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________________ ___सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १५९ अर्थात् हितकी प्राप्ति, अहितका परिहार इनमें विपरीत है, तथा जो नानाप्रकारके दुःखोंसे दुःखी हैं उनपर तथा दीन, कृपण, अनाथ, बाल तथा अत्यन्त मोही वृद्ध जीवोंपर करनी चाहिये तथा ऐसी भावनाका चिन्तवन करता हुआ उनको हितोपदेशादिकके द्वारा अनुग्रहीतभी करे । और अविनेयोंमें माध्यस्थ्य अर्थात् उदासीनता रखनी चाहिये । माध्यस्थ्य उदासीनता तथा उपेक्षा, ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं। जो मृत्तिकाके पिण्डके समान वा काष्ठ, भित्ति वा पाषाणके समान उपदेशादिके ग्रहण धारणमें असमर्थ, विज्ञान तथा ऊहापोह (प्रतिभा वा कल्पनाशक्ति )से रहित हैं, और महामोहसे ग्रस्त अथवा किसी पदार्थको दुष्टता वा विपरीतरूपसे ग्रहण किये हैं वा किसीसे विपरीत ग्रहण कराये गए हैं, वे अविनेय हैं । ऐसे जीवोंके विषयमें उदासीनताकी भावना करे । क्योंकि ऐसे जीवोंको उपदेश देनेसे वक्ताके हितोपदेशकी सफलता नहीं होती ॥ ६॥ किं चान्यत् । और यह भी है। __ जगत्कायखभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् ॥ ७ ॥ सूत्रार्थ-संवेग तथा वैराग्यकी प्राप्तिके लिये जगत् तथा काय (शरीर)के स्वभावोंकी भावना करनी चाहिये ॥ ७ ॥ __ भाष्यम्-जगत्कायस्वभावौ च भावयेत् संवेगवैराग्यार्थम् । तत्र जगत्स्वभावो द्रव्याणामनाद्यादिमत्परिणामयुक्ताः प्रादुर्भावतिरोभावस्थित्यन्यतानुग्रहविनाशाः । कायस्वभावोऽनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारताऽशुचित्वमिति ॥ एवं ह्यस्य भावयतः संवेगो वैराग्यं च भवति । तत्र संवेगो नाम संसारभीरुत्वमारम्भपरिग्रहेषु दोषदर्शनादरतिधर्मे बहुमानो धार्मिकेषु च धर्मश्रवणे धार्मिकदर्शने च मनःप्रसाद उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तौ च श्रद्धेति ॥ वैराग्यं नाम शरीरभोगसंसारनिर्वेदोपशान्तस्य बाह्याभ्यन्तरेषूपाधिष्वनभिष्वङ्ग इति ॥ विशेषव्याख्या-संवेग और वैराग्यके अर्थ जगत् व कायके स्वभावोंकी भावना करै। उनमें प्रथम जगत्के स्वभावके विषयमें कहते हैं, जगत्के स्वभाव यह हैं किसम्पूर्ण द्रव्योंके अनादि तथा आदिमान् परिणामोंसे युक्त प्रादुर्भाव (प्रकट होना), तिरोभाव (लुप्त होना), अवस्थिति (पदार्थोंकी कुछ कालस्थिति), परस्पर उपकार तथा विनाश, ऐसी भावना करे । और कायस्वभाव क्या है कि-शरीरकी अनित्यता, दुःखोंकी हेतुता, निःसारता, तथा मलादिसे युक्त होनेके कारण अपवित्रतादि । इस रीतिसे भावना करनेवाले जीवके संवेग तथा वैराग्य होते हैं । उनमेंसे संवेग नाम संसारसे भीरुता (भय वा डर), आरम्भ परिग्रहादि दोषोंके देखनेसे अरुचि, धर्ममें बहुमान, तथा धार्मिक प्राणियोंमें धर्मके श्रवणमें तथा धार्मिक पुरुषोंके दर्शनमें मनकी प्रसन्नता, और उत्तरोत्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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