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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विनेयेषु ६
सूत्रार्थ-सब जीवोंमें मैत्री, गुणाधिकमें प्रमोद, क्लेशयुक्तमें करुणा, तथा अशिक्षित दुष्ट जीवोंमें औदासीन्यकी भावना करनी चाहिये ।
भाष्यम्-भावयेद्यथासङ्ख्यम् । मैत्री सर्वसत्त्वेषु । क्षमेऽहं सर्वसत्त्वानाम् । क्षमयेऽहं सर्वसत्त्वान् । मैत्री मे सर्वसत्त्वेषु । वैरं मम न केनचिदिति ॥ प्रमोदं गुणाधिकेषु । प्रमोदो नाम विनयप्रयोगो वन्दनस्तुतिवर्णवादवैयावृत्त्यकरणादिभिः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोधिकेषु साधुषु परात्मोभयकृतपूजाजनितः सर्वेन्द्रियाभिव्यक्तो मनःप्रहर्ष इति ॥ कारुण्यं क्लिश्यमानेषु । कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रह इत्यर्थः । तन्महामोहाभिभूतेषु मतिश्रुतविभङ्गाज्ञानपरिगतेषु विषयतर्षाग्निना दन्दह्यमानमानसेषु हिताहितप्राप्तिपरिहारविपरीतप्रवृत्तिषु विविधदुःखार्दितेषु दीनकृपणानाथबालमोमुहवृद्धेषु सत्त्वेषु भावयेत् । तथा हि भावयन् हितोपदेशादिभिस्ताननुगृह्णातीति ॥ माध्यस्थ्यमविनेयेषु । माध्यस्थ्यमौदासीन्यमुपेक्षेत्यनर्थान्तरम् । अविनेया नाम मृत्पिण्डकाष्ठकुड्यभूता ग्रहणधारणविज्ञानोहापोहवियुक्ता महामोहाभिभूता दुष्टावग्राहिताश्च । तेषु माध्यस्थ्यं भावयेत् । न हि तत्र वक्तुहितोपदेशसाफल्यं भवति ।
विशेषव्याख्या-मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, तथा माध्यस्थ, इन चारोंका सत्वमात्र, गुणाधिक, क्लिश्यमान, और अविनेय इन चारोंके साथ यथासंख्य है । अर्थात् सत्व आदिमें मैत्री आदिकी भावना चाहिये । जैसे-संपूर्ण जीवोंमें मैत्री ( मित्रता )की भावना करे । जैसे-सब जीवोंके अपराध आदि मैं क्षमा करता हूं और संपूर्ण जीवोंसे अपना अपराध क्षमा करता हूं । तात्पर्य यह कि-सब जीवोंपर मैं मित्रताकी दृष्टि रक्खू और सब जीव मेरे ऊपर । मेरी मित्रता संपूर्ण जीवोंमें हो और मेरा वैर (विरोध ) किसी प्राणीसे नहीं हैं ऐसी भावना करे । तथा जो अपनेसे अधिक विद्याआदि गुणसम्पन्न हैं उनमें प्रमोदकी भावना करनी चाहिये । प्रमोद कहते हैं विनयका प्रयोग अर्थात् स्तुति, वन्दना, वर्णवाद (प्रशंसा) तथा वैयावृत्यकरण अर्थात् सेवा शुश्रूषा आदि करना; सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, और तप आदिमें अधिक जो साधु हैं उनमें अन्य पुरुष तथा अपनेसे कृत जो पूजाआदि सत्कार हैं उस पूजाआदिसे उत्पन्न संपूर्ण इन्द्रियोंसे प्रकट मनका प्रहर्ष ( अधिक आनन्द) होना यही गुणाधिकोंमें प्रमोद है, सो इस प्रमोदकी भावना गुणाधिकोंमें करनी चाहिये । तथा जो क्लिश्यमान हैं अर्थात् दुःखयुक्त हैं उनमें करुणाकी भावना करनी चाहिये । कारुण्य अर्थात् अनुकम्पा, दया, दीनोंके ऊपर अनुग्रह करना है । वह कारुण्य महामोहग्रस्त, मति श्रुत विभङ्गज्ञानरूप अज्ञानसे पूर्ण, विषयरूप तृष्णाकी अग्निसे रात्रि दिन दन्दह्यमान (अत्यन्त जलते हुए ) चित्तवालोंमें कि-जिनकी प्रवृत्ति हिताहितकी प्राप्ति तथा परिहार ( त्याग) रक्षणमुपभोगेष्वतृप्तिरिति' इस भाष्यको जो सूत्र मानकर पढ़ते हैं वेह अनार्ष हैं । यदि ये दोनों सूत्र होते तो इनके अवयवोंकी व्याख्या होती, वह नहीं है इसलिये इनको सूत्र मानना यह अनार्ष है ॥
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