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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सागरोपमे ॥ ३४॥ भाष्यम्-सौधर्मे कल्पे देवानां परा स्थितिढे सागरोपमे इति ॥ विशेषव्याख्या-सौधर्मकल्पके देवोंकी परा स्थिति दो सागरोपम है। अधिक च ॥ ३५॥ भाष्यम्-ऐशाने द्वे एव सागरोपमे अधिक परा स्थितिर्भवति ॥ विशेषव्याख्या-और ऐशानकल्पमें कुछ अधिक दो सागरोपम परा स्थिति है । सप्त सानत्कुमारे ॥ ३६॥ भाष्यम्-सानत्कुमारे कल्पे सप्त सागरोपमाणि परा स्थितिर्भवति ॥ विशेषव्याख्या–सानत्कुमारकल्पके देवोंकी सात सागरोपम परा स्थिति है । विशेषत्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि च ॥ ३७॥ सूत्रार्थ—माहेन्द्रादि कल्पोंमें इन तीन सात विशेषाधिक सागरोंसहित सात सागरोम परा स्थिति है । विशेष तीन, सात, दश, ग्यारह, तेरह, पन्द्रह सागर अधिक सागरोपम परा स्थिति माहेन्द्र आदि कल्पोंमें है। भाष्यम्-एभिर्विशेषादिभिरधिकानि सप्त माहेन्द्रादिषु परा स्थितिर्भवति । सप्तेति वर्तते । तद्यथा-माहेन्द्रे सप्त विशेषाधिकानि । ब्रह्मलोके त्रिसिरधिकानि सप्त दशेत्यर्थः । लान्तके सप्तभिरधिकानि सप्त चतुर्दशेत्यर्थः । महाशुक्रे दशभिरधिकानि सप्त सप्तदशेत्यर्थः । सहस्रारे एकादशभिरधिकानि सप्त अष्टादशेत्यर्थः । आनतप्राणतयोस्त्रयोदशभिरधिकानि सप्त विंशतिरित्यर्थः । आरणाच्युतयोः पञ्चदशभिरधिकानि सप्त द्वाविंशतिरित्यर्थः ॥ विशेषव्याख्या—यहांपर पूर्वसूत्रसे सप्तकी अनुवृत्ति आती है। इससे यह अर्थ हुआ कि विशेष अधिक सप्त सागरोपमादि परा स्थिति माहेन्द्र आदि कल्पविमानोंमें होती है । जैसे-माहेन्द्रकल्पनिवासी देवोंकी विशेष अधिक सप्त सागरोपम स्थिति होती है। ब्रह्मलोकमें तीन अधिक सप्त सागरोपम अर्थात् दश सागरोपम स्थिति होती है । लान्तकमें सप्त अधिक सप्त अर्थात् चतुर्दश (१४) सागरोपम स्थिति होती है । महाशुक्रमें दश अधिक सप्त अर्थात् सत्रह (१७) सागरोपम स्थिति होती है । सहस्रारमें एकादश (ग्यारह) अधिक सप्त अर्थात् अठारह (१८) सागरोपम स्थिति रहती है । आनत प्राणतमें त्रयोदश (तेरह) अधिक सप्त अर्थात् (२०) सागरोपम स्थिति रहती है । और आरण तथा अच्युत कल्पोंमें पंचदश (पन्द्रह) अधिक सप्त अर्थात् बावीस (२२) सागरोपम स्थिति होती है ॥ ३७॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु अवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धे च ॥ ३८॥ सूत्रार्थ-आरण और अच्युतके ऊपर नव ग्रैवेयकोंमें, विजय आदिकमें तथा सर्वार्थसिद्धमें देवोंकी स्थिति एक २ सागरोपम अधिक होती जाती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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