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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । भाष्यम्-आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेनाधिका स्थितिर्भवति नवसु अवेयकेषु विजयादिषु सवर्वार्थसिद्धे च । आरणाच्युते द्वाविंशतिप्रैवेयकेषु पृथगेकैकेनाधिका त्रयोविंशतिरित्यर्थः । एवमेकैकेनाधिका सर्वेषु नवसु यावत्सर्वेषामुपरि नवमे एकत्रिंशत् । सा विजयादिषु चतुर्वप्येकेनाधिका द्वात्रिंशत् । साप्येकेनाधिका सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिंशदिति ॥
विशेषव्याख्या-आरण तथा अच्युतके आगे नव ग्रैवेयक, विजय आदि तथा सर्वार्थसिद्ध में एक २ सागरोपम स्थितिकाल बढ़ता जाता है । जैसे-आरण और अच्युतमें तो बावीस सागरोपम स्थिति होती है यह तो कहीचुके हैं । अब उसके आगे नव ग्रैवेयकोंमें पृथक् २ एक २ सागरोपम अधिक होती जायगी । जैसे-प्रथम ग्रैवेयकमें तेवीस (२३), द्वितीयमें चौबीस, ऐसेही सबके अन्तमें नवम ग्रैवेयकमें एकतीस (३१) सागरोपम स्थितिकाल है । और विजय आदि चार अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित इन चारोंमें बत्तीस (३२) सागरोपम स्थितिकाल है । और सर्वार्थसिद्धमें वह स्थिति एक सागरोपम और अधिक होती है, अर्थात् सर्वार्थसिद्धविमाननिवासी देवोंकी तेंतीस (३३) सागरोपम होती है ॥ ३८॥ ___ अत्राह । मनुष्यतिर्यग्योनिजानां परापरे स्थिती व्याख्याते । अथौपपातिकानां किमेकैव स्थितिः परापरे न विद्यते इति । अत्रोच्यते
अब कहते हैं कि मनुष्य तथा तिर्यग्योनिज जीवोंकी परा तथा अपरा दोनों प्रकारकी स्थितिका वर्णन किया गया । अब औपपातिक अर्थात् उपपातरूप जन्मसे उत्पन्न होनेवालोंकी क्या एकही स्थिति है ? अर्थात् इनकी स्थितिमें परा अपरा भेद नहीं है ? इसपर यह अग्रिम सूत्र कहते हैं
अपरा पल्योपममधिकं च ॥ ३९ ॥ सूत्रार्थ—सौधर्म आदिमें जघन्य स्थिति पल्योपम और कुछ अधिक है।
भाष्यम्-सौधर्मादिष्वेव यथाक्रममपरा स्थितिः पल्योपममधिकं च । अपरा जघन्या निकृष्टेत्यर्थः । परा प्रकृष्टा उत्कृष्टत्यनर्थान्तरम् । तत्र सौधर्मेऽपरा स्थितिः पल्योपममैशाने पल्योपममधिकं च ॥
विशेषव्याख्या–सौधर्म आदि कल्पोंमें यथाक्रम अपरा स्थिति पल्योपम तथा किंचित् अधिक है । अपरा अर्थात् जघन्या, सबसे निकृष्ट स्थितिका तात्पर्य है । और परा अर्थात् प्रकृष्ट, उत्कृष्ट ये दोनों एकार्थवाचक हैं । परा सबसे अधिक स्थिति है. उसमें सौधर्ममें अपरा स्थिति पल्योपम है, और ऐशानकल्पमें पल्योपम (एक पल्य ) तथा कुछ अधिक है।
सागरोपमे ॥४०॥ भाष्यम्-सानत्कुमारेऽपरा स्थिति· सागरोपमे ॥ विशेषव्याख्या–सानत्कुमारकल्पमें अपरा स्थिति दो सागरोपम है ॥ ४० ॥
अधिके च ॥४१॥ भाष्यम्-माहेन्द्रे जघन्या स्थितिरधिके द्वे सागरोपमे ।।
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