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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
विशेषव्याख्या - माहेन्द्रकल्प में अपरा स्थिति कुछ अधिक दो सागरोपम है ॥ परतः परतः पूर्वा पूर्वानन्तरा ॥ ४२ ॥
सूत्रार्थ - माहेन्द्रकल्पके परे पूर्व अर्थात् पूर्व २ स्वर्गोंमें जो परा स्थिति है वह पर २ में जघन्या अर्थात् अपरा स्थिति होती है ।
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भाष्यम् – माहेन्द्रात्परतः पूर्वा परानन्तरा जघन्या स्थितिर्भवति । तद्यथा - माहेन्द्रे परा स्थितिर्विशेषाधिकानि सप्त सागरोमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवति । ब्रह्मलोके दश सागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तके जघन्या । एवमा सर्वार्थसिद्धादिति । ( विजयादिषु चतुर्षु परा स्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सा त्वजघन्योत्कृष्टा सर्वार्थसिद्ध इति ) ॥
विशेषव्याख्या–माहेन्द्रकल्पसे आगे पूर्व २ की
जो परा स्थिति है वह पर २
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अर्थात् आगे २ के कल्पोंमें अपरा स्थिति हो जाती है जैसे - माहेन्द्रकल्प में परा स्थिति विशेष अधिक सप्त सागरोपम है, वह ब्रह्मलोक में अपरा अर्थात् जघन्या है । ऐसेही ब्रह्मलोक में परा स्थिति दश सागरोपम है वह लान्तकमें जघन्या वा अपरा स्थिति है । इसी प्रकार पूर्व २ की परा स्थिति पर २ की जघन्या स्थिति सर्वार्थसिद्धपर्यन्त जाननी चाहिये । (विजये आदि चार विमानोंमें परा स्थिति तेंतीस सागरोपम है. वह सर्वार्थसिद्धमें अजघन्योत्कृष्टा है ।) नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ४३ ॥
सूत्रार्थ - नारक अर्थात् नरककी द्वितीया आदि भूमियोंमें भी पूर्व २ की जो परा स्थिति है वह पर २ की अपरा होती है ।
भाष्यम् –नारकाणां च द्वितीयादिषु भूमिषु पूर्वा पूर्वा परा स्थितिरनन्तरा परतः परतोऽपरा भवति । तद्यथा - रत्नप्रभायां नारकाणामेकं सागरोपमं परा स्थितिः सा जघन्या शर्करा - प्रभायाम् । त्रीणि सागरोपमाणि परा स्थितिः शर्कराप्रभायां सा जघन्या वालुकाप्रभायामिति । एवं सर्वासु । तमःप्रभायां द्वाविंशतिः सागरोपमाणि परा स्थितिः सा जघन्या महातम:प्रभायामिति ।
विशेषव्याख्याः—जैसे देवोंके कल्पविमानोंके विषयमें माहेन्द्रसे परे पूर्व २ की परा स्थिति, पर २ की अपरा होती है; ऐसेही नरककी द्वितीय (शर्करा प्रभा) आदि भूमियोंमें भी पूर्व २ की परा स्थिति, परकी भूमियोंकी अपरा वा जघन्या स्थिति है । जैसे - रत्नप्रभा में नारक जीवोंकी एक सागरोपम परा स्थिति है, वह शर्कराप्रभामें जघन्या स्थिति है । तथा
१ यहांपर यह जानना उचित है कि विजय आदि चार विमानोंमें परा स्थिति बत्तीस सागरोपम है; और सर्वार्थसिद्धमें तेंतीस सागरोपम अजघन्योत्कृष्टा है, अर्थात् वहां एकही स्थिति है; परा अपरा भेद नहीं है । और भाष्यकार सर्वार्थसिद्धमें भी जघन्या बत्तीस सागरोपम है ऐसा जो कहते हैं “आसर्वार्थसिद्धात्” उसका अभिप्राय नहीं ज्ञात होता है । कदाचित् यहां आङ् (आ) मर्यादाबोधक हो अर्थात् सर्वार्थसिद्धको छोड़के "तेन विना मर्यादा तत्सहितोऽभिविधिः” । २ विजयादिककी परा स्थिति तो बत्तीसकी (३२) कही है यहां ३३ किस अभिप्रायसे कहे यह नहीं जाना जाता । और कहीं २ कोष्ठका पाठ नहीं है । क्योंकि अर्थ
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