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________________ १५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् बंधन, हस्त, पाद, कर्ण, तथा नासिका और ओष्ठके छेदन-भेदन, सर्वस्वहरण, तथा वध मारणआदि पीडाओंको प्राप्त होता है और मृत्युके अनंतर अशुभ गतिको प्राप्त होता है तथा उभय लोकमें निन्दितभी होता है । इत्यादि कारणोंसे चौर्यकर्मसे निवृत्त होनाही कल्याणकारक होता, है इसी प्रकार अब्रह्मचारी अर्थात् व्यभिचारी ( परस्त्रीगामी) जन विभ्रमसे सदा उद्भान्तचित्त अर्थात् विभ्रमसे पूर्ण, इंद्रियोंकी लोलुपतासे पूर्ण अत एव मदांध हाथीके समान निरङ्कुश ( स्वेच्छाचारी) होनेसे शांतिको कदापि नहीं प्राप्त होता है और मोहग्रस्त अज्ञान वा अविवेकसे पूर्ण अकर्तव्य तथा कर्तव्यसे अनभिज्ञ, अर्थात् क्या हमारा कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है इस प्रकारके विवेकसे शून्य होनेसे कौनसे अकुशल ( दुष्ट ) कर्मका आरम्भ नहीं करता ? अर्थात् सभी दुष्कर्मोंका आरंभ करता है और इसी लोकमें परस्त्रीगमनआदिसे उत्पन्न वैरानुबंधसे लिङ्गच्छेदन, वध, बंधन, तथा द्रव्यादिके अपहरणआदि अनेक क्लेशोंको प्राप्त होता है, इस प्रकारके अनेकविध पूर्ण क्लेशोंको भोगकर मरणके पश्चात् परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है और उभय लोकमें निन्दित होता है, इत्यादि हेतुओंसे परस्त्रीआदिगमनसे निवृत्त होनाही कल्याणकारक है । और ऐसेही परिग्रहवान् प्राणीभी तस्करों ( चोरों )से अभिगमनीय (प्रापणीय वा लूटनेके योग्य ) होता है, जैसे मांस लिये हुए साधारण पक्षी अन्य मांसाहारी जीवोंसे तथा धनके उपार्जन, रक्षण वा नाशसे उत्पन्न अनेक दुःखोंको प्राप्त होता है और कितना ही धनका संग्रह करे परन्तु धनोंसे इसकी तृप्ति ऐसे नहीं होती जैसे इंधनोंसे अग्निकी, तथा अतिपरिग्रहके लोभसे ग्रस्त होनेके काण कर्तव्य अकर्तव्यके विवेकसेभी शून्य हो जाता है और मृत्युके अनंतर अशुभ गतिको प्राप्त होता है और यह प्राणी अतिलोमी है इस प्रकार निन्दितभी होता है, इत्यादि हेतुओंसे परिग्रहसे उपरत ( अलग ) होना ही कल्याणदायक है । इत्यादि भावना करनेसे अहिंसादि बहुत दृढ होते हैं ॥ ४ ॥ और भी दुःखमेव वा ॥५॥ सूत्रार्थ-अथवा 'हिंसाआदि पांच पापोंमें दुःखही दुःख है' ऐसी भावना करनी चाहिये । । भाष्यम्-दुःखमेव वा हिंसादिषु भावयेत् ॥ यथा ममाप्रियं दुःखमेवं सर्वसत्त्वानामिति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् ॥ यथा मम मिथ्याभ्याख्यानेनाभ्याख्यातस्य तीव्र दुःखं भूतपूर्व भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति अनृतवचनाद्वयुपरमः श्रेयान् ॥ यथा ममेष्टद्रव्यवियोगे दुःखं भूतपूर्व भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति स्तेयाद्वयुपरमः श्रेयान् ॥ तथा रागद्वेषात्मकत्वान्मैथुनं दुःखमेव । स्यादेतत्स्पर्शनसुखमिति तच्च न । कुतः । व्याधिप्रतीकारत्वात्कण्डूपरिगतवच्चाब्रह्मव्याधिप्रतीकारत्वादसुखे ह्यस्मिन्सुखाभिमानो मूढस्य। तद्यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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