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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । एभिर्नामादिभिश्चतुभिरनुयोगद्वारैस्तेषां जीवादीनां तत्त्वानां न्यासो भवति । विस्तरेण लक्षणतो विधानतश्चाधिगमार्थ न्यासो निक्षेप इत्यर्थः । तद्यथा । नामजीवः, स्थापनाजीवो, द्रव्यजीवो, भावजीव इति । नाम, संज्ञा, कर्म इत्यनर्थान्तरम् । चेतनावतोऽचेतनस्य वा द्रव्यस्य जीव इति नाम क्रियते स नामजीवः ॥ यः काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते जीव इति स स्थापनाजीवो देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो, रुद्रः, स्कन्दो, विष्णुरिति ॥ द्रव्यजीव इति गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो जीव उच्यते । अथवा शून्योऽयं भङ्गः। यस्य ह्यजीवस्य सतो भव्यं जीवत्वं स्यात् स द्रव्यजीवः स्यात्। अनिष्टं चैतत् ॥भावतो जीवा औपशमिकक्षायिकक्षायौपशमिकौदयिकपारिणामिकभावयुक्ता उपयोगलक्षणाः संसारिणो मुक्ताश्च द्विविधा वक्ष्यन्ते । एवमजीवादिषु सर्वेष्वनुगन्तव्यम् ॥ विशेष व्याख्या-नाम आदि जो चार अनुयोगद्वार हैं उनके द्वारा जीवादि तत्त्वोंका न्यास होताहै, अर्थात् विस्तारसे लक्षण तथा विधान ( अर्थात् भेद संख्याआदि ) से ज्ञान होनेके लिये जो व्यवहारोपयोग है वही न्यास वा निक्षेप है । (तात्पर्य यह कि नामआदि निक्षेपोंसे न्यस्तजीवादि पदार्थों का बोध पूर्णरूपसे होता है। जैसे नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव, और भावजीव । नाम, संज्ञा और कर्म ये पर्यायवाचक अर्थात् समानार्थक हैं । चेतनावान् अथवा अचेतन द्रव्यकी व्यवहारके लिये जो जीव ऐसा नाम वा. संज्ञा की जाती है उसको नामजीव कहते हैं । और काष्ठ, पुस्तक, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप (फांसा आदिके प्रक्षेपने) में जीवरूपसे स्थापना की जाती है उसको स्थापनाजीव कहते हैं । देवताओंकी प्रतिमाके सदृश यह इन्द्र हैं, यह रुद्र हैं, तथा यह विष्णु हैं, इत्यादि रूपसे जो पाषाण वा धातु आदिकी मूर्तियोंमें स्थापना होती है; वही स्थापनाजीव कहा जाता है । गुणपर्यायरहित और अनादि पारिणामिक भावोंसे युक्त और प्रज्ञा (केवल बुद्धि मात्र) से स्थापित किया जाता है वह द्रव्यजीव है । अथवा यह भङ्ग शून्य है । जैसे अजीवरूपसे विद्यमान द्रव्यका भव्यरूपसे जीवत्व हो सकै वह द्रव्यजीव होगा, किन्तु यह अनिष्ट है। और भावसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायौपशमिक, औदयिक, तथा पारिणामिक भावोंसे युक्त और उपयोग लक्षणवाले जीव, संसारी तथा मुक्त ऐसे दो प्रकारके आगे कहे जांयगे. इसी रीतिसे अजीव आदि संपूर्ण पदार्थोमें नामादि निक्षेप विधिका अनुसरण करना चाहिये. पर्यायान्तरेणापि नामद्रव्यं, स्थापनाद्रव्यं, द्रव्यद्रव्यं, भावतोद्रव्यमिति । यस्य जीवस्याजीवस्य वा नाम क्रियते द्रव्यमिति तन्नामद्रव्यम् । यत्काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु स्थाप्यते द्रव्यमिति तत् स्थापनाद्रव्यम् । देवताप्रतिकृतिवदिन्द्रो, रुद्रः, स्कन्दो, विष्णुरिति । द्रव्यद्रव्यं नाम गुणपर्यायवियुक्तं प्रज्ञास्थापितं धर्मादीनामन्यतमत् । केचिदप्याहुर्यद्रव्यतो द्रव्यं भवति तच्च पुद्गलद्रव्यमेवेति प्रत्येतव्यम् । अणवः स्कन्धाश्च सङ्घातभेदेभ्य उत्पद्यन्त इति वक्ष्यामः । भावतो-द्रव्याणि धर्मादीनि सगुणपर्यायाणि प्राप्तिलक्षणानि वक्ष्यन्ते। आगमतश्च प्राभृतज्ञो द्रव्यमिति भव्यमाह । द्रव्यं च भव्ये । भव्यमिति प्राप्यमाह । भू Jain Education Interna konal For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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