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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । तीव्रया त्वक्छोणितमांसानुगतया कण्डा परिगतात्मा काष्ठशकललोष्टशर्करानखशुक्तिभिर्विच्छिन्नगात्रो रुधिरार्द्रः कण्डूयमानो दुःखमेव सुखमिति मन्यते । तद्वन्मैथुनोपसेवीति मैथुनाद्वयुपरमः श्रेयान् ॥ तथा परिग्रहवानप्राप्तप्राप्तनष्टेषु काङ्क्षारक्षणशोकोद्भवं दुःखमेव प्राप्नोतीति परिग्रहाद्वयुपरमः श्रेयान् । इत्येवं भावयतो व्रतिनो व्रते स्थैर्य भवति ॥ किं चान्यत् । १५७ 1 विशेषव्याख्या - जैसे दुःख मुझे अप्रिय है और प्राणोंको शरीरसे पृथक् करना मुझे इष्ट नहीं है, ऐसेही संपूर्ण जीवोंको दुःख अप्रिय है इस हेतुसे हिंसासे उपरमही कल्याणकारी है । जैसे मिथ्याभाषणसे मुझे दुःख होता है अर्थात् मेरे विषय में यदि कोई मिथ्याभाषण करे तो मुझे अतिदुःख होता है और प्रथमभी इससे दुःख हुआ है, ऐसेही अन्य प्राणी के विषय में मिथ्याभाषण से उस अन्य प्राणीकोभी दुःख होगा इस हेतुसे मिथ्याभाषणसे विरत होनाही उत्तम है । तथा जैसे मुझे इष्ट पदार्थोंके वियोग से दुःख होता है और पूर्व हुआ भी ऐसेही यदि चोरी करके उनका इष्ट पदार्थसे वियोग कर देवेंगे तौ सब प्राणीमात्रको दुःख होगा, इत्यादि हेतुओंसे चोरीसे पृथक् होनाही कल्याणदायक है । ऐसेही रागद्वेषसे पूर्ण होनेसे मैथुनप्रसंगभी दुःखही है । कदाचित् यह कहो कि -मैथुनमें जो स्पर्शन इंद्रियसे सुख होता है वह दुःख नहीं है, सो यह कथन भी असंगत है । क्योंकि यह व्याधिका प्रतीकार अर्थात् रोगका प्रतीकार होनेसे कण्डू ( खुजली ) से व्याप्त मनुष्यको संघर्षण ( खुजलाहट ) आदिद्वारा उसको प्रतीकार (उपाय) के समान मैथुनेच्छारूप व्याधि ( रोग ) के प्रतीकारके होनेसे सुखसे रहित इस मैथुनमें स्पर्शजन्य सुखमें मूढ़ पुरुषको सुखका अभिमान है, यथार्थ में सुख नहीं होता । जैसेअतितीव्रं त्वचा रुधिर तथा मांसमें व्याप्त कण्डू ( दाह आदि खुजलाहट ) से व्याप्त प्राणी काष्ठके खण्ड से, लोहके खण्डसे, कंकणसे, तथा नख, शुक्ति ( सीप ) आदि के संघर्षण से अर्थात् इन पदार्थोंसे खुजलानेसे छिन्न शरीर और रुधिरसे व्याप्त होनेपर भी खुजलाता हुआ दुःखकोही सुख मानता है, ऐसेही मैथुनका सेवी भी दुःखको ही सुख मान बैठता है, इस हेतु से मैथुन से उपराम होनाही कल्याणकारी है । ऐसे ही परिग्रहवान् प्राणी भी अप्राप्त पदार्थ प्राप्त होनेकी आकाङ्क्षा तथा अर्जनादिसे प्राप्तके रक्षणसे और प्राप्त होकर नष्ट होनेके शोकसे उत्पन्न दुःखकोही पाता है, इन कारणों से परिग्रहसे उपराम होनाही कल्याणदायक है । इस प्रकार हिंसाआदि पंच पापोंमें दुःखकीही भावना करने से व्रतीक व्रतमें स्थिरता होती है । और भी १ शंका होसकती है कि- मैथुन तो स्पर्शद्वारा सुखकाही जनक है, उसमें स्त्रीपुरुषों में किसीको भी दुःख नहीं होता; किंतु दोनोंको सुखही होता है ? इसका उत्तर " स्यात्" इत्यादिसे देते हैं । २ यहां पर " तत्" ( सो ) इस पदसे स्पर्शजन्य सुखसे तात्पर्य है ॥ ३ " इत्येवं भावयतो०" "इस रीति से भावना करनेवाले' इत्यादि वाक्य में जो ( इत्येवं ) यह पद दिया है इससे सूत्रकी समाप्ति दर्शाई है. इससे जो कोई भाष्यकोही 'व्याधिप्रतीकारत्वात्कण्डूपरिगतत्वाञ्चाब्रह्मेति, तथाप्राप्तनष्टेषु काङ्क्षाशोकौ प्राप्तेषु च For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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