जरा अथवा विपाक दो प्रकार का है, एक तो अबुद्धि (अज्ञान ) पूर्वक, और दूसरा कुशल (शुभाचरण) मूलक । इनमेंसे नरक आदिमें कर्मोंके फलोंका जो विपाक ( कर्मफलोंका अनुभव वा भोग) है उस सबको निन्दनीय समझै और यह चिन्तन करै कि यह सब अकुशल अर्थात् , दुष्ट कर्मोंकाही अनुबन्ध ( सम्बध वा फल ) है । और द्वादश तप तथा द्वाविंशति ( बाईस ) परीषहजयसे जो किया है वह कुशलमूलक अर्थात् शुभाचरणसे उत्पन्न हुआ है । उसके गुणके अनुसार चिन्तन करै; कि यह शुभअनुबन्ध (शुभचारित्रोंसे सम्बन्ध रखनेवाला) है अथवा अनुबन्धरहित है। इस प्रकारसे चिन्तन करता हुआ प्राणी कर्मोंके निर्जरण अर्थात् नाश करनेहीमें समर्थ होता है; इस रीतिसे यह नवम निर्जराऽनुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ ९॥ पञ्चास्तिकायात्मकं विविधपरिणाममुत्पत्तिस्थित्यन्यतानुग्रहप्रलययुक्तं लोकं चित्रस्वभाव. मनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवतीति लोकानुप्रेक्षा ॥ १०॥ For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०७ पञ्चास्तिकाय अर्थात् जीवास्तिकाय आदि पञ्चास्तिकाय स्वरूप अनेक प्रकारके परिणामों (परिवर्तनों) से संयुक्त, तथा उत्पत्ति, स्थिति, अन्यभावकी प्राप्ति, तथा नाशसे युक्त यह संसार है ऐसा चिन्तन करै । इस प्रकार विचार करते हुए इस जीवकी तत्त्वज्ञानकी परिशुद्धता होती है । यह इस रीतिसे दशम लोकाऽनुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ १० ॥ ___ अनादौ संसारे नरकादिषु तेषु भवग्रहणेष्वनन्तकृत्वः परिवर्तमानस्य जन्तोर्विविधदुःखाभिहतस्य मिथ्यादर्शनाद्युपहतमतेर्ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायोदयाभिभूतस्य सम्यग्दर्शनादिविशुद्धो बोधिदुर्लभो भवतीत्यनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य बोधिदुर्लभत्वमनुचिन्तयतो बोधिं प्राप्य प्रमादो न भवतीति बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा ॥११॥ . अनादिकालसे सिद्ध इस संसारमें, नरक आदिमें, उन २ जन्मोंके धारण करने, अनन्तवार भ्रमण करते हुए, अनेक प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित, मिथ्यादर्शन आदिसे नष्ट बुद्धिवाले, तथा ज्ञानावरणीय, दशर्नावरणीय, मोह और अन्तरायभूत कर्मोंके उदयसे पराजित इस जीवको सम्यग्दर्शन आदिसे सर्वथा शुद्ध ज्ञानकी प्राप्ति अतिदुर्लभ है ऐसा चिन्तन करै। इस रीतिसे बोधिदुलर्भताका निरन्तर अनुचिन्तन करतेहुए इस जीवको बोधिकी प्राप्ति होती है, और बोधिको प्राप्त करनेसे प्रमाद अर्थात् अशुभाचरण नहीं होता, इस प्रकारसे यह एकादश बोधिदुर्लभत्वाऽनुप्रेक्षा वर्णित हुई ॥ ११ ॥ __ सम्यग्दर्शनद्वारः पञ्चमहाव्रतसाधनो द्वादशाङ्गोपदिष्टतत्त्वो गुप्त्यादिविशुद्धव्यवस्थानः संसारनिर्वाहको निःश्रेयसप्रापको भगवता परमर्षिणाहताहो व्याख्यातो धर्म इत्येवमनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य धर्मस्वाख्याततत्त्वमनुचिन्तयतो मार्गाच्यवने तदनुष्ठाने च व्यवस्थानं भवतीति धर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनानुप्रेक्षा ॥ १२॥ ___ सम्यग्दर्शनका द्वारभूत, अर्थात् सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका द्वार ( दरवाजा ), पञ्चमहाव्रत. रूप साधनोंसे संयुक्त, द्वादश ( बारह ) अङ्गोंसे युक्त, सब जीव आदि तत्त्वोंका उपदेश करनेवाला, गुप्ति आदिके अतिशुद्ध व्यवस्थान (व्यवस्था वा मर्यादा ) सहित, संसारसे पार उतारनेवाला (अथवा संसारनाशक ), तथा मोक्षका प्रापक, भगवान् परमर्षि अर्हतकरके कथित धर्म कैसा उत्तम है, अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा चिन्तन सदा करना चाहिये । इस प्रकारसे धर्मसे कथित तत्त्वको अनुचिन्तन करते हुए इस जीवका मार्ग (धर्ममार्ग) से पतन न होने तथा धर्ममार्गके अनुकूल अनुष्ठान करनेमें व्यवस्थिति होती है । इस रीतिसे यह द्वादश धर्मस्वाख्याततत्त्वानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ १२ ॥ ७ ॥ उक्ता अनुप्रेक्षाः । परीषहान्वक्ष्यामः। अनुप्रेक्षाओंको कहचुके, अब इसके पश्चात् परीषहोंको कहेंगे। मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः॥८॥ भाष्यम्-सम्यग्दर्शनादेर्मोक्षमार्गादच्यवनाथ कर्मनिर्जरार्थ च परिषोढव्याः परीषहा इति । तद्यथा। For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या सन्मार्गसे न गिरने तथा कर्मोंकी निर्जरा(नाश)के लिये परीषहों (अनेक प्रकारके उपद्रवों वा पीड़ाओं )को सहन करना चाहिये । अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि जो मोक्षमार्ग है उससे अच्यवन (न गिरने ) के अर्थ तथा कर्मोंकी निर्जरा ( एकदेशी नाश )के अर्थ वक्ष्यमाण द्वाविंशति ( २२ बाईस ) परीषहोंको सहन करना चाहिये ॥८॥ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि९ __ भाष्यम्-क्षुत्परीषहः पिपासा शीतम् उष्णं दंशमशकं नाग्न्यम् अरतिः स्त्रीपरीषहः चर्यापरीषहः निषद्या शय्या आक्रोशः वधः याचनम् अलाभः रोगः तृणस्पर्शः मलं सत्कारपुरस्कारः प्रज्ञाज्ञानेऽदर्शनपरीषह इत्येते द्वाविंशतिधर्मविघ्नहेतवो यथोक्तं प्रयोजनमभिसंधाय रागद्वेषौ निहत्य परीषहाः परिषोढव्या भवन्ति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-क्षुत्परीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, नाग्न्यपरीषह, अरतिपरीषह, स्त्रीपरीषह, च-परीषह, निषद्यापरीषह, शय्यापरीषह, आक्रोशपरीषह, वधपरीषह, याचनपरीषह, अलाभपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह, मलपरीषह, सत्कारपुरस्कारपरीषह, प्रज्ञापरीषह, अज्ञानपरीषह, तथा अदर्शनपरीषह; ये बाईस परीषह धर्ममें विघ्नके कारण हैं; इन परीषहोंको, शास्त्रमें कहे हुए प्रयोजनोंको मनमें अनुसंधान (लक्ष्य) करके और राग-द्वेषको दूर कर सहन करना चाहिये ॥ _पञ्चानामेव कर्मप्रकृतीनामुदयादेते परीषहाः प्रादुर्भवन्ति । तद्यथा। ज्ञानावरणवेदनीयदर्शनचारित्रमोहनीयान्तरायाणामिति । ___ पांचो कर्मप्रकृतियोंके उदयसे ये परीषह ( उपद्रव वा पीड़ा अथवा कष्ट ) उत्पन्न होते हैं । पांचो कर्मप्रकृतियां क्रमसे ए हैं ज्ञानावरणीय, वेदनीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, तथा अन्तराय ॥ ९॥ सूक्ष्मसंपरायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥१०॥ सूक्ष्मसंपरायसंयते छद्मस्थवीतरागसंयते च चतुर्दश परीषहा भवन्ति क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याप्रज्ञाज्ञानालाभशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलानि । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-सूक्ष्मसंपरायसंयत, तथा छद्मस्थवीतरागसंयत गुणस्थानवीमें चौदह परीषह होते हैं; जैसे:-क्षुत्परीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, उष्णपरीषह, दंशमशकपरीषह, च-परीषह, प्रज्ञापरीषह, अज्ञानपरीषह, अलाभपरीषह, शय्यापरीषह, वधपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह, तथा मलपरीषह, ये चतुर्दश (चौदह १४ ) परीषह उक्त दोनो गुणस्थानोंमें होते हैं ॥ १० ॥ एकादश जिने ॥११॥ भाष्यम्--एकादश परीषहाः संभवन्ति जिने वेदनीयाश्रयाः । तद्यथा । क्षुत्पिपासाशीतो. ष्णदंशमशकचर्याशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलपरीषहाः। For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०९ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वेदनीय कर्मप्रकृतिके आश्रयीभूत एकादश (ग्यारह ११) परीषह जिन (भगवान्) में हो सकते हैं उनके नाम ये हैं । क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, तथा मलपरीषह, इन ग्यारह परीषहोंका संभव जिन भगवानमें भी है ॥ ११ ॥ बादरसंपराये सर्वे ॥१२॥ भाष्यम्-बादरसंपरायसंयते सर्वे द्वाविंशतिरपि परीषहाः संभवन्ति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-बादर-संपराय-संयत गुणस्थानवी जीवमें सब अर्थात् क्षुत्पिपासा आदि २२ बाईसो परीषह होसकते हैं ॥ १२ ॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३ ॥ भाष्यम्-ज्ञानावरणोदये प्रज्ञाज्ञानपरीषहौ भवतः । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-ज्ञानावरणीय कर्मप्रकृतिके उदयमें प्रज्ञापरीषह तथा अज्ञानपरीषह होते हैं ॥ १३ ॥ दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥१४॥ भाष्यम्-दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ यथासङ्ख्यं दर्शनमोहोदयेऽदर्शनपरीषहः लाभान्तरायोदयेऽलाभपरीषहः । . सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-दर्शनमोह तथा अन्तराय नाम कर्मप्रकृतियोंके उदयमें यथासंख्य (क्रम ) से दर्शनपरीषह तथा अलाभपरीषह होते हैं । अर्थात् दर्शनमोह प्रकृतिके उदयमें तो अदर्शनपरीषह (दर्शनाभाव ) होता है और लाभाऽन्तरायके उदयमें अलाभपरीषह होता है ॥ १४ ॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः१५ भाष्यम्-चारित्रमोहोदये एते नाग्न्यादयः सप्त परीषहा भवन्ति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-चारित्रमोहनीय कर्मप्रकृतिके उदयमें नाम्य आदि सप्त (सात) परीषह होते हैं । अर्थात् चारित्रमोहनीय प्रकृति जब उदयको प्राप्त होती है तब नाग्न्यपरीषह, अरतिपरीषह, स्त्रीपरीषह, निषद्यापरीषह, आक्रोशपरीषह, याचनापरीषह, तथा सत्कारपुरस्कारपरीषह होते हैं ॥ १५॥ वेदनीये शेषाः ॥१६॥ भाष्यम्-वेदनीयोदये शेषा एकादश परीषहा भवन्ति ये जिने संभवन्तीत्युक्तम् । कुतः शेषाः । एभ्यः प्रज्ञाज्ञानादर्शनालाभनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्कारेभ्य इति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वेदनीय कर्मप्रकृतिके उदयमें शेष (बाकी) परीषह जो कि जिन भगवान्में होते हैं वे होते हैं इनमें शेषत्व कहांसे है इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञानावरण .. For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रकृतिके उदयमें प्रज्ञा तथा अज्ञान, दर्शनमोहनीय तथा अन्तरायके उदयमें अदर्शन तथा अलाभ चार ये, और चारित्रमोहनीयके उदयमें नाश्य आदि सात = ४+७ = ११ । अर्थात् प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन, अलाभ, नान्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचन, और सत्कारपुरस्कार इन ग्यारहसे जो शेष ग्यारह रह गये वे वेदनीय कर्मप्रकृतिके उदयमें जो कि जिनमें कहे गये हैं, होते हैं ॥ १६ ॥ एकादयो भाज्या युगपदेकोनविंशतेः ॥ १७ ॥ भाष्यम् – एषां द्वाविंशतेः परीषहाणामेकादयो भजनीया युगपदेकस्मिन् जीवे आ एकोनविंशतेः । अत्र शीतोष्णपरीषहौ युगपन्न भवतः । अत्यन्तविरोधित्वात् । तथा चर्याशय्यानि - षद्यापरीषाणामेकस्य संभवे द्वयोरभावः । सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या – इन बाईस २२ परीषहों के मध्य में एकही कालमें एक पुरुषमें एक आदिका विभाग करना उचित है । अर्थात् एकही समय एक पुरुष में एकसे लेकर उन्नीस १९ तक हो सकते हैं । तात्पर्य यह कि किसी में एक परीषह होता है किसी में दो, किसी में तीन, इस क्रमसे उन्नीसपर्य्यन्त होसकते हैं । परन्तु यहांपर यह भी जानना योग्य है कि एक कालमें एकही पुरुषमें शीतपरीषह तथा उष्ण परीषह ये दोनों नहीं होते, क्योंकि शीत तथा उष्णका परस्पर अत्यन्त विरोध है । ऐसे ही चर्य्या, शय्या, तथा निषद्या, इन तीन परीषहोंमेंसे जब एककी सत्ताका सम्भव होता है तब शेष दोनोंका अभावही रहता है; क्योंकि चर्य्या (गति), शय्या ( शयन) और निषद्या ( स्थिति ), इनमें भी विरोध होनेसे जब गमन होगा, तब शयन तथा स्थिति वा निषद्या ( खड़ा होना) नहीं होस - कता । इसीप्रकार जब शय्या होगी तब निषद्या तथा चर्य्या न होगी, तथा जब चर्या होगी तब निषद्या तथा शय्या न होगी ॥ १७॥ सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्म संपराययथाख्यातानि चारित्रम् ॥ १८ ॥ सामायिकसंयमः छेदोपस्थाप्यसंयमः परिहारविशुद्धिसंयमः सूक्ष्मसंपरायसंयमः यथाख्यातसंयम इति पञ्चविधं चारित्रम् तत्पुलाकादिषु विस्तरेण वक्ष्यामः । सूत्रार्थ — सामायिकसंयम, छेदोपस्थाप्यसंयम, परिहारविशुद्धिसंयम, सूक्ष्मसंपरायसंयम, और यथाख्यातसंयम, यह पांच प्रकारका चारित्र है । पुलाकादिप्रकरण में इन चारित्रोंको विस्तारपूर्वक कहेंगे ॥ १८ ॥ अनशनाव मौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरस परित्यागविविक्त शय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥ १९ ॥ सूत्रार्थ – अनशनादि छे प्रकारका बाह्य तप है । भाष्यम् – अनशनम् अवमौदर्यवृत्तिपरिसङ्ख्यानं रसपरित्यागः विविक्तशय्यासनता काय For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २११ क्लेश इत्येतत्षड्विधं बाह्यं तपः सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिरित्यतः प्रभृति सम्यगित्यनुवर्तते । संयमरक्षणार्थं कर्मनिर्जरार्थं च चतुर्थषष्ठाष्टमादि सम्यगनशनं तपः ॥ विशेषव्याख्या – अनशन ( भोजनाभाव अथवा उपवास ), अवमौदर्य (न्यूनाहारता ), वृत्तिपरिसंख्यान ( जीविकाका नियम ), रसपरित्याग ( उत्तम स्वादिष्ट पदार्थों का त्याग ), विविक्तशय्यासनता ( एकान्तमें शयन तथा आसन) और कायक्लेश ( शरीरको क्लेश देना ) यह छः प्रकारका बाह्य तप है | 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः' (अध्या० ९ सू० ४) इस सूत्र से यहांपर " सम्यक् " इस पदकी अनुवृत्ति होती है; अर्थात् सम्यक् पद इस सूत्र में आता है । इससे यह अर्थ है कि जो संयमकी रक्षाके लिये तथा कर्मोंकी निर्जरा ( हानि वा नाश) के लिये चतुर्थ, षष्ठ (छठे ) वा अष्टम आदि समयोंमें उपवास करना है वह सम्यकू अनशन (उत्तम उपवास ) रूप बाह्य तप है । मौदर्यम् अवममित्यूननाम । अवममुदरमस्य अवमोदरः अवमोदरस्य भावः अवमौ - दर्यम् । उत्कृष्टावकृष्टौ वर्जयित्वा मध्यमेन कवलेन त्रिविधमवमौदर्य भवति । तद्यथा । अल्पाहारावमौदर्यमुपार्थावमौदर्य प्रमाणप्राप्तात्किचिदूनावमौदर्यमिति कवलपरिसङ्ख्यानं च प्राग्द्वात्रिंशद्भ्यः कवलेभ्यः ॥ अवमौदर्य "अवम" यह न्यून ( क्रम ) वाची नाम है, अर्थात् अवम इसका अर्थ न्यून है, इस लिये अवम (न्यून ) अर्थात् खाली है उदर पेट जिसका वह अवमोदर है और अमोदरका जो भाव है वह अवौदर्य है । अर्थात् उदरका भारीपन न होना । उत्कृष्ट तथा अवकृष्टको अर्थात् सर्वोत्कृष्टता तथा सर्व न्यूनताको त्यागकर मध्य कवल ( मध्यम कवलाहार ) से तीन प्रकारका अवमौदर्य्य होता है । जैसे- अल्पाहार अवमौदर्य ( अल्प · भोजनसे पेटका हलकापना ), उपाधवमौदर्य (अर्द्धभोजनसे अवमौदर्य ), तथा प्रमाण जो प्राप्त है उससे अवमौदर्य्य ( पेटकी न्यूनता ) और इसमें कवलों (ग्रासों) की परिसंख्या (गणना) करनी होती है, जैसे बत्तीस कवलोंसे न्यून आहार करना । वृत्तिपरिसङ्ख्यानमनेकविधम् । तद्यथा । उत्क्षिप्तान्तप्रान्तचर्यादीनां सक्तकुल्माषैौदनादीनां चान्यतममभिगृह्यावशेषस्य प्रत्याख्यानम् ॥ तृतीय वृत्तिपरिसङ्ख्यानरूप बाह्य तप अनेक प्रकारका है । जैसे उत्क्षिप्त, तथा प्रान्त, चर्य्या आदिमेंसे, और सक्त ( सत्तू ), कुल्माष, अर्द्धपरिपक्क गेहूँ चने आदि मिश्रित ( मिलित अन्न ) तथा ओदन (भात) इनमें से किसी एकको ग्रहण करके दूसरोंका त्याग । रसपरित्यागोऽनेकविधः । तद्यथा । मद्यमांसमधुनवनीतादीनां रसविकृतीनां प्रत्याख्यानविरसरूक्षाद्यभिग्रहश्च ॥ ऐसेही रसपरित्याग चतुर्थ बाह्य तप भी अनेक प्रकारका है । जैसे- मद्य, मांस, मधु, तथा स्त्री आदि रसविकारोंका त्याग, और कुरस रूक्ष आदि पदार्थोंका ग्रहण करना । तथा पञ्चम बाह्य तप विविक्त शय्यासनता है, जिसका तात्पर्य यह है कि एकान्त - For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रकारकी बाधाओंरहित, संसर्गशून्य तथा स्त्री, पशु और नपुंसक जीवोंसे वर्जित, जो शून्य गृह, देवालय, सभा तथा पर्वतकी गुहा ( गुफा ) हैं, इनमेंसे किसी एकका समाधिके लिये आश्रय लेना, अर्थात् इन स्थानोंमेंसे किसी एकमें निवास करके समाधिमें निमग्न रहना ॥ विविक्तशय्यासनता नाम एकान्ते ऽनाबाधेऽसंसक्ते स्त्रीपशुषण्डकविवर्जिते शून्यागारदेवकुलसभापर्वतगुहादीनामन्यतमे समाध्यर्थ संलीनता ॥ ___ कायक्लेशोऽनेकविधः। तद्यथा । स्थानवीरासनोत्कडुकासनैकपार्श्वदण्डायतशयनातापनाप्रा. वृतादीनि सम्यक्प्रयुक्तानि बाह्यं तपः । अस्मात्षडिधादपि बाह्यात्तपसः सङ्गत्यागशरीरलाघवेन्द्रियविजयसंयमरक्षणकर्मनिर्जरा भवन्ति ॥ षष्ठ बाह्य तप कायक्लेश भी अनेक प्रकारका है । जैसे, स्थान (कायक्लेशदायक किसी प्रकारकी स्थिति ), वीरासन (आसनविशेष ), उत्कडु (टु) क आसन, पार्श्व तथा दण्डायत शयन, धर्म (घाम वा धूप ) स्थानमें स्थिति, तथा आवरण (छप्पर) आदि वृष्टि आदिके निरोध करनेके पदार्थोंसे वर्जित स्थानमें निवास आदि, ये सब उत्तम रूपसे किये हुए बाह्य तप हैं । इस छः प्रकारके भी बाह्य तपसे संगका त्याग, शरीरकी लघुता, इन्द्रियोंका जीतना, संयमोंकी रक्षा और कर्मनिर्जरारूप फल होते हैं ॥ १९ ॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ भाष्यम्-सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरमित्यभ्यन्तरमाह । प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्त्यं स्वाध्यायो व्युत्सर्गो ध्यानमित्येतत्षड्डिधमाभ्यन्तरं तपः ॥ . सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-सूत्रके क्रमके प्रमाणसे उत्तरके जो तप हैं वे आभ्यन्तर हैं ऐसा कहते हैं । तात्पर्य यह है कि अनशन आदि जो छः तप बाह्य कहे हैं उनके उत्तर (आगे) के प्रायश्चित्त आदि छः तप आभ्यन्तर ( भीतर ) आत्मासे सम्बन्ध रखनेवाले, अथवा अनशन आदि षट् बाह्य ( बहिरङ्ग) तप हैं, और उनके उत्तरके प्रायश्चित्त आदि छः आभ्यन्तर ( अन्तरङ्ग ) हैं । वे क्रमसे प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, तथा ध्यान ये ६ आभ्यन्तर तप हैं ॥ २०॥ नवचतुर्दशपंचद्विभेदं यथाक्रमं प्रारध्यानात् ॥२१॥ भाष्यम्-तदाभ्यन्तरं तपः नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदं भवति यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् । इत उत्तरं यद्वक्ष्यामः । तद्यथा । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वह आभ्यन्तर तप ध्यानके पूर्व नव (नौ), चार, दश; पांच तथा द्वि (दो) भेद सहित यथाक्रमसे जानना चाहिये, अर्थात् प्रायश्चित्त ९ भेद सहित है, विनय ४ भेद, वैयावृत्त्य १० भेद, स्वाध्याय ५ भेद, तथा व्युत्सर्ग २ भेदसहित है। अब इसके अनन्तर उन भेदोंको कहेंगे। जैसे:- ... For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २१३ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनानि ॥२२॥ भाष्यम्-प्रायश्चित्तं नवभेदम् । तद्यथा । आलोचनं प्रतिक्रमणं आलोचनप्रतिक्रमणे विवेकः व्युत्सर्गः तपः छेदः परिहारः उपस्थापनमिति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या–प्रायश्चित्त नामक आभ्यन्तर तप नौ ९ भेद सहित है। जैसे-आलोचन १ प्रतिक्रमण २ आलोचनप्रतिक्रमण ३ विवेक ४ व्युत्सर्ग ५ तप ६ छेद ७ परिहार ८ और उपस्थापन ९॥ आलोचनं प्रकटनं प्रकाशनमाख्यानं प्रादुष्करणमित्यनान्तरम् । प्रतिक्रमणं मिथ्यादुकृतसंप्रयुक्तः प्रत्यवमर्शः प्रत्याख्यानं कायोत्सर्गकरणं च । एतदुभयमालोचनप्रतिक्रमणे । विवेको विवेचनं विशोधनं प्रत्युपेक्षणमित्यनान्तरम् । स एष संसक्तानपानोपकरणादिषु भवति । व्युत्सर्गः प्रतिष्ठापनमित्यनन्तरम् । एषोऽप्यनेषणीयान्नपानोपकरणादिष्वशङ्कनीयविवेकेषु च भवति । तपो बाह्यमनशनादि प्रकीर्ण चानेकविधं चन्द्रप्रतिमादि । छेदोऽ- . पवर्तनमपहार इत्यनर्थान्तरम् । स प्रव्रज्यादिवसपक्षमाससंवत्सराणामन्यतमानाम् भवति । परिहारो मासिकादिः । उपस्थापनं पुनर्दीक्षणं पुनश्चरणं पुनव्रतारोपणमित्यनर्थान्तरम् । तदेतन्नवविधं प्रायश्चित्तं देशं कालं शक्तिं संहननं संयमविराधनां च कायेन्द्रियजातिगुणोत्कर्षकृतां च प्राप्य विशुद्धयर्थ यथार्ह दीयते चाचर्यते च । चिती संज्ञानविशुद्धयोर्धातुः तस्य चित्तमिति भवति निष्ठान्तमौणादिकं च ॥ एवमेभिरालोचनादिभिः कृच्छैस्तपोविशेषैर्जनिताप्रमादः तं व्यतिक्रमं प्रायश्चेतयति चेतयंश्च न पुनराचरतीति । ततः प्रायश्चित्तम् । अपराधो वा प्रायस्तेन विशुध्यत इति । अतश्च प्रायश्चित्तमिति ॥ आलोचन, प्रकटन (लोगोंको अपना कृत्य प्रकट करदेना), प्रकाशन, आख्यान, तथा प्रादुष्करण, ये सब एकार्थवाचक अर्थात् पर्यायशब्द हैं १ । प्रतिक्रमण-मिथ्या पापके कारणसे आलोचना, अर्थात् मिथ्या दुष्कृतके कारणसे जो अवमर्श वा परामर्श वा आलोचना और उसका प्रत्याख्यान (त्याग ) तथा शरीरत्याग है उसको प्रतिक्रमण कहते हैं २ और इन पूर्वोक्त दोनोंको मिलाके आलोचन प्रतिक्रमण कहते हैं ३ । और, विवेक विवेचन, विशोधन, तथा प्रत्युपेक्षण ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । अर्थात् किसी विषयके विवेचन अथवा विशेष शोधनको विवेक कहते हैं ४ । और यह विवेक वा विवेचन संसक्त अर्थात् मिलित वा किसीसे सम्बद्ध अन्न, पान तथा वस्त्र आदि सामग्रियोंके विषयमें होता है । तथा व्युत्सर्ग और प्रतिष्ठापन ये दोनों शब्द भी एक अर्थके वाचक हैं, अर्थात् प्रतिष्ठापनको व्युत्सर्ग कहते हैं ५। यह भी अभिलाषा न करनेके योग्य अन्न (भोजन), पान तथा अन्य प्रकारकी सामग्रियोंके विषयमें तथा अशङ्कनीय (शङ्का न करने योग्य ) वा अशक्य विवेकोंके विषयमें होता है । तथा अनशन आदि बाह्य और For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्रकीर्णक चन्द्र प्रतिमा आदि तप ६ रूप प्रायश्चित्त अनेक प्रकारका है । और छेद, अपवर्तन तथा अपहार इन शब्दोंके भी एकही अर्थ हैं । और यह छेद वा अपवर्तनरूप प्रायश्चित्त भी प्रवज्या (गमन ), दिन, पक्ष, मास ( महीना ) तथा वर्ष इनमेंसे किसीमें होता है ७ । मासिकादि परिहार तथा त्याग है ८ । उपस्थापन, पुनर्दीक्षण (फिरसे दीक्षा ग्रहण करनी ), पुनश्चरण ( पुनः करना ) तथा पुनर्वतारोपण ये सब भी एकार्थबोधक शब्द हैं ९ यह सब नौ ९ प्रकारके प्रायश्चित्त देश, काल, शक्ति, संहनन (शरीरके रचना विशेषसे सामर्थ्य), व संयमकी विराधनाको तथा शरीर, इन्द्रिय, जाति, और गुणसे उत्पन्न उत्कर्षता (अधिकता वा उत्तमता) को पाकर शुद्धताके लिये यथायोग्य दिये जाते हैं और किये भी जाते हैं। "चिती" संज्ञाने यह सम्यग् ज्ञान व विशुद्धि अर्थमें धातु है, उस (चिती धातु)से निष्ठाक्त (त) प्रत्यय करनेसे अथवा उणादि 'त' प्रत्यय करनेसे “चित्त" यह शब्द सिद्ध होता है । तो इससे यह अभिप्राय सिद्ध होता है कि इन पूर्वोक्त आलोचन आदि ९ प्रकारके क्लेशरूप प्रायश्चित्त नामक विशेष तपोंसे जिसको अप्रमाद अर्थात् सावधानता प्राप्त हुई ऐसा पुरुष व्यतिक्रम (निषिद्धाचरण ) को प्रायः जान जाय, और जानकर पुनः उनको जिसके द्वारा नहीं करता उसको प्रायश्चित्त कहते हैं । अथवा प्रायश्चित्त शब्दसे अपराधका ग्रहण है तो जिसके द्वारा अपराधोंसे शुद्ध हों इस कारणसे वह प्रायश्चित्त कहा जाता है ॥ २२ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः॥ २३ ॥ विनयश्चतुर्भेदः । तद्यथा । ज्ञानविनयः दर्शनविनयः चारित्रविनयः उपचारविनयः । तत्र ज्ञानविनयः पञ्चविधः मतिज्ञानादिः। दर्शनविनयः एकविध एव सम्यग्दर्शनविनयः। चारित्रविनयः पञ्चविधः सामायिकविनयादिः । औपचारिकविनयोऽनेकविधः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राधिगुणाधिकेष्वभ्युत्थानासनप्रदानवन्दनानुगमादिः विनीयते तेन तस्मिन्वा विनयः ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-विनयरूप आभ्यन्तर तप चार प्रकारका है। जैसे-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय । इनमें से ज्ञानविनय पांच प्रकारका है । जैसे–मतिज्ञान विनय, श्रुतज्ञान विनय, अवधिज्ञान विनय, मनःपर्ययज्ञान विनय, तथा केवलज्ञान विनय। और दर्शनविनय एकही प्रकारका है; जैसे-सम्यग्दर्शन विनय । चारित्रविनय पांच प्रकारका है जैसे-सामायिक, संयमचारित्र विनय, छेदोपस्थाप्य संयमचारित्र विनय, परिहारविशुद्धि संयमचारित्र विनय, सूक्ष्मसंयम चारित्र विनय, तथा यथाख्यात संयम चारित्र विनय। और औपचारिक विनय अनेक प्रकारका है । जैसे–सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तथा चारित्र आदि गुणोंमें जो अधिक महात्मा जन हैं उनके विषयमें अभ्युत्थान विनय ( उनको देखके खड़े होजाना), आसनप्रदान विनय (उनको आसन देना), वन्दना १ प्रायश्चतयति येन तत्प्रायश्चित्तम् । . For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विनय और अनुगमनादि विनय (उनके चलते समय कुछ दूरतक पीछे चलना इत्यादि) ॥ २३ ॥ ____ आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षकग्लानगणकुलसङ्घसाधुसमनोज्ञानाम् ॥ २४॥ भाष्यम्-वैयावृत्त्यं दशविधं । तद्यथा । आचार्यवैयावृत्त्यं उपाध्यायवैयावृत्त्यं तपस्विवैयावृत्त्यं शैक्षकवैयावृत्त्यं ग्लानवैयावृत्त्यं कुलवैयावृत्त्यं गणवैयावृत्त्यं सङ्घवैयावृत्त्यं साधुवैयावृत्त्यं समनोज्ञवैयावृत्त्यमिति । व्यावृत्तभावो वैयावृत्त्यं व्यावृत्तकर्म च । तत्राचार्यः पूर्वोक्तः पञ्चविधः । आचारगोचरविनयं स्वाध्यायं वाचार्यादनु तस्मादुपाधीयत इत्युपाध्यायः । सङ्ग्रहोपग्रहानुग्रहार्थ चोपाधीयते सङ्ग्रहादीन् । वास्योपाधीतइत्युपाध्यायः । द्विसङ्ग्रहो निर्ग्रन्थ आचार्योपाध्यायसङ्ग्रहः । त्रिसङ्ग्रहा निर्ग्रन्थी आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीसङ्ग्रहा। प्रवतिनी दिगाचार्येण व्याख्याता । हिताय प्रवर्तते प्रवर्तयति चेति प्रवर्तिनी। विकृष्टोग्रतपोयुक्तस्तपस्वी । अचिरप्रव्रजितः शिक्षयितव्यः शिक्षः शिक्षामहतीति शैक्षो वा । ग्लानः प्रतीतः।गणः स्थविरसन्ततिसंस्थितिः। कुलमाचार्यसंततिसंस्थितिः। सङ्घश्चतुर्विधः श्रमणादिः । साधवः संयताः । संभोगयुक्ताः समनोज्ञाः । एषामन्नपानवस्त्रपात्रप्रतिश्रयपीठफलकसंस्तारादिभिर्धर्मसाधनैरुपग्रहः शुश्रूषा भेषजक्रिया कान्तारविषमदुर्गोपसर्गेष्वभ्युपपत्तिरि. त्येतदादि वैयावृत्त्यम् ॥ सूत्रार्थ-वि०व्या०-वैयावृत्त्य नाम आभ्यन्तर तप दश प्रकारका है। जैसे-आचार्यवैयावृत्त्य १ उपाध्यायवैयावृत्त्य २ तपस्विवैयावृत्त्य ३ शैक्षक वा शिक्षकवैयावृत्त्य ४ ग्लानवैयावृत्त्य ५ गणवैयावृत्त्य ६ कुलवैयावृत्त्य ७ सङ्घवैयावृत्त्य ८ साधुवैयावृत्त्य ९ और समनोज्ञवैयावृत्त्य १० । व्यावृत्त अर्थात् सेवा शुश्रूषामें तत्पर उसका जो भाव अथवा कर्म है उसको वैयावृत्त्य कहते हैं। उनमें आचार्य पांच प्रकारके होते हैं, यह प्रथम कहचुके हैं। इससे आचार्य आदिकी सेवा चाकरी यह आचार्य्यवैयावृत्त्यका तात्पर्य है। अतएव आचार्यविषयक जो विनय है अथवा आचार्यसे विनयपूर्वक स्वाध्याय यह आचार्य-वैयावृत्त्य है। और जिसके समीप आके पढ़ें वह उपाध्याय है। अथवा संग्रह आदि जिसके निकट आके प. वह उपाध्याय है । संग्रह आदि ये हैं, जैसे द्विसंग्रह, निर्ग्रन्थ, आचार्योपाध्यायसंग्रह, तथा त्रिसंग्रह, निम्रन्थी, आचार्योपाध्यायप्रवर्तिनी संग्रहा। यह प्रवर्तिनी आदिक आचार्यसे ही व्याख्यात हैं । हितके लिये जो स्वयं प्रवृत्त हो अथवा दूसरेको प्रवृत्त करै वह प्रवतिनी अर्थात् प्रवृत्त करानेवाली है। और अतिकठोर अथवा उत्तम तथा उग्र (तीव्र ) तपकरके जो युक्त हो वह तपस्वी है, उस तपस्वीके लिये जो वैयावृत्त्य है, अर्थात् तपस्वियोंके अर्थ जो विनय सेवादि है वह तपस्विवैयावृत्त्य है । थोड़े कालसे जिसने संन्यास लिया है तथा जो शिक्षाके योग्य है वह शिक्ष है, अथवा जो शिक्षाके योग्य है वह शैक्ष है उसके For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विषयमें जो वैयावृत्त्य है वह शैक्षवैयावृत्त्य है। ग्लानका अर्थ ज्ञातही है, अर्थात् जो ग्लानि करनेयोग्य है उसके अर्थ वैयावृत्त्य । गणपदसे यहांपर स्थविरों ( वृद्धों) की सन्ततिकी संस्थितिका ग्रहण है उसका वैयावृत्त्य ।और कुलसे आचार्योंकी सन्ततिकी संस्थितिका ग्रहण है। उसका वैयावृत्त्य । सङ्घ श्रमण आदि चार प्रकारका है। उसका वैयावृत्त्य । साधु शब्द करके जो संयमसहित हैं उनका ग्रहण हैं, उन साधुओंका जो वैयावृत्त्य है वह साधुवैयावृत्त्य है।और संभोग करके जो युक्त हैं, वेसमनोज्ञ हैं, उनका जो वैयावृत्त्य है वह समनोज्ञवैयावृत्त्य है। इन आचार्य उपाध्याय आदिकी अन्न (भोजन), पान (जलसम्प्रदान आदि), वस्त्र, पात्र (कमण्डलु तथा अन्य पात्र आदि ), स्थान, आसन तथा विस्तर (बिछोना आदि), धर्मसाधनोंके सम्प्रदान आदिसे सेवा शुश्रूषा, ओषध आदि दान, वन वा अन्य दुर्गम स्थानोंमें तथा अन्य प्रकारके दुःखोंमें सेवा करनी; इत्यादि सब वैयावृत्त्य है ॥ २४ ॥ वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः॥२५॥ भाष्यम्-स्वाध्यायः पञ्चविधः । तद्यथा । वाचना प्रच्छनं अनुप्रेक्षा आम्नायः धर्मोपदेश इति । तत्र वाचनं शिष्याध्यापनम् । प्रच्छनं ग्रन्थार्थयोः । अनुप्रेक्षा ग्रन्थार्थयोरेव मनसाभ्यासः । आनायो घोषविशुद्धं परिवर्तनं गुणनं रूपदानमित्यर्थः । अर्थोपदेशो व्याख्यानमनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनन्तरम् । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या स्वाध्याय नामक चतुर्थ आभ्यन्तर तप पांच प्रकारकों है। जैसे-वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, तथा धर्मोपदेश । इनमें वाचनासे शिष्योंको शास्त्रोंका अध्यापन अर्थात् शास्त्रोंका पढ़ाना विवक्षित है । प्रच्छन अर्थात् ग्रन्थके अर्थ तथा पाठको प्रश्नपूर्वक जान लेना । अनुप्रेक्षासे ग्रन्थ और अर्थका अपने मनसे अभ्यास करना अर्थात् ग्रन्थको अर्थपाठसहित मनन करना यह तात्पर्य है । आम्नायसे घोषविशुद्ध परिवर्तन (शुद्ध पाठका परिवर्तन) गुणनरूप दानसे यहांपर तात्पर्य है । तथा अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोगवर्णन और धर्मोपदेश, ये सब एकार्थवाची अर्थात् पर्यायवाचक शब्द हैं। तात्पर्य यह है कि धर्मोपदेशसे यहांपर धर्मका व्याख्यान सबको श्रवण करना अभीष्ट है ॥ २५ ॥ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः ॥ २६ ॥ भाष्यम्-व्युत्सर्गो द्विविधः बाह्य आभ्यन्तरश्च । तत्र बाटो द्वादशरूपकस्योपधेः । आभ्यन्तरः शरीरस्य कषायाणां चेति ॥ । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-पञ्चम व्युत्सर्ग नामक आभ्यन्तर तप दो प्रकारका है। जैसे-बाह्य तथा आभ्यन्तर । इनमें बाह्य तो द्वादशरूपक उपाधिसम्बन्धी है । और आभ्यन्तर शरीर तथा कषायों (क्रोधमानादि ) से सम्बन्ध रखता है ॥ २६ ॥ .. For Personaf & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २१७ उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ २७ ॥ भाष्यम्-उत्तमसंहननं वर्षभमर्धवजनाराचं च । तद्युक्तस्यैकाग्रचिन्तानिरोधश्च ध्यानम् ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वज्र, ऋषभ, अर्द्धवज्र तथा नाराच यह उत्तम संहनन है । उस उत्तम संहनन (शरीर-अवयव-संस्थानविशेष ) करके युक्त जो प्राणी है उसका एकाग्र रूपसे जो चिन्ताका निरोध अर्थात् सांसारिक चिन्ताओंका त्याग है उसको ध्यानरूप षष्ठ अभ्यन्तर तप समझना चाहिये ॥ २७ ॥ आमुहूतात् ॥२८॥ भाष्यम्-तद्ध्यानमामुहूर्ताद्भवति परतो न भवति दुनित्वात् ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वह ध्यान मुहूर्तकालके अभ्यन्तरमें ही होता है न कि परे, क्योंकि मुहूर्तसे परे दुर्ध्यान ( दुष्टध्यान ) होजाता है ॥ २८ ॥ आतेरौद्रधर्मशुक्लानि ॥२९॥ भाष्यम्-तच्चतुर्विधं भवति । तद्यथा । आत रौद्रं धर्म शुक्लमिति तेषाम् ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वह ध्यान चार ४ प्रकारका होता है । जैसे-आर्तध्यान रौद्रध्यान, धर्मध्यान, तथा शुक्लध्यान, इन भेदोंसे चार प्रकारका है ॥ २९ ॥ सो अब इनमेंसे यह व्यवस्था है परे मोक्षहेतू ॥३०॥ भाष्यम्-तेषां चतुर्णा ध्यानानां परे धर्मशुक्ले मोक्षहेतू भवतः । पूर्वे त्वार्तरौद्रे संसारहेतू इति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-इन पूर्वोक्त चार प्रकारके ध्यानोंमेंसे परके जो दो ध्यान हैं अर्थात् धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान वे मोक्षके कारण होते हैं । और पूर्वके जो आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान हैं वे संसारके कारण हैं ॥ ३०॥ __ अत्राह । किमेषां लक्षणमिति । अत्रोच्यते अब यहांपर कहते हैं कि इन चार प्रकारके ध्यानोंका क्या लक्षण है? इस विषयको आगेके सूत्रोंसे कहते हैं: आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३१॥ __ भाष्यम्-अमनोज्ञानां विषयाणां संप्रयोगे तेषां विप्रयोगार्थ यः स्मृतिसमन्वाहारो भवति तदातध्यानमित्याचक्षते । किं चान्यत् ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-अमनोज्ञ अप्रिय वा अनिष्ट अथवा अरमणीय विषयोंके सम्प्रयोग अर्थात् संयोग होनेपर ( अनिष्ट वा अप्रिय विषयोंके मिल जानेपर.) उन विषयोंके वियोग होनेके अर्थ जो स्मृतिका समन्वाहार अर्थात् चिन्ताका निरोध करके ध्यान है वह आर्तध्यान है ॥ ३१ ॥ और यह भी है किः For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचन्द्र जैनशास्त्रचालायाम् वेदनाचाच ॥ ३२ ॥ भाष्यम् - वेदनायाश्चामनोज्ञायाः संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार आर्तमिति । किं चान्यत् ॥ सूत्रार्थ -- विशेषव्याख्या - अमनोज्ञ अप्रिय जो वेदना ( अनुभवविशेष ) है उसके सम्प्रयोग अर्थात् योग होनेपर उससे ( अनिष्ट वेदनासे ) छूटनेके अर्थ जो चित्तकी एकाग्रता है वह आर्तध्यान है ॥ ३२ ॥ और यह भी : २१८ विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥ ३३ ॥ भाष्यम् – मनोज्ञानां विषयाणां मनोज्ञायाश्च वेदनाया विप्रयोगे तत्संप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार आर्तम् । किं चान्यत् ॥ I सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या - मनोज्ञ अर्थात् सुन्दर रमणीय तथा प्रिय विषयोंके, और इसी रीतिसे मनोज्ञ प्रियवेदनाके भी वियोग होनेपर उन सबके संयोग के लिये जो चित्तकी एकाग्रता रूप ध्यान है वह भी आर्तध्यान है ॥ ३३ ॥ और यह अन्य भी है:-- निदानं च ॥ ३४ ॥ भाष्यम् – कामोपहतचित्तानां पुनर्भवविषय सुखगृद्धानां निदानमार्तध्यानं भवति । सूत्रार्थ — विशेषव्याख्या - कामनाओंसे जिनका चित्त उपहत अर्थात् दूषित होगया है, इसीसे ऐसे मनुष्योंके अर्थ पुनः संसारके विषयोंकी तृष्णाका कारण वह आर्तध्यान होता है ॥ ३४ ॥ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३५ ॥ भाष्यम् – तदेतदार्तध्यानमविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानामेव भवति । सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या —— यह आर्तध्यान अविरत, देशविरत तथा प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती जीवोंक होता है ॥ ३५ ॥ हिंसावृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३६ ॥ भाष्यम् – हिंसार्थमनृतवचनार्थ स्तेयार्थ विषयसंरक्षणार्थं च स्मृतिसमन्वाहारो रौद्रध्यानं तदविरतदेशविरतयोरेव भवति । सूत्रार्थ — विशेषव्याख्या - हिंसा के लिये, अमृत अर्थात मिथ्या वचनके लिये, स्तेयचौर्यकर्मके लिये तथा विषयकी रक्षाके लिये चित्तकी एकाग्रतारूप रौद्रध्यान अविरत तथा देशवित प्राणियोंका होता है ॥ ३६ ॥ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ॥ ३७ ॥ भाष्यम् - आज्ञाविचयाय अपायविचयाय विपाकविचयाय संस्थानविचयाय च स्मृतिस्रमन्त्राहारो धर्मध्यानम् । तदप्रमत्तसंयतस्य भवति । किं चान्यत् सूत्रार्थ – विशेषव्याख्या - आज्ञाविचय, आज्ञा अर्थात् जिनशास्त्रकी आज्ञा उसके For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विचय अर्थात् विवेक तथा विचारके लिये, अपायविचय अर्थात् सन्मार्गसे दूरीकरण वा दूरीभवनरूप अपाय उसके विचय ( विवेक वा विचार ) के लिये, तथा विपाक अर्थात् कर्मोंके फलभोगरूप विपाकके विषयके लिये और संस्थानविचयके लिये जो स्मृतिसमन्वाहार (चिन्ताके निरोध )से निरन्तर ध्यान है वह धर्मध्यान है । और यह धर्मध्यान अप्रमत्त-संयत-गुणस्थानवी जीवको होता है ॥ ३७॥ और यह अन्य भी है उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ॥ ३८॥ भाष्यम्-उपशान्तकषायस्य च धर्म ध्यानं भवति । किं चान्यत् .. सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-उपशान्तकषाय (जिसके कषाय शान्त होगये हैं ऐसा मनुष्य ) तथा क्षीणकषाय अर्थात् जिसके कषाय सर्वथा नष्ट होगये हैं ऐसा मनुष्य, इन दोनोंको अर्थात् उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीवोंको भी धर्म ध्यान होता है ॥३८॥ और अन्य यह भी है कि शुक्ले चाये ॥३९॥ भाष्यम्-शुक्ले चाद्ये ध्याने पृथक्त्ववितर्कैकत्ववितर्के चोपशान्तक्षीणकषाययोर्भवतः । आद्ये शुक्ले ध्याने पृथक्त्ववितर्कैकत्ववितर्के पूर्वविदो भवतः।। सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-शुक्ल ध्यानके चार भेद आगे (अ.९, सू. ४१) कहेंगे; उनमेंसे पृथक्त्ववितर्क तथा एकत्ववितर्क जो आदिके दो भेद हैं वे उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय पुरुषोंको होते हैं । आद्य अर्थात् आदिके जो पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यानके भेद हैं वे पूर्वविद् अर्थात श्रुतकेवलीको होते हैं ॥ ३९ ॥ परे केवलिनः ॥४०॥ भाष्यम्-परे द्वे शुक्लध्याने केवलिन एव भवतः न च्छद्मस्थस्य । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या—और परके दो शुक्ल ध्यान अर्थात् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति हैं ये केवली भगवान्को होते हैं न कि छद्मस्थको ॥ ४० ॥ अत्राह । उक्तं भवता पूर्वे ध्याने परे शुक्ले ध्याने इति तत्कानि तानीति । अत्रोच्यते अब कहते हैं कि आपने “पूर्वे ( आये) शुक्ले,” तथा “परे शुक्ले" अर्थात् पूर्वके दो शुक्ल ध्यान तथा परके दो शुक्ल ध्यान ऐसा कहा है, सो वे चारों शुक्ल ध्यान कौन २ हैं, इस हेतुसे यह आगेका सूत्र कहते हैं।पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि ॥४१॥ भाष्यम्-पृथक्त्ववितकै एकत्ववितर्क काययोगानां सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरतक्रियानिवृत्तीति चतुर्विधं शुक्लध्यानम् । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-पृथक्त्ववितर्क १ एकत्ववितर्क २ सूक्ष्मक्रियातिपाति ३ तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति ४ यह चार प्रकारका शुक्ल ध्यान है ।। ४१ ॥ For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तत्र्येककाययोगायोगानाम् ॥४२॥ __ भाष्यम्-तदेतच्चतुर्विधं शुक्लध्यानं त्रियोगस्यान्यतमयोगस्य काययोगस्यायोगस्य च यथासङ्घयं भवति । तत्र त्रियोगानां पृथक्त्ववितर्कमैकान्यतमयोगानामेकत्ववितर्क काययोगानां सूक्ष्मक्रियमप्रतिपात्ययोगानां व्युपरतक्रियमनिवृत्तीति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-यह चारो प्रकारका शुक्ल ध्यान, त्रियोगको, तीनोमें एक योगवालेको, काययोगवालेको, तथा अयोगको क्रमसे यथासंख्यकरके होता है। अर्थात् काय, वाक् और मन ये तीनो योग जिसको हैं उसको पृथक्त्ववितर्क नाम शुक्ल ध्यान होता है, और इन तीनों योगोंमेंसे कोई भी एक योग जिसको है उसको एकत्ववितर्क नाम शुक्लध्यान होता है। काययोगवालेको सूक्ष्मक्रियातिपाति नामक शुक्लध्यान होता है, और अयोग अर्थात् सर्वथा योगसे रहित ( अयोगकेवली) को व्युपरतक्रियानिवृति नामक शुक्लध्यान होता है ॥ ४२ ॥ - एकाश्रये सवितर्के पूर्वे ॥ ४३ ॥ भाष्यम्-एकद्रव्याश्रये सवितर्के पूर्वे ध्याने प्रथमद्वितीये । तत्र सविचारं प्रथमम् । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-पूर्वके जो दो शुक्लध्यान हैं अर्थात् पृथक्त्ववितर्क तथा एकत्ववितर्क वे दोनो एक द्रव्यके आश्रयीभूत तथा वितर्कसहित होते हैं । इनमेंसे जो प्रथम पृथक्त्ववितर्क है वह विचारसहित होता है ॥ ४३ ॥ अविचारं द्वितीयम् ॥ ४४ ॥ भाष्यम्-अविचारं सवितर्क द्वितीयं ध्यानं भवति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-और द्वितीय जो एकत्ववितर्क शुक्लध्यान है वह तो विचाररहित तथा वितर्कसहित होता है । ४४ ॥ - अत्राह । वितर्कविचारयोः कः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते अब कहते हैं वितर्क तथा विचारमें क्या प्रतिविशेष अर्थात् भेद है । इस लिये आगेका सूत्र कहते हैं वितर्कः श्रुतम् ॥ ४५॥ भाष्यम्-यथोक्तं श्रुतज्ञानं वितर्को भवति ॥ सूथार्थ-विशेषव्याख्या-पूर्वकथित श्रुतज्ञान अर्थात् पूर्वप्रसङ्गमें जैसे श्रुतज्ञानका लक्षण कहा है वही यथोक्त श्रुतज्ञान वितर्क है ॥ ४५ ॥ . विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः॥ ४६ ॥ भाष्यम्-अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिर्विचार इति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या–अर्थ, व्यञ्जन, तथा योगकी जो संक्रान्ति उसको विचार कहते हैं । यहांपर अर्थ शब्दसे ध्येय पदार्थ वा द्रव्य अथवा पर्यायका ग्रहण है, व्यञ्जनसे For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२१ वचनका ग्रहण है, और योगसे "काय-वाग्-मनःकर्म योगः" इस सूत्रमें कथित तीनो योगोंका ग्रहण है, उनकी संक्रान्ति अर्थात् परिवर्तन । इससे यह सिद्ध हुआ कि जिस ध्यानमें द्रव्य वा पर्याय, वचन ( श्रुत ) तथा योगका परिवर्तन होता रहता है वह विचारसहित प्रथम है और यह पूर्वकथित (अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्ति अर्थात् इनका परिवर्तनरूप ) जो विचार है उस विचारसे रहित अर्थात् अविचार द्वितीय ( एकत्ववितर्क ) रूप शुक्लध्यान है। तदाभ्यन्तरं तपः संवरत्वादभिनवकर्मोपचयप्रतिषेधकं निर्जरणफलत्वात्कर्मनिर्जरकम् । अभिनवकर्मोपचयप्रतिषेधकत्वात्पूर्वोपचितकर्मनिर्जरकत्वाच्च निर्वाणप्रापकमिति ॥ - यह छः प्रकारका आभ्यन्तर तप संवर होनेसे नूतन कर्मोंके संचयका प्रतिषेधक अर्थात् निषेध करनेवाला है तथा कर्मोंकी निर्जरारूप फल देनेसे कर्मोंका निर्जरणकारक अर्थात् कर्मोंका नाशक भी है। और अभिनव अर्थात् नूतन कर्मके उपचय (संचय वा वृद्धि ) का निषेध करनेवाला होनेसे और पूर्वसंचित कर्मोंका निर्जरण (नाशक ) होनेसे निर्वाण अर्थात् मोक्षको प्राप्त करनेवाला भी है ॥ ४६॥ ___ अत्राह । उक्तं भवता परीषहजयात्तपसोऽनुभावतश्च कर्मनिर्जरा भवतीति । तत्कि सर्वे सम्यग्दृष्टयः समनिर्जरा आहोस्विदस्ति कश्चित्प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते।। अब कहते हैं कि प्रथम आपने कहा था कि द्वाविंशति २२ परीषहोंके जयसे तथा तपके अनुभाव (प्रभाव )से कर्मोंकी निर्जरा होती है। सो सब सम्यग्दृष्टिपुरुष समान निर्जरावाले होते हैं, अथवा कोई विशेष है; इस लिये आगेका सूत्र कहते हैं। सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसङ्खयेयगुणनिर्जराः॥४७॥ भाष्यम्-सम्यग्दृष्टिः श्रावकः विरतः अनन्तानुबन्धिवियोजकः दर्शनमोहक्षपकः मोहोपशमकः उपशान्तमोहः मोहक्षपकः क्षीणमोहः जिन इत्येते दश क्रमशोऽसङ्खयेयगुणनिर्जरा भवन्ति । तद्यथा । सम्यग्दृष्टेः श्रावकोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरः श्रावकाद्विरतः विरतादनन्तानुबन्धिवियोजक इत्येवं शेषाः ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-सम्यग्दृष्टि १ श्रावक २ विरत ३ अनन्तानुबन्धिवियोजक ४ दर्शनमोहक्षपक ५ मोहोपशमक ६ उपशान्तमोह ७ मोहक्षपक ८ क्षीणमोह ९ तथा जिन १० ये दशो क्रमसे असंख्येय गुणवाली निर्जराको उत्पन्न करनेवाले होते हैं । जैसे-सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षासे श्रावक असंख्येयगुणनिर्जरावाला होता है, श्रावकसे विरत असंख्येय गुणवाली निर्जरासहित होता है; और विरतसे अनन्तानुबन्धिवियोजक असंख्येय-गुण-निर्जरासहित होता है । ऐसेही आगे जिनपर्यन्त समझ लेना ॥ १७ ॥ पुलाकबकुशकुशील निर्ग्रन्थलातका निर्ग्रन्थाः ॥४८॥ For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-पुलाको बकुशः कुशीलो निर्ग्रन्थः स्नातक इत्येते पञ्चनिम्रन्थविशेषा भवन्ति। तत्र सततमप्रतिपातिनो जिनोक्तादागमान्निर्ग्रन्थपुलाकाः । नैर्घन्ध्यं प्रति प्रस्थिताः शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिन ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिता अविविक्तपरिचाराश्छेदशबलयुक्ता निर्ग्रन्था बकुशाः । कुशीला द्विविधाः प्रतिसेवनाकुशीलाः कषायकुशीलाश्च । तत्र प्रतिसेवना. कुशीलाः नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता अनियतेन्द्रियाः कथंचित्किचिदुत्तरगुणेषु विराधयन्तरश्चरन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीलाः । येषां तु संयतानां सतां कथंचित्संज्वलनकषाया उदीर्यन्ते ते कषायकुशीलाः । ये वीतरागच्छद्मस्था ईर्यापथप्राप्तास्ते निर्ग्रन्थाः । ईर्या योगः पन्थाः संयमः योगसंयमप्राप्ता इत्यर्थः । संयोगाः शैलेशीप्रतिपन्नाश्च केवलिनः स्नातका इति ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ, तथा स्नातक ये पांच निर्ग्रन्थ हैं । इनमेंसे निरन्तर जो जिनकथित आगमसे कदापि पतित न होवे पुलाक निर्ग्रन्थ हैं । तथा निर्ग्रन्थताके प्रति जो प्रस्थित हुए हैं, किन्तु शरीरके उपकरण भूषण आदिके अनुवर्ती हैं, ऋद्धि (ऐश्वर्य) तथा यशकी कामना करनेवाले हैं, अतिगौरवयुक्त, अविविक्त (नातिपवित्रतायुक्त) परिचारसहित, और छेदशबलयुक्त जो हैं वे बकुश निर्ग्रन्थ हैं । कुशील दो प्रकारके हैं, एक तो प्रतिसेवनाकुशील और द्वितीय कषायकुशील । उनमेंसे जो निर्ग्रन्थता सम्पादन करनेके लिये प्रस्थित हैं सो जो अनियत इंद्रिय हैं, अर्थात् जिनकी इद्रियां सर्वथा स्वाधीन नहीं हैं, और किसी प्रकारसे उत्तरगुणोंमें भी विरोध ( विघात ) करनेवाले हैं वे प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ है। और जिन्होंने अन्य कषायोंको तो जीत लिया है ऐसे संयम युक्त होनेपर भी जिनके कथंचित् ( किसी प्रकारसे) संज्वलनकषाय उद्रेकताको अर्थात् आविर्भावको प्राप्त होजायँ वे कषायकुशील निम्रन्थ हैं । और जो वीतराग छद्मस्थ हैं, तथा इ-पथमें प्राप्त हैं वे निर्ग्रन्थ हैं । यहांपर इ-से योगका ग्रहण है, और पन्था ( पथ ) से संयमका ग्रहण है, इससे यह तात्पर्य्य सिद्ध हुआ कि जो योगसंयममें प्राप्त हैं वे निम्रन्थ आचार्य हैं । और जो योगसहित हैं तथा जो शैलेशीप्राप्त हैं वे स्नातक हैं ॥ ४८॥ - संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपातस्थानविकल्पतःसाध्या:४९ भाष्यम्-एते पुलाकादयः पञ्च निर्ग्रन्थविशेषा एभिः संयमादिभिरनुयोगविकल्पैः साध्या भवन्ति । तद्यथा । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-इन पुलाक आदि पांचो निम्रन्थोंका आगे कहे हुए संयम आदि विकल्पोंसे साधन करना चाहिये । जैसे:-- संयमः । कः कस्मिन्संयमे भवतीति । उच्यते । पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला द्वयोः संयमयोः सामायिके छेदोपस्थाप्ये च । कषायकुशीलो द्वयोः परिहारविशुद्धौ सूक्ष्मसंपराये च । निर्ग्रन्थस्नातकावेकस्मिन्यथाख्यातसंयमे ॥ सबसे प्रथम संयमका विचार कहते हैं-कौन किसमें होता है, अर्थात् कौन निर्ग्रन्थ For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२३ किस संयम आदिमें होते हैं इस विषयको कहते हैं । जैसे - पुलाक, बकुश, तथा प्रतिसेवनाकुशील, ये दो २ संयमोंमें अर्थात् सामायिक तथा छेदोपस्थाप्यमें होते हैं । कषायकुशील निर्ग्रन्थ भी परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसंपराय इन दोनो संयमोमें होते हैं । और निर्ग्रन्थ तथा स्नातक केवल एक यथाख्यातसंयम में होते हैं ॥ श्रुतम् । पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कृष्टेनाभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः । कषायकुशील - निर्ग्रन्थौ चतुर्दशपूर्वधरौ । जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु । वकुशकुशीलनिर्मन्थानां श्रुतमष्ठौ प्रवचनमातरः । श्रुतापगतः केवली स्नातक इति ॥ श्रुतके विषय में:- पुलाक, बकुश, और प्रतिसेवनाकुशील ये तीन निर्ग्रन्थ उत्कृष्टतासे अर्थात् अधिक से अधिक अभिन्नाक्षर दश पूर्वधर होते हैं । कषायकुशील और निर्ग्रन्थ ये दोनों निर्ग्रन्थ विशेष चतुर्दश पूर्वधर होते हैं । और जघन्यता ( न्यूनता ) से तो पुलाकका श्रुतकेवल आचारवस्तु है । और बकुश, कुशील तथा निर्ग्रन्थोंका श्रुत जघन्य अपेक्षासे अर्थात् न्यूनतासे केवल प्रवचनकी माता हैं । और केवली स्नातक तो श्रुतापगत हैं । प्रतिसेवना । पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनविरतिष्ठानां पराभियोगाद्बलात्कारेणाम्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति । मैथुनमित्येके । बकुशो द्विविधः उपकरणबकुशः शरीरबकुशश्च । तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्र महाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तो बहुवि - शेषोपकरणकांक्षायुक्तो नित्यं तत्प्रतिसंस्कारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति । शरीराभिवक्तचित्तो विभूषार्थं तत्प्रतिसंस्कारसेवी शरीरबकुशः । प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु कांचिद्विराधनां प्रतिसेवते । कषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकानां प्रति सेवना नास्ति ॥ प्रतिसेवना, पांच मूलगुण, तथा रात्रिभोजनसे विरतिसहित षद्, अर्थात् पांच मूलगुण और रात्रिभोजनसे विरति ( उपराम ) लेकर छः हुए, इनमेंसे, दूसरोंके अभियोग अर्थात् प्रेरणासे बलात्कार ( जबरदस्ती ) से किसी एकका प्रतिसेवन करनेवाला पुलाक होता है । इनमेंसे मैथुनका ग्रहण किसी एक आचार्य्यके मत से है । बकुश दो प्रकार के होते हैं; एक तो उपकरणबकुश और दूसरा शरीरबकुश होता है । इनमेंसे उपकरणों ( सामग्रियों) में चित्त लगानेवाला, विविध अर्थात् अनेक उपकरणोंके परिग्रहसहित, बहुत अधिक उपकरणोंकी प्रतिदिन अर्थात् सदा उनके प्रतिसंस्कारों को सेवन करनेवाला भिक्षुक उपकरणबंकुश कहा जाता है । और शरीरमें दत्तचित्त, विभूषणोंके लिये अर्थात् शरीरको भूषित करनेके लिये जो प्रतिसंस्कारोंका सेवन करनेवाला है वह शरीरबकुश भिक्षुक है । और जो मूलगणोंका विराध ( विधात ) न करता हुआ उत्तरगुणोंमें किसी एक प्रकारके विचित्र महाधनवाले अभिलाषा करनेवाला और 1 For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विराधनाका प्रतिसेवी है, वह प्रतिसेवनाकुशील है । और कषायकुशील, निम्रन्थ, तथा स्नातक इन तीनोंको तो प्रतिसेवना होती ही नहीं है ॥ ___ तीर्थम् । सर्वे सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थेषु भवन्ति । एके त्वाचार्या मन्यन्ते पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलास्तीर्थे नित्यं भवन्ति शेषास्तीर्थे वातीर्थे वा ।। तीर्थक विषयमें:-सब निर्ग्रन्थ सब तीर्थकरोंके तीर्थों में होते हैं। और कोई २ आचार्य तो ऐसा मानते हैं कि पुलाक, बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशील ये तीनो तीर्थमें नित्य होते हैं, और शेष (बाकी ) अर्थात् कषायकुशील, निर्ग्रन्थ तथा स्नातक ये तीर्थ वा अतीर्थमें भी होते हैं । लिङ्गम् । लिङ्गम् द्विविधम् द्रव्यलिङ्ग भावलिङ्गं च । भावलिङ्गं प्रतीत्य सर्वे पञ्च निप्रेन्था भावलिङ्गे भवन्ति द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः ॥ लिङ्गके विषयमें:-लिङ्ग दो प्रकारका है, एक तो द्रव्यलिङ्ग और दूसरा भावलिङ्ग, उनमेंसे भावलिङ्गको निमित्त मानकर पांचोही निर्ग्रन्थ भावलिङ्गमें होते हैं । और द्रव्यलिङ्गको निमित्त मानकर तो इनका विभाग करना चाहिये । लेश्याः । पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो लेश्या भवन्ति । बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः सर्वाः षडपि । कषायकुशीलस्य परिहारविशुद्धेस्तित्र उत्तराः । सूक्ष्मसंपरायस्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लैव केवला भवति । अयोगः शैलेशीप्रतिपन्नोऽलेश्यो भवति ॥ लेश्याके विषयमें:-पुलाकको अन्त्यकी तीन लेश्या होती हैं । बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशीलको सब अर्थात् छहो लेश्या होती हैं । परिहारविशुद्धिस्थानवर्ती, तथा कषायकुशीलको अन्तकी तीन लेश्या होती हैं । सूक्ष्मसंपरायस्थानवर्ती और निम्रन्थ तथा स्नातकको केवल एक शुक्ल लेश्याही होती है । और अभोग अर्थात् भोगसे रहित जो शैलेशीप्राप्त है वह तो अलेश्य (लेश्यारहित ) ही होता है ॥ उपपातः । पुलाकस्योत्कृष्टस्थितिषु देवेषु सहस्रारे । बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोविंशतिसागरोपमस्थितिष्वारणाच्युतकल्पयोः । कषायकुशीलनिर्ग्रन्थयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिषु देवेषु सर्वार्थसिद्धे । सर्वेषामपि जघन्या पल्योपमपृथक्त्वस्थितिषु सौधर्मे । स्नातकस्य निर्वाणमिति ॥ ___ उपपातके विषयमें पुलाक निर्ग्रन्थका उपपात अर्थात् ऊर्ध्वगमन अथवा स्वर्गविशेषमें उत्पत्ति सबसे उत्कृष्ट ( उत्तम ) स्थितिवाले जो देव हैं उनमें सहस्रारनाम स्वर्गविशेषमें होती है । बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशीलका उपपात बाईस २२ सागरोपमास्थितिवाले देवोंमें आरण तथा अच्युतकल्पमें होता है । कषायकुशील तथा निग्रन्थका उपपात अयस्त्रिंशत् (३३) सागरोपम स्थितिवाले देवोंमें सर्वार्थसिद्धनामक स्वर्ग वा विमानमें होता है । और सबका अर्थात् पांचोंकी जघन्य वा न्यूनसे न्यून स्थिति अथवा उपपात पल्योपम For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । पृथक्त्व स्थितिवाले देवोंमें सौधर्मनामक विमान वा स्वर्गविशेषमें होता है। और स्नातकको तो निर्वाण ही होता है ॥ स्थानम् । असङ्खयेयानि संयमस्थानानि कषायनिमित्तानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोः । तौ युगपदसङ्खयेयानि स्थानानि गच्छतः । ततः पुलाको व्युच्छिद्यते कषायकुशीलस्त्वसङ्खयेयानि स्थानान्येकाकी गच्छति । ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलबकुशा युगपदसङ्खयेयानि संयमस्थानानि गच्छन्ति । ततो बकुशो व्युच्छिद्यते । ततोऽसङ्खयेयानि स्थानानि गत्वा प्रतिसेवनाकुशीलो व्युच्छिद्यते । ततोऽसङ्खयेयानि स्थानानि गत्वा कषायकुशीलो व्युच्छिद्यते। अत ऊर्ध्वमकषायस्थानानि निर्ग्रन्थः प्रतिपद्यते । सोऽप्यसङ्खयेयानि स्थानानि गत्वा व्युच्छिद्यते । अत ऊर्ध्वमेकमेव स्थानं गत्वा निर्ग्रन्थस्नातको निर्वाणं प्राप्नोतीति एषां संयमलब्धिरनन्तानन्तगुणा भवतीति ॥ ___इति तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसङ्ग्रहे नवमोऽध्यायः समाप्तः ॥ स्थानविषयमें:-कषायनिमित्तक असङ्ख्य संयमस्थान होते हैं । उनमेंसे पुलाक और कषायकुशीलके सबसे जघन्य अर्थात् सबसे निकृष्ट लब्धिस्थान होते हैं । वे दोनो (पुलाक और कषायकुशील) एक कालमें ही असलेय स्थानमें जाते हैं। वहांसे पुलाक पृथक् किया जाता है, और कषायकुशील तो एकाकी ( अकेला) ही असङ्ख्य स्थानोंमें जाता है । उसके अनन्तर कषायकुशील, प्रतिसेवनाकुशील, और बकुश एक कालमें ही असङ्केय संयमस्थानोंमें जाते हैं । वहां बकुश पृथक् किया (अलगाया) जाता है। उसके पश्चात् असङ्ख्य स्थानोंमें जाकर प्रतिसेवनाकुशील पृथक् किया जाता है । इसके ऊपर अकषायस्थान हैं, उनमें केवल निम्रन्थ ही प्राप्त होता है । वह भी असङ्ख्य स्थानोंमें जाकर रोक दिया जाता है । और इसके ऊर्ध्व (ऊपर ) एकही स्थान जाकर निर्ग्रन्थ स्नातक निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है। इनकी संयमलब्धि अनन्त तथा अनन्त गुण होती है ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसनन्हे आचार्योपाधिधारिद्विवेद्युपनामकठाकुर प्रसादशर्मप्रणीतभाषाभाष्ये नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ अथ दशमोऽध्यायः ॥१०॥ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् ॥१॥ भाष्यम् -मोहनीये क्षीणे ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायेषु क्षीणेषु च केवलज्ञानदर्शनमुत्पद्यते । आसां चतसृणां कर्मप्रकृतीनां क्षयः केवलस्य हेतुरिति । तत्क्षयादुत्पद्यत इति हेतौ पञ्चमीनिर्देशः । मोहक्षयादिति पृथक्करणं क्रमप्रसिद्ध्यर्थ यथा गम्येत पूर्व मोहनीयं Jain Education Internenal For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कृत्स्नं क्षीयते ततोऽन्तमुहूर्त छद्मस्थवीतरागो भवति । ततोऽस्य ज्ञानदर्शनावरणान्तराय. प्रकृतीनां तिसृणां युगपत्क्षयो भवति । ततः केवलमुत्पद्यते ॥ सूत्रार्थ विशेषव्याख्या-मोहनीय कर्मके क्षीण होनेपर तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षीण होनेपर केवल ज्ञान दर्शन उत्पन्न होता है । इन चारों अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय कर्म प्रकृतियोंका क्षय केवल ज्ञानका हेतु है, ( मोहनीयक्षयात् ) तथा ( ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात्) इनके क्षयसे उत्पन्न होता है. उक्त दोनों स्थलोमें जो पञ्चमी निर्देश है, अर्थात् पञ्चमी विभक्तिका विधान आचार्य्यने किया है वह हेतु अर्थमें पञ्चमी है । तात्पर्य यह है कि चारों प्रकृतियोंके क्षयरूप निमित्तसे केवल ज्ञानकी उत्पत्ति है । और "मोहक्षयात्" यह पृथक् जो पञ्चमीनिर्देश किया है सो उस क्रमकी प्रसिद्धिके अर्थ किया है, जिससे कि यह अर्थ स्पष्ट रूपसे भान हो कि प्रथम सम्पूर्ण मोहनीय प्रकृतिका क्षय होता है उसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तकालमें छद्मस्थ वीतराग होता है; और छमस्थ वीतराग होनेके पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, तथा अन्तराय इन तीनों प्रकृतियोंका एक कालमें ही क्षय होता है । और इन तीनों प्रकृतियोंके क्षयके पश्चात् केवल ज्ञान उत्पन्न होता है ॥१॥ ___ अत्राह । उक्तं मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलमिति । अथ मोहनीयादीनां क्षयः कथं भवतीति । अत्रोच्यते अब कहते हैं कि यह तो आपने कहा कि मोहनीय प्रकृतिके क्षय तथा ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय तथा अन्तराय, इन कर्मप्रकृतियोंके क्षयसे केवल (केवलज्ञान) उत्पन्न होता है, परंतु मोहनीय आदि प्रकृतियोंका क्षय किस प्रकारसे होता है ? इसलिये आगेका सूत्र कहते हैं। बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् ॥२॥ मिथ्यादर्शनादयो बन्धहेतवोऽभिहिताः । तेषामपि तदावरणीयस्य कर्मणः क्षयादभावो भवति सम्यग्दर्शनादीनां चोत्पत्तिः। तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् तन्निसर्गादधिगमाद्वेत्युक्तम् । एवं संवरसंवृतस्य महात्मनः सम्यग्व्यायामस्याभिनवस्य कर्मण उपचयो न भवति पूर्वोपचितस्य च यथोक्तार्नर्जराहेतुभिरत्यन्तक्षयः । ततः सर्वद्रव्यपर्यायविषयं परमैश्वर्यमनन्तं केवलं ज्ञानदर्शनं प्राप्य शुद्धो बुद्धः सर्वज्ञः सर्वदर्शी जिनः केवली भवति । ततः प्रतनुशुभचतुःकर्मावशेष आयुःकर्मसंस्कारवशाद्विहरति । सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान आदि बन्धके हेतु कहे हैं, उनका अर्थात् बन्धके हेतुओंका भी ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियोंके क्षयसे अभाव होता है, और सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्ति भी होती है। "तत्त्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्" तत्त्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है, और निसर्ग तथा अधिगमसे होता है; यह विषय प्रथम अध्यायमें For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२७ कह आये हैं । इसप्रकार संवरसे संवृत ( युक्त ) महात्माको सम्यग्व्यायामयुक्त जो नूतन कर्म हैं उनकी वृद्धि नहीं होती, तथा जो पूर्वकाल के सञ्चित कर्म हैं उनका भी यथोक्त ( हुए ) निर्जरा के हेतुओं ( तपआदिकों) से अत्यन्त क्षय होता है । उसके अनन्तर अर्थात् कर्मोंके सर्वथा क्षय होनेके पश्चात् क्रमसे सम्पूर्ण द्रव्य तथा सम्पूर्ण पर्य्याय विषयक, अर्थात् सब द्रव्य और सब पर्य्यायोंको साक्षात्कार करनेवाला, परम ऐश्वर्य ( सबसे उत्कृष्ट ऐश्वर्य ) सहित केवल ज्ञान दर्शनको पाकर शुद्ध ( सवर्था पवित्र ), बुद्ध ( सर्व द्रव्य पर्य्यायोंका ज्ञाता ), सर्वद्रष्टा केवली जिन भगवान् यह प्राणी होता है । और उसके पश्चात् अति सूक्ष्म शुभ चार कर्म शेषवाला यह अलग रहजाता है, और आयुः कर्मसंस्कारके वशसे संसारमें विहरता है ॥ २ ॥ ततोऽस्य और इसको : कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ॥ ३॥ भाष्यम् – कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो भवति । पूर्व क्षीणानि चत्वारि कर्माणि पश्चाद्वेदनीयनामगोत्रायुष्कक्षयो भवति । तत्क्षयसमकालमेवौदारिकशरीरवियुक्तस्यास्य जन्मनः प्रहा - .णम् । हेत्वभावाच्चोत्तरस्याप्रादुर्भावः । एषावस्था कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष इत्युच्यते । सूत्रार्थ — विशेषव्याख्या - सम्पूर्ण कर्मों का क्षयरूप मोक्ष प्राप्त होता है । इस रीतिसे मोहनीय आदि चार कर्मप्रकृति तो प्रथमही क्षीण हो चुकी थी, और इसके पश्चात् वेदनीय, नाम, गोत्र, तथा आयु ये चार जो शुभ कर्म शेष रह गये थे, वेभी क्षयको प्राप्त होते हैं । और इन चारोंके क्षयके समकालमें ही औदारिक शरीर से रहित जो यह जीव उसके जन्मका सर्वथा प्रयाण अर्थात् नाश होता है । क्योंकि हेतु ( शरीरधारणके हेतु ) ओंके अभाव से पुनः उत्तरजन्मका प्रादुर्भाव नहीं होता है । इस प्रकार यह अवस्था सम्पूर्ण कर्मोंका क्षयरूप मोक्ष वा मुक्तिस्वरूपसे कही जाती है ॥ ३ ॥ किं चान्यत् । और अन्य यह भी है: औपशमिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥ ४ ॥ भाष्यम् – औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकौयिकपारिणामिकानां भावानां भव्यत्वस्य याभावान्मोक्षो भवति अन्यत्र केवलसम्यक्त्व केवलज्ञानकेवलदर्शन सिद्धत्वभ्यः । एते ह्यस्य क्षायिका नित्या मुक्तस्यापि भवन्ति ॥ सूत्रार्थ - विशेषव्याख्या - औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, तथा पारिणामिक भावोंके और भव्यत्वके भी अभावसे मोक्ष होता है, किन्तु केवल सम्यक्त्व, For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् केवल ज्ञान, केवल दर्शन, और सिद्धत्वके शिवाय, अर्थात् इनको छोड़कर । क्योंकि ये इसके क्षायिक होते हैं, और नित्य तो मुक्त जीवके भी ये होते हैं ॥ ४ ॥ तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ भाष्यम्-तदनन्तरमिति कृत्स्नकर्मक्षयानन्तरमौपशमिकाद्यभावानन्तरं चेत्यर्थः । मुक्त ऊर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् । कर्मक्षये देहवियोगसिध्यमानगतिलोकान्तप्राप्तयोऽस्य युगपदेकसमयेन भवन्ति । तद्यथा । प्रयोगपरिणामादिसमुत्थस्य गतिकर्मण उत्पत्तिकार्यारम्भविनाशा युगपदेकसमयेन भवन्ति तद्वत् ॥ ___ उन सब कर्मोंके क्षयके अनन्तर, और औपशमिक आदि भावोंके नाशके अनन्तर यह मुक्त जीव लोकान्तपर्यन्त ऊर्ध्व गमन करता है । क्योंकि कर्मोंके क्षयके पश्चात् देहवियोग, सिध्यमान गति और लोकान्तप्राप्ति ये सब इस मुक्त जीवको एकही कालमें होती हैं । जैसे किसी प्रयोगके परिणामसे उत्पन्न जो गति कर्म है उसकी उत्पत्ति, कार्यारम्भ तथा विनाश एक साथही एक समयमेंही होते हैं, ऐसेही मुक्त जीवके भी देहवियोग सिध्यमान गति आदि भी एक साथही होती हैं ॥५॥ अत्राह । प्रहीणकर्मणो निरास्रवस्य कथं गतिर्भवतीति । अत्रोच्यते--- अब यहांपर कहते हैं कि जिसके संपूर्ण कर्म क्षीण हो गये हैं ऐसे, प्राण व ( कर्मोंके. आगमनद्वार ) से रहित मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति कैसे होती है ? इस शङ्काके उत्तरमें आगेका सूत्र कहते हैं: पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाइन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच तद्गतिः ॥ ६॥ भाष्यम्-पूर्वप्रयोगात् । यथा हस्तदण्डचक्रसंयुक्तसंयोगात्पुरुषप्रयत्नतश्चाविद्धं कुलालचकमुपरतेष्वपि पुरुषप्रयत्नहस्तदण्डचक्रसंयोगेषु पूर्वप्रयोगाद्धमत्येवासंस्कारपरिक्षयात् एवं यः पूर्वमस्य कर्मणा प्रयोगो जनितः स क्षीणेऽपि कर्मणि गतिहेतुर्भवति । तत्कृता गतिः ।। किं चान्यत् ॥ सूत्रार्थ-वि०व्या०-'पूर्वप्रयोगात्' जैसे हस्त (हाथ), दण्ड, और चक्र ( कुंभारके बर्तन बनानेकी चाक ) इन तीनों के मिलित संयोगसे और पुरुषके प्रयत्न अर्थात् पुरुषके व्यापारसे व्याप्त (पूर्ण वा युक्त) जो कुंभारका चक्र (चाक) है पुरुषके व्यापारके निवृत्त होनेपर भी पुरुषके व्यापार, हाथ, दण्ड, तथा चक्रके संयोगमें प्रथमके व्यापारसे वह चक्र भ्रमण करता ही रहता है; जब तक कि उसमें पुरुषके प्रथम प्रयोग ( व्यापार ) का संस्कार है, तब तक वह बन्द नहीं होता, ऐसेही जो इस जीवके कर्मोंका प्रयोग अर्थात् व्यापार वा प्रयत्न उत्पन्न हुआ है वह कर्मके क्षीण होनेपर भी गतिका निमित्त होता है; इसीसे अर्थात् कर्मोंके पूर्व उत्पन्न प्रयोगसे इस मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति होती है ॥ और इसके अतिरिक्त ( शिवाय ) अन्य हेतु भी है: For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२९ असङ्गत्वात् । पुद्गलानां जीवानां च गतिमत्त्वमुक्तं नान्येषां द्रव्याणाम् । तत्राधोगौरवधमणः पुद्गला ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवाः । एष स्वभावः । अतोऽन्यासङ्गादिजनिता गतिर्भवति । यथा सत्स्वपि प्रयोगादिषु गतिकारणेषु जातिनियमेनाधस्तिर्यगूर्ध्व च स्वाभाविक्यो लोष्टवाय्वनीनां गतयो दृष्टाः तथा सङ्गविनिर्मुक्तस्योर्ध्वगौरवादूर्ध्वमेव सिध्यमानगतिर्भवति । संसारिणस्तु ।। कर्मसङ्गादधस्तिर्यगूर्ध्व च ॥ किं चान्यत् । असङ्गत्वात्ः–असङ्ग होनेसे भी मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति होती है । जैसे पुद्गलोंको तथा जीवोंको गतिमत्त्व अर्थात् गतिवाले कहा है, न कि अन्य द्रव्योंको । उन दोनों द्रव्योंमें भी अधोभागमें गौरव धर्म धारण करनेवाले पुद्गल द्रव्य होते हैं, और ऊर्ध्व भागमें गौरव धर्म धारण करनेवाले जीव द्रव्य होते हैं । यह इन द्रव्यों का स्वभाव है । इससे अन्य अर्थात् विपरीत गति जैसे जीवोंकी अधोभागादिमें तथा पुद्गलोंकी ऊर्ध्वादि भागमें गति सङ्ग आदि निमित्तसे उत्पन्न होती है । जैसे गतिके कारण भूत प्रयोग पुरुषप्रयत्न, अथवा व्यापार आदि विद्यमान रहते भी पाषाण, वायु, तथा अग्निकी स्वाभाविक गति, क्रमशः अधोभाग, तिर्यग् भाग, तथा ऊर्ध्व भागमेंही दृष्ट है, अर्थात् पाषाणकी स्वाभाविक गति अधोभागमें, वायुकी तिर्यक् (तिरछे ) भागमें और अग्निकी ऊर्ध्व भागमें गतिका दृष्ट है। ऐसेही सङ्गसे विनिर्मुक्त जीवकी भी ऊर्ध्व भागमें गौरव धर्म धारण करनेसे ऊपर की ही और स्वाभाविक सिद्ध्यमान गति होती है । और संसारी जीवकी तो कर्मोंके सङ्गसे अधोभाग, तिर्यग्भाग तथा ऊर्ध्व भागमें भी गति होती है । तथा इसके अतिरिक्त ऊर्ध्वगतिमें अन्य भी हेतु है: I बन्धच्छेदात् । यथा रज्जुबन्धच्छेदात्पेडाया बीजकोशबन्धनच्छेदाच्चै रण्डबीजानां गतिर्दृष्टा तथा कर्मबन्धनच्छेदात्सिध्यमानगतिः । किं चान्यत् । बन्धच्छेदात्-बन्धके छेदसे मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति होती है । जैसे रज्जुके बन्धनके उच्छेदसे पेडाकी, तथा बीजकोश (जिस गुच्छ रूप कोशमें बीजबन्ध रहते हैं उस एरण्डफल ) रूप बन्धके उच्छेद होनेपर अर्थात् कोशरूप बन्धन के टूटनेपर एरण्ड ( अंडी वा रेड़ी) के बीजोंकी गति स्वाभाविक दृष्ट है, ऐसेही कर्मरूप बन्धन के छेद ( नाश ) होनेपर मुक्त जीवकी भी स्वाभाविक सिद्ध्यमान ऊर्ध्व गति होती है । और इसके शिवाय अन्य भी ऊर्ध्व गतिमें हेतु है:- 1 1 तथागतिपरिणामाच्च । ऊर्ध्वगौरवात्पूर्व प्रयोगादिभ्यश्च हेतुभ्यः तथास्य गतिपरिणाम उत्पद्यते येन सिध्यमानगतिर्भवति । ऊर्ध्वमेव भवति नाधस्तिर्यग्वा गौरवप्रयोगपरिणामासङ्गयोगाभावात् । तद्यथा । गुणवद्भूमिभागारोपितमृतुकालजातं बीजोद्भेदादङ्कुरप्रवालपर्णपुष्पफलकालेष्वविमानित सेक दौर्हृदादिपोषणकर्मपरिणतं कालच्छिन्नं शुष्कमलाब्वप्सु न निमज्जति तदेव गुरुकृष्णमृत्तिकालेपैर्धनैर्बहुभिरालिप्तं धनमृत्तिकालेपवेष्टन जनितागन्तुकगौरवमप्सु प्रक्षिप्तं तज्जलप्रतिष्ठं भवति यदा त्वस्याद्भिः किन्नो मृत्तिकालेपो व्यपगतो भवति तदा For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मृत्तिकालेपसङ्गविनिर्मुक्तं मोक्षानन्तरमेवोर्ध्वं गच्छति आसलिलोर्ध्वतलात् एवमूर्ध्वगौरवगतिधर्मा जीवोऽप्यष्टकर्ममृत्तिकालेपवेष्टितः तत्सङ्गात्संसारमहार्णवे भवसलिले निमग्नो भवासक्तोऽधस्तिर्यगूर्ध्वं च गच्छति सम्यग्दर्शनादिसलिलक्केदात्प्रहीणाष्टविधकर्ममृत्तिकालेप ऊर्ध्वगौरवादूर्ध्वमेव गच्छत्या लोकान्तात् ॥ २३० तथागतिपरिणामाच्च - उसी प्रकार गति परिणाम होनेसे भी मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति होती है। जैसे, ऊर्ध्वभागमें गौरव ( गुरुता ) धर्मके धारण करनेसे, और मुक्तिकाल में पूर्वप्रयोग अर्थात् प्रयत्न व्यापार आदि हेतुओंसे इस जीवका वैसाही गति परिणाम दृष्ट होता है जिससे कि इसकी सिच्यमान गति होती है, और वह सिच्यमान गति ऊर्ध्व देश में ही होती है नकि अधोभाग, और न तिर्यक् भागमें; क्योंकि अधोदेश, अथवा तिर्य्यक् देशमें गति होनेमें गौरव, प्रयोग ( व्यापार वा प्रयत्न ) परिणाम तथा सङ्गयोगका अभाव है | जैसे कि गुणयुक्त अर्थात् उत्तम भूमिमें बोया हो, ऋतुकाल ( निज समय ) में उत्पन्न हो, बीजके उद्भेद ( बीजसे अँखुआ निकलेनेके समय ) से अङ्कुर, पल्लव, पत्र, पुष्प तथा फल काल पर्यंत आदर पूर्वक सिंचन आदि पालन पोषण आदि कर्मोंसे परिणामको प्राप्त (अच्छी तरह से परिपक्व ) तथा निजसमयपर तोड़ा हुआ जो शुष्क (सूखा ) अलाबू अर्थात् लौआ वा तितलौकी ( तुबेका ) फल जलमें कदापि नहीं डूबता । और वही अलाबू (बेका फल ) यदि गुरुतर ( भारी ) काली मृत्तिकाके लेपोंसे, वा अन्य घनीभूत गुरुतर पदार्थोंके लेपोंसे लिप्त घनीभूत मृत्तिकाके लेपरूप वेष्ट प्राप्त नैमि - त्तिक गुरुता ( भारीपन ) सहित हो तो जलमें प्रक्षिप्त होनेपर अर्थात् जलमें छोड़नेपर डूब जाता है । और जो कुछ काल पर्यंत जलमें भीगता रहै तो उसके द्वारा इस ( फल ) की मृत्तिकाका लेप दूर हो जाता है, तब मृत्तिकाके लेपसे विनिर्मुक्त होकर मोक्षके अनन्तरही पुनः ऊर्ध्व देश में जलके ऊपर भाग पर्यंत, अर्थात् जलके ऊपरके भागतक ऊपरही जाता है । ऐसेही ऊर्ध्व भागमें स्वभावसिद्ध गौरवधर्मधारी जीव भी अष्टविध कर्म स्वरूप मृत्तिकाके लेपनरूप वेष्टनवेष्टित होनेसे उन कर्मोंके सङ्गसे संसाररूपी समुद्र में डूबता है, और इसमें आसक्त होनेसे अनेक जन्मोंमें अधोभाग, तिर्यग् भाग, तथा ऊर्ध्व भाग में भी गमन करता है; परन्तु जब सम्यग्दर्शन आदि जलसे भली भांति आक्लिन्न अर्थात् भीगने से अष्टविध कर्मरूप मृत्तिकालेप इसका सर्वथा नष्ट हो जाता है तब ऊर्ध्वगमन गौरव धर्म धारण करनेसे लोकान्तपर्यंत ऊपरकोही जाता है | 1 1 स्यादेतत् लोकान्तादप्यूर्ध्व मुक्तस्य गतिः किमर्थं न भवतीति । अत्रोच्यते । धर्मास्तिकायाभावात् । धर्मास्तिकायो हि जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहेणोपकुरुते । स तत्र नास्ति । तस्माद्गत्यु - पग्रहकारणाभावात्परतो गतिर्न भवत्यसु अलाबुवत् । नाधो न तिर्यगित्युक्तम् । तत्रैवानुश्रेणिगतिर्लोकान्तेऽवतिष्ठते मुक्तो निःक्रियः इति ॥ For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २३१ अब कहते हैं कि ऊर्ध्व गतिके विषयमें तो जो रहा वह उसी प्रकार रहै, अर्थात् उसको स्वीकार करनेमें कोई बाधा नहीं है; परन्तु लोकान्तके ऊपर भी मुक्त जीवकी गति क्यों नहीं होती ? (क्योंकि ऊर्ध्व गति स्वभाव होनेसे सर्वथा चलाही जाना चाहिये ) अब इस विषयमें कहते हैं कि लोकान्तसे ऊपर धर्मास्तिकाय पदार्थका अभाव है; क्योंकि धमास्तिकाय जीव और पुद्गलोकी गतिमें उपकार करता है, अर्थात् दोनोंकी गतिमें सहकारी कारण है। वह धर्मास्तिकाय वहां ( लोकान्त वा लोकाकाशके ऊपर ) नहीं है इससे गतिमें उपग्रह ( सहकारी कारण) कारणके अभावसे लोकान्तसे वह जीवकी गति ऐसे नहीं होती जैसे जलमें ऊर्ध्व तलसे परे अलाबू (तितलौकी वा तुंबेके फल ) की गति न अधोभागमें हो न तिर्यग् भागमें, यह सब विषय पूर्वप्रसङ्गमें कह चुके हैं; किन्तु उसी लोकान्तमें यह मुक्त जीव अनुश्रेणि गतिसे निःक्रिय (कर्मरहित) होकर स्थित रहता है ॥ ६ ॥ क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥७॥ क्षेत्रं कालः गतिः लिङ्गं तीर्थ चारित्रं प्रत्येकबुद्धबोधितः ज्ञानमवगाहना अन्तरं संख्या अल्पबहुत्वमित्येतानि द्वादशानुयोगद्वाराणि सिद्धस्य भवन्ति । एभिः सिद्धः साध्योऽनुगम्यश्चिन्त्यो व्याख्येय इत्येकार्थत्वम् । तत्र पूर्वभावप्रज्ञापनीयः प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयश्च द्वौ नयौ भवतः । तत्कृतोऽनुयो"विशेषः । तद्यथा। सूत्रार्थ-वि०व्या०-क्षेत्र १ काल २ गति ३ लिङ्ग४ तीर्थ ५ चारित्र ६प्रत्येकबुद्धबोधित ७ ज्ञान ८ अवगाहना ९ अन्तर १० संख्या ११ तथा अल्प बहुत्व ये द्वादश १२ सिद्धके अनुयोग द्वार ( व्याख्याके द्वार ) होते हैं । इन बारह अनुयोग द्वारोंसे सिद्ध साध्य ( साधने योग्य ), अनुगम्य (जानने योग्य ), चिन्त्य (विचारके योग्य) तथा व्याख्येय (व्याख्या करने योग्य ) होता है यह सब एकार्थवाचक शब्द हैं । उसमें पूर्व भाव प्रज्ञापनीय (पूर्व कालके भाव जताने योग्य ) तथा प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीय (वर्तमान समयमें उत्पन्न भाव जताने योग्य ) ये दो नय होते हैं । उन दोनों नयोंसे किया हुआ अनुयोग विशेष होता है। जैसे: क्षेत्रम् । कस्मिन् क्षेत्रे सिद्ध्यतीति । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयं प्रति सिद्धिक्षेत्रे सिद्ध्यति। पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य जन्म प्रतिपञ्चदशसु कर्मभूमिषु जातः सिद्ध्यति । संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्ध्यति । तत्र प्रमत्तसंयताः संयतासंयताश्च संहियन्ते । श्रमण्यपगतवेदः परिहारविशुद्धिसंयतः पुलाकोऽप्रमत्तश्चतुर्दशपूर्वी आहारकशरीरीति न संहियन्ते । ऋजुसूत्रनयः शब्दादयश्व त्रयः प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयाः शेषा नया उभयभावं प्रज्ञापयन्तीति ।। क्षेत्र (के विषयमें)। किस क्षेत्रमें सिद्ध होता है यह; प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय नयके प्रति For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है कि सिद्ध क्षेत्रमें सिद्ध होता है, अर्थात् सिद्ध क्षेत्रमें यह जीव सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होता है । और पूर्वभाव ज्ञापनीय नयका ( विषय ) जन्मके प्रति जैसे पञ्चदश कर्मभूमियोंमें उत्पन्न सिद्धताको प्राप्त होता है । संहरणके प्रति जैसे मानुष क्षेत्रमें सिद्ध होता है । उसमें प्रयत्नसंपन्न तथा संयतासंयत समाह्वय होते हैं । श्रमणी, अपगतवेद (वेदरहित ), परिहारविशुद्धिसंयत, पुलाक, अप्रमत्त, चतुर्दशपूर्वी तथा आहारक शरीरवाले नहीं समाहृत होते। ऋजुसूत्रनय और शब्द आदि (शब्द, समभिरूढ, और एवंभूत ) तीन नय प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय हैं । और शेष नय अर्थात् नैगम, संग्रह और व्यवहार नय उभय भाव अर्थात् पूर्व भाव और प्रत्युपन्न भावको भी ज्ञापन (बोधन ) करते हैं। ___ कालः । अत्रापि नयद्वयम् । कस्मिन्काले सिद्ध्यंतीति।प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य अकाले सिद्धयति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य जन्मतः संहरणतश्च । जन्मतोऽवसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यामनवसर्पिण्युत्सर्पिण्यां च जातः सिद्धयति । एवं तावदविशेषतः । विशेषतोऽप्यवसर्पिण्यां सुष. मदुःषमायां संख्येयेषु सर्वेषु शेषेषु जातः सिद्धयति । दुःषमसुषमायां सर्वस्यां सिध्यति दुःषमसुषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति न तु दुःषमायां जातः सिध्यति अन्यत्र नैव सिध्यति । संहरणं प्रति सर्वकालेष्ववसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यामनवसर्पिण्युत्सर्पिण्यां च सिध्यति ॥ काल (के विषयमें ) इस विषयमें भी दो नय हैं । किस काल अर्थात् किस समयमें सिद्ध होता है । प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय नयके विषयसे अकालमें सिद्ध होता है । और पूर्वभावज्ञापनीय नयके बलसे जन्मसे तथा संहरणसे भी (सिद्ध होता है) जन्मसे अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, तथा अनवसर्पिणी कालमें उत्पन्न जीव सिद्ध होता है। इस रीतिसे अविशेष रूपसे (सिद्धताका वर्णन हुआ) और विशेषरूपसे अवसर्पिणीमें सुषम दुःषमा कालमें शेष सङ्ख्य वर्षों में उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है; और दुःषमसुषमामें सब कालमें सिद्ध होता है; तथा दुःषमसुषमामें उत्पन्न प्राणी दुःषमा सिद्ध होता है, न कि दुःषमामें उत्पन्न सिद्ध होता है; इसके अतिरिक्त अन्य कालमें नहीं सिद्ध होता, और संहरणके प्रति सब कालमें अर्थात् अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी तथा अनवसर्पिणीमें भी सिद्ध होता है। __ गतिः । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य सिद्धिगत्यां सिध्यति । शेषास्तु नया द्विविधा अनन्तरपश्चात्कृतगतिकश्च एकान्तरपश्चात्कृतगतिकश्च । अनन्तरपश्चात्कृतगतिकस्य मनुष्यगत्यां सिध्यति । एकान्तरपश्चात्कृतगतिकस्याविशेषेण सर्वगतिभ्यः सिध्यति ॥ ___ गति (के विषयमें ) । प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय नयके अनुसार सिद्धिगतिमें सिद्ध होता है । और शेष नय दो प्रकारके हैं, अनन्तर तथा पश्चात् जिसने गति किया है वह, और एक अन्तर करके जिसने गति किया है वह । अनन्तरपश्चात्कृतगतिक मनुष्यगतिमें सिद्ध होता है । और एकान्तरपश्चात्कृतगतिककी गतिमें तो अविशेष रूपसे सब गतिसे सिद्ध होता है ॥ For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । लिङ्ग स्त्रीपुंनपुंसकानि । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्यावेदः सिध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्यानन्तरपश्चात्कृतगतिकस्य परम्परपश्चात्कृतगतिकस्य च त्रिभ्यो लिङ्गेभ्यः सिध्यति । लिङ्ग स्त्री, पुरुष, तथा नपुंसक इन भेदोंसे तीन प्रकारके हैं । प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय नयके अनुसार अवेद अर्थात् स्त्रीवेद पुंवेद तथा नपुंसक वेद, इन तीनों वेदोंसे रहित सिद्ध होता है। और पूर्वभावज्ञापनीयके अनुसार अनन्तरपश्चात्कृतगतिककी और परम्परपश्चात्कृतगतिककी गतिमें तीनो लिङ्गोंसे सिद्ध होता है ॥ तीर्थम् । सन्ति तीर्थकरसिद्धाः तीर्थकरतीर्थे नोतीर्थकरसिद्धाः तीर्थकरतीर्थेऽतीर्थकरसिद्धाः तीर्थकरतीर्थे । एवं तीर्थकरीतीर्थे सिद्धा अपि ॥ तीर्थ ( के विषयमें )। तीर्थकर सिद्ध तीर्थकरतीर्थमें हैं, नोतीर्थ (ईषत्तीर्थकर) सिद्ध तीर्थकरतीर्थमें होते हैं, अतीर्थकर सिद्ध तीर्थकरतीर्थमें होते हैं । और इसी रीतिसे तीर्थकरीतीर्थमें भी सिद्ध होते हैं। लिङ्गे पुतरन्यो विकल्प उच्यते । द्रव्यलिङ्गभावलिङ्गमलिङ्गमिति प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्यालिङ्गः सिध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य भावलिङ्गं प्रति स्वलिङ्गे सिध्यति । द्रव्यलिङ्गं त्रिविधं स्वलिङ्गमन्यलिङ्गं गृहिलिङ्गमिति तत्प्रतिभाज्यम् । सर्वस्तु भावलिङ्गं प्राप्तः सिध्यति ॥ ___ अब लिङ्गके विषयमें पुनः दूसरा यह विकल्प कहते हैं । जैसे द्रव्यलिङ्ग, भावलिङ्ग और अलिङ्ग, इनमें प्रत्युत्पन्न ज्ञापनीय नयके अनुसार तो अलिङ्ग (लिङ्गरहित) सिद्धताको प्राप्त होता है । और पूर्वभावज्ञापनीय नयके अनुसार भावलिङ्गके प्रति निजलिङ्गमें सिद्ध होता है । द्रव्यलिङ्गके तीन भेद हैं, जैसे निजलिङ्ग अर्थात् अपना लिङ्ग, अन्यलिङ्ग ( अलोकालिङ्ग) और गृहिलिङ्ग, उसका प्रति भाग करना चाहिये । और भावलिङ्गमें प्राप्त तो सबही सिद्धताको प्राप्त होता है। ___ चारित्रम् । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य नोचारित्री नोऽचारित्री सिध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयो द्विविधः अनन्तरपश्चात्कृतिकश्च परम्परपश्चात्कृतिकश्च । अनन्तरपश्चात्कृतिकस्य यथा. ख्यातसंयतः सिध्यति । परम्परपश्चात्कृतिकस्य व्यजितेऽव्यञ्जिते च । अव्यजिते त्रिचारित्रपश्चात्कृतश्चतुश्चारित्रपश्चात्कृतः पञ्चचारित्रपश्चात्कृतश्च । व्यजिते सामायिकसूक्ष्मसांपरायिकयथाख्यातपश्चात्कृतसिद्धाः छेदोपस्थाप्यसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातपश्चात्कृतसिद्धाः सामायिकच्छेदोपस्थाप्यसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातपश्चात्कृतसिद्धाः छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातपश्चात्कृतसिद्धाः सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातपश्चात्कृतसिद्धाः ॥ चारित्र ( के विषयमें )। प्रत्युत्पन्न भाव ज्ञापनीयके अनुसार नोचारित्र तथा नोअचारित्र सिद्ध होते हैं । और पूर्व भाव ज्ञापनीय दो प्रकारका है, एक तो अनन्तरपश्चात्कृतिक और दूसरा परम्परपश्चात्कृतिक । उसमें अनन्तरपश्चात्कृतिकके अनुरोधसे यथा For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ख्यातसंयत ( यथाख्यातसंयम चारित्रवाला) सिद्ध होता है । परम्परपश्चात्कृतिकके व्यञ्जित तथा अव्यञ्जित ये दो भेद होते हैं। उसमें अव्यञ्जितमें त्रिचारित्रपश्चात्कृत, चतुश्चारित्रपश्चात्कृत तथा पञ्चचारित्रपश्चात्कृत होते हैं । और व्यञ्जितमें सामायिक सूक्ष्म सांपरायिक तथा यथाख्यातपश्चात्कृत सिद्ध होते हैं, तथा छेदोपस्थाप्य सूक्ष्म सम्पराय तथा यथाख्यातपश्चात्कृत सिद्ध, सामायिक छेदोपस्थाप्य सूक्ष्म सम्पराय तथा यथाख्यात पश्चास्कृत सिद्ध, ऐसेही छेदोपस्थाप्य परिहारविशुद्धि सूक्ष्म सम्पराय तथा यथाख्यात पश्चात्कृत सिद्ध, और इसी रीतिसे सामायिक, छेदोपस्थाप्य, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय तथा यथाख्यात पश्चात्कृत सिद्ध होते हैं । ( इस प्रकार क्रमसे त्रिचारित्रपश्चात्कृत, चतुश्चारित्रपश्चात्कृत तथा पञ्चचारित्रपश्चात्कृत व्यञ्जित भेदमें दर्शाये गये।) प्रत्येकबुद्धबोधितः । अस्य व्याख्याविकल्पश्चतुर्विधः । तद्यथा । अस्ति स्वयंबुद्धसिद्धः। स द्विविधः अहंश्च तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धसिद्धश्च । बुद्धबोधितसिद्धाः त्रिचतुर्थो विकल्पः परबोधकसिद्धाः स्वेष्टकारिसिद्धाः ॥ प्रत्येक-बुद्ध-बोधित (के विषयमें )। इसका अर्थात् प्रत्येक-बुद्ध-बोधितकी व्याख्याका विकल्प ( भेद ) चार प्रकारका है। जैसे स्वयंसिद्ध बुद्ध प्रसिद्ध प्रथम भेद है । उसके ( अर्थात् स्वयंबुद्ध सिद्धके ) दो भेद हैं, एक तो अर्हन् तीर्थकर भगवान् और द्वितीय प्रत्येकबुद्धसिद्ध) द्वितीय बुद्धबोधितसिद्ध (बुद्धसे बोधन किये हुए सिद्ध) और तृतीय तथा चतुर्थ भेद परबोधकसिद्ध (दूसरोंको बोध करनेवाले सिद्ध ) और स्वेष्टकारिसिद्ध, अर्थात् अपना इष्ट सिद्ध करनेवाले सिद्ध ये चार भेद सिद्धोंके हैं । ज्ञानम् । अत्र प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य केवली सिद्ध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयो द्विविधः अनन्तरपश्चात्कृतिकश्च परम्परपश्चात्कृतिकश्च अव्यञ्जिते च व्यञ्जिते च । अव्यञ्जिते द्वाभ्यां ज्ञानाभ्यां सिध्यति । त्रिभिश्चतुर्भिरिति । व्यञ्जिते द्वाभ्यां मतिश्रुताभ्याम् । त्रिभिर्मतिश्रुतावधिभिर्मतिश्रुतमनःपर्यायैर्वा । चतुर्भिर्मतिश्रुतावधिमनःपर्यायैरिति ॥ ज्ञान ( के विषयमें ) । इस विषयमें प्रत्युत्पन्न भाव ज्ञापनीयके अनुरोधसे केवली ( केवलज्ञान-सहित ) सिद्ध होता है। और पूर्वभाव-ज्ञापनीय दो प्रकारका है । अनन्तरपश्चात्कृतिक, तथा परम्परपश्चात्कृतिक । इसमें भी अव्यञ्जित तथा व्यञ्जित ये दो भेद समझने । अव्यञ्जितमें तो दो ज्ञानोंसे सिद्ध होता है। तीन और चारसे भी (सिद्ध होता है ) । व्यञ्जितमें दो से अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञानसे । तीनसे मति, श्रुत तथा अवधि ज्ञानसे, अथवा मति श्रुत और मनःपर्यायसे सिद्ध होता है । और चारसे मति, श्रुत, अवधि, और मनःपर्यायसे सिद्ध होता है। अवगाहना । कः कस्यां शरीरावगाहनायां वर्तमानः सिध्यति । अवगाहना द्विविधा उत्कृष्टा जघन्या च । उत्कृष्टा पञ्चधनुःशतानि धनुःपृथक्त्वेनाभ्यधिकानि । जघन्या सप्तरत्नयोऽ For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ - सभाष्यतस्वार्थाधिगमसूत्रम् । गुलपृथक्त्वे हीनाः । एतासु शरीरावगाहनासु सिध्यति । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य तु एतास्वेव यथास्वं त्रिभागहीनासु सिध्यति ॥ अवगाहना ( के विषयमें ) । कौन जीव किस अवगाहनामें वर्तमान होके सिद्ध होता है ( अर्थात् किस प्रकारके शरीरमें व्याप्त होकर सिद्ध होता है, यह अवगाहनाका आशय है ) वह अवगाहना दो प्रकारकी है, एक उत्कृष्टा अवगाहना, अर्थात् उत्तम अवगाहना और दूसरी निकृष्ट अर्थात् नीच वा हीन अवगाहना । उसमें उत्कृष्ट तो धनुःपृथक्त्व अधिक पंचधनुःशत अर्थात् पांच सौ धनुष प्रमाणकी होती है । और जघन्या तो अङ्गुल पृथक्त्व हीन अर्थात् अङ्गुलपृथक्त्वसे (प्रमाणविशेषसे ) कम सप्त अरनिप्रमाण (प्रमाणविशेष ) की होती है । सो पूर्वभावज्ञापनीय नयके अनुसार इन पूर्वोक्त शरीर अवगाहनाओंमें, अर्थात् पूर्वकथित प्रमाणसहित शरीरोंमें व्याप्त जीव सिद्ध होता है। और प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीयके अनुसार तो त्रिभागहीन, इन्हीं शरीरावगाहनाओंमें यथाक्रम सिद्ध होता है। __ अन्तरम् । सिध्यमानानां किमन्तरम् । अनन्तरं च सिध्यन्ति सान्तरं च सिध्यन्ति । तत्रानन्तरं जघन्येन द्वौ समयौ उत्कृष्टेनाष्टौ समयान् । सान्तरं जघन्येनैकं समयं उत्कृष्टेन षण्मासा इति ॥ अन्तर ( के विषयमें ) । सिद्ध होनेवालोंका अर्थात् सिद्धता दशाको प्राप्त होनेवाले जीवोंका क्या अन्तर (फर्क वा अन्तराल) है यही अन्तरसे तात्पर्य है। उसमें ऐसा समझना चाहिये कि अनन्तरदशामें भी सिद्धताको प्राप्त होता है, और सान्तर (अन्तरसहित ) दशामें भी सिद्ध होता है। उसमें जघन्य (निकृष्ट ) रूपसे दो समय, और उस्कृष्टतासे आठ समय ( सूक्ष्म कालके भाग) का ग्रहण होता है । और सान्तर जघन्य (निकृष्ट ) रूपसे एक समय और उत्कृष्टतासे षट् मास (छः महीने) ग्रहण करने चाहिये । सङ्ख्या । कत्येकसमये सिध्यन्ति । जघन्येनैक उत्कृष्टेनाष्टशतम् ॥ संख्या ( के विषयमें )। कितने एक समयमें सिद्ध होते हैं ?। जघन्यरूपसे तो एकका ग्रहण है, और उत्कृष्टतासे अष्टशत अर्थात् आठसौ (८००) का ग्रहण है । अल्पबहुत्वम् । एषां क्षेत्रादीनामेकादशानामनुयोगद्वाराणामल्पबहुत्वं वाच्यम् । तद्यथा । अल्प बहुत्वके (विषयमें) । इन क्षेत्र काल आदि एकादश अर्थात् ग्यारह ११ अनुयोगद्वारोंका अल्प बहुत्व (न्यूनत्व तथा अधिकत्व ) कहना चाहिये । वह इस प्रकारसे: क्षेत्रसिद्धानां जन्मतः संहरणतश्च कर्मभूमिसिद्धाश्चाकर्मभूमिसिद्धाश्च सर्वस्तोकाः संहरणसिद्धाः जन्मतोऽसङ्खयेयगुणाः । संहरणं द्विविधम् परकृतं स्वयंकृतं च । परकृतं देवकर्मणा चारणविद्याधरैश्च । स्वयंकृतं चारणविद्याधराणामेव । एषां च क्षेत्राणां विभागः कर्मभूमिरकर्मभूमिः समुद्रा द्वीपा ऊर्ध्वमधस्तिर्यगिति लोकत्रयम् । तत्र सर्वस्तोका ऊर्ध्वलोकसिद्धाः For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अधोलोकसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः तिर्यग्लोकसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः सर्वस्तोकाः समुद्रसिद्धाः द्वीपसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः । एवं तावदव्यञ्जिते व्यजितेऽपि सर्वस्तोका लवणसिद्धाः कालोदसिद्धाः सङ्खयेयगुणा जम्बूद्वीपसिद्धाः सङ्खयेयगुणा धातकीखण्डसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः पुष्करार्धसिद्धाः सङ्खयेयगुणा इति ॥ क्षेत्रसिद्धोंके जन्मसे तथा संहरणसे कर्मभूमिसिद्ध और अकर्मभूमिसिद्ध सर्व स्तोक ( व्याप्त करते हैं) और संहरणसिद्ध जन्मकी अपेक्षासे सङ्ख्येय गुण हैं । संहरण भी दो प्रकारका है, एक तो परकृत संहरण और दूसरा स्वयंकृत संहरण । उसमें परकृत संहरण देवोंके कर्मसे चारण तथा विद्याधरोंके द्वारा । और स्वयंकृत संहरण चारण तथा विद्याधरोंका ही होता है । इनके क्षेत्रोंका विभाग कर्ममूमि, अकर्मभूमि, द्वीप, समुद्र, ऊर्ध्वभाग, अधोभाग, तथा तिर्यक् इस रीतिसे तीनों लोक हैं । उसमें सर्वस्तोक ऊर्ध्वलोकसिद्ध अधोलोकसिद्ध सङ्खयेय गुण हैं, तिर्यग्लोकसिद्ध सङ्ख्येय गुण, और सर्वस्तोक, समुद्रसिद्ध, द्वीपसिद्ध संख्येयगुण हैं। इस प्रकार अव्यञ्जित (अव्यक्त वा सामान्य ) रूपमें विभाग वर्णन हुआ, और व्यञ्जित (व्यक्त स्पष्ट वा विशेष ) रूपसे भी सर्वस्तोक, लवणसिद्ध तथा कालोदसिद्ध सङ्खयेय गुण हैं। जंबूद्वीपसिद्ध सङ्ख्येय गुण, धातकीखण्डसिद्ध संख्येयगुण, तथा पुष्करार्द्धसिद्ध सङ्ख्येय गुण होते हैं। काल इति त्रिविधी विभागो भवति अवसर्पिणी उत्सर्पिणी अनवसर्पिण्युत्सर्पिणीति । अत्र सिद्धानां (व्यञ्जितानां) व्यञ्जिताव्यञ्जितविशेषयुक्तोऽल्पबहुत्वानुगमः कर्तव्यः । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य सर्वस्तोका उत्सर्पिणीसिद्धा अवसर्पिणीसिद्धा विशेषाधिका अनवसर्पिण्युत्सर्पिणीसिद्धाः सङ्ख्येयगुणा इति । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्याकाले सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वम् । ___ काल इसका तीन प्रकारका विभाग होता है । जैसे अवसर्पिणी, (नीचेकी ओर आनेवाली कालकी गति ), उत्सर्पिणी (ऊपरकी ओर चढ़नेवाली कालकी गति ) तथा अनवसर्पिणी-उत्सर्पिणी अब इसमें यहांपर सिद्धोंका व्यञ्जित सिद्धोंका व्यञ्जित तथा अव्यञ्जित विशेषोंकरके सहित अल्प तथा बहुत्वका अनुगम ( विशेष प्रमाणसहित अनुभव ) करना चाहिये । पूर्वभावज्ञापनीयके अनुसार सर्वस्तोक (व्याप्त) उत्सर्पिणीसिद्ध ( उत्सर्पिणी स्वरूप कालमें सिद्ध होनेवाले जीव ) अवसर्पिणीसिद्ध ( अवसर्पिणी स्व. रूप कालमें होनेवाले सिद्ध जीव )विशेष अधिक हैं, तथा अनवसर्पिणी उत्सर्पिणी सिद्ध सङ्खयेयगुण हैं। और प्रत्युत्पन्नज्ञापनीय नयके अनुरोधसे अकालमें सिद्ध होते हैं । इस नयकी अपेक्षा अल्प बहुत्व नहीं है। गतिः । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य सिद्धिगतौ सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वम् । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्यानन्तरपश्चात्कृतिकस्य मनुष्यगतौ सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वत् । परम्परपश्चात्कृ For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २३७ तिकस्यानन्तरा गतिश्चिन्त्यते । तद्यथा । सर्वस्तोकास्तियग्योन्यनन्तरगतिसिद्धा मनुष्येभ्योऽनन्तरगतिसिद्धाः सङ्खयेयगुणा नारकेभ्योऽनन्तरगतिसिद्धाः सङ्खयेयगुणा देवेभ्योऽनन्तरगतिसिद्धाः सङ्ख्येयगुणा इति ॥ गति ( के विषयमें ) । प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीयके अनुसार सिद्ध गतिमें सिद्ध होता है । इस रीतिसे इस नयकी अपेक्षा अल्प बहुत्व नहीं है । और अनन्तरपश्चात्कृतिकरूप पूर्वभावज्ञापनीयके अनुसार तो मनुष्यगतिमें सिद्ध होता है । इस प्रकार इसमें भी अल्प बहुत्व नहीं है । और परम्परपश्चात्कृतिककी अनन्तरगतिका विचार करते हैं। वह इस प्रकारसे है। सर्वस्तोक, तिर्यक्योनि अनन्तरगतिसिद्ध होते हैं, अनन्तरगतिसिद्ध मनुष्योंसे संख्येय गुण हैं तथा नारक जीवोंसे अनन्तरगतिसिद्ध सङ्ख्येय गुण होते हैं और देवोंसे भी अनन्तरगतिसिद्ध सङ्खयेय गुण होते हैं । लिङ्गम् । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य व्यपगतवेदः सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वम् । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य सर्वस्तोका नपुंसकलिङ्गसिद्धाः स्त्रीलिङ्गसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः पुल्लिङ्गसिद्धाः सङ्खथेयगुणा इति ॥ लिङ्ग ( के विषयमें अल्प बहुत्व ) । प्रत्युत्पन्न ज्ञापनीयके अनुसार अपगतवेद ( वेद अर्थात् स्त्रीपुंनपुंसक लिङ्गशून्य ) सिद्ध होता है । इसका अल्प बहुत्व नहीं है। और पूर्वभावज्ञापनीयकी रीतिसे सर्वस्तोक नपुंसकलिङ्गसिद्ध, तथा स्त्रीलिङ्ग सिद्ध सङ्ख्येय गुण होते हैं । और पुंल्लिङ्ग सिद्ध भी सङ्ख्येय गुण हैं । तीर्थम् । सर्वस्तोकाः तीर्थकरसिद्धाः तीर्थकरतीर्थे नोतीर्थकरसिद्धाः सङ्खयेयगुणा इति । तीर्थकरतीर्थसिद्धा नपुंसकाः सङ्खयेयगुणाः। तीर्थकरतीर्थसिद्धाः स्त्रियः सङ्ख्येयगुणाः । तीर्थकरतीर्थसिद्धा पुमांसः सङ्खयेयगुणा इति ॥ तीर्थ (के विषय अल्प बहुत्व ) । सर्वस्तोक ( सम्बन्धी ) तीर्थंकर सिद्ध तीर्थकरतीर्थमें नोतीर्थकर सिद्ध सङ्ख्येय गुण हैं । तीर्थकरतीर्थसिद्ध नपुंसक सङ्ख्येय गुण हैं । तीर्थकरतीर्थसिद्ध स्त्रियां भी सङ्ख्येय गुण हैं। तथा तीर्थकरसिद्ध पुरुष भी सङ्खयेय गुण होते हैं। ___ चारित्रम् । अत्रापि नयौ द्वौ प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयश्च पूर्वभावप्रज्ञापनीयश्च । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य नोचारित्री नोअचारित्री सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वम् । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य व्यञ्जिते चाव्यञ्जिते च । अव्यञ्जिते सर्वस्तोकाः पञ्चचारित्रसिद्धाश्चतुश्चारित्रसिद्धाः सङ्खथेयगुणास्त्रिचारित्रसिद्धाः सङ्खथेयगुणाः । व्यञ्जिते सर्वस्तोकाः सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः सामायिकच्छेदोपस्थाप्यसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः सामायिकपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातसिद्धाः For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सङ्खथेयगुणाः सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः सङ्घयेयगुणाः । छेदोपस्थाप्यसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः । चारित्र (के विषयमें अल्प बहुत्व)। यहां भी दो नय अर्थात् प्रत्युत्पन्नभाव ज्ञापनीय तथा पूर्वभावज्ञापनीय योजित करना ( लगाना ) चाहिये । प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय नयके अनुसार नोचारित्र (पुरुष) तथा नो चारित्री (स्त्री) वा नो अचारित्र सिद्ध होते हैं। इसकी अपेक्षा अल्प बहुत्व नहीं है । और पूर्वभावज्ञापनीयके अनुसार व्यञ्जित तथा अव्यञ्जितमें भी । उसमें अव्यञ्जितमें सर्वस्तोक पञ्चचारित्र सिद्ध तथा चतुश्चारित्र सिद्ध सङ्ख्येय गुण होते हैं । तथा त्रिचारित्र सिद्ध भी सङ्ख्येय गुण होते हैं । और व्यञ्जित ( व्यक्त ) रूपमें सर्वस्तोक ( सम्बन्धी ) सामायिक, छेदोपस्थाप्य, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय, तथा यथाख्यात एतत्पंच चारित्र सिद्ध, तथा छेदोपस्थाप्य, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय तथा यथाख्यात, एतत् चतुश्चारित्र सिद्ध संख्येय गुण होते हैं। तथा सामायिक, छेदोपस्थाप्य, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात, एतत् स्वरूप चतुश्चारित्र सिद्ध संख्येय गुण होते हैं। तथा सामायिक परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय, तथा यथाख्यात एतत्स्वरूप चतुश्चारित्र सिद्ध सङ्घय गुण होते हैं। तथा सामायिक, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात एतत्स्वरूप त्रिचारित्रसिद्ध सङ्खयेय गुण होते हैं । अथवा छेदोपस्थाप्य, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात एतत्स्वरूप त्रिचारित्र सिद्ध सङ्घय गुण होते हैं। प्रत्येकबुद्धबोधितः । सर्वस्तोकाः प्रत्येकबुद्धसिद्धाः । बुद्धबोधितसिद्धा नपुंसकाः सङ्ख्येयगुणाः । बुद्धबोधितसिद्धाः स्त्रियः सङ्खयेयगुणाः । बुद्धबोधितसिद्धाः पुमांसः सङ्खयेयगुणा इति । प्रत्येक बुद्ध बोधित ( के विषयमें अल्प बहुत्व ) । सर्वस्तोक ( सम्बन्धी ) प्रत्येकबुद्धसिद्ध होते हैं । और बुद्धबोधित सिद्ध नपुंसक सङ्घय गुण होते हैं। तथा बुद्धबोधित अर्थात् बुद्ध सिद्धोंसे बोध कराई हुई स्त्री सिद्ध (सिद्धता दशा प्राप्त स्त्रियां ) भी सङ्ख्य गुण होती हैं । और बुद्धबोधित पुरुष सिद्ध भी सङ्केय गुण होते हैं । ___ ज्ञानम् । कः केन ज्ञानेन युक्तः सिध्यति । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्य सर्वः केवली सिध्यति । नास्त्यल्पबहुत्वम् । पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य सर्वस्तोका द्विज्ञानसिद्धाः चतुर्ज्ञानसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः त्रिज्ञानसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः । एवं तावदव्यजिते व्यजितेऽपि सर्वस्तोका मतिश्रुतज्ञानसिद्धाः मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः मतिश्रुतावधिज्ञानसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः ॥ ज्ञान ( के विषयमें अल्प बहुत्वका विचार ) । कौन किस ज्ञान युक्त ( सहित ) सिद्ध होता है । प्रत्युत्पन्न भाव ज्ञापनीय नयके अनुसार सब केवली ( केवल ज्ञान युक्त)सिद्धताको प्राप्त होता है। इसकी अपेक्षासे अल्प बहुत्व भाव नहीं है । और पूर्व भाव ज्ञापनीय For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतस्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २३९ 1 के अनुसार सर्व लोक द्विज्ञान ( दो ज्ञानोंसे युक्त होनेसे ) सिद्ध तथा चतुर्ज्ञानसिद्ध संये गुण होते हैं । ऐसेही त्रिज्ञान ( तीन ज्ञानोंसे युक्त होनेसे ) सिद्ध सङ्खयेय गुण होते हैं । इस प्रकार तो अव्यञ्जित रूपसे अर्थात् अविशेष रूपसे निरूपण हुआ और व्यञ्जित रूपसे भी सर्व लोक मतिज्ञान श्रुतज्ञान सिद्ध, तथा मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्य्याय ज्ञान सिद्ध सङ्खयेय गुण होते हैं । ऐसेही मति, श्रुत, तथा अवधि ज्ञान एतद्रूप त्रिज्ञान ) सिद्ध सङ्ख्य गुण होते हैं । अवगाहना । सर्वस्तोका जघन्यावगाहनासिद्धाः उत्कृष्टावगाहनासिद्धास्ततोऽसङ्घयेयगुणाः यवमध्यसिद्धा असङ्ख्येयगुणाः यवमध्योपरिसिद्धा असङ्घयेयगुणाः यवमध्याधस्तात्सिद्धा विशेषाधिकाः सर्वे विशेषाधिकाः ॥ 1 अवगाहना ( के विषयमें अल्प बहुत्वका विचार ) । सर्वस्तोक जघन्य अवगाहना सिद्ध होते हैं । और उत्कृष्ट अवगाहना सिद्ध उनसे असङ्खयेय गुण होते हैं । तथा यवमध्यसिद्ध असङ्ख्य गुण होते हैं, यवमध्योपरि ( जवके मध्यके उपरि भाग प्रमाण शरीरको अवगाहन करनेवाले ) सिद्ध भी असङ्घयेय गुण होते हैं और यवके मध्य तथा अधोभाग सिद्ध विशेषाधिक ( असङ्ख्य ) गुण वा सब विशेष अधिक इस रीति से होते हैं । अन्तरम् । सर्वस्तोका अष्टसमयानन्तरसिद्धाः सप्तसमयानन्तरसिद्धाः षट् समयानन्तरसिद्धा इत्येवं यावद्विसमयानन्तरसिद्धा इति सङ्घयेयगुणाः । एवं तावदन्तरेषु सान्तरेष्वपि सर्वस्तोकाः षण्मासान्तरसिद्धाः एकसमयान्तरसिद्धाः सङ्खधेयगुणाः यवमध्यान्तरसिद्धाः सङ्घयेयगुणाः अधस्ताद्यवमध्यान्तरसिद्धा असङ्ख्येयगुणाः उपरियवमध्यान्तर सिद्धा विशेषाधिकाः सर्वे विशेषाधिकाः ॥ 1 अन्तर ( के वियषमें अल्प बहुत्व ) । सर्वस्तोक अष्ट समय अनन्तर सिद्ध, सप्त समय अनन्तर सिद्ध, षट् समय अनन्तर सिद्ध इसी प्रकार द्वि ( दो ) समय पय्र्यन्त अनन्तरसिद्ध सङ्ख्येय गुण हैं । इस रीतिसे तो अनन्तरोंमें निरूपण हुआ, और सान्तरोंमें भी सर्वस्तोक षट् मास अन्तर सिद्ध, तथा एक समय अन्तर सिद्ध सङ्खयेय गुण होते हैं । तथा यवमध्य अन्तर सिद्ध संख्येय गुण होते हैं, और अधोभाग तथा यव मध्य अन्तर सिद्ध भी सङ्ख्य गुण होते हैं । और उपरि भाग तथा यव मध्य अन्तर सिद्ध विशेष अधिक असङ्ख्य गुण होते हैं । सब विशेष अधिक इसी प्रकार होते हैं । 1 सङ्ख्या । सर्वस्तोका अष्टोत्तरशतसिद्धाः विपरीतक्रमात्सप्तोत्तरशतसिद्धादयो यावत्पश्चाशत् इत्यनन्तगुणाः । एकोनपञ्चाशदादयो यावत्पञ्चविंशतिरित्यसङ्ख्येयगुणाः । चतुर्विंशयादयो यावदेक इति सङ्ख्येयगुणाः । विपरीतहानिर्यथा । सर्वस्तोका अनन्तगुणहानिसिद्धा असङ्खयेयगुणहानिसिद्धा अनन्तगुणाः सङ्खधेयगुणहानिसिद्धा सङ्घयेयगुणा इति ॥ For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सङ्ख्या (के विषय में अल्प बहुत्व ) । सर्वस्तोक ( सम्बन्धी ) अष्टोत्तर शत अर्थात् आठ अधिक सौ १०८ सिद्ध होते हैं, और विपरीत क्रमसे सप्त उत्तर शत अर्थात् सात अधिक शत (सौ १०० ) सिद्ध आदि पञ्चाशत् (पचास ) पर्य्यन्त ये सब अनन्त गुण होते हैं । और एक ऊन ( एक कम ) पञ्चाशत् अर्थात् ओन्चाससे आदि लेके पञ्चविंशति ( पचीस) पर्य्यन्त, ये सब सिद्ध असङ्खयेय गुण होते हैं । और चतुर्विंशति ( चौबीस २४ ) से आदि लेके एक सिद्ध पर्य्यन्त सङ्घयेय गुण होते हैं । और विपरीत रूपसे हानि, जैसे सर्व लोक अनन्त गुण हानि सिद्ध, असङ्खयेय गुण हानि सिद्ध अनन्त गुण होते हैं, तथा सङ्घयेय गुण हानि सिद्ध सङ्ख्य गुण होते हैं । 1 २४० एवं निसर्गाधिगमयोरन्यतरजं तत्त्वार्थ श्रद्धानात्मकं शङ्काद्यतिचारवियुक्तं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं विशुद्धं सम्यग्दर्शनमवाप्य सम्यग्दर्शनोपलम्भाद्विशुद्धं च ज्ञानमधिगम्य निक्षेपप्रमाणनयनिर्देशसत्सङ्ख्यादिभिरभ्युपायैर्जीवादीनां तत्त्वानां पारिणामिकौद्धिकौपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकानां भावानां स्वतत्त्वं विदित्वादिमत्पारिणामिकौदयिकानां च भावानामुत्पत्तिस्थित्यन्यतानुग्रहप्रलयतत्त्वज्ञो विरक्तो निस्तृष्णस्त्रिगुप्तः पञ्चसमितो दशलक्षणधर्मानुष्ठानात्फलदर्शनाच्च निर्वाणप्राप्तियतनयाभिवर्धितश्रद्धासंवेगो भावनाभिर्भावितात्मानुप्रेक्षाभिः स्थिरीकृतात्मानभिष्वङ्गः संवृतत्वान्निरास्रवत्वाद्विरक्तत्वान्निस्तृष्णस्वाच्च व्यपगताभिनवकर्मोपचयः परीषहजयाद्वाह्याभ्यन्तरतपोनुष्ठानादनुभावतश्च सम्यग्दृष्टिविरतादीनां च जिनपर्यन्तानां परिणामाध्यवसायविशुद्धिस्थानान्तराणामसङ्ख्येयगुणोत्कर्षप्राप्त्या पूर्वोपचितकर्म निर्जरयन् सामायिकादीनां च सूक्ष्मसम्परायान्तानां संयमविशुद्धिस्थानानामुत्तरोत्तरोपलम्भात्पुलाकादीनां च निर्ग्रन्थानां संयमानुपालनविशुद्धिस्थानविशेषाणामुत्तरोत्तरप्रतिपत्त्या घटमानोऽत्यन्तप्रहीणार्तरौद्रध्यानो धर्मध्यानविजयादवाप्तसमाधिबलः शुक्लध्यानयोश्च पृथक्त्वैकत्ववितर्कयोरन्यतरस्मिन्वर्तमानो नानाविधानृद्धिविशेषान्प्रानोति । तद्यथा । इस पूर्वोक्त रीतिसे निसर्गज तथा अधिगमज, इन दोनोंमेंसे अन्यन्तर ( किसी एक ) प्रशम ( अत्यन्त शमता ), संवेग ( तीव्र - संसार - वासना - राहित्य), निर्वेद ( संसारसे ग्लानिपूर्वक वैराग्य ), अनुकम्पा ( दीन जनादिके विषयमें कृपा आदि ), आस्तिक्य (शास्त्र गुरु देव आदिमें आस्तिक्य बुद्धि ) इत्यादिकी अभिव्यक्ति ( प्रकटता रूप ) लक्षणयुक्त, शङ्का आदि अतिचारोंसे शून्य, तथा विशुद्ध तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन प्राप्त करके, और सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे विशुद्ध ज्ञानको प्राप्त होकर निक्षेप ( नामादिनिक्षेप ), प्रमाण (प्रत्यक्षादि प्रमाण ), नय ( नैगम सङ्ग्रह आदि ), निर्देश ( स्वामित्व ) आदि तथा सत् सङ्ख्या आदि उपायोंसे जीव आदि तत्त्वों ( जीव अजीव आदि षट्तत्त्वों) के, तथा पारिणामिक, औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, तथा क्षायिक इन सबके यथार्थ तत्त्वोंको जानकर, तथा आदिमान् ( आदिसहित ), पारिणामिक, और औदयिक भावोंकी For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। उत्पत्ति, स्थिति, अन्यता ( रूपान्तर परिणाम ) रूप अनुग्रह तथा प्रलय ( नाश ) के तत्त्वको ( यथार्थ स्वरूपको) जाननेवाला, अतएव विरक्त, तृष्णारहित, पञ्चसमितियुक्त ( ईर्ष्या आदि समितिसहित ) तथा दशलक्षण धर्मो अर्थात् उत्तम क्षमा मार्दव आदि दशलक्षण धर्मोंके अनुष्ठान और उनके फलके दर्शनसे, निर्वाण ( मोक्ष ) की प्राप्तिमें वर्तनोंसे पूर्ण रूपसे वृद्धिको प्राप्त श्रद्धा तथा संवेगसहित, भावनाओंसे ( मैत्री करुणा आदि भावनाओंसे ) भावित आत्मा अर्थात् पूजित आत्मा सहित, द्वादश अनुप्रेक्षा ओंसे स्थिर आत्मा संयुक्त, इसीसे सर्वथा सङ्गरहित, तथा संवृत ( संवरयुक्त) होनेसे तथा आस्रवरहित होनेसे, विरक्त होनेसे, और तृष्णासे वर्जित होनेसे नूतन ( नये ) कोंके सञ्चयसे रहित, तथा परीषहोंके जयसे, बाह्य तथा आभ्यन्तर द्वादश प्रकारके तपके अनुष्ठानसे तथा अनुभावोंसे भी सम्यग्दृष्टि, तथा विरत आदिसे लेकर जिनपर्यन्त सिद्धोंके परिणाम, अध्यवसाय और विशुद्धि रूप स्थानान्तरोंके असङ्ख्येय गुण उत्कर्षताकी प्राप्तिसे पूर्वभवके वा पूर्वकालके कर्मोंकी निर्जरा ( एकदेशकर्मनाश ) करते हुए, तथा सामायिकसे आदि देके सूक्ष्मसम्परायपर्यन्त संयमविशुद्धिके स्थानान्तरोंके उत्तर उत्तर (आगे२) उपलम्भ ( प्राप्ति होने से पुलाकसे आदि लेके निर्ग्रन्थपर्यन्त सिद्धोंके संयमोंके पालनसे विशुद्धियोंके स्थानविशेषोंकी उत्तर २ प्राप्ति वा बोधसे युक्त, आर्त तथा रौद्र ध्यानोंसे सर्वथा रहित, धर्मध्यानके विजयसे प्राप्त समाधिबल, अर्थात् धर्मध्यानकी दृढतासे समाधिबल जिसको प्राप्त है ऐसा, तथा पृथक्त्व वितर्क और एकत्व वितर्क इन दो प्रकारके शुक्ल ध्यानोंमेंसे किसी एक ध्यानमें वर्तमान महात्माजन नाना प्रकारकी ऋद्धि विशेषोंको अर्थात् अनेक प्रकारकी सिद्धियोंको प्राप्त करता है । वे ऋद्धियां (सिद्धिविशेष ) ये हैं, जैसे:___ आमशौषधित्वं विप्रुडौषधित्वं सौषधित्वं शापानुग्रहसामर्थ्यजननीमभिव्याहारसिद्धिमीशित्वं वशित्वमवधिज्ञानं शारीरविकरणाङ्गप्राप्तितामणिमानं लघिमानं महिमानमणुत्वम् । अणिमा बिसच्छिद्रमपि प्रविश्यासीतां । लघुत्वं नाम लघिमा वायोरपि लघुतरः स्यात् । महत्त्वं महिमा मेरोरपि महत्तरं शरीरं विकुर्वीत । प्राप्तिभूमिष्ठोऽमुल्यग्रेण मेरुशिखरभास्क. रादीनपि स्पृशेत् । प्राकाम्यमप्सु भूमाविव गच्छेत् भूमावप्स्विव निमज्जेदुन्मज्जेच्च । जङ्घाचारणत्वं येनाग्निशिखाधूमनीहारावश्यायमेघवारिधारामर्कटतन्तुज्योतिष्करश्मिवायूनामन्यतममप्युपादाय वियति गच्छेत् । वियद्गतिचारणत्वं येन वियति भूमाविव गच्छेत् शकुनिवञ्च प्रडीनावडीनगमनानि कुर्यात् । अप्रतिघातित्वं पर्वतमध्येन वियतीव गच्छेत् । अन्तर्धानमदृश्यो भवेत् । कामरूपित्वं नानाश्रयानेकरूपधारणं युगपदपि कुर्यात् तेजोनिसर्गसामर्थ्यमित्येतदादि ॥ इति इन्द्रियेषु मतिज्ञानविशुद्धिविशेषादरात्पर्शनास्वादनघ्राणदर्शनश्रवणानि विषयाणां कुर्यात् । संभिन्नज्ञानत्वं युगपदनेकविषयपरिज्ञानमित्येतदादि ॥ मानसं कोष्टबु. द्वित्वं बीजबुद्धित्वं पदप्रकरणोद्देशाध्यायप्राभृतवस्तुपूर्वाङ्गानुसारित्वमृजुमतित्वं विपुलमतित्वं Jain Education Internat 39 For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् परचित्तज्ञानमभिलषितार्थप्राप्तिमनिष्टानवाप्तीत्येतदादि । वाचिकं क्षीरास्रवित्वं मध्वास्रवित्वं वादित्वं सर्वरुतज्ञत्वं सर्वसत्त्वावबोधनमित्येतदादि । तथा विद्याधरत्वमाशीविषत्वं भिन्नाभिन्नाक्षरचतुर्दशपूर्वधरत्वमिति ॥ आमर्श-औषधत्व ( विचार मात्रसे औषधादि प्रयोग सामर्थ्य ), विषय-औषधत्व (जलबिन्दुमात्रसे व्याधिनाशसामर्थ्य), शाप तथा अनुग्रह (आशीर्वाद)को उत्पन्न करनेवाली वचनकी सिद्धि, ईशित्व (ऐश्वर्यवत्ता ), अणिमा लघिमा, महिमा, तथा अणुत्व इत्यादि सिद्धि प्राप्त होती हैं । इनमें कमलके सूत्रके छिद्रमें भी प्रवेश करके स्थित होसके इस प्रकारका अणिमा (छोटापन ) है। लघुत्वको लघिमा कहते हैं, जैसे वायुसे भी लघुतर हो जाय अर्थात् अति हलकापनका सामर्थ्य लघिमा सिद्धि है । महिमा अर्थात् मेरु पर्वतसे भी अधिक बड़ा शरीर करसके, यह महिमा ऋद्धि है । प्राप्ति, पृथिवीपर स्थित होकर अङ्गुलीके अग्रभागसे मेरुके शिखर तथा सूर्य आदिको भी स्पर्श कर (छू ) सकै अर्थात् सर्वत्र प्राप्त होनेका सामर्थ्य यह प्राप्ति नामक सिद्धि है । प्राकाम्य-पृथिवीके समान जल. में भी पैरोंसे चल सकना, और जलके समान पृथिवीपर भी जब चाहै तब डूब जाय, और जब चाहै तब उतराने लगजाय, यह सामर्थ्य अर्थात् इच्छा वा कामनाके अनुसार कार्य करनेका सामर्थ्य प्राकाम्य है । जङ्घाचारणत्व-जिसके द्वारा अग्निकी शिखा, धूम, कुहिरा, जलकी धारा, मर्कटी अर्थात् मकरीके सूत ( जाला ) वा किसी ज्योतिर्मय पदार्थके किरण, तथा वायु, इनमेंसे किसीको ग्रहण करके अर्थात् अग्निशिखा धूम आदिमेंसे किसीके आधारसे आकाशमें गमन कर सकता है । और आकाशगतिचारणता कि जिससे आकाशमें भूमिके तुल्य गमन करै, और पक्षीके समान ऊपर उड़ना तथा नीचे उतरना आदि विशेष प्रकारके गमन आगमन करे । तथा अप्रतिघातित्व (किसी पदार्थसे प्रतिघात-राहित्य अर्थात् अवरोधका सर्वथा अभाव, जिसके द्वारा पर्वतके मध्यमें भी अवकाशसहित आकाशके सदृश चल सकता है । अन्तर्धानत्व, जिसके द्वारा लोगोंकी दृष्टिसे अदृश्य हो सकता अर्थात् लोप हो ( छिप जा ) ता है । कामरूपित्व, अर्थात् अपनी इच्छाके अनुसार रूप धारण करनेका सामर्थ्य; जिससे कि एकही कालमें नाना प्रकारके आश्रयसे अनेक रूप यह योगी धारण कर सकता है। तथा तेजोनिसर्गसामर्थ्य, विशेष तेज उत्पन्न करनेकी शक्ति, इत्यादि सिद्धयां प्राप्त होती हैं। तथा इद्रियों के विषयमें मतिज्ञानकी विशुद्धिकी विशेषता ( विलक्षणता वा विचित्रता ) से दूरसेही स्पर्शन, आस्वादन, घ्राण ( सूंघना ), दर्शन ( देखना ) और श्रवण (सुनना) आदि विषयोंको अनुभव कर सकता है । संभिन्नज्ञानत्व, एक कालमेंही पृथक् २ अनेक विषयोंका परिज्ञान प्राप्त करना, इत्यादि । और मानस कोष्ठबुद्धित्व बीजबुद्धित्व तथा पद, प्रकरण, उद्देश, अध्याय, प्राभृत, वस्तु पूर्वाङ्गाऽनुसारिता, ऋजुमतित्व, विपुलमतित्व, परचित्तज्ञान (दूसरेके चित्तके अभिप्राय For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २४३ का ज्ञान ) अभिलषित अर्थात् अपनेको अभीष्ट पदार्थकी प्राप्ति, तथा अनिष्टकी अ इत्यादि सामर्थ्यविशेष सिद्धियां प्राप्त होती हैं । और वाचिक ( वाग्जन्य सामर्थ्य ) वाणीमें क्षीरस्राविता अर्थात् ऐसा मिष्ट भाषण मानो वचनसे दुग्धप्रवाह झरता है, मधु आस्रावित्व, अर्थात् वचनसे मानो मधुप्रवाह स्रवीभूत ( वहता वा झरता ) होता है, प्रबल वादियोंसे भी वाद करनेका सामर्थ्यविशेष, सर्वरुतज्ञान अर्थात् सब पशु पक्षी आदिके शब्दों का ज्ञान । और सब जीवोंका अवबोधन सब जीवमात्रका ज्ञान वा सबको बोधन ( ज्ञान प्रदान करने ) का सामर्थ्यविशेष, इत्यादि सामर्थ्यविशेष वाचिक सिद्ध होता है । तथा विद्याधरत्व ( विद्याधरपदप्राप्तिसामर्थ्य ) और भिन्न अभिन्न अक्षर चतुर्दश पदत्व, इत्यादि सिद्धिविशेष उस जीवको प्राप्त होते हैं । 1 ततोऽस्य निस्तृष्णत्वात्तेष्वनभिष्वक्तस्य मोहक्षपकपरिणामावस्थस्याष्टाविंशतिविधं मोहनीयं निरवशेषतः प्रहीयते । ततश्छद्मस्थवीतरागत्वं प्राप्तस्यान्तर्मुहूर्तेन ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणि युगपदशेषतः प्रहीयन्ते । ततः संसारबीजबन्धनिर्मुक्तः फलबन्धनमोक्षापेक्ष यथाख्यातसंयतो जिनः केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी शुद्धो बुद्धः कृतकृत्यः स्नातको भवति । ततो वेदनीयनामगोत्रायुष्कक्षयात्फलबन्धननिर्मुक्तो निर्दग्धपूर्वोपात्तेन्धनो निरुपादान इवाग्निः पूवपात्तभववियोगाद्धेत्वभावाश्चोत्तरस्याप्रादुर्भावाच्छान्तः संसारसुखमतीत्यात्यन्तिकमैकान्तिकं निरुपमं निरतिशयं नित्यं निर्वाणसुखमवाप्नोतीति ॥ 1 और इसके पश्चात् तृष्णाके अभाव से उन पूर्वकथित अणिमा आदि सिद्धियोंमें आसक्तता वा सङ्गरहित, तथा मोहक्षपक ( मोहनीय कर्मको नाश करनेवाले) परिणाम भावमें स्थित इस जीवके अठ्ठाईस ( २८ ) प्रकार के मोहनीय कर्म सर्वथा नाशको प्राप्त होते हैं । और इसके अनन्तर छद्मस्थ वीतरागता दशाको प्राप्त इस जीवके अन्तर्मुहूर्त कालमें ही ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्तराय, ये तीनो कर्मप्रकृतियां एक काल मेंही सर्वथा क्षीण ( नष्ट हो जाती हैं । इसके अनन्तर संसार के बीजरूप बन्धन से विनिर्मुक्त, फलरूप बन्धनसे मोक्षकी अपेक्षा करनेवाला, यथाख्यात संयममें संयत, अर्थात् यथाख्यात चारित्ररूप संयमसहित जिन केवली ( केवलज्ञानसम्पन्न ) सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ( सर्वद्रष्टा ), शुद्ध, बुद्ध, कृतकृत्य ( जो कुछ करना चाहिये था वह सब कर चुकनेवाला ), स्नातक रूप यह जीव होता है | और इसके अनन्तर वेदनीय, नाम, गोत्र, तथा आयुः कर्मके क्षय होनेसे फलबन्धनसे सर्वथा विनिर्मुक्त ( छूटा हुआ ), पूर्व कालमें ग्रहण हुए इन्धनको भस्म करनेवाला उपादान कारण ( सर्वथा इन्धन ) शून्य अग्नि के समान, तथा पूर्वकालमें ग्रहण किये हुए जन्मोंके वियोगसे तथा हेतु ( निमित्त ) के अभावसे आगेके जन्मोंके प्रादुर्भाव होनेसे सर्वथा शान्त, और संसारसुखको अतिक्रमण ( लंघन ) करके आत्यन्तिक (जिसका कभी अन्त न हो ऐसा ), ऐकान्तिक ( नित्य वा सर्वदा स्थायी ) 1 For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् निरुपम (उपमारहित ), निरतिशय (जिससे बढ़के कोई सुख न हो ऐसा), नित्य निणि जो मोक्षरूप सुख है, उस मोक्षको यह जीव प्राप्त होता है । एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो भृशम् । । निरास्रवत्वाच्छिन्नायां नवायां कर्मसन्ततौ ॥१॥ पूर्जितं क्षपयतो यथोक्तैः क्षयहेतुभिः । संसारबीजं कात्न्येन मोहनीयं प्रहीयते ॥२॥ ततोऽन्तरायज्ञानघ्नदर्शनघ्नान्यनन्तरम् । प्रहीयन्तेऽस्य युगपत् त्रीणि कर्माण्यशेषतः ॥ ३ ॥ गर्भसूच्यां विनष्टायां यथा तालो विनश्यति । . तथा कर्मक्षयं याति मोहनीये क्षयं गते ॥ ४ ॥ ततः क्षीणचतुष्कर्मा प्राप्तोऽथाख्यातसंयमम् । बीजबन्धननिर्मुक्तः स्नातकः परमेश्वरः ॥५॥ शेषकर्मफलापेक्षः शुद्धो बुद्धो निरामयः । सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली ॥ ६॥ कृत्स्नकर्मक्षयादूर्ध्व निर्वाणमधिगच्छति । यथा दग्धेन्धनो वह्निनिरुपादानसन्ततिः ॥ ७ ॥ दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे नारोहति भवाङ्करः ॥ ८ ॥ तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगासङ्गत्वबन्धच्छेदोर्ध्वगौरवैः ॥९॥ कुलालचके दोलायामिषौ चापि यथेष्यते। पूर्वप्रयोगात्कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता ।। १०॥ मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षाद्यथा दृष्टाप्स्वलाबुनः । कर्मसङ्गविनिर्मोक्षात्तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥ ११ ॥ एरण्डयन्त्रपेडासु बन्धच्छेदाद्यथा गतिः । कर्मबन्धनविच्छेदात्सिद्धस्यापि तथेष्यते ॥ १२ ॥ ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः । अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ।। १३ ॥ यथाधस्तिर्यगूज़ च लोष्टवाय्वग्निवीतयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते तथोवे गतिरात्मनाम् ॥ १४ ॥ अतस्तु गतिवैकृत्यमेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः प्रतिघाताच्च प्रयोगाच्च तदिष्यते ॥ १५ ॥ अधस्तिर्यगथोर्ध्व च जीवानां कर्मजा गतिः । उर्ध्वमेव तु तद्धर्मा भवति क्षीणकर्मणाम् ॥ १६ ॥ For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २४५ द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्पत्त्यारम्भवीतयः। समं तथैव सिद्धस्य गतिमोक्षभवक्षयाः ॥ १७ ॥ उत्पत्तिश्च विनाशश्च प्रकाशतमसोरिह । युगपद्भवतो यद्वत् तथा निर्वाणकर्मणोः ॥ १८ ॥ तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभास्वरा । प्राग्भारा नाम वसुधा लोकमूनि व्यवस्थिता ॥ १९॥ नृलोकतुल्यविष्कम्भा सितच्छत्रनिभा शुभा। ऊर्ध्व तस्याः क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिताः ॥२०॥ तादात्म्यादुपयुक्तास्ते केवलज्ञानदर्शनैः । सम्यक्त्वसिद्धतावस्थाहेत्वभावाच्च निष्क्रियाः ॥ २१ ॥ ततोऽप्यूवं गतिस्तेषां कस्मानास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परः ॥२२॥ संसारविषयातीतं मुक्तानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ॥ २३ ॥ स्यादेतदशरीरस्य जन्तोर्नष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु ॥ २४ ॥ लोके चतुविहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च ॥ २५ ॥ सुखो वह्निः सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति मन्यते ॥ २६ ॥ पुण्यकर्मविपाकाच सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षे सुखमनुत्तमम् ॥ २७ ॥ सुस्वप्नसुप्तवत्केचिदिच्छन्ति परिनिर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावत्त्वात्सुखानुशयतस्तथा ॥ २८ ।। श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च सम्भवात् । मोहोत्पत्तेविपाकाच्च दर्शनघ्नस्य कर्मणः ॥ २९ ॥ लोके तत्सदृशो ह्यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपगीयेत तद्येन तस्मानिरुपमं सुखम् ॥ ३० ॥ लिङ्गप्रसिद्धेः प्रामाण्यादनुमानोपमानयोः। अत्यन्तं चाप्रसिद्धं तद्यत्तेनानुपमं स्मृतम् ॥ ३१ ॥ प्रत्यक्षं तद्भगवतामहतां तैश्च भाषितम् ।। गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञैर्नच्छद्मस्थपरीक्षया ॥ ३२ ॥ इति ॥ इस रीतिसे अर्थात् पूर्वकथित उपायोंसे तत्त्वोंके परिज्ञान अर्थात् पूर्णरूपसे सब जीव आदि तत्त्वोंके ज्ञान होनेसे सर्वथा विरक्तताको प्राप्त इस जीवके आस्रवके अभावसे For Personal & Private Use Only ' Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नूतन ( नये ) कर्मके सन्तान (कर्मपरम्परा )के छिन्न होनेपर ॥ १॥ और यथोक्त ( शास्त्रकथित ) क्षयके निमित्तोंसे पूर्व उपार्जित कर्मोंको भी नाश करते हुए संसारका बीजभूत जो मोहनीय कर्म है वह भी सम्पूर्ण रूपसे नाशको प्राप्त हो जाता है, और इस मोहनीयके क्षीण होनेके पश्चात् ज्ञान प्रदर्शन अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराप ये तीनो कर्म एकही कालमें सम्पूर्ण रूपसे नाशको प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥ और जिस प्रकार गर्भसूचीके नाश होनेपर तालस्तंभ नष्ट होजाता है, इसी रीतिसे मोहनीय कर्मके क्षय होनेपर (शेष)कर्म स्वयं नष्ट हो जाते हैं ॥ ४ ॥ और इसके पश्चात् , अर्थात् मोहनीय तथा ज्ञानावरण आदि तीन कर्मोंके नाश होनेके अनन्तर क्षीणचतुष्का , तात्पर्य यह जिसके मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, तथा अन्तराय, ये चारो कर्म क्षीण (नष्ट ) हो गये हैं, ऐसा यह जीव कहा जाता वा होता है, और पुनः आख्यात ( यथाख्यात) संयममें प्राप्त होकर बीजबन्धनसे विनिमुक्त स्नातक तथा परमेश्वररूपही हो जाता है ॥ ५॥ और पुनः शेषकर्मफलापेक्ष अर्थात् आयुः नाम आदि शेष कर्मोंकी अपेक्षासे शुद्ध, बुद्ध, निरामय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, जिन तथा केवली 'इत्यादि पदवाच्य' होता है ॥ ६ ॥ और सम्पूर्ण कर्मोंके क्षयके पश्चात् आयुः नाम आदि सब कर्मोंके नाशके अनन्तर इस प्रकार निवार्ण (मोक्ष) दशा प्राप्त होती है, जैसे सम्पूर्ण इन्धनोंके भस्म करनेके पश्चात् उपादान सन्तति (उपादानप्रवाह)से रहित शुद्ध देदीप्यमान अग्नि ॥ ७ ॥ जैसे बीजके सर्वथा भस्म होनेके पश्चात् पुनः अङ्कुरका प्रादुर्भाव (उत्पत्तिरूप दर्शन ) नहीं होता है, ऐसेही संसारके बीजभूत कर्मोंके सर्वथा दग्ध (भस्म वा क्षय) होनेपर पुनः यह जन्मा अथवा संसाररूप अङ्कुर नहीं उपजता (जन्मता वा उत्पन्न होता) है ॥ ८॥ पुनः पूर्वकर्मोंके प्रयोगसे, असङ्ग होनेसे, बन्धनसे विनिर्मुक्त होनेसे, तथा ऊर्ध्व गतिमें गौरव धारण करनेसे आलोकान्त (लोकान्त) पर्यन्त यह जीव ऊर्ध्व गमन करता है ॥ ९॥ कुंभकारके चक्रमें, दोला ( हिंडोला वा झूलनेके यंत्र )में तथा बाणमें जैसे पूर्वप्रयोगसे भ्रमण गमन आदि क्रिया होती हैं, ऐसेही सिद्धोंके भी ऊर्ध्वगतिरूप कर्म पूर्वप्रयोगसे कहा गया है ॥ १० ॥ जैसे मृत्तिका आदिके लेपरूप सङ्गसे विनिर्मुक्त होनेपर अलाबु (तुंबीफल )की जलमें ऊर्ध्व गति दृष्ट ( देखीगई ) है, ऐसेही कर्मोंके सङ्गसे विनिर्मुक्त (छूटनेपर ) होनेसे जीवकी भी ऊर्ध्व गति होती है ॥ ११ ॥ जैसे एरण्डफलके गुच्छके बन्धनसे छूटनेपर एरण्डबीजोंकी ऊर्ध्व गति होती है, ऐसेही कर्मरूपी बन्धनसे विनिर्मुक्त होनेपर सिद्ध जीवकी भी ऊर्ध्व गति होती है ॥ १२ ॥ उत्तम जिन महात्माओंने ऐसा कहा है कि जीव ऊर्ध्वगमनमें गौरव धर्म धारण करते हैं, और पुद्गल अधोमार्गकी गतिमें गौरवधारी होते हैं ॥ १३ ॥ जैसे पाषाण, वायु, और अग्निकी गति स्वभावसे ही अधोभाग, तिर्यक्, For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २४७ तथा ऊर्ध्वभाग में क्रमसे होती हैं, ऐसेही जीवोंकी स्वभावसिद्ध गति ऊर्ध्व देशमेंही होती है ॥ १४ ॥ और पूर्वकथितके विपरीत ( विरुद्ध ) जो इन ( जीव पुद्गल आदि ) की होती है यह कर्मसे, प्रतिघातसे तथा प्रयोगसे इष्ट है ॥ १५ ॥ जीवोंकी कर्मसे अधोभाग, तिर्य्यग्भाग तथा ऊर्ध्व भागमें भी गति होती है किन्तु क्षीणकर्म जीवोंकी अर्थात् जिनके कर्म सर्वथा क्षीण होगये हैं ऐसे जीवोंकी तो स्वाभाविक गति ऊर्ध्व भाग में ही होती है, क्योंकि जीव. स्वभावसे ऊर्ध्वगति धर्मवाला है ॥ १६ ॥ जैसे द्रव्य क्रियाकी उत्पत्ति, आरम्भ, तथा नाश साथ ही होते हैं, ऐसेही सिद्धकी गति, मोक्ष तथा संसारक्षय साथ ही होते हैं ॥ १७ ॥ जैसे प्रकाशकी उत्पत्ति और अन्धकारका नाश एक कालमें ही होते हैं, ऐसेही निर्वाण ( मोक्ष ) की उत्पत्ति तथा कर्मका नाश एक ही कालमें होते हैं ॥ १८ ॥ सूक्ष्म, मनोज्ञ ( अतिरमणीय), सुगन्धपूर्ण, पवित्र, तथा परमप्रकाशमय, प्राग्भारा नाम पृथिवी इस लोकके शिरपर ( लोकाकाशके अन्तमें ऊपर ) व्यवस्थित (वर्तमान) है ॥ १९ ॥ मनुष्यलोकके समान उसका व्यास है, और यह पृथिवी श्वेत छत्रके सदृश अति शुभ ( परमशुद्ध श्वेतवर्ण) है, उसी पृथिवीके ऊपर लोकान्तमें सिद्धगति स्थित हैं ॥ २० ॥ तादात्म्यसम्बन्ध अर्थात् अभेद सम्बन्ध केवल ज्ञान और दर्शनसे उपयुक्त हैं, तात्पर्य यह कि केवल ज्ञान तथा दर्शनरूप उपयोगमय हैं, तथा सम्यक्त्व सिद्धता अवस्था सहित हैं, और कारणके अभाव से निष्क्रिय अर्थात् क्रियारहित हैं ॥ २१ ॥ यदि कदाचित् ऐसी बुद्धि हो अर्थात् उस सिद्धस्थान वा सिद्धशिलाके ऊपर भी ऊर्ध्व गति स्वभावसे सिद्ध जीवोंकी गति क्यों नहीं होती ? यदि ऐसी शङ्का हो तो, इसका उत्तर यह है कि लोकान्तके ऊपर धर्मास्तिकाय नहीं है, अतः ऊर्ध्वगति नहीं होती, और धर्मास्तिकाय गतिमें परम हेतु है ॥ २२ ॥ संसारके संपूर्ण विषयोंसे पर नाशरहित तथा अव्याबाध ( सब प्रकारकी बाधाओंसे रहित ) नित्य परम सुख मुक्त जीवोंको होता है, ऐसा परमर्षि महात्माओंने कहा है || २३ ॥ पूर्व प्रसङ्ग रहा, शरीरशून्य तथा अष्ट कर्मों ( मोहनीय आदि ) के नाशसहित जीवको वह परम सुख (मोक्षसुख ) कैसे होता है, यदि ऐसी शङ्का हो तो मुझसे सुनो, अर्थात् इस शङ्काका उत्तर सुनो ॥ २४ ॥ इस लोकमें चार पदार्थोंमें सुख शब्दका प्रयोग ( व्यवहार किया जाता है) जैसे विषयमें, वेदना ( पीडा ) के अभाव में, विपाक ( परिणाम ) में, तथा मोक्षमें ॥ २५ ॥ अनि सुख ( सुखदायक ) है, तथा वायु ( पवन सुख अर्थात् सुखकारक है ) इत्यादि रूपसे विषयोंमें सुख शब्दका प्रयोग किया जाता है, ऐसेही दुःखोंके अभावमें भी मैं सुखी स्थित हूं ऐसा पुरुष मानता है ॥ २६ ॥ तथा पुण्यकर्मोंके विपाक (फलभोगके समय ) में इन्द्रिय तथा पदार्थसे उत्पन्न सुख शब्दसे सबको इष्ट कहा जाता है, और कर्मों शोंसे विमुक्त होनेपर मोक्षमें सर्वोत्तम सुख होता है ॥ २७ ॥ For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् इस मोक्ष सुखको कोई तो उत्तम सुषुप्ति ( गाढ निद्रा ) के तुल्य परमशान्तिरूप चाहते ( मानते ) हैं, परन्तु मोक्षसुखको निद्रासदृश मानना अयोग्य है, क्योंकि सुखके सम्बन्धसे वहां पर क्रियावत्ता है ॥ २८ ॥ तथा इसकी अयोग्यता यों भी है कि इस प्रकारके सुखका सम्भव श्रम, खेद, मद, व्याधि तथा मदन (मैथुन ) से भी है, और दर्शनको नाश करनेवाले कर्मके विपाक (मोहकी उत्पत्ति ) से भी पूर्वोक्त असङ्गति सिद्ध होती है॥ २९ ॥ इस सम्पूर्ण संसारभरमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसके साथ उसकी उपमा दें, इस हेतुसे वह मोक्षसुख निरुपम अर्थात् उपमाशून्य ( सर्वोत्तम ) है ॥ ३० ॥ अनुमान तथा उपमानका प्रामाण्य लिङ्गप्रसिद्धि ( हेतुप्रसिद्धि ) से होता है; सो इनकी विषयता (अनुमान आदि विषयाभाव) से जो अत्यन्त अप्रसिद्ध है इसी लिये वह अनुपम कहा गया है ॥ ३१ ॥ और प्रत्यक्षभाव ( प्रत्यक्ष ज्ञानकी विषय ) ता प्राप्त वह अर्हत् जिनभगवानोको है, इस लिये उनसे कहा हुआ वह प्राज्ञों से ( मोक्षसुख ) ग्रहण किया जाता ( जानाजाता ) है, न कि छद्मस्थोंकी परीक्षासे उसका बोध होता है ॥ ३२ ॥ यस्त्विदानीं सम्यग्दर्शनज्ञानचरणसंपन्नो भिक्षुर्मोक्षाय घटमानः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तिः कर्मणां चातिगुरुत्वादकृतार्थ एवोपरमति स सौधर्मादीनां सर्वार्थसिद्धान्तानां कल्पविमानविशेषाणामन्यतमे देवतयोपपद्यते । तत्र सुकृतकर्मफलमनुभूय स्थितिक्षयात्प्रच्युतो देशजातिकुलशीलविद्याविनयविभव विषयविस्तरविभूतियुक्तेषु मनुष्येषु प्रत्यायातिमवाप्य पुनः सम्यग्दर्शनादिविशुद्धबोधिमवाप्नोति । अनेन सुखपरम्परायुक्तेन कुशलाभ्यासानुबन्धक्रमेण परं त्रिर्जनित्वा सिध्यतीति ॥ 1 और जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तथा चरण ( चारित्र ) से युक्त साधु मोक्षके अर्थ चेष्टा करता है, किन्तु काल, संहनन तथा आयुः के दोषसे अल्पशक्ति (न्यून सामर्थ्य ) होनेसे और कर्मोंकी अति गुरुताके कारण विना कृतार्थ हुए अर्थात् मोक्षप्राप्तिरूप कृतार्थताको न प्राप्त होकर उपराम भावको प्राप्त होता है, वह सौधर्म आदिसे लेकर सर्वार्थसिद्धपर्यन्त जो विमान विशेष हैं, उनमेंसे किसी एक में देवता होकर उत्पन्न होता है । और वहांपर सुकृत कर्मोंके अर्थात् पुण्यकर्मोंके फलको भोगकर, पुनः स्थिति काल ( जिस विमान वा देवयोनिविशेषमें जितना स्थितिका काल नियत है, उस नियत काल ) के क्षय होनेके पश्चात् वहांसे प्रच्युत होकर ( गिरनेपर ) देश ( उत्तम देश ), काल ( उत्तम काल ), जाति (सद्जाति), शील, विद्या, विनय, विभव ( अनेक प्रकारके ऐश्वर्य्य), विषय ( अनेक प्रकार के उत्तम विषयों के सुख ) तथा विस्तार ( विस्तार वा विशालता ) और विभूतियोंसे सहित मनुष्योंमें जन्म पाकर पुनः सम्यग्दर्शन आदि विशुद्ध बोधि, (सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र) को प्राप्त होता है । इस सुखपरम्परा ( सुखश्रेणि) से युक्त कुशलअभ्यासके अनुबन्धक्रमसे तीन बार इस संसार में जन्म लेकर पुनः सिद्धतादशा (मोक्षसिद्धि ) को प्राप्त होता है । For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २४९ वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः ॥ १॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥२॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कौभीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ।। ३ ॥ अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य ।। दुःखातं च दुरागमविहतमतिं लोकमवलोक्य ॥ ४ ॥ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥ ५॥ यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् । सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥६॥ जगत्प्रकाशक यशयुक्त शिवश्री नामक वाचकमुख्यके प्रशिष्य (पौत्रशिष्य,) और एकादशाङ्गवेत्ता श्रीघोषनन्दि क्षमणके शिष्य, ॥१॥ तथा वाचनारूपसे महावाचक क्षमण मुण्डपादके शिष्य प्रथित (प्रसिद्ध) कीर्ति वाचकाचार्य मूल नामके शिष्य ॥ २ ॥ स्वाति (तन्नामक पुरुष )के तनय, और वात्सी (इस नामकी स्त्री)के पुत्र, न्यायोधिका (स्थान )में उत्पन्न, कौभीषणी नाम गोत्रयुक्त कुसुमपुरमें विहार करते हुए ॥ ३ ॥ भलीभांति गुरुक्रमसे प्राप्त (गुरुपरम्परागत ) इस अमूल्य अर्हत्प्रवचन ( शास्त्र )को धारण ( जानकर) तथा दुःखोंसे पीडित और दुष्ट आगमोंसे नष्टबुद्धि संसारको देखकर ॥ ४ ॥ जीवोंके ऊपर कृपा कर नागरवाचक (नागरवाचक शाखोत्पन्न ) पूर्वकथित विशेषणयुक्त श्रीउमास्वातिने इस विशाल तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रको स्पष्ट रूपसे भाषण किया ॥ ५ ॥ जो कोई इस तत्त्वार्थाधिगम नामक शास्त्रको जानैगा, और जैसा इसमें लिखा है वैसा करैगा, वह अव्याबाध ( बाधारहित ) परमार्थ सुख, अर्थात् मोक्ष सुखको शीघ्रही पावेगा ॥ शम् ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसङ्ग्रहे दशमोऽध्यायः समाप्तः ॥ इति तत्त्वार्थधिगमेऽर्हत्प्रवचनसंग्रहे आचार्योपाधिधारि-प्रयागमण्डलान्तर्गतहरिपुरनामकवास्तव्य-पूज्यपादमहामहोपाध्यायश्रीदामोदरशास्त्रिप्रधानशिष्यठाकुरप्रसादशर्मप्रणीतभाषाऽनुवादे दशमोऽध्यायः ॥ समाप्तश्चायं ग्रन्थः॥ For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only