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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १५५ सूत्रार्थ - हिंसादिक जो पांचो हैं उनमें इस लोक तथा परलोकमें भी अपाय (श्रेय - स्कर कार्योंके नाश) का प्रयोग तथा अवद्य ( निंदा) दर्शनकी भावना करै ॥ ४ ॥ भाष्यम् — हिंसादिषु पञ्चस्वास्रवेष्विहामुत्र चापायदर्शनमवद्यदर्शनं च भावयेत् । तद्यथा । हिंसायास्तावत् हिंस्रो हि नित्योद्वेजनीयो नित्यानुबद्धवैरश्च । इहैव वधबन्धपरिशादीन्प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् ॥ तथानृतवाद्यश्रद्धेयो भवति । इहैव जिह्वाछेदादीन्प्रतिलभते मिथ्याभ्याख्यानदुःखितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यस्तदधिकान्दुःखहेतून्प्राप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीत्यनृतवचनायुपरमः श्रेयान् ।। तथा स्तेनः परद्रव्यहरणप्रसक्तमतिः सर्वस्योद्वेजनीयो भवतीति । इहैव चाभिघातवधबन्धनहस्तपादकर्णनासोत्तरौष्ठच्छेदनभेदन सर्वस्वहरणवध्ययातनमारणादीन्प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति स्तेयाद्व्युपरमः श्रेयान् । तथाऽब्रह्मचारी विभ्रमो - द्भ्रान्तचित्तः विप्रक्रीर्णेन्द्रियो महान्धो गज इव निरङ्कुशः शर्म नो लभते । मोहाभिभूतश्च कार्याकार्यानभिज्ञो न किंचिदकुशलं नारभते । परदाराभिगमनकृतांश्च इहैव वैरानुबन्धलिङ्गच्छेदनवधबन्धनद्रव्यापहारादीन्प्रतिलभतेऽपायान्प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीत्यब्रह्मणो व्युपरमः श्रेयानिति । तथा परिग्रहवान् शकुनिरिव मांसपेशीहस्तोऽन्येषां क्रव्यादशकुनानामिव तस्करादीनां गम्यो भवति || अर्जनरक्षणक्षयकृतांश्च दोषान्प्राप्नोति । न चास्य तृप्तिर्भवतीन्धनैरिवार्लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति । प्रेत्य चाशुभां गतिं प्राप्नोति लुब्धोऽयमिति च गर्हितो भवतीति परिग्रहाद्वयुपरमः श्रेयान् ॥ किं चान्यत् 1 विशेषव्याख्या - हिंसा तथा मिथ्याभाषणादि पांचोंके आस्रवोंमें इस लोकमें तथा मृत्युके पश्चात् परलोक में अपायदर्शन तथा अवद्यदर्शनकी भावना करे । अर्थात् हिंसादिके विषे इस लोकमें तथा परलोकमें भी श्रेयःप्रणाश तथा निंदायुक्तकी दृष्टि रक्खे, कि ये जीवके श्रेष्ठ कार्यों के नाशक तथा निंद्यके जनक हैं । जैसे- हिंसाकारी जीव नित्यही भय उद्वेगादिसे नित्य प्राणियों में बद्धवैर होता है । अत एव हिंसाशील जीव इसी लोकमें वध तथा तथा बंधन आदि क्लेशोंको प्राप्त होता है, और मृत्युके अनंतर परलोकमें अशुभगतिको प्राप्त होता है और उभय लोकमें निन्दित भी होता है, इत्यादि कारणोंसे हिंसा से निवृत्ति होना ही कल्याणकारक है । इसी प्रकार असत्यवादी भी इस लोक में विश्वासके अयोग्य होता है । और यहांही पर राजा आदिके द्वारा जिह्वा आदिके छेदन तथा कारागृह क्लेशोंको प्राप्त होता है और मिथ्याकथनसे दुःखित लोगोंसे सदा बद्धवैर होनेसे उनके द्वारा उनसेभी अधिक दुःख हेतुओं को प्राप्त होता है, मरणके अनंतर अशुभ गतिको प्राप्त होता है और उभय लोकमें निन्दितभी होता है, इत्यादि हेतुओं से मिथ्याभाषणसे उपरम होनाही कल्याणकारक है, इसी प्रकार चोरी करनेवाला प्राणीभी दूसरोंके द्रव्यके अपहरण करनेमें आसक्तबुद्धि होनेसे सबसे उद्वेजनीय अर्थात् त्रास भयआदिके पात्र होता है और इसी लोकमें राजा तथा चोरीसे दुःखित जनोंसे ताडित वध, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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