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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २०३ 1 कारण क्या है कि-आहारके परिणाम आदि । क्योंकि - शरीर उत्पन्न होनेके पश्चात् आहारसे ही पालित होता है, इससे उत्तर कारण आहार है, और उस आहारके परिणाम अशुचि हैं । जैसे-कवलाहार ग्रस्त होते ही अर्थात् मुखमें डालकर गलेके नीचे निगलनेके पश्चात् ही श्लेष्माशय (कफ) के स्थानको प्राप्त होकर श्लेष्माके समान द्रवीभूत होकर अत्यन्त अपवित्र होजाता है । उसके अनन्तर पित्ताशय अर्थात् जहांपर पित्त रहता है ऐसे उदरके अन्तर्गत स्थानविशेषको प्राप्त होकर पाकको प्राप्त होता हुआ अम्ल ( खट्टे ) रूप रसको प्राप्त होकर अत्यन्तही अशुचि ( अपवित्र ) हो जाता है । पुनः उसके अनन्तर परिपक्क अर्थात् जीर्ण होकर वाताशय ( वातके स्थानविशेष ) को प्राप्त होकर वह आहार वातके द्वारा पृथक् २ भागोंमें विभक्त किया जाता है । अर्थात् वायुसे आहारका खलभाग पृथक् हो जाता है, और रसभाग पृथक् हो जाता है । अर्थात् तिल सर्षप आदिको यन्त्र में ( कोल्हू में ) डालके पेरनेसे जैसे खल भाग अलग होता है और रस ( तेल ) भाग अलग होता है, यही दशा भुक्त आहारकी भी पित्तके द्वारा परिपाकदशामें प्राप्त होकर वायुसे खल (स्थूल ) भाग अलग हो जाता है और रसभाग अलग होजाता है । उसमें भी खलभागसे तो मूत्र, मल (विष्ठा ) आदि मल उत्पन्न होते हैं । और रससे शोणित ( रुधिर ) परिणाम होता है, अर्थात् रस रुधिररूप में परिवर्तित ( बदल ) जाता है; रुधिरसे मांस, मांससे मेदा अर्थात् मांससे जन्य और अस्थि (हड्डी ) का कारण धातुविशेष उत्पन्न होता है, मेदासे अस्थि, और अस्थिसे मज्जा ( अस्थिजन्य शुक्रका कारण धातुविशेष ) उत्पन्न होता है; और मज्जा से शुक्र अर्थात् वीर्य उत्पन्न होता है । यह श्लेष्मासे लेकर शुक्रपर्यन्त सब अर्थात् रसादिशुक्रान्त सप्त धातु अत्यन्त अशुचि ( अपवित्र ) हैं । इसलिये आदि तथा उत्तर शरीरके कारण अपवित्र होनेसे शरीर अपवित्र है । और यह अन्य भी शरीर के अशुचित्वमें हेतु है । जैसे- अशुचिभाजनत्वरूप हेतुसे भी यह शरीर अशुचि है; अशुचिभाजन इसका यह अर्थ है कि - अशुचि वस्तुओंका पात्र होनेसे शरीर अपवित्र है । अशुचि वस्तुओंका पात्र शरीर इस प्रकार है कि - कर्ण (कान), नासिका, नेत्र, तथा दांतोंके मल, प्रस्वेद ( पसीना ), कफ, पित्त, मूत्र तथा विष्ठा आदि मलोंका यह आश्रयस्थान है अत एव स्वयम् अपवित्ररूप ही है । और यह अन्य भी हेतु है कि - यह शरीर अशुच्युद्भव है; अशुच्युद्भव इसका यह अर्थ है कि - अशुचि जो नासिका नेत्र आदि सप्त ऊपरके छिद्रोंसे और दो नीचेके छिद्रोंसे मल उत्पन्न होते हैं उनका उद्भव अर्थात् उत्पत्तिस्थान है, अथवा अशुचि जो गर्भ है उससे यह शरीर उत्पन्न होता है. इस हेतुसे 1 १ श्लेष्माशय, पित्ताशय, तथा वायुका आशय ये तीन श्लेष्मा, पित्त, तथा वायु जिन तीन धातुओंसे शरीरकी स्थिति व क्रिया होती है उनके रहनेके स्थान विशेष हैं । ये तीनों भुक्त आहारको श्लेष्मास्थिति से क्रमशः वीर्यदशातक पहुँचाते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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