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________________ २०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् यह अशुचि है। और इस शरीर के अशुचि होनेमें अन्य हेतु यह भी है कि - यह अशुभपरिणाम पाकाऽनुबन्ध होनेसे भी अशुचि है; क्योंकि गर्भाशय में बिन्दु अर्थात् वीर्यरूप बिन्दुके आधान ( गर्भाधान ) समयसे आरम्भ करके कलल ( शुक्रशोणितके संयोगसे गर्भकी अवस्थाविशेष), अर्बुद (पिण्डाकार होनेको आरूढ ), पेशी (मांसपिण्डाकार ), घन ( काठिन्ययुक्त मांसपिण्ड),व्यूह(हस्तपादआदिकी रचनासहित गर्भकी अवस्थाविशेष), सम्पूर्ण गर्भ, कौमारयौवन, तथा स्थविर अर्थात् वृद्धमान आदिका जनक ( उत्पादक ) जो अशुभ परिणामविपाक है उससे अनुबद्ध (सम्बद्ध ) दुर्गन्धयुक्त ( सड़नेका स्वभाव होनेसे अति दुर्गन्धसहित ) और दुःखमय अन्त होने से यह शररि अशुचि है । और अन्य यह भी है कि अशक्य प्रतीकार ( जिसका असाध्य उपाय है ऐसे ) हेतुसे भी यह शरीर अशुचि ( अपवित्र ) है | अशक्यप्रतीकार इसका आशय यह है कि उबटनसे निर्मलीकरण, रूक्षण ( रूखा करना ), स्नान, अनुलेपन, धूप, प्रघर्षण ( नखआदिसे घर्षण ) और सुगन्धित इतर तैल आदिके संयोग तथा पुष्पमाला धारण आदि युक्तियोंसे भी इस शरीर की अपवित्रताको दूर नहीं कर सकते, क्योंकि यह अशुचिरूप ही है, और अपने सम्बन्धसे पवित्रताका उपघातक (नाशक) है। इसलिये पूर्वोक्त हेतुओंसे यह शरीर अशुचि है; ऐसा चिन्तन करना चाहिये । क्योंकि इस प्रकार शरीरको चिन्तन करनेवाले जीवको शरीरमें ग्लानि तथा वैराग्य उत्पन्न होता है | निर्वेद ( ग्लानि वा वैराग्य ) सहित होनेसे वह जीव शरीर के नाश तथा मोक्षकी प्राप्तिके लिये चेष्टा करता है, इस रीति से यह षष्ठ अशुचित्वानुप्रेक्षा कही गई ॥ ६ ॥ आस्रवानिहामुत्रापाययुक्तान्महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णानकुशल । गम कुशलनिर्गमद्वार भूतानि - न्द्रियादीनवद्यतश्चिन्तयेत् । तद्यथा । स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्तचित्तः सिद्धोऽनेकविद्याबलसंपन्नोऽप्याकाशगोऽष्टाङ्गमहानिमित्तपारगो गार्ग्यः सत्यकिर्निधनमाजगाम । तथा प्रभूतयवसोदकप्रमाथावगाहादिगुणसंपन्नवनविचारिणश्च मदोत्कटा बलवन्तोऽपि हस्तिनो हस्तिबन्धकीषु स्पर्शनेन्द्रियसत्तचित्ताग्रहणमुपगच्छन्ति । ततो बन्धवधद्मनवाहनाङ्कुशपाणिप्रतोदाभिघातादिजनितानि तीव्राणि दुःखान्यनुभवन्ति । नित्यमेव स्वयूथस्य स्वच्छन्द प्रचारसुखस्य वनवासस्यानुस्मरन्ति तथा मैथुनसुखप्रसङ्गादाहितगर्भाश्वतरी प्रसवकाले प्रसवितुमशक्नुवन्ती तीव्रदुःखाभिहतावशा मरणमभ्युपैति । एवं सर्वे एव स्पर्शनेन्द्रियप्रसक्ता इहामुत्र च विनिपातमृच्छन्तीति ॥ तथा जिह्वेन्द्रियप्रसक्ता मृतहस्तिशरीरस्थस्रोतोवेगोढवायसवत् हैमनघृतकुम्भप्रविष्टमूषिकवत् गोष्ठप्रस कहदवासिकूर्मवत् मांसपेशीलुब्धश्येनवत् बडिशामिषगृद्धमत्स्यवच्चेति ॥ तथा प्राणेन्द्रियप्रसक्ता ओषधिगन्धलुब्धपन्नगवत् पललगन्धानुसारिमूषिक वच्चेति ॥ तथा चक्षुरिन्द्रियप्रसक्ताः स्त्रीदर्शनप्रसङ्गादर्जुनकचोरवत् दीपालो - कलोलपतङ्गवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । तथा श्रोत्रेन्द्रियप्रसक्तास्तित्तिरकपोतकपिञ्जलवत् गीतसंगीतध्वनिलोलमृगवद्विनिपातमृच्छन्तीति चिन्तयेत् । एवं हि चिन्तयन्नावनिरोधाय घटत इति आस्रवानुप्रेक्षा ॥ ७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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